Thursday, February 6, 2014

वृन्दावन की प्राचीनता

वृन्दावन की प्राचीनता :- 
श्रीमद् भागवत में वृन्दावन का उल्लेख नन्दादिगोपों द्वारा श्रीकृष्ण सहित गोकुल को छोड़कर वृन्दावन गमन करने के समय आता है जहाँ कि श्रीकृष्ण द्वारा अनेकानेक अद्भुत लीलाएँ की गई थीं। श्रीकृष्ण जी के प्रपौत्र ने समस्त लीला स्थलियों को प्रतिष्ठापित किया तथा अनेक मन्दिर, कुण्ड एवं सरोवरों आदि की स्थापना की थी। सन् १५१५ ई. में श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु वृन्दावन पधारे। इसके अतिरिक्त स्वामी हरिदासजी, श्री हित हरिवंश, श्री निम्बार्काचार्य, श्रीलोकनाथ, श्री अद्वेताचार्यपाद, श्रीमान्नित्यानन्दपाद आदि अनन्य अनेकों संत-महात्माओं ने वृन्दावन में निवास किया था। गुप्तकालीन महाकवि कालिदास ने अपने महाकाव्य रघुवंश में कुबेर के चौत्ररथ नामक उद्यान से वृन्दावन की तुलना की हैं। 

१४वीं शताब्दी में वृन्दावन की विद्यमानता का उल्लेख अनेक जैन-ग्रन्थों में भी मिलता है। इस पावन स्थली का वृन्दावन नामकरण कैसे हुआ? इस संबंध में अनेक मत हैं। 'वृन्दा' तुलसी को कहते हैं। यहाँ तुलसी के पौधे अधिक थे। इसलिए इसे वृन्दावन कहा गया। वन्दावन की अधिष्ठात्री देवी वृन्दा हैं। कहते हैं कि वृन्दा देवी का मन्दिर सेवा कुंज वाले स्थान पर था। यहाँ आज भी छोटे-छोटे सघन कुंज हैं। ब्रह्म वैवर्त पुराण के अनुसार वृन्दा राजा केदार की पुत्री थी। उसने इन वन स्थली में घोर तप किया था। अत: इस वन का नाम वृन्दावन हुआ। कालान्तर में यह वन धीरे-धीरे बस्ती के रुप में विकसित होकर आबाद हुआ। इसी पुराण में कहा गया है कि श्रीराधा के सोलह नामों में से एक नाम वृन्दा भी है। वृन्दा अर्थात् राधा अपने प्रिय श्रीकृष्ण से मिलने की आकांक्षा लिए इस वन में निवास करती है और इस स्थान के कण-कण को पावन तथा रसमय करती हैं। आदि वृन्दावन इतिहास के पृष्ठों में कुछ विद्वानों के अनुसार यह वह वृन्दावन नहीं है, जहाँ भगवान श्री कृष्ण ने अपनी दिव्य लीलाओं के द्वारा प्रेम एवं भक्ति का साम्राज्य स्थापित किया था।

 ये लोग पौराणिक वर्णन के आधार लेकर कहते हैं कि वृन्दावन के समीप गोवर्धन पर्वत की विद्यमानता बताई है जबकि वह यहाँ से पर्याप्त दूरी पर है। कुछ लोग राधाकुण्ड को तो कुछ लोग कामा को वृन्दावन सिद्ध करते हैं। उस काल में यमुना वहीं होकर बहती थी। धीरे-धीरे यमुना का प्रवाह बदलता रहा। प्राचीन वृन्दावन के लुप्त प्राय: हो जाने से नवीन स्थल पर वृन्दावन बसाया गया। वृन्दावन कहीं भी रहा हो यह बात खोजी तथा तार्किकों के लिए छोड़ देना चाहिए। इन बातों से वृन्दावन की महिमा में कोई कमी नहीं आती। पंद्रहवीं-सोलहवी शताब्दी में मदन-मोहनजी, गोविन्द देवजी, गोपीनाथजी, राधाबल्लभजी आदि मन्दिरों का निर्माण हो चुका था। औरंगजेब के शासन के समय जब वृन्दावन ही नहीं, ब्रज मण्डल के अनेक मन्दिरों को नष्ट किया जा रहा था तब वृन्दावन के अनेक श्रीविग्रहों के जयपुर आदि अन्यान्य स्थानों को भेज दिया गया था। वृन्दावन का नाम मोमिनाबाद रखने का प्रयत्न किया जो प्रचलित नहीं हो सका और सरकारी कागजातों तक ही सीमित रहा। सन् १७१८ ई. से सन् १८०३ ई. तक तो ब्रजमण्डल में जाट राजाओं का आधिपत्य रहा, लेकिन सन् १७५७ ई. में अहमदशाह ने ब्रज मण्डल के मथुरा, महावन आदि तीर्थ स्थलों के साथ वृन्दावन में भी लूटपाट की थीं। सन् १८०१ ई. के अन्तिम काल में ब्रज मण्डल के अनेक क्षेत्रों पर पुन: जाट राजाओं का फिर से हुकूमत हो गई। उसके बाद ही वृन्दावन को पुन: प्रतिष्ठित होने का अवसर मिला। 

