Saturday, June 1, 2013

गीता की साँख्यिकी

गीता की साँख्यिकी - a statistics - 700 श्लोकों की गीता में धृतराष्ट्र ने केवल 1 श्लोक बोला, सँजय ने 41 बार बोला, अर्जुन 84 बार बोलता है, पूछता है, जो शायद 84 लाख योनियों को सँतुष्ट करने के लिये काफी है, अर्जुन की शब्दावली ही केवल अलग है, उसको कृष्ण से कहलवाना तो एक ही बात है कि "युद्ध न करना ही अच्छा है", तथा कृष्ण 574 बार बोलते हैं जवाब देते हैं जो उनकी धैर्यता की पराकाष्ठा का प्रतीक है, इस तरह से यह 700 श्लोकों की गीता समाप्त हो जाती है केवल पुस्तक में।

हम सभी के वास्तविक जीवन में और जन्म-जन्मान्तर यह गीता सँदेश गूँजता ही रहता है, क्यों कि इसका सँबंध कर्मों और कर्म फल के ग्यान से है जो कभी समाप्त नहीं हो सकता। आप पायेंगे कि धीरे धीरे अर्जुन प्रश्न पूछने के मामले में शिथिल होता जाता है अँत में पूर्ण रूपेण सँतुष्ट दिखाई देता है; जैसे पहले अध्याय में उसके 21 प्रश्न थे जो अंतिम अध्याय में प्रश्न ना होकर उत्तर हो जाते हैं - कि "मुझे स्मृति आ गयी है, मेरा "मोह" नष्ट हो गया है (18-73) अब मैं वही करुंगा जो तुम मुझे आदेश दोगे"।

यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि गीता में "क्षत्रीय" शब्द किसी शरीर आधारित धर्म या जाति के लिये प्रयोग नहीं हुआ है बल्कि देश की रक्षा करने वाले वीर के लिये ही प्रयोग हुआ है, जैसे ब्राम्हण् का कार्य है ग्यान देन, उसी तरह से क्षत्रीय का कार्य है अँतरिक एवम बाहरी शत्रुओं से देश की रक्षा करना। सारे वर्ण इसी आधार पर बने हुए हैं। जो ग्यान दे वह ब्राम्हण, जो रक्षा कर सके वह क्षत्रीय, जो व्यापार करे वह वैश्य और जो सेवा करे वह शूद्र, तो इस अर्थ में तो एक क्षत्रीय भी शूद्र ही होता है क्यों कि वह देश की सेवा करता है, और इस अर्थ में तो गीता के अनुसार सभी शूद्र हो जाते हैं क्यों कि सभी किसी ना किसी सेवा कार्य में व्यस्त रहते हैं।

जीवन भी एक यात्रा ही है, कई मुसाफिर मिलते हैं और बिछड जाते हैं, कई स्टेशन आते हैं और पीछे छूट जाते हैं, सभी अपने अपने गन्तव्य की ओर प्रस्थान कर रहे होते हैं, मुख्य मुद्दा है आत्मारूपी ड्राइवर का सदैव प्रसन्नचित्त रहना फिर यात्रा कितनी ही लंबी क्यों ना हो अखरती नहीं, खास करके यदि कोई अच्छा साथी भी मिल जाये इस यात्रा में तो सोने पे सुहागा।

गीता के सभी उपदेश इसी जीवन रूपी यात्रा को सुखद, और मंगलमय बनाने के लिये ही हैं, दुखों से छुडाने के लिये ही हैं।

अध्याय 1 से 5 तक जीवन की योजना क्या हो कैसी हो इस बारे में सुंदर मार्ग दर्शन मिलता है जीवन के महासिद्धांत और उनका पालन कैसे करें इसकी रूप रेखा की सुंदर चर्चा ग्यान योग, कर्म योग के द्वारा।

अध्याय 6 से 11 तक भक्ति की चर्चा है अलग अलग ढंग से और "गीता" के अनुसार भक्ति अर्थात "प्रेम" या कहें हम जो भी कार्य करते हैं उसे यदि पूरी तरह से इन्वौल्व होकर के करें उसमें पूरी आत्मा उंडेलें अपनी, तो उसे ही भक्ति योग कहा है,

तथा अध्याय् 11 में साक्षात भक्ति के दर्शन विश्वरूप दर्शन योग के माध्यम से हो जाते हैं।

12 वें अध्याय में साकार निराकार भक्तों के 39 लक्षण और तुलनात्मक अध्ययन्। भगवान की भक्ति करने वालों के लिये एक दर्पण या आईना है यह अध्याय, जो हमारी आँखें भी खोल सकता है और हम शर्म से पानी पानी भी हो सकते हैं यदि हम देखें कि दिये हुए लक्षणों या गुणों में से हम में अधिकतर गुण नदारद हैं या कहें एकभी लक्षण नहीं है तो।

