Friday, December 12, 2014

प्रश्न - राष्ट्रीय ग्रन्थ क्या होना चाहिए ? वेद या गीता ??

प्रश्न - राष्ट्रीय ग्रन्थ क्या होना चाहिए ? वेद या गीता ??

उत्तर - गीता ही राष्ट्रीय ग्रन्थ होना चाहिए , जो धूर्त आर्य समाजी लोग हिन्दू धर्म के विषय में इतने अज्ञानी हैं कि स्वयं "हिंदुत्व " इस शब्द पर ही लोगों को निराधार तथ्यों से अक्सर भ्रमित करते रहते हैं | इस प्रकार के लोग जो वेद को राष्ट्रीय ग्रन्थ घोषित करने की मांग कर रहे हैं , इसके पीछे इनकी अपनी सनातन धर्म विरोधी मानसिकता लादने की बहुत गहरी साजिश काम कर रही है | उन असुरों को ये तक नहीं मालूम कि वेद कहते किसे हैं | 

अनंता वै वेदाः - इस शतपथ वचन के अनुसार वेद अनन्त हैं | इन मूर्ख समाजियों का चार संहिताओं मात्र को वेद कहना अर्धकुक्कुटी न्याय जैसा है , क्योंकि संहिता , ब्राह्मण , आरण्यक और उपनिषदों से लेकर समस्त उपवेद भी वेद नाम से गृहीत होते हैं | 


वेदों को संकुचितता का जामा पहनाकर देकर अपना म्लेच्छ सिद्धान्त हिन्दू समाज पर हावी करने की साजिश रचाने वाले समाजी असुरों से सावधान रहें !!!!
हिन्दू कभी किसी फर्जी महर्षि दयानंद की नहीं अपितु वास्तविक महर्षि वेदव्यास की सुनकर चलते हैं -


एकं शास्त्रं देवकीपुत्रगीतमेको देवो देवकीपुत्र एव |

एको मन्त्रस्तस्य नामानि यानि कर्माप्येकं तस्य देवस्य सेवा || 

इन साजिशकर्ता असुरों के विरुद्ध हर सनातनी को अपनी-अपनी भूमिका से शंखनाद करना चाहिए |

जय श्री कृष्ण !!!
|| जय श्री राम ||

 

Sunday, August 3, 2014

महान संत रविदास जी और मीरा बाई जी , सिकन्दर लोदी का एक उतम प्रसंग

महान संत रविदास जी और मीरा बाई जी , सिकन्दर लोदी का एक उतम प्रसंग..

महाराणा परिवार की महारानी मीरा को कौन नहीं जानता --? वे चित्तौड़ से चलकर काशी आयीं और रामानंद स्वामी से निवेदन किया कि वे उन्हें अपना शिष्य बना ले स्वामी जी ने वहीँ बैठे संत रविदास की ओर इशारा करते हुए कहा तुम्हारे योग्य गुरु तो संत रविदास ही है महारानी मीरा ने तुरंत ही संत रविदास की शिष्या बन गयी और वे महारानी मीरा से कृष्णा भक्त मीराबायी हो गयी इससे बड़ा समरसता का उदहारण कहाँ मिलेगा, उन्हें भगवान कृष्ण का साक्षात्कार हुआ ये संत रविदास की ही कृपा है संत रविदास चित्तौड़ किले में कई महीने रहे उसी का परिणाम है आज भी पश्चिम भारत में बड़ी संख्या में रविदासी हैं.

संत रविदास का चमत्कार बढ़ने लगा इस्लामिक शासन घबड़ा गया सिकंदरसाह लोदी ने सदन कसाई को संत रविदास को मुसलमान बनाने के लिए भेजा वह जनता था की यदि रविदास इस्लाम स्वीकार लेते हैं तो भारत में बहुत बड़ी संख्या में इस्लाम मतावलंबी हो जायेगे लेकिन उसकी सोच धरी की धरी रह गयी स्वयं सदन कसाई शास्त्रार्थ में पराजित हो कोई उत्तर न दे सके और उनकी भक्ति से प्रभावित होकर उनका भक्त यानी वैष्णव (हिन्दू) हो गया उसका नाम सदन कसाई से रामदास हो गया, दोनों संत मिलकर हिन्दू धर्म के प्रचार में लग गए जिसके फलस्वरूप सिकंदर लोदी क्रोधित होकर इनके अनुयायियों को चमार यानी चंडाल घोषित कर दिया ( तब से इस समाज के लोग अपने को चमार कहने लगे) उनसे कारावास में खाल खिचवाने, खाल-चमड़ा पीटने, जुती बनाने इत्यादि काम जबरदस्ती कराया गया उन्हें मुसलमान बनाने के लिए बहुत शारीरिक कष्ट दिए गए लेकिन उन्होंने कहा -----

''वेद धर्म सबसे बड़ा, अनुपम सच्चा ज्ञान,

फिर मै क्यों छोडू इसे, पढ़ लू झूठ कुरान.

वेद धर्म छोडू नहीं, कोसिस करो हज़ार,

तिल-तिल काटो चाहि, गोदो अंग कटार'' (रैदास रामायण)

यातनाये सहने के पश्चात् भी वे अपने वैदिक धर्म पर अडिग रहे, और अपने अनुयायियों को बिधर्मी होने से बचा लिया, ऐसे थे हमारे महान संत रविदास जिन्होंने धर्म, देश रक्षार्थ सारा जीवन लगा दिया इनकी मृत्यु चैत्र शुक्ल चतुर्दसी विक्रम सम्बत 1584 रविवार के दिन चित्तौड़ में हुआ, वे आज हमारे बीच नहीं है उनकी स्मृति आज भी हमें उनके आदर्शो पर चलने हेतु प्रेरित करती है आज भी उनका जीवन हमारे समाज के लिए प्रासंगिक है, हमें यह ध्यान रखना होगा की आज के छह सौ वर्ष पहले चमार जाती थी ही नहीं, इस समाज ने पद्दलित होना स्वीकार किया, धर्म बचाने हेतु सुवर पलना स्वीकार किया, लेकिन बिधर्मी होना स्वीकार नहीं किया आज भी यह समाज हिन्दू धर्म का आधार बनकर खड़ा है, हिन्दू समाज में छुवा-छूत, भेद-भाव, उंच-नीच का भाव था ही नहीं ये सब कुरीतियाँ इस्लामिक काल की देन है, हमें इस चुनौती को स्वीकार कर इसे समूल नष्ट करना होगा यही संत रविदास के प्रति सच्ची भक्ति होगी.

Sunday, July 20, 2014

वेद व्यास जी वर्णसंकर नहीं


वेद व्यास जी पर वर्णसंकर आक्षेप का जबाब (वेद व्यास जी वर्णसंकर नहीं)
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अक्सर मैं देखता आया हूँ हमारे परम पूज्य वेद व्यास जी पर आक्षेप किया जाता है कि वो वर्णसंकर थे? लेकिन वास्तविकता कितनी अलग है देखिये?

