Friday, November 22, 2013

श्राद्ध -तर्पण विषयक शंका -समाधान

श्राद्ध -तर्पण विषयक शंका -समाधान ------------>

प्रश्न – मेरे मन में सदा ये संशय रहता है की मनुष्यों द्वारा पितरों का जो तर्पण किया जाता है, उसमें जल तो जल में ही चला जाता है; फिर हमारे पूर्वज उस से तृप्त कैसे होते हैं ? इसी प्रकार पिंड आदि का सब दान भी यहीं देखा जाता है | अतः हम यह कैसे कह सकते हैं की यह पितर आदि के उपभोग में आता है ? 
”उत्तर- पितरों और देवताओं की योनि ही ऐसी होती है की वे दूर की कही हुई बातें सुन लेते हैं, दूर की पूजा भी ग्रहण कर लेते हैं और दूर की स्तुति से भी संतुष्ट होते हैं | इसके सिवा ये भूत, भविष्य और वर्तमान सब कुछ जानते और सर्वत्र पहुचते हैं | पांच तन्मात्राएँ, मन, बुद्धि, अहंकार और प्रकृति – इन नौ तत्वों का बना हुआ उनका शरीर होता है | इसके भीतर दसवें तत्व के रूप में साक्षात् भगवान् पुरुषोत्तम निवास करते हैं | इसलिए देवता और पितर गंध तथा रस तत्व से तृप्त होते हैं | शब्द तत्व से रहते हैं तथा स्पर्श तत्व को ग्रहण करते हैं और किसी को पवित्र देख कर उनके मन में बड़ा संतोष होता है | जैसे पशुओं का भोजन तृण और मनुष्यों का भोजन अन्न कहलाता है, वैसे ही देवयोनियों का भोजन अन्न का सार तत्व है | सम्पूर्ण देवताओं की शक्तियां अचिन्त्य एवं ज्ञानगम्य हैं | अतः वे अन्न और जल का सार तत्व ही ग्रहण करते हैं, शेष जो स्थूल वस्तु है, वह यहीं स्थित देखी जाती है |

प्रश्न – श्राद्ध का अन्न तो पितरों को दिया जाता है, परन्तु वे अपने कर्म के अधीन होते हैं | यदि वे स्वर्ग अथवा नर्क में हों, तो श्राद्ध का उपभोग कैसे कर सकते हैं ? और वैसी दशा में वरदान देने में भी कैसे समर्थ हो सकते हैं ? 
उत्तर- यह सत्य है की पितर अपने अपने कर्मों के अधीन होते हैं, परन्तु देवता, असुर और यक्ष आदि के तीन अमूर्त तथा चार वर्णों के चार मूर्त – ये सात प्रकार के पितर माने गए हैं | ये नित्य पितर हैं, ये कर्मों के अधीन नहीं, ये सबको सब कुछ देने में समर्थ हैं | वे सातों पितर भी सब वरदान आदि देते हैं | उनके अधीन अत्यंत प्रबल इकतीस गण होते हैं | इस लोक में किया हुआ श्राद्ध उन्ही मानव पितरों को तृप्त करता है | वे तृप्त होकर श्राद्धकर्ता के पूर्वजों को जहाँ कहीं भी उनकी स्थिति हो, जाकर तृप्त करते हैं | इस प्रकार अपने पितरों के पास श्राद्ध में दी हुई वस्तु पहुचती है और वे श्राद्ध ग्रहण करने वाले नित्य पितर ही श्राद्ध कर्ताओं को श्रेष्ठ वरदान देते हैं |

प्रश्न – जैसे भूत आदि को उन्हीं के नाम से ‘इदं भूतादिभ्यः” कह कर कोई वस्तु दी जाती है, उसी प्रकार देवता आदि को संक्षेप में क्यों नहीं दिया जाता है ? मंत्र आदि के प्रयोग द्वारा विस्तार क्यों किया जाता है ?

उत्तर- सदा सबके लिए उचित प्रतिष्ठा करनी चाहिए | उचित प्रतिष्ठा के बिना दी हुई कोई वास्तु देवता आदि ग्रहण नहीं करते | घर के दरवाजे पर बैठा हुआ कुत्ता, जिस प्रकार ग्रास (फेंका हुआ टुकड़ा) ग्रहण करता है, क्या कोई श्रेष्ठ पुरुष भी उसी प्रकार ग्रहण करता है ? इसी प्रकार भूत आदि की भाँती देवता कभी अपना भाग ग्रहण नहीं करते | वे पवित्र भोगों का सेवन करने वाले तथा निर्मल हैं | अतः अश्रद्धालु पुरुष के द्वारा बिना मन्त्र के दिया हुआ जो कोई भी हव्य भाग होता है, उसे वे स्वीकार नहीं करते | यहाँ मन्त्रों के विषय में श्रुति भी इस प्रकार कहती है -” सब मन्त्र ही देवता हैं, विद्वान पुरुष जो जो कार्य मन्त्र के साथ करता है, उसे वह देवताओं के द्वारा ही संपन्न करता है | मंत्रोच्चारणपूर्वक जो कुछ देता है, वह देवताओं द्वारा ही देता है | मन्त्रपूर्वक जो कुछ ग्रहण करता है, वह देवताओं द्वारा ही ग्रहण करता है | इसलिए मंत्रोच्चारण किये बिना मिला हुआ प्रतिग्रह न स्वीकार करे | बिना मन्त्र के जो कुछ किया जाता है , वह प्रतिष्ठित नहीं होता | “इस कारण पौराणिक और वैदिक मन्त्रों द्वारा ही सदा दान करना चाहिए |

प्रश्न – कुश, तिल, अक्षत और जल – इन सब को हाथ में लेकर क्यों दान दिया जाता है? मैं इस कारण को जानना चाहता हूँ |

उत्तर- प्राचीन काल में मनुष्यों ने बहुत से दान किये, और उन सबको असुरों ने बलपूर्वक भीतर प्रवेश करके ग्रहण कर लिया | तब देवताओं और पितरों ने ब्रह्मा जी से कहा – स्वामिन ! हमारे देखते देखते दैत्यलोग सब दान ग्रहण कर लेते हैं | अतः आप उनसे हमारी रक्षा करें, नहीं तो हम नष्ट हो जायेंगे | ” तब ब्रह्मा जी ने सोच विचार कर दान की रक्षा के लिए एक उपाय निकल | पितरों को तिल के रूप में दान दिया जाए, देवताओं को अक्षत के साथ दिया जाए तथा जल और कुश का सम्बन्ध सर्वत्र रहे | ऐसा करने पर दैत्य उस दान को ग्रहण नहीं कर सकते | इन सबके बिना जो दान किया जाता है, उस पर दैत्य लोग बलपूर्वक अधिकार कर लेते हैं और देवता तथा पितर दुखपूर्वक उच्ह्वास लेते हुए लौट जाते हैं | वैसे दान से दाता को कोई फल नहीं मिलता | इसलिए सभी युगों में इसी प्रकार (तिल, अक्षत, कुश और जल के साथ) दान दिया जाता है |

Monday, November 18, 2013

अर्जुन का घमंड

अर्जुन का घमंड

एक दिन श्रीकृष्ण अर्जुन को अपने साथ घुमाने ले गए। रास्ते में उनकी भेंट एक निर्धन ब्राह्मण से हुई। उसका व्यवहार थोड़ा विचित्र था। वह सूखी घास खा रहा था और उसकी कमर से तलवार लटक रही थी।

अर्जुन ने उससे पूछा - आप तो अहिंसा के पुजारी हैं। जीव हिंसा के भय से सूखी घास खाकर अपना गुजारा करते हैं। लेकिन फिर हिंसा का यह उपकरण तलवार क्यों आपके साथ है?