13वें अध्याय में ग्यान का महत्वपूर्ण विभाग - आत्मा को शरीर से प्रथक करने के बारे में ही है तथा कर्म फल में अनासक्ति का सुंदर वर्णन।

14 वां अध्याय सतो रजो तमो गुणों से अतीत बनने का नुस्खा बताता है।

15वां अध्याय तो भगवान के अनुसार एक शास्त्र ही है जिसमें जीवन की पूर्णता समाई हुई है- देखें अंतिम श्लोक 20वां - इतिगुह्यतमम शास्त्रं...।

16वां अध्याय - भलाई बुराई के बारे में, अर्थात जीवन में क्या छोडना और क्या पकडना चाहिये इसकी सुंदर व्याख्या करता है। 26 दैवी गुण धारण करने के लिये प्रेरणा, और यदि एक भी अच्छे से धारण कर लिया तो भी बेडा पार समझें क्यों कि बाकी उसके पीछे पीछे चले आयेंगे और जीवन सरल हो जायेगा।

17वां अध्याय जीवन का कार्यक्रम सुचारू रूप से चलाने के बारे में है और यह कि हम ऋण मुक्त कैसे हों।

18वां अध्याय पटाक्षेप और सभी पिछले 17 अध्यायों का सार है, और इसी अध्याय में भगवान ने कहा है कि - "मरने के बाद तो सभी मुझे प्यारे हो ही जाते हैं जैसा कि आप लोग भी कहते ही हो ना (मरने के बाद कहते हैं ना कि भगवान को प्यारा हो गया), किंतु मुझे इस पृथ्वी पर उससे अधिक प्यारा और कोई नहीं हो सकता जो "जीते जी" इस गीता ग्यान का प्रचार प्रसार मानव कल्याण के लिये करेगा (न च तस्मान्मनुश्येशू....18/69)।

इसीलिये मैंने जीते जी भगवान का प्यारा होने की ठानी है, मरने के बाद की कौन जाने ? मरने के बाद आजतक कोई भी बताने नहीं आया —

ब्रह्माण्ड की कुल आयु

28 वे महायुग के तीन युग (सत्युग, त्रेता, दवापर) बीत चुके है!
1 महायुग = 4,320,000
कलि महायुग का 10 % होता है =4,320,000*(10 /100 ) =4,32,000
कलि अभी चल रहा है इसलिए इसे महायुग मेसे घटा देते है =

4,320,000-4,32,000= 3888000 वर्ष, 28 वे महायुग के बीत चुके है ।

बिता हुआ समय = 27 महायुग + 3888000 वर्ष

उपरोक्त समय 7 वे मन्वन्तर का है । इससे पहले 6 मन्वन्तर पुरे बीत चुके है ।
6 मन्वन्तर = 426 महायुग {चूँकि 1 मन्वन्तर = 71 महायुग }

बिता हुआ समय = 426 महायुग +27 महायुग + 3888000 वर्ष।

ध्यान रहे हमें नियतांक और शामिल करना होगा । वेदों के अनुसार ब्रह्मा के प्रत्येक मन्वन्तर के मध्य 4 युगों का समय अंतराल होता है ।
6 मन्वन्तरों में कुल अन्तराल = 6 * 4 = 24 युग
=2.4 महायुग {चूँकि कलि युग महायुग का 10 % भाग होता है}

बिता हुआ समय = 2.4 महायुग+426 महायुग +27 महायुग + 3888000 वर्ष।

अब हम ब्रह्मा के 51 वे वर्ष के 1 दिन तक की गणना कर चुके है । इससे पीछे नही जाना क्यू की इससे पीछे
ब्रह्मा के 50 वे वर्ष का 360 वां दिन की रात्रि आ जायेगी , रात्रि मतलब विनाश । और उसे भी पूर्व जायेंगे तो
ब्रह्मा के 50 वे वर्ष का 360 वां दिन आ जायेगा, वो दिन इस दिन से भिन्न है अर्थात ब्रह्मा का वो स्वप्न इस स्वप्न से भिन्न है अर्थात वो ब्रह्माण्ड इस ब्रह्माण्ड का भूतपूर्व है ।

इस ब्रह्माण्ड की कुल आयु = 2.4 महायुग+426 महायुग +27 महायुग + 3888000 वर्ष।
= 455.4 महायुग+ 3888000 वर्ष।
= 455.4 * 4,320,000 + 3888000 वर्ष {चूँकि 1 महायुग =4,320,000 }
=1972944000 वर्ष

इस कलि के 5000 वर्ष बित चुके है यदि उन्हें भी जोड़े तो ब्रह्माण्ड की कुल आयु =
1972944000 वर्ष + 5000
=1972949000 वर्ष !