वर्णव्यवस्था के अनुसार ब्राह्मण दम्पति की संतान ब्राह्मण कहलाती है, क्षत्रिय दम्पति की संतान क्षत्रिय कहलाती है इसी प्रकार वैश्य और शुद्र दम्पति की संतान क्रमशः वैश्य और शुद्र कहलाती है इसके अलावा एक वर्ण के व्यक्ति द्वारा अन्य किसी भी वर्ण (अपने वर्ण से भिन्न) या जाती की स्त्री से जन्मी संतान वर्णसंकर कहलाती है जैसा कि आक्षेप महर्षि वेदव्यास जी पर लगाया गया है!! देखें-

सवर्णेभ्यः सवर्णासु जायन्ते हि सजातयः। (-याज्ञवल्क्य स्मृति आचाराध्याय 4/90)

अर्थ- सवर्ण(पुरुषोँ) द्वारा प्रशस्त (ब्राह्म आदि) विवाहोँ से ग्रहण की गयी सवर्णा (समान वर्ण) की स्त्रियोँ मेँ उत्पन्न पुत्र सजाति (उसी वर्ण के ) होते हैँ |

वेद व्यास जी पर शंका
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ये सर्वविदित है कि वेदव्यास की के पिता मुनि पराशर एक विशुद्ध ब्राह्मण थे! अतः अब अज्ञानी शंका उठाते हैं उनकी माता सत्यवती जिन्हें मत्स्यगंधा भी कहते हैं उन पर तो उनकी शंका के निवारण हेतु पहले सत्यवती जी कौन थी यह जानना आवश्यक है! 

सत्यवती महाभारत की एक महत्वपूर्ण पात्र है। उसका विवाह हस्तिनापुरनरेश शान्तनु से हुआ। उसका मूल नाम 'मत्स्यगंधा' था। वह ब्रह्मा के शाप से मत्स्यभाव को प्राप्त हुई "अद्रिका" नाम की अप्सरा के गर्भ से उपरिचर वसु द्वारा उत्पन्न एक कन्या थी। इसका ही नाम बाद में सत्यवती हुआ। (महाभारत आदिपर्व)
अब विचारणीय तथ्य है कि -
मत्स्यगंधा (सत्यवती) अप्सरा की पुत्री थीं चूँकि अप्सरा देवकन्या होती है और देवों में कोई भी वर्ण व्यवस्था नहीं होती अतः देखिये इस विषय में आद्य जगद्गुरु श्री शंकराचार्य जी अपने गीता भाष्य (अध्याय ४.१३) में कहते हैं -

मानुष एव लोके वर्णाश्रमादिकर्माधिकारः । नान्येषु लोकेष्विति नियमः किं निमित्तः ? इति । 

अथवा वर्णाश्रमादिप्रविभागोपेता मनुष्या मम वर्त्मानुवर्तन्ते सर्वश [गीता ४.११] इत्युक्तं कस्मात्पुनः कारणान्नियमेन तवैव वर्त्मानुवर्तन्ते, नान्यस्य किम् ? उच्यते!!

यानी इससे सिद्ध होता है कि देवताओं में कोई वर्ण व्यवस्था नहीं होती |
अब मनुस्मृति की आज्ञा देखिये-
पुमानपुंसोऽधिके शुक्रे स्त्रीभवत्यधिके स्त्रियाः ।
समेऽपुमान्पुंस्त्रियौ वा क्षीणेऽल्पे च विपर्ययः।। (३.४९)

अर्थात्- पुरुष के वीर्य अधिक हो तो पुत्र और स्त्री (माता) का रज अधिक हो तो कन्या होती है और दोनोँ का बराबर हो तो नपुंसक या पुत्र पुत्री दोनोँ पैदा होँ व दोनोँ का न्यून होवै तो गर्भ नहीँ रहता !

अतः कन्या मेँ मातृप्रधानता होती है और पुत्र मेँ पितृप्रधानता अर्थात् कन्या मातृअंश का प्रबल उत्कर्ष रहता है किँतु पुत्र मेँ पितृ अंश का !

इसके अनुसार मत्स्यगंधा अपनी मातृ अंशको ग्रहण करेंगी इस प्रकार वो भी देव कन्या ही हुयीं!!

अब बात आती है वेदव्यास जी की चूँकि उनकी माता देवकन्या हुयीं और उनके पिता विशुद्ध ब्राह्मण और माता देवकन्या होने के कारण वर्ण से मुक्त होंगी फिर मनुस्मृति के उसी श्लोक के अनुसार वेद व्यास जी में पितृ अंश प्रबल होगा अतः वे विशुद्ध ब्राह्मण ही होंगे!!!!

इस प्रकार महर्षि वेदव्यास विशुद्ध ब्राह्मण स्पष्ट हैं ||

||जय श्री राम ||

Tuesday, July 8, 2014

जहां भगवान शिव ने दिया भष्मासुर को वरदान


जहां भगवान शिव ने दिया भष्मासुर को वरदान




हिमाचल प्रदेश के कुल्लू क्षेत्र में समुद्रतल से करीब 18,000 फुट की ऊंचाई पर एक एक शिवलिंग स्थित है। इस शिवलिंग को श्रीखंड महादेव के नाम से जाना जाता है। श्रीखंड महादेव की यात्रा इतनी कठिन है कि शारीरिक तौर पर पूरी तरह स्वस्थ व्यक्ति ही बड़ी मुश्किल से यहां तक पहुंच सकता है।

श्रीखंड महादेव के रास्ते में 32 किलोमीटर का सफर इतना कठिन है कि घोड़ा और खच्चर भी नहीं चल सकता। यहां श्रद्घालुओं को अपने हौसलों और भगवान शिव के नाम के सहारे ही सफर तय करना होता है। फिर भी हजारों की संख्या में श्रद्घालु जान जोखिम में डालकर श्रीखंड महादेव के 72 फीट ऊंचे शिवलिंग के दर्शन करने आते हैं।

श्रीखंड महादेव के प्रति इस श्रद्घा का कारण उस कथा से जुड़ा हुआ है जिसमें भगवान शिव के प्राण भगवान विष्णु के मोहिनी रूप ने बचाया था। यहीं भगवान शिव ने भष्मासुर को यह वरदान दिया था कि जिसके सिर पर हाथ रखोगे वह भष्म हो जाएगा। भष्मासुर का अंत होने के बाद यहां श्रीखंड महादेव का वर्तमान शिवलिंग प्रकट हुआ था।



Wednesday, April 16, 2014

वेद में मूर्ति पूजा के प्रमाण

वेद में मूर्ति पूजा के प्रमाण -
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वेदों में ईश्वर उपासना दो रूपों में प्रचलित है साकार तथा निराकार। निराकारवादी प्रायः साकार उपासना या मूर्ति पूजा का विरोध करते है तथा केवल निराकारोपासनापरक 'न तस्य प्रतिमा अस्ति ' आदि वचनों को उद्धृत करके ही एकतरफा निर्णय करके संतुष्ट हो जाते हैं पर वे यह भूल जाते है कि ऋषि मनीषियों ने दोनोँ उपासना पद्धतियों का निर्माण मनुष्य के बौद्धिक स्तर की अनुकूलता के अनुरूप किया है। जिस व्यक्ति का बौद्धिक स्तर जितना ऊंचा है उसे उसी ढंग की उपासना पद्धति का निर्देश गुरुजन देते है। जिस व्यक्ति का बौद्धिक विकास मध्य श्रेणी का है शास्त्रों के स्वाध्याय से भी वह वंचित है उसे यदि निराकार उपासना की दीक्षा दी जाय तो उसे उस उपासना से कोई लाभ न होगा, क्योंकि उसकी अन्तः चेतना का इतना विकास नहीं हुआ है कि ईश्वर के वास्तविक निराकार तत्व को समझ सके। यदि एक निर्बल बौद्धिक स्तर वाले व्यक्ति से यह कहा जाय कि ईश्वर सर्वव्यापक है परन्तु वह इन स्थूल नेत्रों से दृष्टिगोचर नहीं होता उसका कोई रंगरूप नहीं है तो निश्चित रूप से उसकी बुद्धि ईश्वर के अस्तित्व को ही मानने से इनकार कर देंगी।