ब्राह्मण ने जवाब दिया - मैं कुछ लोगों को दंडित करना चाहता हूं। आपके शत्रु कौन हैं? अर्जुन ने जिज्ञासा जाहिर की।

ब्राह्मण ने कहा - मैं चार लोगों को खोज रहा हूं, ताकि उनसे अपना हिसाब चुकता कर सकूं। सबसे पहले तो मुझे नारद की तलाश है। नारद मेरे प्रभु को आराम नहीं करने देते, सदा भजन-कीर्तन कर उन्हें जागृत रखते हैं। फिर मैं द्रौपदी पर भी बहुत क्रोधित हूं। उसने मेरे प्रभु को ठीक उसी समय पुकारा, जब वह भोजन करने बैठे थे। उन्हें तत्काल खाना छोड़ पांडवों को दुर्वासा ऋषि के शाप से बचाने जाना पड़ा। उसकी धृष्टता तो देखिए। उसने मेरे भगवान को जूठा खाना खिलाया।

आपका तीसरा शत्रु कौन है? - अर्जुन ने पूछा। वह है हृदयहीन प्रह्लाद। उस निर्दयी ने मेरे प्रभु को गरम तेल के कड़ाह में प्रविष्ट कराया, हाथी के पैरों तले कुचलवाया और अंत में खंभे से प्रकट होने के लिए विवश किया। और चौथा शत्रु है अर्जुन। उसकी दुष्टता देखिए। उसने मेरे भगवान को अपना सारथी बना डाला। उसे भगवान की असुविधा का तनिक भी ध्यान नहीं रहा। कितना कष्ट हुआ होगा मेरे प्रभु को। - यह कहते ही ब्राह्मण की आंखों में आंसू आ गए।

यह देख अर्जुन का घमंड चूर-चूर हो गया। उसने श्रीकृष्ण से क्षमा मांगते हुए कहा - मान गया प्रभु, इस संसार में न जाने आपके कितने तरह के भक्त हैं। मैं तो कुछ भी नहीं हूं।

Friday, November 8, 2013

भारतीय गाय इस धरती पर सभी गायो मे सर्वश्रेष्ठ क्यूँ है ?

भारतीय गाय इस धरती पर सभी गायो मे सर्वश्रेष्ठ क्यूँ है ?

यह जानकार आपको शायद झटका लगेगा की हमने अपनी देशी गायों को गली-गली आवारा घूमने के लिए छोड़ दिया है । क्यूंकी वे दूध कम देती हैं । इसलिए उनका आर्थिक मोल कम है , लेकिन ब्राज़ील हमारी इन देशी गायो की नस्ल का सबसे बड़ा निर्यातक बन गया है । जबकि भारत अमेरिका और यूरोप से घरेलू दुग्ध उत्पादन बढ़ाने के लिए विदेशी प्रजाती की गायों का आयात करता है । वास्तव मे 3 महत्वपूर्ण भारतीय प्रजाती गिर, कंकरेज , व ओंगल की गाय जर्सी गाय से भी अधिक दूध देती हैं ।

यंहा तक की भारतीय प्रजाती की गाये होलेस्टेन फ्राइजीयन जैसी विदेशी प्रजाती की गाय से
भी ज्यादा दूध देती है । और भारत विदेशी प्रजाती की गाय का आयात करता है जिनकी रोगो से लड़ने की क्षमता ( वर्ण संकर जाती के कारण ) भी बहुत कम होती है ।
हाल ही मे ब्राज़ील मे दुग्ध उत्पादन की प्रतियोगिता हुई थी जिसमे भारतीय प्रजाती की गिर ने गाय एक दिन मे 48 लीटर दूध दिया । तीन दिन तक चली इस प्रतियोगिता मे
दूसरा स्थान भी भारतीय प्राजाती की गाय गिर को ही प्राप्त हुआ । इस गाय ने एक दिन मे 45 लीटर दूध दिया । तीसरा स्थान भी आंध्रप्रदेश के ओंगल नस्ल की गाय ( जिसे ब्राज़ील मे नेरोल कहा जाता है ) को मिला उसने भी एक दिन मे 45 लीटर दूध दिया ।
केवल ज्यादा दुग्ध उत्पादन की ही बात क्यूँ करे ? भारतीय नस्ल की गाय स्थानीय महोल मे अच्छी तरह ढली हुई हैं वे भीषण गर्मी भी सह सकती हैं । उन्हे कम पानी चाहिए , वे दूर तक चल सकती हैं । वे अनेक संक्रामक रोगो का मुक़ाबला कर सकती हैं । अगर उन्हे
सही खुराक और सही परिवेश मिले तो वे उच्च उत्पादक भी बन सकती हैं । हमारी देशी गयो मे ओमेगा -6 फेटी एसीड्स होता है जो केंसर नियंत्रण मे सहायक होता है ।

विडम्बना देखिए ओमेगा -6 के लिए एक बड़ा उद्योग विकसित हो गया है जो इसे केपसूल की शक्ल मे बेच रहा है । , जबकि यह तत्व हमारी गायो के दूध मे स्वाभाविक ( हमारे पूर्वज ऋषियों द्वारा विकसित कहना ज्यादा सही होगा ) रूप से विद्यमान है । आयातित गायो मे इस तत्व का नामोनिशान भी नही होता ।

न्यूजीलेंड के वेज्ञानिकों ने पाया है की पश्चिमी नस्ल की गायो के दूध मे ' बेटा केसो मार्फीन ' नामक मिश्रण होता है । जिसकी वजह से अल्जाइमर ( स्मृती लोप ) और पार्किसन जैसे रोग होते हैं ।

इतना ही नही भारतीय नस्ल की गायो का गोबर भी आयातित गयो की तुलना मे श्रेष्ठ है । जो एसा पंचागभ्य तैयार करने के अनुकूल है जो रासायनिक खादों से भी बेहतर विकल्प है ।
पिछली सदी के अंत मे ब्राज़ील ने भारतीय पशुधन का आयात किया था । ब्राज़ील गई गायो मे गुजरात की गिर और कंकरेज नस्ल तथा आन्ध्रप्रदेश की ओंगल नस्ल की गाय शामिल थी । इन गायों को मांस के लिए ब्राज़ील ले जाया गया था । लेकिन जब वे ब्राज़ील पहुची तो वंहा के लोगो को एहसास हुआ की इन गायों मे कुछ खास है ।

अगर भारत मे विदेशी जहरीली वर्ण संकर नस्ल की गायों के बजाय भारतीय नस्ल की गायो पर ध्यान दिया होता तो हमारी गायें न केवल आर्थिक रूप से व्यावहारिक होती बल्कि हमारे यंहा की खेती और फसल की दशा भी व्यावहारिक व लाभदायक होती । मरुभूमि के अत्यंत कठिन माहोल मे रहने वाली थारपारकर जैसी नस्ल की गाये उपेक्षित न होती । आज दुग्ध उत्पादन ही नही प्रत्येक क्षेत्र मे आत्म निर्भरता प्राप्त करने के लिए विदेशी नस्ल ( मलेच्च्यो- मुसालेबीमान व किसाई ) और उनके सहायक चापलूस हन्दुओ से ज्यादा विनाशकारी और कुछ नही हो सकता ।

इससे यह स्पष्ट हो जाता है की भारतीय सारकर हर क्षेत्र मे पूर्व निर्धारित षड्यंत्र के तहत
गलत नीती अपनाकर चल रही है ।

गोवर्धन पूजा

गोवर्धन पूजा के पावन अवसर पर समस्त देशवासियों को हार्दिक शुभकामनायें....


