Wednesday, April 8, 2020

ब्रह्मास्त्र - by Vinay Jha

ब्रह्मास्त्र —

स्वशाखा के वेद का ही पाठ करना चाहिए । स्वशाखा अर्थात् स्व−अध्याय का दैनिक अध्ययन ही स्वाध्याय है ।
जबतक स्वशाखा पूरा न सीख लें तबतक वेद की अन्य किसी शाखा का अध्ययन परम्परा नहीं है । पाणिनीय व्याकरण की वैदिकी प्रक्रिया में वेद के सामान्य नियम हैं । शाखाविशेष के विशिष्ट नियम उस शाखा के प्रातिशाख्य में मिलेंगे । सामवेद और यजुर्वेद की किसी शाखा का कोई प्रातिशाख्य मुझे आजतक नहीं मिला (कौथुमी प्रातिशाख्य दो खण्डों में नयी दिल्ली इन्दिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केन्द्र में है),मैंने शाकल ऋग्वेद और माध्यन्दिन वाजसनेयी शुक्ल यजुर्वेद के प्रातिशाख्यों का अध्ययन किया है,ये दोनों प्रकाशित और सुलभ हैं ।
मेरी शाखा है माध्यन्दिन वाजसनेयी शुक्ल यजुर्वेद,किन्तु सभी वैदिकों को शाकल ऋग्वेदीय प्रातिशाख्य का अध्ययन करना ही चाहिए क्योंकि उसमें उच्चारण के उन सामान्य नियमों का विस्तार से वर्णन है जो प्राचीन से लेकर आधुनिक काल तक के संसार के किसी ग्रन्थ में उल्लेख नहीं है ।
जैसे कि “ऋ” का सही उच्चारण । आजकल दक्षिण भारत में “ऋ” को रु उच्चारित करते हैं और उत्तर भारत में रि — दोनों गलत हैं । “ऋ” का सही उच्चारण ऋग्वेदीय प्रातिशाख्य में वर्णित है —- सम्पूर्ण “ऋ” के कुल उच्चारण−काल का चौथाई हिस्सा आरम्भ में संक्षिप्त “अ” है,ऐसा ही “अ” अन्तिम चौथाई काल में है,और बीच में आधा समय “र” है । वेदपाठ में उच्चारण अशुद्ध होने से फल नष्ट होता है ।
किन्तु पूरे भारत में मुझे एक भी वैदिक नहीं मिला जिसने कभी किसी प्रातिशाख्य का अध्ययन किया हो । वे लोग बाल्यावस्था में याज्ञवल्क्य−शिक्षा पढ़ते हैं जिसके पश्चात कोई प्रातिशाख्य कभी नहीं छूते । याज्ञवल्क्य−शिक्षा गुरुकुल के ब्रह्मचारी बटुकों के लिये है किन्तु उसमें भी किसी कमीने ने अश्लील बाते जोड़ दी हैं जो ब्रह्मचारी को पढ़ाना पाप है । ऐसे प्रक्षिप्त अंशों को छोड़ दें तो याज्ञवल्क्य−शिक्षा वेदपाठ सीखने के लिये उत्कृष्ट ग्रन्थ है और वेदाङ्ग में सम्मिलित “शिक्षा” है ।
किसी भी वैदिक शिक्षा−ग्रन्थ अथवा प्रातिशाख्य अथवा व्याकरण में गायत्री के “वरेण्यम्” को “वरेणियम्” पढ़ने का आदेश नहीं है । गायत्री के सहस्रों भेद हैं,उनमें से किसी किसी पाठ में गुरु−परम्परा द्वारा “वरेणियम्” पढ़ने का आदेश है जो उस परम्परा के शिष्यों को मानना चाहिए किन्तु उसे सबके लिए सामान्य नियम नहीं बनाना चाहिए । सन्ध्यावन्दन का आवश्यक अङ्ग गायत्री−जप को माना जाता है क्योंकि गायत्री तीनों वेदों में है जिस कारण गायत्री का दैनिक जप करने से स्वाध्याय का पालन हो जाता है । माध्यन्दिन वाजसनेयी शुक्ल यजुर्वेद के ब्राह्मण−ग्रन्थ “शतपथ ब्राह्मण” का आदेश है कि नियमित स्वाध्याय कर्तव्य है जिसका त्याग केवल अनाध्याय के दिन ही किया जाना चाहिए । अनाध्याय−काल में वेदपाठ वर्जित है,उसका नियम मुहूर्त−चिन्तामणि में मिलेगा ।