चूँकि सामान्य बौद्धिक स्तर वाले व्यक्तियों के लिये अध्यात्म के सूक्ष्म तथ्यों पर ध्यानावस्थित होना कठिन होता है इसलिये मानव मनोविज्ञान के ज्ञाता ऋषियों ने प्रतीक

पूजा की मूर्ति पूजा की प्रथा चलाई ताकि उस मूर्ति को माध्यम बनाकर वह उस अनन्त को साकार रूप में अपने सामने देख सके। निराकार ब्रह्म का मानसचित्र बनाना सबके लिये संभव नहीं। यदि प्रतीकवाद या मूर्ति पूजा का आरंभ न होता। तो आज विश्व की अधिकांश जनसंख्या नास्तिक होती क्यों कि अशिक्षित और पिछड़े स्तर के जनमानस में ईश्वर के निराकार तत्व पर विश्वास ही न होता। केवल उपासना थोड़े से उच्चकोटि के विचारकों तत्ववेत्ताओं और योगियों तक ही सीमित रह जाती ओर मानव जाति का आत्मिक विकास रुक जाता धार्मिक सम्प्रदायों का निर्माण न होता और धर्म के व्यापक विस्तार के बिना समाज में घोर अनास्था और अव्यवस्था फैली होती।

देव प्रतिमा से प्रतीक से साधक को यह विश्वास हो जाता है कि जिन गुणों से सम्पन्न ईश्वर को वह पाना चाहता है, अथवा जिन गुणों को अपने में विकसित करना चाहता है वह मूर्ति उसके समक्ष उपस्थित है। ध्यान धारणा के माध्यम से वह उसे अपनी अन्तःचेतना में बिठाकर एकाकार हो जाता है। ध्यान की परिपक्वता में पहुँचने पर उसे सब ओर उसी की छाया दिखायी देती है वह अणु अणु में समाया हुआ मिलता है उसे अपने इष्ट के अतिरिक्त और कुछ दिखायी नहीं देता। यह वह अवस्था है जब प्रतीक पूजा के माध्यम से साधक का आत्मिक स्तर विकसित होने लगता है और वह सब प्राणियों में अपने प्रभु का ही दर्शन करता है और अपने में सबका उद्देश्य होता है। यहाँ आकर उसकी प्रारंभिक मूर्ति उपासना छूट जाती है और वह समस्त चलती फिरती प्रतिमाओं को अपने ईश्वर का ही रूप मानने लगता हैं। जब उपासना का स्तर स्थूल से सूक्ष्म हो जाता है तब वह निराकार तत्व की उपासना के योग्य होता है क्योंकि स्तर की अनुकूलता में ही शक्ति के विकास का रहस्य निहित है। स्तर की प्रतिकूलता में अच्छे परिणामों की आशा करना असंभव है। यह भी ठीक है कि प्रतिमा पूजा से अन्तिम लक्ष्य तक पहुँचना संभव नहीं क्योंकि ईश्वर सूक्ष्म है और सूक्ष्म को प्राप्त करने के लिये उससे एकाकार होने के लिये अपनी अन्तःचेतना का उतना ही सूक्ष्म बनाना होगा जितना कि वह है अन्यथा अपने लक्ष्य में निराशा ही होगी।

वस्तुतः मूर्ति पूजा ईश्वर उपासना का आरंभिक शिक्षा सत्र है। यह चित्त शुद्धि का मानसिक परिष्कार का सरल साधन है। इसमें अपने इष्टदेव का ध्यान सुविधाजनक होता है निराकार उपासना कष्टसाध्य है जैसा कि कृष्ण भगवान ने गीता 12 /5-6 में निर्देश दिया है कि जो सबके मूल अचल अव्यक्त सर्वव्यापी अचिन्त्य ओर नित्य अक्षर ब्रह्म की उपासना सब इन्द्रियों को रोककर सर्वत्र सम बुद्धि रखते हुये करते है वे भी मुझे ही पाते है। परन्तु उनके चित्त अव्यक्त में आसक्त रहने के कारण उनको क्लेश अधिक होते है क्योंकि अव्यक्त उपासना का मार्ग कष्ट से सिद्ध होता है। इसका अभिप्राय यह है कि साधक सब इन्द्रियों को जीतकर और सभी प्राणियों के प्रति सम बुद्धि व्यावहारिक भावना बनाकर ही उस निराकार उपासना का अधिकारी बनता है। यदि आरंभिक साधक के लिए सूक्ष्म और असीम की उपासना निर्धारित कर दी जाय तो वह अंधकार में ही टटोलता रहेगा और भटक जायेगा। क्योंकि केनोपनिषद 1/3 के अनुसार वहाँ न तो चक्षु पहुँचता है, व वाणी पहुँचती है और न मन ही पहुँच सकता है। वह ज्ञात पदार्थों से भिन्न है और अज्ञात से भी परे है। ऐसी स्थिति में तत्ववेत्ता ऋषियों ने निश्चय किया कि सीमित बुद्धि वाले साधक सीधे असीम की उपासना करने से ही असीम तक पहुँच पायेंगे। ईश्वर या देवप्रतिमायें आस्था की, श्रद्धाभावना की उन्नायक मानी गयी हैं और वे साधक की पवित्र भावनाओं को तददेव तक पहुँचाती भी है। श्रद्धासिक्त भावना के उन्नयन से आत्मा का सम्बन्ध उस चैतन्य सत्ता से हो जाता है तो अणु-अणु में व्याप्त है।

इस तथ्य की पुष्टि पाश्चात्य मनोवैज्ञानिकों ने भी की है। अपने प्रसिद्ध ग्रंथ “दि रिलीजंस एटीच्यूड” में मूर्धन्य मनीशी वुडवर्न ने लिखा है, कि मूर्ति का यथार्थ महत्व प्रतीकात्मक होता है और इसका प्रभाव विषेशतः ऐसे व्यक्तियों की चेतना पर पड़ता है जिन्होंने मानसिक प्रतिमाओं का प्रयोग करना नहीं सीखा है। अर्थात् जिसका मानसिक स्तर पर्याप्त रूप से विकसित नहीं हुआ है। सुप्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक नाइट ने भी अपनी कृति “सिम्बाँलिकल लैंग्वेज ऑफ एनषियेण्ट आर्ट एण्ड माइथाँलाँजी” में कहा है कि मूर्ति पूजकों का यह विश्वास था कि दैवी-सत्य, प्रतीक में छिपा रहता है, पहेली और कल्पित आख्यायिकाओं में प्रच्छन्न रहता है। यह निर्बल मानवीयता को समयानुकूल रखता है बशर्ते कि यह ज्ञान और मूल दर्शन में प्रदर्शित हो।’ इससे स्पष्ट है कि आधुनिक मनोविज्ञान भी इस मूलभूत सिद्धान्त को स्वीकार करता है कि सामान्य मानसिक स्तर वाले व्यक्तियों के लिए प्रार्थना व पूजा के लिए कोई दृश्य चित्र या प्रतिमा की आवश्यकता अनिवार्य है। (-अखण्ड ज्योति Dec 1992 )