आज कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा के दिन पर्वतराज गोवर्धन की पूजा की जाती है। इसे अन्नकूट के नाम से भी जानते हैं।

इस त्यौहार का भारतीय लोकजीवनमें काफी महत्व है।इस पर्व में प्रकृति के साथ मानव का सीधा सम्बन्ध दिखाई देता है।इस पर्व की अपनी मान्यता और लोककथा है।

गोवर्धन पूजा में गोधन यानी गायों की पूजा की जाती है ।शास्त्रों में बताया गया है कि गाय उसी प्रकार पवित्र होती जैसे
नदियों में गंगा।

गाय को देवी लक्ष्मी का स्वरूप भी कहा गया है ।देवीलक्ष्मी जिस प्रकार सुख समृद्धि प्रदान करती हैं उसी प्रकार गौ माता भी अपने दूध से स्वास्थ्य रूपी धन प्रदान करती हैं।

इनका बछड़ा खेतों में अनाज उगाता है। इस तरह गौ सम्पूर्ण मानव जाती के लिए पूजनीय और आदरणीय है।

गौ के प्रति श्रद्धा प्रकट करने के लिए ही कार्तिक शुक्ल पक्ष प्रतिपदा के दिन गोर्वधन की पूजा की जाती है और इसके प्रतीक के रूप में गाय की ।

गोवर्धन पूजा के सम्बन्ध में एक लोक गाथा प्रचलित है।

कथा यह है कि देवराज इन्द्र को अभिमान हो गया था।इन्द्र का अभिमान चूर करने हेतु भगवान श्री कृष्ण जो स्वयं लीलाधारी श्री हरि विष्णु के अवतार है उन्होंने एक लीला रची।

प्रभु की इस लीला में यूं हुआ कि एक दिन उन्होंने देखा के सभी बृजवासी उत्तम पकवान बना रहे हैं और किसी पूजा की तैयारी में जुटे।

श्री कृष्ण ने बड़े भोलेपन से मईया यशोदा से प्रश्न किया "मईया ये आप लोग
किनकी पूजा की तैयारी कर रहे हैं" ।

"भगवान् श्रीकृष्ण" की बातें सुनकर मैया बोली लल्ला हम देवराज इन्द्र की पूजा के लिए अन्नकूट की तैयारी कर रहे हैं ।

मैया के ऐसा कहने पर श्रीकृष्ण बोले मैया हम इन्द्र की पूजा क्यों करते हैं ?

मैईया ने कहा वह वर्षा करते हैं जिससे अन्न की पैदावार होती है उनसे हमारी गायों को चारा मिलता है।

भगवानश्री कृष्ण बोले हमें तो गोर्वधन पर्वत की पूजा करनी चाहिए क्योंकि हमारी गाये वहीं चरती हैं, इस दृष्टि से गोर्वधन पर्वत ही पूजनीय है और इन्द्र तो कभी दर्शन भी नहीं देते व पूजा न करने पर क्रोधित भी होते हैं अत: ऐसे अहंकारी की पूजा नहीं करनी चाहिए।

लीलाधारी की लीला और माया से सभी ने इन्द्र के बदले गोवर्घन पर्वत की पूजा की।

देवराजइन्द्र ने इसे अपना अपमान समझा और मूसलाधार वर्षा शुरू कर दी। प्रलय के समान वर्षा देखकर सभी बृजवासी भगवान कृष्ण को कोसने लगे कि, सब इनका कहा मानने से हुआ है।

तब मुरलीधर ने मुरली कमर में डाली और अपनी कनिष्ठा उंगली पर पूरा गोवर्घन पर्वत उठा लिया और सभी बृजवासियों को उसमें अपने गाय और बछडे समेत शरण लेने के लिए बुलाया।

इन्द्र कृष्ण की यह लीला देखकर और क्रोधित हुए फलत: वर्षा और तेज हो गयी।

इन्द्र का मान मर्दन के लिए तब श्री कृष्ण ने सुदर्शन चक्र से कहा कि आप पर्वत के ऊपर रहकर वर्षा की गति को नियत्रित करें और शेषनाग से कहा आप मेड़ बनाकर पानी को पर्वत की ओर आने से रोकें।

इन्द्र लगातार सात दिन तक मूसलाधार वर्षा करते रहे तब उन्हे एहसास हुआ कि उनका मुकाबला करने वाला कोई आम मनुष्य नहीं हो सकता अत: वे ब्रह्मा जी के पास पहुंचे और सब वृतान्त कह सुनाया।

ब्रह्मा जी ने इन्द्र से कहा कि आप जिस कृष्ण की बात कर रहे हैं वह भगवान विष्णु के साक्षात अंश हैं और पूर्ण पुरूषोत्तम नारायण हैं ।

ब्रह्मा जी के मुंख से यह सुनकर इन्द्र अत्यंत लज्जित हुए और श्री कृष्ण से कहा कि प्रभु मैं आपको पहचान न सका इसलिए अहंकारवश भूल कर बैठा।
आप दयालु हैं और कृपालु भी इसलिए मेरी भूल क्षमा करें।

इसके पश्चात देवराजइन्द्र ने मुरलीधर की पूजा कर उन्हें भोग लगाया ।इस पौराणिक घटना के बाद से ही गोवर्घन पूजा की जाने लगी।
बृजवासी इस दिन गोवर्घन पर्वत की पूजा करते हैं।

गाय बैल को इस दिन स्नान कराकर उन्हें रंग लगाया जाता है व उनके गले में नई रस्सी डाली जाती है।गाय और बैलों को गुड़ और चावल मिलाकर खिलाया जाता है।