मनुष्यको दुःख देनेवाला खुदका संकल्प है

मनुष्यको दुःख देनेवाला खुदका संकल्प है । ऐसा होना चाहिये और ऐसा नहीं होना चाहिये‒यह जो मनकी धारणा है, इसीसे दुःख होता है । अगर वह संकल्प छोड़ दे तो एकदम योग (समता) की प्राप्ति हो जायगी‒‘सर्वसंकल्पसन्न्यासी योगारूढस्तदोच्यते’ (गीता ६/४) । अपना ही संकल्प करके आप दुःख पा रहा है मुफ्तमें ! संकल्पोंका कायदा यह है कि जो संकल्प पूरे होनेवाले हैं, वे तो पूरे होंगे ही और जो नहीं पूरे होनेवाले हैं, वे पूरे नहीं होंगे, चाहे आप संकल्प करें अथवा न करें । सब संकल्प किसीके भी पूरे नहीं हुए, और ऐसा कोई आदमी नहीं है, जिसका कोई संकल्प पूरा नहीं हुआ । तात्पर्य है कि कुछ संकल्प पूरे होते हैं और कुछ संकल्प पूरे नहीं होते‒यह सबके लिये एक सामान्य विधान है । जैसा हम चाहें, वैसा ही होगा‒यह बात है नहीं । जो होना है, वही होगा ।
होइहि सोइ जो राम रचि राखा ।
को करि तर्क बढ़ावै साखा ॥
(मानस १/५२/४)


इसलिये अपना संकल्प रखना दुःखको, पराधीनताको निमन्त्रण देना है । अपना कुछ भी संकल्प न रखें तो होनेवाला संकल्प पूरा हो जायगा । जैसा तुम चाहो वैसा ही हो जाय‒यह हाथकी बात नहीं है । अतः संकल्प करके क्यों अपनी इज्जत खोते हो ? कुछ आना-जाना नहीं है ! अगर मनुष्य संकल्पोंका त्याग कर दे तो योगारूढ़ हो जाय, तत्त्वकी प्राप्ति हो जाय; जो कुछ बड़ा-से-बड़ा काम है, वह हो जाय; यह मनुष्य जन्म सफल हो जाय, कुछ भी करना, जानना और पाना बाकी नहीं रहे ! अतः अपना संकल्प कुछ नहीं रखो । वह संकल्प चाहे भगवान्‌के संकल्पपर छोड़ दो, चाहे संसारके संकल्पपर छोड़ दो, चाहे प्रारब्ध (होनहार) पर छोड़ दो और चाहे प्रकृतिपर छोड़ दो* । जो अच्छा लगे, उसीपर छोड़ दो तो दुःख मिट जायगा । भगवान्‌पर छोड़ दो तो जैसा भगवान्‌ करेंगे, वैसा हो जायगा । संसारपर छोड़ दो तो संसार (माता-पिता, भाई-बन्धु, कुटुम्ब-परिवार आदि) की जैसी मर्जी होगी, वैसे हो जायगा । अपने प्रारब्धपर छोड़ दो तो प्रारब्धके अनुसार जैसा होना है, वैसा हो जायगा । अपना कोई संकल्प नहीं करना है । अपना संकल्प रखकर बन्धनके सिवाय और कुछ कर नहीं सकते । होगा वही जो भगवान्‌ करेंगे, जो प्रारब्धमें है अथवा जो संसारमें होनेवाला है ।


भगवान्‌ने कहा है‒‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन’ (गीता २/४७)‘कर्तव्य-कर्म करनेमें ही तेरा अधिकार है, फलोंमें कभी नहीं ।’ ऐसा करेंगे और ऐसा नहीं करेंगे, शास्त्रसे विरुद्ध काम नहीं करेंगे‒इसमें तो स्वतन्त्रता है, पर दुःखदायी और सुखदायी परिस्थिति तो आयेगी ही; आप चाहो तो आयेगी, न चाहो तो आयेगी । करनेमें सावधान रहना है । शास्त्रकी, सन्त-महात्माओंकी आज्ञाके अनुसार काम करना है । इसमें कोई भूल होगी तो वह मिट जायगी । कभी भूलसे कोई विपरीत कार्य हो भी जायगा तो वह ठहरेगा नहीं, टिकेगा नहीं, मिट जायगा । खास बात इतनी करनी है कि अपना संकल्प नहीं रखना है । अपना कोई संकल्प न रहे तो आदमी सुखी हो जाय । ‘यूँ भी वाह-वा है और वूँ भी वाह-वा है’ ऐसा हो जाय तो भी ठीक, वैसा हो जाय तो भी ठीक !
रज्जब रोष न कीजिये, कोई कहे क्यों ही ।
हँसकर उत्तर दीजिये, हाँ बाबाजी यों ही