मनोवेत्ताओं का कहना है कि जड़पूजा तो मनुष्य का प्रकृति प्रदत्त स्वभाव है। जल, वायु, पृथ्वी, सूर्य, चन्द्रमा को वेदों में देवता कहा है, क्योंकि वह निरन्तर अपनी शक्तियों से हमें लाभान्वित करते रहते हैं। उनके बिना हमारा जीवन असंभव है, इसलिए जड़ होते हुए भी हम उनकी पूजा, उपासना करते हैं। इन जड़ पदार्थों में स्वयमेव कोई शक्ति नहीं है। उस आद्यशक्ति के कारण ही इनमें प्राणप्रद गुणों का समावेश हो पाया है। ईश्वर निराकार है। वह स्थूल नेत्रों से दिखाई नहीं देता। उसके अनेकों दिव्य गुण हैं। वह गुणों का समुच्चय है और तदनुरूप ही उसकी अनन्त शक्तियां हैं। उन शक्तियों के अनुसार आचार्यों ने उसे साकार रूप में ढाल लिया है। मूर्ति पर फूल चढ़ाते हुए यह कोई नहीं सोचता कि वह पत्थर की पूजा कर रहा है, वरन् यह भाव रहता है कि इसमें व्याप्त जो चैतन्य शक्ति है, वह ही हमारी श्रद्धा की पात्र है। प्रतिमा की उपासना करने वाला जानता है कि वह उस सर्वव्यापी ईश्वर की ही उपासना कर रहा है।

श्रद्धाशक्ति इस पवित्र भावना से उसकी आत्मा का संबंध सर्वव्यापी चैतन्य सत्ता से हो जाता है। मूर्ति साधक के विश्वास को बढ़ाती है कि यही ईश्वर है। विश्वास की पूर्णता ही उसे आदि विद्युत धारा से मिला देती है। इस मिलन से साधक को जो अपार आनन्द की अनुभूति होती है, वही ईश्वर प्राप्ति की ओर बढ़ने का चिन्ह माना जाता है। सूक्ष्म तक स्थूल की सीधी पहुँच नहीं है। स्थूल को स्थूल का ही अवलम्बन लेना पड़ता है। अतः मूर्तिपूजा स्वाभाविक व प्राकृतिक है।

वेद स्वयं स्थूल उपासना का प्रतिपादन करते हैं। अग्नि उपासना से सम्बन्धित उनमें सैकड़ों मंत्र उपलब्ध हैं। ऋग्वेद के मन्त्रों में उल्लेख है कि “अग्नि उपासना से कल्याण होता है। अग्नि उपासना के बिना मुक्ति की प्राप्ति असंभव है।” अग्नि उपासक के हृदय में परमात्मा का तेज प्रकाशित होता है। अन्य शास्त्रों में अग्नि को ब्रह्मरूप कहा गया है, परन्तु अग्नि तो जड़ है। उसके माध्यम से चैतन्य की प्रसन्नता प्राप्त करने में साधक कैसे सफल हो सकता है। अग्नि स्थूल पदार्थों को सूक्ष्म बनाकर देवताओं को अर्पण करती है। मूर्तिपूजा भी साधक की पवित्र भावनाओं को उदात्त बनाकर इष्टदेव तक पहुँचाती है। इन दोनों में कुछ भी अन्तर नहीं हैं। यदि अग्नि उपासना वैदिक है तो मूर्तिपूजा भी वैदिक माननी पड़ेगी। वेद स्वयं मूर्तिपूजा का प्रतीक दृष्टिगोचर होते हैं क्योंकि उन्हें ईश्वर प्रदत्त ज्ञान माना जाता है। अनेक वेद-मंत्र इसकी साक्षी देते है। अथर्ववेद 3/10/3 में उल्लेख है-

“संवत्सरस्य प्रतिमा याँ त्वा रात्र्युपास्महे। सा न आयुश्मतीं प्रजाँ रायस्पोशेण सं सृज॥”

अर्थात् “ हे रात्रे ! संवत्सर की प्रतिमा ! हम तुम्हारी उपासना करते हैं। तुम हमारे पुत्र-पौत्रादि को चिर आयुष्य बनाओ और पशुओं से हमको सम्पन्न करो।”

अथर्ववेद 2/13/4 में प्रार्थना है- एह्याश्मा तिष्ठाश्मा भवतु ते तनूः ० “हे भगवान! आइये और इस पत्थर की बनी मूर्ति में अधिष्ठित होइये। आपका यह शरीर पत्थर की बनी मूर्ति हो जाये।”

मा असि प्रमा असि प्रतिमा असि | [तैत्तीरिय प्रपा० अनु ० ५ ] 

हे महावीर तुम इश्वर की प्रतिमा हो |

सह्स्त्रस्य प्रतिमा असि | [यजुर्वेद १५.६५]

हे परमेश्वर , आप सहस्त्रो की प्रतिमा [मूर्ति ] हैं |

अर्चत प्रार्चत प्रिय्मेधासो अर्चत | (अथर्ववेद-20.92.5) 

हे बुद्धिमान मनुष्यों उस प्रतिमा का पूजन करो,भली भांति पूजन करो |

ऋषि नाम प्रस्त्रोअसि नमो अस्तु देव्याय प्रस्तराय| [अथर्व ० १६.२.६ ]

हे प्रतिमा,, तू ऋषियों का पाषण है तुझ दिव्य पाषण के लिए नमस्कार है |

गणपति अथर्व शीर्षम् की फलश्रुती है-

"सूर्यग्रहे महानद्यां प्रतिमासन्निधौ वा जप्त्वा सिद्धमनत्रो भवति ।।"

- सूर्यग्रहणके समय महानदीमें अथवा ***प्रतिमाके*** निकट इस उपनिषद्का जप करके साधक सिद्धमन्त्र हो जाता है ।

इसी प्रकार देवी अथर्वशीर्षम् की फलश्रुती है -

निशीथे तुरीयसन्ध्यायां जप्त्वा वाक्सिद्धिर्भवति । नूतनायां प्रतिमायां जप्त्वा देवतासान्निध्यं भवति । प्र्ाणप्रतिष्ठायां जप्त्वा प्राणानां प्रतिष्ठा भवति ।।

प्रतिमा में शक्ति का अधिष्ठान किया जाता है, प्राणप्रतिष्ठा की जाती है। सामवेद के 36 वें ब्राह्मण में उल्लेख है-

“देवतायतनानि कम्पन्ते दैवतप्रतिमा हसन्ति। रुदान्त नृत्यान्त स्फुटान्त स्विद्यन्त्युन्मालान्त निमीलन्ति॥

अर्थात्- देवस्थान काँपते हैं, देवमूर्ति हँसती, रोती और नृत्य करती हैं, किसी अंग में स्फुटित हो जाती है, वह पसीजती है, अपनी आँखों को खोलती और बन्द भी करती है।

“कपिल तंत्र” में इस भाव की पुष्टि करते हुए कहा गया है-”जिस तरह गाय के सारे शरीर में उत्पन्न होने वाला दुग्ध केवल उसके स्तनों के द्वारा ही बाहर निकलता है, इसी तरह परमात्मा की सर्वव्यापक शक्ति का अधिष्ठान मूर्ति में होता है। इस तरह से साधक यह विचार करता है कि वह उस पत्थर निर्मित मूर्ति की उपासना नहीं कर रहा है, वरन् वह उस अनन्त शक्ति की पूजा कर रहा है जो उस मूर्ति में विद्यमान है। बाह्य दृष्टि से दिखाई देता है कि वह प्रतिमा की पूजा कर रहा है परन्तु वास्तव में तो वह उस सर्वव्यापी शक्ति की उपासना कर रहा होता है।