जय जय गोवर्धन गिरधारी।
श्रीकृष्ण गोविँद हरे मुरारी।।

देसी गाय के दूध का महत्व

देसी गाय के दूध का महत्व

 आधुनिक विज्ञानका यह मानना है कि सृष्टिके आदि कालमें, भूमध्य रेखा के दोनो ओर प्रथम एक गर्म भूखंड उत्पन्न हुआ था इसे भारतीय परम्परामे जम्बुद्वीपका नाम दिया जाता है |  सभी स्तनधारी भूमि पर पैरों से चलनेवाले प्राणी दोपाए, चौपाए जिन्हें वैज्ञानिक भाषामें अनग्युलेट मेमलके (ungulate mammal) नामसे जाना जाता है, वे इसी जम्बू द्वीपपर उत्पन्न हुये थे | इस प्रकार सृष्टिमें सबसे प्रथम मनुष्य और गौका इसी जम्बुद्वीप भूखंडपर उत्पन्न होना माना जाता है |  इस प्रकार यह भी सिद्ध होता है कि भारतीय गाय ही विश्वकी मूल गाय है इसी मूल भारतीय गायका लगभग ८००० वर्ष पूर्व, भारत जैसे गर्म क्षेत्रोंसे यूरोपके ठंडे क्षेत्रोंके लिए पलायन हुआ, ऐसा माना जाता है |  जीव विज्ञानके अनुसार भारतीय गायोंके २०९ तत्व के डीएनए में ६७ पद पर स्थित एमिनो एसिड प्रोलीन (Proline) पाया जाता है इन गौओंके ठंडे यूरोपीय देशोंको पलायनमें भारतीय गायके डीएनएमें प्रोलीन Proline एमीनोएसिड हिस्टीडीनके (Histidine) साथ उत्परिवर्तित हो गया | इस प्रक्रियाको वैज्ञानिक भाषामें म्युटेशन ( Mutation ) कहते हैं |  1. मूल गायके दूधमें पोरलीन(Proline) अपने स्थान ६७ पर अत्यधिक दृढतासे आग्रहपूर्वक अपने पडोसी स्थान ६६ पर स्थित अमीनोएसिड आइसोल्यूसीनसे (Isoleucine) जुडा रहता है; परन्तु जब प्रोलीनके स्थानपर हिस्टिडीन आ जाता है तब इस हिस्टिडीनमें अपने पडोसी स्थान 66 पर स्थित आइसोल्युसीनसे जुडे रहनेकी प्रबल इच्छा नही पाई जाती |  इस स्थितिमें यह एमिनो एसिड Histidine, मानव शरीरकी पाचन क्रियामें सरलतासे टूट कर पसर जाता है |  इस प्रक्रियासे एक 7 एमीनोएसिडका छोटा प्रोटीन स्वच्छ्न्द रूपसे मानव शरीरमें अपना भिन्न अस्तित्व बना लेता है | इस 7 एमीनोएसिडके प्रोटीनको बीसीएम 7 BCM7 (बीटा Caso Morphine7) नाम दिया जाता है |  2. BCM7 एक Opioid (narcotic) अफीम परिवारका मादक तत्व है जो अत्यधिक शक्तिशाली Oxidant ऑक्सीकरण तत्त्वके रूपमें मानव स्वास्थ्यपर अपनी श्रेणीके दूसरे अफीम जैसे ही मादक तत्वों जैसा दूरगामी दुष्प्रभाव छोडता है |   जिस दूधमें यह विषैला मादक तत्व बीसीएम 7 पाया जाता है, उस दूधको वैज्ञानिकोंने ए1 दूधका नाम दिया है |   यह दूध उन विदेशी गौओंमें पाया गया है जिनके डीएनएमें ६७ स्थानपर प्रोलीन न हो कर हिस्टिडीन होता है |  आरम्भमें जब दूधको बीसीएम7 के कारण बडे स्तरपर जानलेवा रोगोंका कारण पाया गया तब न्यूज़ीलेंडके सारे डेरी उद्योगके दूधका परीक्षण आरम्भ हुआ |  सारे डेरी दूधपर किए जानेवाले प्रथम अनुसंधानमे जो दूध मिला वह बीसीएम7 से दूषित पाया गया | इसलिए यह सारा दूध ए1 कहलाया |  तदोपरांत ऐसे दूधकी आविष्कार आरम्भ हुई जिसमें यह बीसीएम7 विषैला तत्व न हो |  इस दूसरे अनुसंधान अभियानमें जो बीसीएम7 रहित दूध पाया गया उसे ए2 नाम दिया गया |  सुखद बात यह है कि विश्वकी मूल गायकी प्रजातिके दूधमें, यह विष तत्व बीसीएम7 नहीं मिला, इसलिए देसी गायका दूध ए2 प्रकारका दूध संबोधित किया जाता है | देसी गायके दूधमें यह स्वास्थ्य नाशक मादक विष तत्व बीसीएम7 नही होता |   आधुनिक वैज्ञानिक अनुसंधानसे अमेरिकामें यह भी पाया गया कि ठीकसे पोषित देसी गायके दूध और दूधके बने पदार्थ मानव शरीरमें कोई भी रोग उत्पन्न नहीं होने देते |  भारतीय परम्परामें इसलिए देसी गायके दूधको अमृत कहा जाता है |   आज यदि भारतवर्षका डेरी उद्योग हमारी देसी गायके ए2 दूधकी उत्पादकताका महत्व समझ लें तो भारत सारे विश्व डेरी दूध व्यापारमें सबसे बडा दूध निर्यातक देश बन सकता है |  देसी गायकी पहचान आज के वैज्ञानिक युग में, यह भी महत्त्वका विषय है कि देसी गायकी पहचान प्रामाणिक रूपसे हो सके |   साधारण बोल चालमे जिन गौओं में कुकुभ, गल कम्बल छोटा होता है उन्हे य देसी नहीं माना जाता और सबको जर्सी कह दिया जाता है |  प्रामाणिक रूपसे यह जाननेके लिए कि कौन सी गाय मूल देसी गायकी प्रजातिकी हैं, गौका डीएनए जांचा जाता है | इस परीक्षणके लिए गायकी पूंछके बालके एक टुकडेसे ही यह सुनिश्चित हो जाता है कि वह गाय देसी गाय मानी जा सकती है या नहीं |   यह अत्याधुनिक विज्ञानके अनुसन्धान का विषय है | पाठकोंकी जानकारीके लिए भारत सरकारसे इस अनुसंधानके लिए आर्थिक सहयोगके प्रोत्साहनसे भारतवर्षके वैज्ञानिक इस विषयपर अनुसंधान कर रहे हैं और निकट भविष्यमें वैज्ञानिक रूपसे देसी गायकी पहचान सम्भव हो सकेगी |   इस महत्वपूर्ण अनुसंधानका कार्य दिल्ली स्थित महाऋषि दयानंद गोसम्वर्द्धन केंद्रकी पहल और भागीदारीपर और कुछ भारतीय वैज्ञानिकोंके निजी उत्साहसे आरम्भ हो सका है |  ए1 दूधका मानव स्वास्थ्यपर दुष्प्रभाव जन्मके समय बालकके शरीरमें blood brain barrier नही होता | माताके स्तन पान करानेके बाद तीन चार वर्षकी आयु तक शरीरमें यह ब्लडब्रेन बैरियर स्थापित हो जाता है |  इसलिए जन्मोपरांत माताके पोषन और स्तनपान द्वारा शिषुको