वेद के दो भाग हैं — संहिता और ब्राह्मण । आजकल जिन ग्रन्थों को ऋग्वेद,यजुर्वेद,आदि कहा जाता है वे वस्तुतः वेद न होकर संहिता हैं,जैसे कि ऋक्−संहिता । ऋक्−संहिता में ऋचायें हैं,यजुर्वेद नाम से प्रसिद्ध संहिता में यजुः होते हैं,सामवेद नाम की संहिता में साम हैं । गायत्री इन तीनों में हैं किन्तु वर्तनी (स्पेल्लिंग) समान होने पर भी पाठ के नियमों में अन्तर है । अतः गायत्री−ऋचा,गायत्री−यजुः और गायत्री−साम में परस्पर अन्तर है और इनमें भी सहस्रों प्रकार के शाखाभेद हैं । वेद लिखा नहीं जा सकता,वेद श्रुति है जिसे केवल गुरुमुख द्वारा ही सीखा जा सकता है । वेद नाम के प्रकाशित पुस्तकों में वेद का प्राणहीन अस्थिपञ्जर मिलेगा ।
संहिता और उसके ब्राह्मणग्रन्थ को मिलाकर “वेद” कहते हैं । अंग्रेजों ने केवल संहिता को ही वेद कहा और उसमें भी केवल ऋग्वेद को मान्यता दी,जबकि सारी संहितायें एकसाथ यज्ञों में प्रयुक्त होती हैं और यज्ञ का मुख्य वेद ऋग्वेद नहीं वरन् यजुर्वेद है जो आज भी आर्यावर्त के ९५% आर्यों का वेद है । गैर−ब्राह्मण आर्यों का वेद उनके कुलब्राह्मणों का वेद होता है ।
उपरोक्त संहिता ग्रन्थ में वर्णित ऋचा वा यजुस् वा साम को उसी वेद की उसी शाखा के ब्राह्मण−ग्रन्थ में वर्णित विधि द्वारा जब व्यावहारिक प्रयोग हेतु उपयुक्त बनाया जाय तब उसे “मन्त्र” कहते हैं,क्योंकि तब उस मन्त्र में मन के संकल्प को कल्प द्वारा पूर्व में अनुपस्थित अपूर्व फल का उत्पादन करने की शक्ति आ जाती है ।
वैदिक यज्ञ को कल्प कहते हैं । समस्त वैदिक यज्ञों के विस्तृत वर्णन वाले साहित्य को भी कल्प कहते हैं जो वेदाङ्ग में सम्मिलित है । यज्ञ द्वारा जो नवीन फल उत्पन्न होता है उसे मीमांसा की शब्दावली में “अपूर्व” कहते हैं । मन का प्रमुख लक्षण है संकल्प करने की क्षमता । यह क्षमता चौरासी लाख योनियों में से केवल एक ही योनि में होती है,अतः जिस योनि का मन संकल्प करने में समर्थ हो उसे मनुष्य वा मानव कहते हैं । संकल्प सहित कार्य को ही “कर्म” कहा जाता है क्योंकि केवल ऐसा कार्य ही कर्मफल का उत्पादक है । पशु कर्म नहीं करता क्योंकि वह पूर्णतया प्रकृति के अधीन है,स्वेच्छा से संकल्प नहीं कर सकता । उदाहरणार्थ व्याघ्र घास नहीं खा सकता,अतः उसे हिंसा का दोष नहीं लगता । किन्तु मनुष्य को छूट है कि वह शाकाहार करे वा मांसाहार । अतः मनुष्य जैसा कर्म करने का संकल्प लेता है वैसे फल भी उसे भोगने पड़ते हैं । मनुष्ययोनि कर्मयोनि भी है और भोगयोनि भी,अन्य सारे जीव केवल भोगयोनि हैं,पाश में बद्ध होने के कारण पशु हैं ।