आधुनिक विज्ञान भी इसका समर्थन करता है। साधक के भक्ति, विश्वास और पूजा की शक्ति को यदि विषम-शक्ति मानें और ईश्वर की शक्ति को सम तो निश्चय रूप से साधक की विषमशक्ति परमात्मा की समशक्ति को मूर्ति के माध्यम से आकर्षित कर लेती है। विषय और सम शक्तियों के मिलन से ही विद्युतधारा का प्रवाह दृष्टिगोचर होता है और प्रकाश की उत्पत्ति होती है। इसी तरह से साधक की अन्तःचेतना भी जगमगा उठती है।

मूर्तिपूजा-प्रतीक उपासना के पीछे एक सुदृढ़ मनोविज्ञान काम करता है। आधुनिक मनोविज्ञानी भी मूर्ति की आवश्यकता को अनुभव करते हैं और मानते हैं कि असीम ही सीमित होकर प्रदर्शित होता है। सुविख्यात मनोविज्ञानी कार्लाइल के अनुसार वास्तविक प्रतीक में जिसे ऐसा सम्बोधन किया जाता है, सदैव स्पष्ट और प्रत्यक्ष रूप से असीम का रहस्योद्घाटन होता है। इसमें निराकार का संयोजन साकार में होता है जिससे वह दृष्टिगत हो सके और प्राप्त हो सके। विद्वान अर्बन ने भी अपनी कृति-”लैग्वेज ऐण्ड रियलिटी” में प्रतिमा उपासना के लाभों का विवेचन करते हुए लिखा है कि धार्मिक प्रतीक या प्रतिमायें सीमित और अन्तरदृश्ट्यात्मक सम्बन्धों से उद्भूत की गयी है। (-अखण्ड ज्योति Dec 1992 ) इनसे ऐसे तथ्यों की अभिव्यक्ति होती है जो अधिक सार्वभौम और आदर्श सम्बन्धों के लिए है, जिनकी अभिव्यक्ति विस्तार अधिक होने से और आदर्शवादिता के कारण सीधे नहीं की जा सकती। अन्यान्य मनोवैज्ञानिकों ने इस तथ्य की पुष्टि करते हुए लिखा है-भारतीय मन्दिरों में शिव, विष्णु, बुद्ध, महावीर आदि की मूर्तियाँ आदर्श को स्थूल रूप देने के उद्देश्य से स्थापित की गयी है। सूक्ष्म रूप में बिना दृश्य वस्तु के, जो इनका प्रतिरूप है, कल्पना करने पर आदर्श अस्पष्ट रह जाता है। उदाहरण के लिए जैन धर्म में 24 तीर्थंकरों का पूजन मूर्ति रूप में इस कारण प्रचलित नहीं है कि यह मूर्तियाँ ईश्वर के रूप में है, क्योंकि जैनधर्म में ईश्वर का अस्तित्व ही स्वीकार नहीं किया है। वस्तुतः वे आदर्श की प्रतीक हैं, जहाँ पहुँचना व्यक्ति का लक्ष्य होता है। स्थूल प्रतीक की यही महत्ता होती है।


आधुनिक मनोवैज्ञानिकों का दृढ़ मत है कि मूर्ति पूजन की प्रथा इसलिए चली कि इनसे प्रेरणा मिलती है और उस प्रेरणा के साथ शक्ति और विश्वास मिलती है और उस प्रेरणा के साथ शक्ति और विश्वास छिपा रहता है। जिस किसी अवतार, देवता या महापुरुष की साधक पूजा करता है, उसके साथ उसके जीवन की महानताएँ या तत्सम्बन्धी कथायें अवश्य जुड़ी रहती हैं। प्रतिमा के सामने आते ही वह सभी दृश्य नेत्रों के सामने तैरने लगते हैं और साधक उस महान विभूति से अपने का संबंधित करके उसकी महानताओं और विशेषताओं से अपने मन मन्दिर को जगमगाता अनुभव करता है। तादात्म्य हो जाने पर अपनी अन्तरात्मा को वह परमात्म चेतना से एकाकार कर देता है। साधक का तद्रूप बनना उसकी भावना पर निर्भर करता है। मूर्तिपूजा से जीवन निर्माण की सूक्ष्म प्रक्रिया आरंभ होती है, जो साधक को उच्च कक्षा में ले जाती है। इस तरह प्रतीक पूजा लाभप्रद ही नहीं, बुद्धि सुलभ भी हैं।

|| जय श्री राम ||

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Tuesday, April 15, 2014

वेद में शूद्रों के वेद पढ़ने का निषेध -

वेद में शूद्रों के वेद पढ़ने का निषेध -
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१ -यथेमां वाचं कल्याणीमावदानी जनेभ्यः | ब्रह्मराजन्याभ्याम शूद्रायचार्याय च स्वाय चारणाय च| यजुर्वेद (२६ -२ )


२- स्तुता मया वरदा वेदमाता प्रचोदयन्ती पावमानी द्विजानाम् | आयुः प्राणं प्रजां पशुं कीर्तिं पृथिव्यां द्रविणं ब्रह्मवर्चसं | मह्यं दत्वा व्रजत ब्रह्मलोकम् |(अथर्व०१९/71/१)

१- यथेमां वाचं कल्याणी० इस मन्त्र को भ्रामक रूप में प्रस्तुत कर आर्य समाजियों ने न जाने कितना उत्पात मचाया | चलो एक क्षण के लिए सनातन धर्म का जातिवादी मत मत मानो ; दयानंद के अनुसार तो जो वेद पढ़ने में असमर्थ हो उसे शूद्र (मूर्खात्वादिगुणविशिष्ट पुरुष ) कहते हैं | फिर भला वेदमन्त्र शूद्र को वेद पढ़ने का अधिकारी कैसे कहेंगे ?? कभी विचार किया ?

जन्मना जायते शूद्रः - ये कहाँ का श्लोकांश है जानते हो ?? ...मनु स्मृति ?? नही ! पुराण का है और पुराण स्पष्ट शूद्र के लिए वेद पढने का निषेध करते हैं |

२- स्तुता मया वरदा वेदमाता० इस मन्त्र में स्पष्ट द्विजों के लिए वेदवाणी की प्रवृत्ति स्पष्ट हुई है क्योंकि जो द्विज होगा वही वेद का अधिकारी होगा |

दोनों मन्त्रों में ''वाचं'' और ''वेद '' दो शब्द स्पष्ट हैं | वाचं के अंतर्गत समस्त वैदिक वाङ्मय ग्रहण किया जा सकता है | इतिहास तथा पुराण भी वाङ्मय के अंतर्गत हैं ; जिसे शूद्र भी श्रवण कर सकते हैं तो इस प्रकार वैदिक वाङ्मय के अंतर्गत शूद्र का समावेश हो जाता है किन्तु वेद शब्द के अंतर्गत ये बात नही इसलिए स्तुता मया वरदा वेदमाता० यह वेदमन्त्र केवल द्विजों के लिए वेद की प्रवृत्ति दर्शा रहा है |

अतः शूद्र को वेद पढने का अधिकार नही |

||जय श्री राम ||



प्रश्न- केवल शूद्र के लिए ही वेद का निषेध क्यों किया गया ?