मिलनेवाले पोषणका, बचपनमें ही नही, बडे हो जानेपर भविष्यमें भी मस्तिष्कके रोग और शरीरकी रोग निरोधक क्षमता ,स्वास्थ्य, और व्यक्तित्वके निर्माणमें अत्यधिक महत्व बताया जाता है |  बाल्य कालके रोग (Pediatric disease) आजकल भारत वर्षमें ही नहीं सारे विश्वमें, जन्मोपरान्त बच्चोंमें जो Autism (बोध अक्षमता ) और Diabetes type1 (मधुमेह) जैसे रोग बढ रहे हैं उनका स्पष्ट कारण ए1 दूध का बीसीएम7 पाया गया है |  वयस्क समाजके रोग (Adult disease) मानव शरीरके सभी metabolic degenerative disease शरीरके स्वजन्य रोग जैसे उच्च रक्त चाप (high blood pressure) हृदय रोग (Ischemic Heart Disease) तथा मधुमेहका (Diabetes) प्रत्यक्ष सम्बंध बीसीएम 7 वाले ए1 दूध से स्थापित हो चुका है |  यही नहीं बुढापेके मानसिक रोग भी बचपनमें ए1 दूधका प्रभावके रूपमें भी देखे जा रहे हैं |  सम्पूर्ण विश्वमें डेयरी उद्योग आज चुपचाप अपने पशुओंकी प्रजनन नीतियोंमें ” अच्छा दूध अर्थात् BCM7 मुक्त ए2 दूध “ के उत्पादनके आधारपर परिवर्तन ला रहा हैं |   वैज्ञानिक शोध इस विषयपर भी किया जा रहा है कि किस प्रकार अधिक ए2 दूध देनेवाली गौओंकी प्रजातियां विकसित की जा सकें |  डेरी उद्योगकी भूमिका मुख्य रूपसे यह हानिकारक ए1 दूध होल्स्टिन फ्रीज़ियन प्रजातिकी गायमें ही मिलता है, यह भैंस जैसी दीखनेवाली, अधिक दूध देनेके य कारण सारे डेरी उद्योगकी पसन्दीदा गाय है |  होल्स्टीन, फ्रीज़ियन दूधके ही कारण लगभग सारे विश्वमें डेरीका दूध ए1 पाया गया | विश्वके सारे डेरी उद्योग और राजनेताओंकी आज यही कठिनाई है कि अपने सारे ए1 दूध को एक दम कैसे अच्छे ए2 दूधमें कैसे परिवर्तित करें |  आज विश्वका सारा डेरी उद्योग भविष्यमें केवल ए2 दूधके उत्पादनके लिए अपनी गौओंकी प्रजातिमे नस्ल सुधारके नये कार्यक्रम चला रहा है |  विश्व बाज़ारमे भारतीय नस्लके गीर वृषभोंकी इसलिए अत्यधिक मांग भी हो गयी है | साहीवाल नस्लके अच्छे वृषभकी भी बहुत मांग बढ गयी है |  सबसे पहले यह अनुसंधान न्यूज़ीलेंडके वैज्ञानिकोंने किया था; परन्तु वहांके डेरी उद्योग और सरकारी तंत्रकी मिलीभगतसे यह वैज्ञानिक अनुसंधान छुपानेके प्रयत्नोंसे उद्विग्न होनेपर, वर्ष २००७ में Devil in the Milk-illness, health and politics A1 and A2 Milk” नामकी पुस्तक कीथ वुड्फोर्ड द्वारा न्यूज़ीलेंडमें प्रकाशित हुई |   ऊपर उल्लेखित पुस्तकमें विस्तारसे लगभग तीस वर्षोंके विश्व भरके आधुनिक चिकित्सा विज्ञान और रोगोंके अनुसंधानके आंकडोंके आधारपर यह सिद्ध किया जा सका है कि बीसीएम7 युक्त ए1 दूध मानव समाजके लिए विषतुल्य है |  इन पंक्तियोंके लेखकने भारतवर्षमें २००७ में ही इस पुस्तकको न्युज़ीलेंडसे मंगा कर भारत सरकार और डेरी उद्योगके शीर्षस्थ अधिकारियोंका इस विषयपर ध्यान आकर्षित कर, देसी गायके महत्वकी ओर वैज्ञानिक आधारपर प्रचार और ध्यानाकर्षणका एक अभियान चला रखा है; परन्तु अभी भारत सरकारने इस विषयको गम्भीरतासे नही लिया है |  डेरी उद्योग और भारत सरकारके गोपशु पालन विभागके अधिकारी व्यक्तिगत स्तरपर तो इस विषयको समझने लगे हैं; परंतु भारतवर्षकी और डेरी उद्योगकी नीतियोंमें परिवर्तित करनेके लिए जिस नेतृत्वकी आवश्यकता होती है उसके लिए तथ्योंके अतिरिक्त सशक्त जनजागरण भी आवश्यक होता है इसके लिए जन साधारणको इन तथ्योंके बारेमे अवगत कराना भारत वर्षके हर देश प्रेमी गोभक्तका दायित्व बन जाता है |  विश्व मंगल गो ग्रामयात्रा इसी जन चेतना जागृतिका शुभारम्भ है | देसी गायसे विश्वोद्धार भारत वर्षमें यह विषय डेरी उद्योगके गले सरलतासे नही उतर रहा,हमारा सम्पूर्ण डेरी उद्योग तो प्रत्येक प्रकारके दूधको एक जैसा ही समझता आया है |  उनके लिए देसी गायके ए2 दूध और विदेशी ए1 दूध देनेवाली गायके दूधमें कोई अंतर नही होता था |  गाय और भैंसके दूधमें भी कोई अंतर नहीं माना जात,सारा ध्यान अधिक मात्रामें दूध और वसा देनेवाले पशुपर ही होता है | किस दूधमें क्या स्वास्थ्य नाशक तत्व हैं, इस विषयपर डेरी उद्योग कभी सचेत नहीं रहा है | सरकारकी स्वास्थ्य संबन्धित नीतियां भी इस विषयपर केंद्रित नहीं हैं |  भारतमें किए गए NBAGR (राष्ट्रीय पशु आनुवंशिक संसाधन ब्यूरो) द्वारा एक प्रारंभिक अध्ययनके अनुसार यह अनुमान है कि भारत वर्ष में ए1 दूध देने वाली गौओंकी संख्या पंद्रह प्रतिशतसे अधिक नहीं है |   भरत्वर्षमें देसी गायोंके संसर्गकी संकर नस्ल ज्यादातर डेयरी क्षेत्रके साथ ही हैं |  आज सम्पूर्ण विश्वमें यह चेतना आ गई है कि बाल्यावस्थामें बच्चोंको केवल ए2 दूध ही देना चाहिये | विश्व बाज़ारमें न्युज़ीलेंड, ओस्ट्रेलिया, कोरिआ,जापान और अब अमेरिका मे प्रमाणित ए2 दूधके मूल्य साधारण ए1 डेरी दूधके यदामसे कही अधिक हैं |   ए2 से देने वाली गाय विश्वमें सबसे अधिक भारतवर्षमें पाई जाती हैं |  यदि हमारी देसी गोपालनकी नीतियोंको समाज और शासनका प्रोत्साहन मिलता है तो सम्पूर्ण विश्व के लिए ए2 दूध आधारित बालाहारका निर्यात भारतवर्षसे किया जा सकता है | यह एक बडे आर्थिक महत्वका विषय है 