मनुष्य एकमात्र योनि है जिसमें शक् द्वारा कश् की लब्धि सम्भव है । शक् का अर्थ है शक्ति प्राप्त करना । कश् का अर्थ है किनारे लगना ।
भवसागर के पार लगकर जो किनारे के जल का पान करे उसे कहते हैं “कश्यप” जो मेरा गोत्र है । यह भौतिक जल नहीं है । इस अप् का फल है पा,अर्थात् पालन के हेतु पदार्थ का पान करना ।
शक्ति प्राप्त करने की विधि है वेद । कोई भी वेदमन्त्र किसी देव वा देवी को समर्पित नहीं हैं,सारे मन्त्र “देवता” को समर्पित हैं जो स्त्रीलिङ्ग है और जिसका अर्थ है दिव्य शक्ति । उदाहरणार्थ किसी सूक्त में इन्द्र नाम के देव की स्तुति है तो उस सूक्त के देवता हैं इन्द्र जिसका अर्थ यह है कि इन्द्र नाम के देव में अन्तर्निहित दिव्य शक्ति को वह सूक्त समर्पित है ।
वेद के दो भाग हैं । पूर्ववेद है कर्मकाण्ड और उत्तरवेद है ज्ञानकाण्ड । पूर्ववेद का वर्णन है पूर्वमीमांसा । उत्तरवेद का वर्णन है उत्तरमीमांसा जिसे वेदान्त वा ब्रह्मसूत्र भी कहते हैं । किन्तु मीमांसा में केवल वर्णन है । वास्तविक वेद की पद्धति है उस शाखा का ब्राह्मण−ग्रन्थ जिसके ज्ञाता व्यक्ति को भी ब्राह्मण कहते हैं । ब्राह्मण को पूर्व और उत्तर दोनों का ज्ञान होना चाहिए । तभी वह यज्ञ में ब्रह्मा बन सकता है । यज्ञ में ब्रह्मा को मौन धारण करके समाधिस्थ रहना पड़ता है क्योंकि अथर्ववेद का पाठ वर्जित है,उसका केवल मानसिक पाठ ही होना चाहिए । अथर्ववेद संकल्पों का संग्रह है । आजकल लोग यज्ञों में मनमाने संकल्प करते हैं और किसी मूर्ख को यज्ञ में ब्रह्मा बना देते हैं,जबकि ब्रह्मा केवल चतुर्वेदी ब्राह्मण ही बन सकता है — जिसने चारों वेदों को विधिपूर्वक सीख और समझ लिया हो ।
इसी कारण शक्ति के दो भेद हैं । द्वितीय भेद है भवसागर के उस पार जाने की शक्ति,जिसके लिये है दक्षिणमार्गी वेदपाठ अर्थात् सामान्य पाठ जिसके द्वारा ज्ञानरूपी मोक्षकारक उत्तरवेद की प्राप्ति हो । प्रथम भेद है वाममार्गी विपरीत पाठ द्वारा संसारिक सिद्धियों की प्राप्ति । जैसे कि ब्रह्मास्त्र ।
कई लोगों ने ब्रह्मास्त्र की जिज्ञासा की है । वसिष्ठ ऋषि द्वारा रचित धनुर्वेद से सातों दिव्यास्त्रों का सम्पूर्ण अस्त्र−अध्याय संलग्न कर रहा हूँ जिसमें मन्त्र का सटीक वर्णन और सिद्धि से लेकर शरसन्धान का वर्णन है । किन्तु सम्पूर्ण सिद्धि की व्यावहारिक पद्धति किसी भी धनुर्वेद में नहीं मिलेगी क्योंकि गायत्री और उससे बनी सावित्री के ऋषि हैं विश्वामित्र । ब्रह्मास्त्र की सिद्धि हेतु एक बैठक में प्राणायामों की संख्या विश्वामित्र−स्मृति