उत्तर- वैदिक विज्ञान के अनुसार किसी भी जीव को उसके पूर्वजन्म के कर्मों (प्रारब्ध) के

प्रभाव से शूद्रवंश या ब्राह्मण वंश आदि में पैदा होने का भाग्य मिलता है | हम जैसा कर्म

करते हैं उसी के अनुरूप भगवान द्वारा हमारा आगामी जन्म निश्चित होता है | यही

प्रकृति का नियम है |

शूद्र्वंश का शरीर रजः प्रधान तमो गुण का विक्षेप होता है , जिसमे तमः संस्पर्श होने

से परम पवित्र अपौरुषेय तथा अलौकिक वेदध्वनि का प्रतिस्थापन नही किया जा

सकता| इसीलिये शास्त्रों में बार-बार उनके लिए वेद का निषेध हुआ है |

अतः उनके लिए हमारे परम करुणामय महान ऋषि -मुनियों ने इतिहास (रामायण/

महाभारत ) तथा पुराणों के श्रवणादि की संस्तुति की ताकि उन शूद्र शरीर वाले जीवों

का भी आत्मोद्धार हो सके |

||जय श्री राम ||

Saturday, April 5, 2014

कलियुग के लक्षण सुनिए

हे गरड जी, कलियुग के लक्षण सुनिए:
बादहिं सूद्र द्विजन्ह सन हम तुम्ह ते कछु घाटि।
जानइ ब्रह्म सो बिप्रबर आँखि देखावहिं डाटि।।99(ख)।।
अर्थात् शूद्र ब्राह्मणों से विवाद करते हैं और कहते हैं कि हम क्या तुमसे कुछ कम हैं? 'जो ब्रह्म को
जानता है वही श्रेष्ठ ब्राह्मण है' ऐसा कहकर शूद्र ब्राह्मणों को डाँटकर आँखें दिखाते हैं.
जे बरनाधम तेलि कुम्हारा। स्वपच किरात कोल कलवारा।।
नारि मुई गृह संपति नासी। मूड़ मुड़ाइ होहिं सन्यासी।।
ते बिप्रन्ह सन आपु पुजावहिं। उभय लोक निज हाथ नसावहिं।।
बिप्र निरच्छर लोलुप कामी। निराचार सठ बृषली स्वामी।।
सूद्र करहिं जप तप ब्रत नाना। बैठि बरासन कहहिं पुराना।
सब नर कल्पित करहिं अचारा। जाइ न बरनि अनीति अपारा।।
अर्थात् तेली, कुम्हार, चाण्डाल, भील, कोल और कलवार आदि जो वर्णों में नीच हैं, स्त्री के मरने
पर अथवा घर की संपत्ति नष्ट हो जाने पर सिर मुँड़ाकर संन्यासी हो जाते हैं. वे अपने को
ब्राह्मणों से पुजवाते हैं और अपने ही हाथों दोनों लोक नष्ट करते हैं. ब्राह्मण अनपढ़, लोभी, कामी,
आचारहीन, मूर्ख और नीची जाति की व्यभिचारिणी स्त्रियों के स्वामी होते हैं. शूद्र नाना प्रकार के
जप, तप और व्रत करते हैं तथा ऊँचे आसन पर बैठकर पुराण कहतेहैं. सब मनुष्य मनमाना
आचरण करते हैं. इस अपार अनीति का वर्णन नहीं किया जा सकता.
-श्रीरामचरित मानस |
[उत्तर कांड]
धन्य है गोस्वामी जी , क्या वर्णन किया , एकदम सटीक _/\_
श्री राम जय राम जय जय राम |

Wednesday, March 26, 2014

एकमात्र असली धर्म



हमारा सनातन हिन्दू धर्म सबसे महान है | यही वो एकमात्र असली धर्म है , जो हमेशा 

से था , हमेशा से है और हमेशा ही रहेगा ! जिसे आज तक दुनिया की कोई ताकत नहीं 

मिटा सकी , न आज ही मिटा पा रही है और न आगे ही मिटा पायेगी !!! ..........



मुझे गर्व है कि मैं ऐसे दिव्य सनातन हिन्दू धर्म का अनुयायी हूँ! 

जय हिंदुत्व !!

||जय श्री राम ||

Tuesday, March 25, 2014

वेद पुस्तक नहीं

वेद को पुस्तक का दर्जा देकर दयानंद प्रभृत कतिपय सनातन धर्म विरोधी आक्षेपकारों ने वेदों की मर्यादा एवं इनके महत्त्व को भुलाकर इनके अपार गौरव को आहत करने की कुचेष्टा की है | जिनके नव्यमतावलम्बी कतिपय छद्म उदारवादि अनुयायियों ने वैदिक संस्कृति की मर्यादाओं को तार- तार करते हुए अपनी ईर्ष्या को लोकप्रियता में परिवर्तित करने के लिए स्त्री , शूद्र , द्विजेबंधुओं के साथ -साथ वर्णसंकरों , कुलगोत्रादिपारम्पर्यत्वविहीन म्लेच्छों तक को वेद का अधिकारी घोषित करने का जो कुकृत्य किया है , उस कुकृत्य ने हमारे सनातन (हिन्दू ) धर्म की नयी पीढी के अंतःकरण में " रूढ़िवादी नियमों की जंजीरों में बंधा तथाकथित सनातन (हिन्दू ) धर्म वर्गविशेष की साजिशों का परिणाम है" ; इस आधारहीन मानसिकता को जन्म दिया है जिससे वर्णाश्रम लक्षण वाले हमारे वैदिक धर्म को अपार क्षति हुई | स्थिति ये है कि आज हमारा हिन्दू समाज वेदों के मौलिक स्वरूप एवं इसकी मर्यादाओं से काफी दूर आ चुका है और आये दिन एक नया ज्ञानलवदुर्विदग्ध हमारी प्राचीन संस्कृति की अजस्र परम्पराओं को कटघरे में खडा कर स्वय को प्रखर प्रज्ञा संपन्न , धर्मवेत्ता और पंडित मानता हुआ सनातन (हिन्दू) धर्म को धूमिल करने में ही अपने को स्वनामधन्य समझता है | ऐसी विकृत मानसिकता के विरुद्ध हम सभी विशुद्ध हिन्दुत्ववादी ऋषि-संतानों को एकजुट होकर प्रखर विरोध का शंखनाद करते हुए इनको हमारी सांस्कृतिक अस्मिता और हमारे स्वाभिमान का स्वरूप दर्शन कराते हुए इनका दिमाग ठिकाने पर लाना होगा || |

| जय श्री राम ||

शिवलिंग -रहस्य

'शिवलिंग -रहस्य ''
________________

प्रश्न- क्या शिवपुराण वर्णित शिवलिंग अश्लीलता है ?

उत्तर- 'सर्गश्च प्रति सर्गश्च वंशो मन्वन्तराणि च । वंशानुचरितं चैव पुराणं पञ्च लक्षणम् ।।

यह पुराण का लक्षण कहा गया है | अतः अपने लक्षण के अनुकूल सर्ग (सृष्टिविद्या ) के प्रसंग का

, उनके परस्पर व्यवहारों , आपसी संबंधों का वर्णन करना उचित ही है | शिव पुराण में वर्णित

भगवान शिव सृष्टि की उत्पादिका शक्ति हैं , न की कोई मनुष्य | उनके सच्चिदानन्दमय

श्रीविग्रह को मानव शरीर के अनुरूप अनुमान करना सर्वथा गलत है | अतः उनके अलौकिक

चिन्मय लिंगादि प्रभृत दिव्य अंगो की सृष्टि निर्माण में भूमिका, अचिन्त्य प्रभाव, अप्रतिम

लीला-विलासों का वर्णन अत्यंत गूढ़ सृष्टि विद्या है | जलचर, थलचर , नभचर यहां तक कि

स्थावर वृक्षादि प्रभृत भी सृष्टि का कोई भी प्राणी हो , वह लौकिक माता-पिता की भूमिका में