Saturday, November 2, 2013

कुलदेवी कृपा प्राप्ति साधना


कुलदेवी कृपा प्राप्ति साधना

कुलदेवी सदैव हमारी कुल कि रक्षा करती है,हम पर चाहे किसी भी प्रकार कि कोई भी बाधाये आने वाली हो तो सर्वप्रथम हमारी सबसे ज्यादा चिंता उन्हेही ही होती है.कुलदेवी कि कृपा से कई जीवन के येसे कार्य है जिनमे पूर्ण सफलता मिलती है.
कई लोग येसे है जिन्हें अपनी कुलदेवी पता ही नहीं और कुछ येसे भी है जिन्हें कुलदेवी पता है परन्तु उनकी पूजा या फिर साधना पता नहीं है.तो येसे समय यह साधना बड़ी ही उपयुक्त है.यह साधना पूर्णतः फलदायी है और गोपनीय है.यह दुर्लभ विधान मेरी प्यारी गुरुभाई/बहन कि लिए आज सदगुरुजी कि कृपा से हम सभी के लिये.
इस साधना के माध्यम से घर मे क्लेश चल रही हो,कोई चिंता हो,या बीमारी हो,धन कि कमी,धन का सही तरह से इस्तेमाल न हो,या देवी/देवतओं कि कोई नाराजी हो तो इन सभी समस्या ओ के लिये कुलदेवी साधना सर्वश्रेष्ट साधना है.
सामग्री :-
३ पानी वाले नारियल,लाल वस्त्र ,९ सुपारिया ,८ या १६ शृंगार कि वस्तुये ,खाने कि ९ पत्ते ,३ घी कि दीपक,कुंकुम ,हल्दी ,सिंदूर ,मौली ,तिन प्रकार कि मिठाई .
साधना विधि :-
सर्वप्रथम नारियल कि कुछ जटाये निकाले और कुछ बाकि रखे फिर एक नारियल को पूर्ण सिंदूर से रंग दे दूसरे को हल्दी और तीसरे नारियल को कुंकुम से,फिर ३ नारियल को मौली बांधे .
किसी बाजोट पर लाल वस्त्र बिछाये ,उस पर ३ नारियल को स्थापित कीजिये,हर नारियल के सामने ३ पत्ते रखे,पत्तों पर १-१ coin रखे और coin कि ऊपर सुपारिया स्थापित कीजिये.फिर गुरुपूजन और गणपति पूजन संपन्न कीजिये.
अब ज्यो पूजा स्थापित कि है उन सबकी चावल,कुंकुम,हल्दी,सिंदूर,जल ,पुष्प,धुप और दीप से पूजा कीजिये.जहा सिन्दूर वाला नारियल है वह सिर्फ सिंदूर ही चढ़े बाकि हल्दी कुंकुम नहीं इस प्रकार से पूजा करनी है,और चावल भी ३ रंगों मे ही रंगाने है,अब ३ दीपक स्थापित कर दीजिये.और कोई भी मिठाई किसी भी नारियल के पास चढादे .साधना समाप्ति के बाद प्रसाद परिवार मे ही बाटना है.शृंगार पूजा मे कुलदेवी कि उपस्थिति कि भावना करते हुये चढादे और माँ को स्वीकार करनेकी विनती कीजिये.


और लाल मूंगे कि माला से ३ दिन तक ११ मालाये मंत्र जाप रोज करनी है.यह साधना शुक्ल पक्ष कि १२,१३,१४ तिथि को करनी है.३ दिन बाद सारी सामग्री जल मे परिवार के कल्याण कि प्रार्थना करते हुये प्रवाहित कर दे.


मंत्र :-
|| ओम ह्रीं श्रीं कुलेश्वरी प्रसीद - प्रसीद ऐम् नम : ||


साधना समाप्ति के बाद सहपरिवार आरती करे तो कुलेश्वरी कि कृपा और बढती है.

रावण के जन्म की कथा

रावण के जन्म की कथा


ब्रह्मा जी के पुलस्त्य नामक पुत्र हुये थे जो उन्हीं के समान तेजस्वी और गुणवान थे। एक बार वे महगिरि पर तपस्या करने गये। वह स्थान अत्यन्त रमणीक था। इसलिये ऋषियों, नागों, राजर्षियों आदि की कन्याएँ वहाँ क्रीड़ा करने आ जाती थी। इससे उनकी तपस्या में विघ्न पड़ता था। उन्होंने उन्हें वहाँ आने से मना किया। जब वे नहीं मानीं तो उन्होंने शाप दे दिया कि कल से जो लड़की यहाँ मुझे दिखाई देगी, वह गर्भवती हो जायेगी। शैष सब कन्याओं ने तो वहाँ आना बन्द कर दिया, परन्तु राजर्षि तृणबिन्दु की कन्या शाप की बात से अनजान होने के कारण उस आश्रम में आ गई और महर्षि के द‍ृष्टि पड़ते ही गर्भवती हो गई। जब तृणबिन्दु को यह बात मालूम हुई तो उन्होंने अपने कन्या को पत्‍नी के रूप में महर्षि को अर्पित कर दिया। इस प्रकार विश्रवा का जन्म हुआ जो अपने पिता के समान वेद्‍‍विद और धर्मात्मा हुआ। महामुनि भरद्वाज ने अपनी कन्या का विवाह विश्रवा से कर दिया। उनके वैश्रवण नामक पुत्र हुआ। वह भी धर्मात्मा और विद्वान था। उसने भारी तपस्या करके ब्रह्मा जी को प्रसन्न किया और यम्, इन्द्र तथा वरुण के सद‍ृश लोकपाल का पद पाया। फिर उसने त्रिकूट पर्वत पर बसी लंका को अपना निवास स्थान बनाया और राक्षसों पर राज्य करने लगा।"

श्रीराम ने आश्‍चर्य से पूछा, "तो क्या कुबेर और रावण से भी पहले लंका में माँसभक्षी राक्षस रहते थे? फिर उनका पूर्वज कौन था? यह सुनने के लिये मुझे कौतूहल हो रहा है?" तब अगस्त्य जी बोले, "पूर्वकाल में ब्रह्मा जी ने अनेक जल जन्तु बनाये और उनसे समुद्र के जल की रक्षा करने के लिये कहा। तब उन जन्तुओं में से कुछ बोले कि हम इसका रक्षण (रक्षा) करेंगे और कुछ ने कहा कि हम इसका यक्षण (पूजा) करेंगे। इस पर ब्रह्माजी ने कहा कि जो रक्षण करेगा वह राक्षस कहलायेगा और जो यक्षण करेगा वह यक्ष कहलायेगा। इस प्रकार वे दो जातियों में बँट गये। राक्षसों में हेति और प्रहेति दो भाई थे। प्रहेति तपस्या करने चला गया, परन्तु हेति ने भया से विवाह किया जिससे उसके विद्युत्केश नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। विद्युत्केश के सुकेश नामक पराक्रमी पुत्र हुआ। सुकेश के माल्यवान, सुमाली और माली नामक तीन पुत्र हुये। तीनों ने ब्रह्मा जी की तपस्या करके यह वरदान प्राप्त कर लिये कि हम लोगों का प्रेम अटूट हो और हमें कोई पराजित न कर सके। वर पाकर वे निर्भय हो गये और सुरों, असुरों को सताने लगे। उन्होंने विश्‍वकर्मा से एक अत्यन्त सुन्दर नगर बनाने के लिये कहा। इस पर विश्‍वकर्मा ने उन्हें लंकापुरी का पता बताकर भेज दिया। वहाँ वे बड़े आनन्द के साथ रहने लगे। माल्यवान के वज्रमुष्टि, विरूपाक्ष, दुर्मुख, सुप्तघ्न, यज्ञकोप, मत्त और उन्मत्त नामक सात पुत्र हुये। सुमाली के प्रहस्त्र, अकम्पन्न, विकट, कालिकामुख, धूम्राक्ष, दण्ड, सुपार्श्‍व, संह्नादि, प्रधस एवं भारकर्ण नाम के दस पुत्र हुये। माली के अनल, अनिल, हर और सम्पाती नामक चार पुत्र हुये। ये सब बलवान और दुष्ट प्रकृति होने के कारण ऋषि-मुनियों को कष्ट दिया करते थे। उनके कष्टों से दुःखी होकर ऋषि-मुनिगण जब भगवान विष्णु की शरण में गये तो उन्होंने आश्‍वासन दिया कि हे ऋषियों! मैं इन दुष्टों का अवश्य ही नाश करूँगा।