यह स्थान देश कि राजधानी दिल्ली से लगभग १५० कि.मी. कि दूरी पर स्थित है और सभी मुख्य जगहों से रेल गाड़ियाँ मथुरा आती है जहाँ से वृन्दावन लगभग १४ कि.मी है. यमुना नदी इस पवन स्थान को अपने कृष्ण वर्ण के जल से और अधिक पवन और मनोहर बना देती है.जैसी शांति इस पावन धाम में आकर प्राप्त होती है वैसी कदाचित ही और कहीं प्राप्त होती हो. यहाँ अनेको मंदिर और घाट हैं जो आज भी श्री राधा-कृष्ण की दिव्य लीलाओं का स्मरण करा रहें हैं.यहाँ का मुख्य दर्शनीय मंदिर है श्री बांके बिहारी मंदिर,जो यहाँ की संकरी तथा मन को आनंद प्रदान करने वाली छोटी छोटी गलियों में स्तिथ है.यहाँ एक अद्भुत रीत है की ,श्री विग्रह के दर्शन नित्य नहीं होते, समय समय पर भगवन के आगे पर्दा होता रहता है ,यहाँ भक्तो मैं जाती पाती का कोई भी बंधन नहीं है,हो भी कैसे यह भूमि तो बस भगवन के प्रेमियों के लिए ही है फिर चाहे वे कोई भी क्यूँ न हो? यहाँ अनेको मनोहर मंदिर हैं जिनमे श्री राधा-वल्लभ मंदिर, श्री युगल-किशोर मंदिर, श्री रंग जी मंदिर जो कि दक्षिणी भारत कि कला का एक अनोखा नमूना है तथा इस्क्कोन मंदिर जहाँ अनेको विदेशी भी कृष्ण कीर्तन में झूमते हैं विशेष दर्शनीय हैं. 

और भी अनेको मंदिर श्री वृन्दावन धाम में स्थित हैं. यहाँ १२ मुख्य वन हैं जिनमे निधिवन और सेवाकुंज अति मनोहर हैं और शांतिप्रदायक हैं.इन वनों में मनो आज भी श्री कृष्ण अपनी मनोहर वंशी बजाकर सबको आकर्षित कर रहें हैं. घाटों में तो यहाँ एक अद्भुत और आश्चर्यजनक सौंदर्य है जिसे बखान पाना शायद संभव ही नहीं है.सूर्य देव जब संध्या में अस्ताचल को प्रस्थान कर रहे होते है तब उनकी किरणों के स्पर्श से यमुना का जल पिघला सोना लगता है.केशिघट और कालियाघट श्री कृष्ण की उन लीलाओं का स्मरण कराती है जब उन्होंने केशी दैत्य और कालिया नाग का दमन करके संसार को सुखी किया. 

यहाँ गोपियों की सची भक्ति और विशुद्ध प्रेम दर्शाता है राधावन जहाँ श्री राधा आदि गोपियाँ श्री कृष्ण का श्रृंगार आदि करा करती थी. अनेको संतों ने यहाँ दर्शन किये तथा यहाँ का वातावरण पूर्ण कृष्णमय ही बना दिया.श्री चैतन्य महाप्रभु ,मीराबाई,वल्लभाचार्य,स्वामी हरिदास,सूरदास,तुलसीदास आदि अनेको महा संतों ने यहाँ श्री कृष्ण के साक्षात् दर्शन पाए. || हरे कृष्ण ||

Monday, February 3, 2014

भारत की गीर गाय





भारत की गीर गाय के नाम 65 लिटर दूध देने का रिकार्ड है.

भारत में 18 करोड़ गाय है जिनमे 13 करोड़ गाये बच्चा देने लायक है और इनमे से करीब 70 % देशी नस्ल की गाये कम दुध् देने वाली नस्ल है. जिनको उन्नत नस्ल बनाने के लिए दूध की खान "गीर" गायो के सांडों से "क्रास" कराना चाहिए और लोग कर भी रहे हैं परन्तु गीर नस्ल के सांडों की बेहद कमी हो गयी है जिसके लिए हमारी मुर्खता जिम्मेदार है. हम गायो की फिकर करते हैं लेकिन सांडों के बारे में सोचते ही नहीं....एडवांस हो चुके हैं..नंदी की कदर क्या जाने..

उधर सिर्फ 5000 के करीब गीर गाय पुरे भारत में बची है जो शुद्ध है परन्तु इनके सांडो की संख्या 300 से भी कम है क्योकि हम एडवांस हो चुके हैं, हमें सिर्फ गाय का थन ही दिखता है.

अब आप सोचिये.....13 करोड़ गायो को यदि हम गीर नस्ल से ज्यादा दूध देने वाली और बीमार न होने वाली दुमरेजी गाय बनाना भी चाहे तो 13 करोड़ गाय और 300 सांड यानी एक सांड के पीछे (13,00,00,000/300 = 4,33,333 गाये ) 4 लाख से ज्यादा गाये आयेंगे जो असंभव है. यह आंकडा थोड़ा सा कम ज्यादा हो सकता है लेकिन गलत नहीं है. सांडो की इतनी कमी के पीछे बहुत सारी साजिस भी है.

थोड़ा सा पैसा कमाने के चक्कर में खुद कुछ हिन्दू भी छुट्टा सांडो को चोरी चोरी क़त्ल खानों को बेच रहे हैं. यदि हर १० गाव में एक गीर छुट्टा सांड पाल दिया जाये तो भारत में दूध की नदी फिर से बहेगी.