कामजन्य सम्भोग के माध्यम से संतानोत्पत्ति जैसे बिना तत्तद्विशिष्ट लिंग-योनि के (भले

बाहरी रूप भिन्न हो ) संभव नही , यानी जनक और संवाहक की भूमिका सर्वत्र है वैसे ही

सृष्ट्योत्पादन करते हुए प्रजा का विस्तार भी बिना दिव्य लिंग- योनि के सर्वथा असंभव है |

इसीलिये ब्रह्म संहिता कहती है-

लिंगयोन्यात्मिकाजाता इमा माहेश्वरी प्रजा |

ख़ास बात ये है कि मानव शरीर के मांस -चरम से निर्मित लिंग -योनि रूप अंगों का अन्य

शरीरांगों से स्वगतभेद होता है किन्तु सजातीय, विजातीय और स्वगत - त्रिविधभेदशून्य होने के

कारण सच्चिदानन्दमय अलौकिक लिंग साक्षात विशुद्ध परमात्मतत्व है |

<पारमार्थिकतया शिवलिंग और शिव में अंगांगिभावसम्बन्ध नहीं अपितु पूर्णतः
अद्वैत स्थिति है >

इसलिए श्री लिंगभगवान को ब्रह्ममुरारिसुरार्चित माना गया है अर्थात् ब्रह्मा

, विष्णु से लेकर सारे देवता लिंग भगवान का ध्यान करते हैं| महामूर्ख लोग शिव लिंग की तुलना

मांस-चर्म के मानवीय लिंगों की भांति करके अलौकिक परमात्मा का अपराध कर बैठते हैं |

अब थोड़ा खडी बोली में कहें तो-

भगवान का शरीर भी भगवान ही है , हाथ भी उतना ही पूर्ण भगवान ही है , नाक , कान,गला, बाल

, लिंग , गुदा , पीठ, पेट सब पूर्ण भगवान ही है, जब ऐसा आश्चर्यमय भगवत्तत्व है तभी तो

वो ""भगवान"" हैं , जिनका पार बड़े-बड़े ऋषि -मुनि, देवता यहाँ तक कि स्वयं वेद भी नहीं पा पाते

हैं | इसलिए वेद बारबार कहते हैं कि हे मनुष्यों भगवान को जानने की जिज्ञासा करो ! उनकी कृपा

पाने के लिए उनका भजन करो !तब तुम उनको किंचित समझ पाओगे !


............. शिव पुराण के सृष्टि विद्या प्रकरणों में अश्लीलता देखने वाले किसी मूर्ख आर्य

समाजी को कदाचित् सौभाग्य से कुछ पढ़ने -लिखने का मौक़ा मिल जाए तो वो बायोलॉजी

(जीव-विज्ञान ) की किताब के साथ न जाने क्या न्याय कर बठेगा ? 

धर्म की जय हो !

अधर्म का नाश हो !

जय शिव शंकर |

Thursday, February 6, 2014

वृन्दावन की प्राचीनता

वृन्दावन की प्राचीनता :- 
श्रीमद् भागवत में वृन्दावन का उल्लेख नन्दादिगोपों द्वारा श्रीकृष्ण सहित गोकुल को छोड़कर वृन्दावन गमन करने के समय आता है जहाँ कि श्रीकृष्ण द्वारा अनेकानेक अद्भुत लीलाएँ की गई थीं। श्रीकृष्ण जी के प्रपौत्र ने समस्त लीला स्थलियों को प्रतिष्ठापित किया तथा अनेक मन्दिर, कुण्ड एवं सरोवरों आदि की स्थापना की थी। सन् १५१५ ई. में श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु वृन्दावन पधारे। इसके अतिरिक्त स्वामी हरिदासजी, श्री हित हरिवंश, श्री निम्बार्काचार्य, श्रीलोकनाथ, श्री अद्वेताचार्यपाद, श्रीमान्नित्यानन्दपाद आदि अनन्य अनेकों संत-महात्माओं ने वृन्दावन में निवास किया था। गुप्तकालीन महाकवि कालिदास ने अपने महाकाव्य रघुवंश में कुबेर के चौत्ररथ नामक उद्यान से वृन्दावन की तुलना की हैं। 

१४वीं शताब्दी में वृन्दावन की विद्यमानता का उल्लेख अनेक जैन-ग्रन्थों में भी मिलता है। इस पावन स्थली का वृन्दावन नामकरण कैसे हुआ? इस संबंध में अनेक मत हैं। 'वृन्दा' तुलसी को कहते हैं। यहाँ तुलसी के पौधे अधिक थे। इसलिए इसे वृन्दावन कहा गया। वन्दावन की अधिष्ठात्री देवी वृन्दा हैं। कहते हैं कि वृन्दा देवी का मन्दिर सेवा कुंज वाले स्थान पर था। यहाँ आज भी छोटे-छोटे सघन कुंज हैं। ब्रह्म वैवर्त पुराण के अनुसार वृन्दा राजा केदार की पुत्री थी। उसने इन वन स्थली में घोर तप किया था। अत: इस वन का नाम वृन्दावन हुआ। कालान्तर में यह वन धीरे-धीरे बस्ती के रुप में विकसित होकर आबाद हुआ। इसी पुराण में कहा गया है कि श्रीराधा के सोलह नामों में से एक नाम वृन्दा भी है। वृन्दा अर्थात् राधा अपने प्रिय श्रीकृष्ण से मिलने की आकांक्षा लिए इस वन में निवास करती है और इस स्थान के कण-कण को पावन तथा रसमय करती हैं। आदि वृन्दावन इतिहास के पृष्ठों में कुछ विद्वानों के अनुसार यह वह वृन्दावन नहीं है, जहाँ भगवान श्री कृष्ण ने अपनी दिव्य लीलाओं के द्वारा प्रेम एवं भक्ति का साम्राज्य स्थापित किया था।

 ये लोग पौराणिक वर्णन के आधार लेकर कहते हैं कि वृन्दावन के समीप गोवर्धन पर्वत की विद्यमानता बताई है जबकि वह यहाँ से पर्याप्त दूरी पर है। कुछ लोग राधाकुण्ड को तो कुछ लोग कामा को वृन्दावन सिद्ध करते हैं। उस काल में यमुना वहीं होकर बहती थी। धीरे-धीरे यमुना का प्रवाह बदलता रहा। प्राचीन वृन्दावन के लुप्त प्राय: हो जाने से नवीन स्थल पर वृन्दावन बसाया गया। वृन्दावन कहीं भी रहा हो यह बात खोजी तथा तार्किकों के लिए छोड़ देना चाहिए। इन बातों से वृन्दावन की महिमा में कोई कमी नहीं आती। पंद्रहवीं-सोलहवी शताब्दी में मदन-मोहनजी, गोविन्द देवजी, गोपीनाथजी, राधाबल्लभजी आदि मन्दिरों का निर्माण हो चुका था। औरंगजेब के शासन के समय जब वृन्दावन ही नहीं, ब्रज मण्डल के अनेक मन्दिरों को नष्ट किया जा रहा था तब वृन्दावन के अनेक श्रीविग्रहों के जयपुर आदि अन्यान्य स्थानों को भेज दिया गया था। वृन्दावन का नाम मोमिनाबाद रखने का प्रयत्न किया जो प्रचलित नहीं हो सका और सरकारी कागजातों तक ही सीमित रहा। सन् १७१८ ई. से सन् १८०३ ई. तक तो ब्रजमण्डल में जाट राजाओं का आधिपत्य रहा, लेकिन सन् १७५७ ई. में अहमदशाह ने ब्रज मण्डल के मथुरा, महावन आदि तीर्थ स्थलों के साथ वृन्दावन में भी लूटपाट की थीं। सन् १८०१ ई. के अन्तिम काल में ब्रज मण्डल के अनेक क्षेत्रों पर पुन: जाट राजाओं का फिर से हुकूमत हो गई। उसके बाद ही वृन्दावन को पुन: प्रतिष्ठित होने का अवसर मिला। 