"जब राक्षसों को विष्णु के इस आश्‍वासन की सूचना मिली तो वे सब मन्त्रणा करके संगठित हो माली के सेनापतित्व में इन्द्रलोक पर आक्रमण करने के लिये चल पड़े। समाचार पाकर भगवान विष्णु ने अपने अस्त्र-शस्त्र संभाले और राक्षसों का संहार करने लगे। सेनापति माली सहित बहुत से राक्षस मारे गये और शेष लंका की ओर भाग गये। जब भागते हुये राक्षसों का भी नारायण संहार करने लगे तो माल्यवान क्रुद्ध होकर युद्धभूमि में लौट पड़ा। भगवान विष्णु के हाथों अन्त में वह भी काल का ग्रास बना। शेष बचे हुये राक्षस सुमाली के नेतृत्व में लंका को त्यागकर पाताल में जा बसे और लंका पर कुबेर का राज्य स्थापित हुआ। अब मैं तुम्हें रावण के जन्म की कथा सुनाता हूँ। राक्षसों के विनाश से दुःखी होकर सुमाली ने अपनी पुत्री कैकसी से कहा कि पुत्री! राक्षस वंश के कल्याण के लिये मैं चाहता हूँ कि तुम परम पराक्रमी महर्षि विश्रवा के पास जाकर उनसे पुत्र प्राप्त करो। वही पुत्र हम राक्षसों की देवताओं से रक्षा कर सकता है।" अगस्त्य मुनि ने कहना जारी रखा, "पिता की आज्ञा पाकर कैकसी विश्रवा के पास गई। उस समय भयंकर आँधी चल रही थी। आकाश में मेघ गरज रहे थे। कैकसी का अभिप्राय जानकर विश्रवा ने कहा कि भद्रे! तुम इस कुबेला में आई हो। मैं तुम्हारी इच्छा तो पूरी कर दूँगा परन्तु इससे तुम्हारी सन्तान दुष्ट स्वभाव वाली और क्रूरकर्मा होगी। मुनि की बात सुनकर कैकसी उनके चरणों में गिर पड़ी और बोली कि भगवन्! आप ब्रह्मवादी महात्मा हैं। आपसे मैं ऐसी दुराचारी सन्तान पाने की आशा नहीं करती। अतः आप मुझ पर कृपा करें। कैकसी के वचन सुनकर मुनि विश्रवा ने कहा कि अच्छा तो तुम्हारा सबसे छोटा पुत्र सदाचारी और धर्मात्मा होगा।

"इस प्रकार कैकसी के दस मुख वाले पुत्र का जन्म हुआ जिसका नाम दशग्रीव रखा गया। उसके पश्‍चात् कुम्भकर्ण, शूर्पणखा और विभीषण के जन्म हुये। दशग्रीव और कुम्भकर्ण अत्यन्त दुष्ट थे, किन्तु विभीषण धर्मात्मा प्रकृति का था। अपने भाई वैश्रवण से भी अधिक पराक्रमी और शक्‍तिशाली बनने के लिये दशग्रीव ने अपने भाइयों सहित ब्रह्माजी की तपस्या की। ब्रह्मा के प्रसन्न होने पर दशग्रीव ने माँगा कि मैं गरुड़, नाग, यक्ष, दैत्य, दानव, राक्षस तथा देवताओं के लिये अवध्य हो जाऊँ। ब्रह्मा जी ने 'तथास्तु' कहकर उसकी इच्छा पूरी कर दी। विभीषण ने धर्म में अविचल मति का और कुम्भकर्ण ने वर्षों तक सोते रहने का वरदान पाया। "फिर दशग्रीव ने लंका के राजा कुबेर को विवश किया कि वह लंका छोड़कर अपना राज्य उसे सौंप दे। अपने पिता विश्रवा के समझाने पर कुबेर ने लंका का परित्याग कर दिया और रावण अपनी सेना, भाइयों तथा सेवकों के साथ लंका में रहने लगा। लंका में जम जाने के बाद अपने बहन शूर्पणखा का विवाह कालका के पुत्र दानवराज विद्युविह्वा के साथ कर दिया। उसने स्वयं दिति के पुत्र मय की कन्या मन्दोदरी से विवाह किया जो हेमा नामक अप्सरा के गर्भ से उत्पन्न हुई थी। विरोचनकुमार बलि की पुत्री वज्रज्वला से कुम्भकर्ण का और गन्धर्वराज महात्मा शैलूष की कन्या सरमा से विभीषण का विवाह हुआ। कुछ समय पश्‍चात् मन्दोदरी ने मेघनाद को जन्म दिया जो इन्द्र को परास्त कर संसार में इन्द्रजित के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

"सत्ता के मद में रावण उच्छृंखल हो देवताओं, ऋषियों, यक्षों और गन्धर्वों को नाना प्रकार से कष्ट देने लगा। एक बार उसने कुबेर पर चढ़ाई करके उसे युद्ध में पराजित कर दिया और अपनी विजय की स्मृति के रूप में कुबेर के पुष्पक विमान पर अधिकार कर लिया। उस विमान का वेग मन के समान तीव्र था। वह अपने ऊपर बैठे हुये लोगों की इच्छानुसार छोटा या बड़ा रूप धारण कर सकता था। विमान में मणि और सोने की सीढ़ियाँ बनी हुई थीं और तपाये हुये सोने के आसन बने हुये थे। उस विमान पर बैठकर जब वह 'शरवण' नाम से प्रसिद्ध सरकण्डों के विशाल वन से होकर जा रहा था तो भगवान शंकर के पार्षद नन्दीश्‍वर ने उसे रोकते हुये कहा कि दशग्रीव! इस वन में स्थित पर्वत पर भगवान शंकर क्रीड़ा करते हैं, इसलिये यहाँ सभी सुर, असुर, यक्ष आदि का आना निषिद्ध कर दिया गया है। नन्दीश्‍वर के वचनों से क्रुद्ध होकर रावण विमान से उतरकर भगवान शंकर की ओर चला। उसे रोकने के लिये उससे थोड़ी दूर पर हाथ में शूल लिये नन्दी दूसरे शिव की भाँति खड़े हो गये। उनका मुख वानर जैसा था। उसे देखकर रावण ठहाका मारकर हँस पड़ा। इससे कुपित हो नन्दी बोले कि दशानन! तुमने मेरे वानर रूप की अवहेलना की है, इसलिये तुम्हारे कुल का नाश करने के लिये मेरे ही समान पराक्रमी रूप और तेज से सम्पन्न वानर उत्पन्न होंगे। रावण ने इस ओर तनिक भी ध्यान नहीं दिया और बोला कि जिस पर्वत ने मेरे विमान की यात्रा में बाधा डाली है, आज मैं उसी को उखाड़ फेंकूँगा। यह कहकर उसने पर्वत के निचले भाग में हाथ डालकर उसे उठाने का प्रयत्न किया। जब पर्वत हिलने लगा तो भगवान शंकर ने उस पर्वत को अपने पैर के अँगूठे से दबा दिया। इससे रावण का हाथ बुरी तरह से दब गया और वह पीड़ा से चिल्लाने लगा। जब वह किसी प्रकार से हाथ न निकाल सका तो रोत-रोते भगवान शंकर की स्तुति और क्षमा प्रार्थना करने लगा। इस पर भगवान शंकर ने उसे क्षमा कर दिया और उसके प्रार्थान करने पर उसे एक चन्द्रहास नामक खड्ग भी दिया।"