यह स्थान देश कि राजधानी दिल्ली से लगभग १५० कि.मी. कि दूरी पर स्थित है और सभी मुख्य जगहों से रेल गाड़ियाँ मथुरा आती है जहाँ से वृन्दावन लगभग १४ कि.मी है. यमुना नदी इस पवन स्थान को अपने कृष्ण वर्ण के जल से और अधिक पवन और मनोहर बना देती है.जैसी शांति इस पावन धाम में आकर प्राप्त होती है वैसी कदाचित ही और कहीं प्राप्त होती हो. यहाँ अनेको मंदिर और घाट हैं जो आज भी श्री राधा-कृष्ण की दिव्य लीलाओं का स्मरण करा रहें हैं.यहाँ का मुख्य दर्शनीय मंदिर है श्री बांके बिहारी मंदिर,जो यहाँ की संकरी तथा मन को आनंद प्रदान करने वाली छोटी छोटी गलियों में स्तिथ है.यहाँ एक अद्भुत रीत है की ,श्री विग्रह के दर्शन नित्य नहीं होते, समय समय पर भगवन के आगे पर्दा होता रहता है ,यहाँ भक्तो मैं जाती पाती का कोई भी बंधन नहीं है,हो भी कैसे यह भूमि तो बस भगवन के प्रेमियों के लिए ही है फिर चाहे वे कोई भी क्यूँ न हो? यहाँ अनेको मनोहर मंदिर हैं जिनमे श्री राधा-वल्लभ मंदिर, श्री युगल-किशोर मंदिर, श्री रंग जी मंदिर जो कि दक्षिणी भारत कि कला का एक अनोखा नमूना है तथा इस्क्कोन मंदिर जहाँ अनेको विदेशी भी कृष्ण कीर्तन में झूमते हैं विशेष दर्शनीय हैं. 

और भी अनेको मंदिर श्री वृन्दावन धाम में स्थित हैं. यहाँ १२ मुख्य वन हैं जिनमे निधिवन और सेवाकुंज अति मनोहर हैं और शांतिप्रदायक हैं.इन वनों में मनो आज भी श्री कृष्ण अपनी मनोहर वंशी बजाकर सबको आकर्षित कर रहें हैं. घाटों में तो यहाँ एक अद्भुत और आश्चर्यजनक सौंदर्य है जिसे बखान पाना शायद संभव ही नहीं है.सूर्य देव जब संध्या में अस्ताचल को प्रस्थान कर रहे होते है तब उनकी किरणों के स्पर्श से यमुना का जल पिघला सोना लगता है.केशिघट और कालियाघट श्री कृष्ण की उन लीलाओं का स्मरण कराती है जब उन्होंने केशी दैत्य और कालिया नाग का दमन करके संसार को सुखी किया. 

यहाँ गोपियों की सची भक्ति और विशुद्ध प्रेम दर्शाता है राधावन जहाँ श्री राधा आदि गोपियाँ श्री कृष्ण का श्रृंगार आदि करा करती थी. अनेको संतों ने यहाँ दर्शन किये तथा यहाँ का वातावरण पूर्ण कृष्णमय ही बना दिया.श्री चैतन्य महाप्रभु ,मीराबाई,वल्लभाचार्य,स्वामी हरिदास,सूरदास,तुलसीदास आदि अनेको महा संतों ने यहाँ श्री कृष्ण के साक्षात् दर्शन पाए. || हरे कृष्ण ||

Monday, February 3, 2014

भारत की गीर गाय





भारत की गीर गाय के नाम 65 लिटर दूध देने का रिकार्ड है.

भारत में 18 करोड़ गाय है जिनमे 13 करोड़ गाये बच्चा देने लायक है और इनमे से करीब 70 % देशी नस्ल की गाये कम दुध् देने वाली नस्ल है. जिनको उन्नत नस्ल बनाने के लिए दूध की खान "गीर" गायो के सांडों से "क्रास" कराना चाहिए और लोग कर भी रहे हैं परन्तु गीर नस्ल के सांडों की बेहद कमी हो गयी है जिसके लिए हमारी मुर्खता जिम्मेदार है. हम गायो की फिकर करते हैं लेकिन सांडों के बारे में सोचते ही नहीं....एडवांस हो चुके हैं..नंदी की कदर क्या जाने..

उधर सिर्फ 5000 के करीब गीर गाय पुरे भारत में बची है जो शुद्ध है परन्तु इनके सांडो की संख्या 300 से भी कम है क्योकि हम एडवांस हो चुके हैं, हमें सिर्फ गाय का थन ही दिखता है.

अब आप सोचिये.....13 करोड़ गायो को यदि हम गीर नस्ल से ज्यादा दूध देने वाली और बीमार न होने वाली दुमरेजी गाय बनाना भी चाहे तो 13 करोड़ गाय और 300 सांड यानी एक सांड के पीछे (13,00,00,000/300 = 4,33,333 गाये ) 4 लाख से ज्यादा गाये आयेंगे जो असंभव है. यह आंकडा थोड़ा सा कम ज्यादा हो सकता है लेकिन गलत नहीं है. सांडो की इतनी कमी के पीछे बहुत सारी साजिस भी है.

थोड़ा सा पैसा कमाने के चक्कर में खुद कुछ हिन्दू भी छुट्टा सांडो को चोरी चोरी क़त्ल खानों को बेच रहे हैं. यदि हर १० गाव में एक गीर छुट्टा सांड पाल दिया जाये तो भारत में दूध की नदी फिर से बहेगी.

Saturday, January 4, 2014

33 करोड नहीँ 33 कोटि देवी देवता हैँ

33 करोड नहीँ 33 कोटि देवी देवता हैँ हिँदू धर्म मेँ। कोटि = प्रकार। देवभाषा संस्कृत में कोटि के दो अर्थ होते है, कोटि का मतलब प्रकार होता है और एक अर्थ करोड़ भी होता। हिन्दू धर्म का दुष्प्रचार करने के लिए ये बात उडाई गयी की हिन्दुओ के 33 करोड़ देवी देवता हैं और अब तो भेड़चाली मुर्ख हिन्दू खुद ही गाते फिरते हैं की हमारे 33 करोड़ देवी देवता हैं........

कुल 33 प्रकार के देवी देवता हैँ हिँदू धर्म मेँ:

12 प्रकार हैँ आदित्य: , धाता, मित, आर्यमा, शक्रा, वरुण, अँश, भाग, विवास्वान, पूष, सविता, तवास्था, और विष्णु...!

8 प्रकार हैँ - वासु:, धर, ध्रुव, सोम, अह, अनिल, अनल, प्रत्युष और प्रभाष।

11 प्रकार हैँ- रुद्र: ,हर, बहुरुप,त्रयँबक, अपराजिता, बृषाकापि, शँभू, कपार्दी, रेवात, मृगव्याध, शर्वा, और कपाली।

एवँ

दो प्रकार हैँ अश्विनी और कुमार।

कुल: 12+8+11+2=33