अगस्त्य मुनि ने आगे कहा, "एक दिन हिमालय प्रदेश में भ्रमण करते हुये रावण ने अमित तेजस्वी ब्रह्मर्षि कुशध्वज की कन्या वेदवती को तपस्या करते देखा। उस देखकर वह मुग्ध हो गया और उसके पास आकर उसका परिचय तथा अविवाहित रहने का कारण पूछा। वेदवती ने अपने परिचय देने के पश्चात् बताया कि मेरे पिता विष्णु से मेरे विवाह करना चाहते थे। इससे क्रुद्ध होकर मेरी कामना करने वाले दैत्यराज शम्भु ने सोते में उनका वध कर दिया। उनके मरने पर मेरी माता भी दुःखी होकर चिता में प्रविष्ट हो गई। तब से मैं अपने पिता के इच्छा पूरी करने के लिये भगवान विष्णु की तपस्या कर रही हूँ। उन्हीं को मैंने अपना पति मान लिया है। "पहले रावण ने वेदवती को बातों में फुसलाना चाहा, फिर उसने जबरदस्ती करने के लिये उसके केश पकड़ लिये। वेदवती ने एक ही झटके में पकड़े हुये केश काट डाले। फिर यह कहती हुई अग्नि में प्रविष्ट हो गई कि दुष्ट! तूने मेरा अपमान किया है। इस समय तो मैं यह शरीर त्याग रही हूँ, परन्तु मेरा विनाश करने के लिये फिर जन्म लूँगी। अगले जन्म में मैं अयोनिजा कन्या के रूप में जन्म लेकर किसी धर्मात्मा की पुत्री बनूँगी। अगले जन्म में वह कन्या कमल के रूप में उत्पन्न हुई। उस सुन्दर कान्ति वाली कमल कन्या को एक दिन रावण अपने महलों में ले गया। उसे देखकर ज्योतिषियों ने कहा कि राजन्! यदि यह कमल कन्या आपके घर में रही तो आपके और आपके कुल के विनाश का कारण बनेगी। यह सुनकर रावण ने उसे समुद्र में फेंक दिया। वहाँ से वह भूमि को प्राप्त होकर राजा जनक के यज्ञमण्डप के मध्यवर्ती भूभाग में जा पहुँची। वहाँ राजा द्वारा हल से जोती जाने वाली भूमि से वह कन्या फिर प्राप्त हुई। वही वेदवती सीता के रूप में आपकी पत्‍नी बनी और आप स्वयं सनातन विष्णु हैं। इस प्रकार आपके महान शत्रु रावण को वेदवती ने पहले ही अपने शाप से मार डाला था. आप तो उसे मारने में केवल निमित्तमात्र थे।

"अनेक राजा महाराजाओं को पराजित करता हुआ दशग्रीव इक्ष्वाकु वंश के राजा अनरण्य के पास पहुँचा जो अयोध्या पर राज्य करते थे। उसने उन्हें भी द्वन्द युद्ध करने अथवा पराजय स्वीकार करने के लिये ललकारा। दोनों में भीषण युद्ध हुआ किन्तु ब्रह्माजी के वरदान के कारण रावण उनसे पराजित न हो सका। जब अनरण्य का शरीर बुरी तरह से क्षत-विक्षत हो गया तो रावण इक्ष्वाकु वंश का अपमान और उपहास करने लगा। इससे कुपित होकर अनरण्य ने उसे शाप दिया कि तूने अपने व्यंगपूर्ण शब्दों से इक्ष्वाकु वंश का अपमान किया है, इसलिये मैं तुझे शाप देता हूँ कि महात्मा इक्ष्वाकु के इसी वंश में दशरथनन्दन राम का जन्म होगा जो तेरा वध करेंगे। यह कहकर राजा स्वर्ग सिधार गये। "रावण की उद्दण्डता में कमी नहीं आई। राक्षस या मनुष्य जिसको भी वह शक्‍तिशाली पाता, उसी के साथ जाकर युद्ध करने करने लगता। एक बार उसने सुना कि किष्किन्धापुरी का राजा बालि बड़ा बलवान और पराक्रमी है तो वह उसके पास युद्ध करने के लिये जा पहुँचा। बालि की पत्‍नी तारा, तारा के पिता सुषेण, युवराज अंगद और उसके भाई सुग्रीव ने उसे समझाया कि इस समय बालि नगर से बाहर सन्ध्योपासना के लिये गये हुये हैं। वे ही आपसे युद्ध कर सकते हैं। और कोई वानर इतना पराक्रमी नहीं है जो आपके साथ युद्ध कर सके। इसलिये आप थोड़ी देर उनकी प्रतीक्षा करें। फिर सुग्रीव ने कहा कि राक्षसराज! सामने जो शंख जैसे हड्डियों के ढेर लगे हैं वे बालि के साथ युद्ध की इच्छा से आये आप जैसे वीरों के ही हैं। बालि ने इन सबका अन्त किया है। यदि आप अमृत पीकर आये होंगे तो भी जिस क्षण बालि से टक्कर लेंगे, वह क्षण आपके जीवन का अन्तिम क्षण होगा। यदि आपको मरने की बहुत जल्दी हो तो आप दक्षिण सागर के तट पर चले जाइये। वहीं आपको बालि के दर्शन हो जायेंगे।

"सुग्रीव के वचन सुनकर रावण विमान पर सवार हो तत्काल दक्षिण सागर में उस स्थान पर जा पहुँचा जहां बालि सन्ध्या कर रहा था। उसने सोचा कि मैं चुपचाप बालि पर आक्रमण कर दूँगा। बालि ने रावण को आते देख लिया परन्तु वह तनिक भी विचलित नहीं हुआ और वैदिक मन्त्रों का उच्चारण करता रहा। ज्योंही उसे पकड़ने के लिये रावण ने पीछे से हाथ बढ़ाया, सतर्क बालि ने उसे पकड़कर अपनी काँख में दबा लिया और आकाश में उड़ चला। रावण बार-बार बालि को अपने नखों से कचोटता रहा किन्तु बालि ने उसकी कोई चिन्ता नहीं की। तब उसे छुड़ाने के लिये रावण के मंत्री और अनुचर उसके पीछे शोर मचाते हुये दौड़े परन्तु वे बालि के पास तक न पहुँच सके। इस प्रकार बालि रावण को लेकर पश्‍चिमी सागर के तट पर पहुँचा। वहाँ उसने सन्ध्योपासना पूरी की। फिर वह दशानन को लिये हुये किष्किन्धापुरी लौटा। अपने उपवन में एक आसन पर बैठकर उसने रावण को अपनी काँख से निकालकर पूछा कि अब कहिये आप कौन हैं और किसलिये आये हैं? "रावण ने उत्तर दिया कि मैं लंका का राजा रावण हूँ। आपके साथ युद्ध करने के लिये आया था। वह युद्ध मुझे मिल गया। मैंने आपका अद्‍भुत बल देख लिया। अब मैं अग्नि की साक्षी देकर आपसे मित्रता करना चाहता हूँ। फिर दोनों ने अग्नि की साक्षी देकर एक दूसरे से मित्रता स्थापित की।"