में मिलेगी — सोलह प्राणायाम,और हर प्राणायाम में सावित्री मन्त्र कितनी बार और कैसे पढ़ें यह मैंने एक पुराने लेख में लिखा है । सोलह में से आठ वाम नासिका से और आठ दक्षिण । सातों दिव्यास्त्रों में समानता यह है कि केवल सावित्री मन्त्र का ही उपयोग है,और सातों में मन्त्र का विपरीत अर्थात् वाममार्गी पाठ है । सातों दिव्यास्त्रों में अन्तर यह है कि विपरीत मन्त्रपाठ में अक्षरों के क्रम में अन्तर है और सिद्धि हेतु कुल मन्त्रों की संख्या में भी अन्तर है । ब्रह्मास्त्र की सिद्धि हेतु वसिष्ठ ऋषि ने कुल एक निखर्व जप की संख्या का आदेश दिया । कलियुगी पण्डितों ने “निखर्व” पर छ अतिरिक्त शून्य बिठा दिये ताकि कोई भी मनुष्य ब्रह्मास्त्र सिद्ध न कर सके और दो−तीन वर्ष की बजाय बीस−तीस लाख वर्ष लग जाय!वसिष्ठ ऋषि ने छ दिव्यास्त्रों के सावित्री मन्त्र के विशिष्ट विपरीत भेदों का स्पष्ट वर्णन किया जो कि संलग्न चित्र में मिलेगा,किन्तु किसी भी ग्रन्थ में ब्रह्मास्त्र के सावित्री मन्त्र का विस्तृत वर्णन नहीं मिलेगा,वसिष्ठ ऋषि ने भी केवल सङ्केत ही दिया जिसका सही अर्थ तभी लगेगा जब वैदिक छन्दशास्त्र का ज्ञान रहेगा ।
एक पुराने लेख में मैंने वर्णन किया था कि छन्द दो प्रकार के होते हैं — जाति और वृत्त । जाति में मात्राओं की गिनती होती है,वृत्त में अक्षरों की । दिव्यास्त्रों के मन्त्रों में वृत्त है क्योंकि गायत्री के समस्त भेदों में केवल वृत्त की ही मान्यता है । गायत्री छन्द में २४ अक्षर होते हैं,एक न्यून होने से निचृद्−गायत्री छन्द बनता है जिसमें ७−८−८ अक्षरों के तीन चरण वाला एक वृत्त होता है । ब्रह्मास्त्र वाले विपरीत पाठ में अन्तिम अक्षर से आरम्भ करते हुए ८−८−७ अक्षरों के तीन चरण होते हैं । दक्षिणमार्गी आक्षरिक गायत्री है —
तत् स वि तुः व रे ण्यम् ॥ भर् गो दे व स्य धी म हि ॥ धि यो यो नः प्र चो द यात् ॥
ब्रह्मास्त्र की गायत्री है —
यात् द चो प्र नः यो यो धि ॥ हि म धी स्य व दे गो भर् ॥ ण्यम् रे व तुः वि स तत् ॥
आजकल गायत्री में “ॐ आपो⋅⋅⋅⋅⋅⋅⋅⋅⋅” जोड़कर सावित्री का जप करने का प्रचलन है । किन्तु दिव्यास्त्रों में गायत्री में केवल आरम्भ में एक बार “ॐ” जोड़कर सावित्री बनती है । प्रयोगकाल में तान्त्रिक प्रक्षेपव्याहृति भी प्रयुक्त होती है जो ब्रह्मास्त्र के मन्त्र में छूट गया है क्योंकि ब्रह्मास्त्र के बारे में वसिष्ठ धनुर्वेद में कथन है कि यह गर्भसहित सबका नाश करता है;अतः शत्रु का नाम लेना आवश्यक नहीं । किन्तु वसिष्ठ धनुर्वेद में यह उल्लेख छूट गया है कि शत्रुविशेष का नाम लेकर केवल उसके विरुद्ध भी ब्रह्मास्त्र का प्रयोग सम्भव है,जैसा कि समुद्र के विरुद्ध श्रीराम करना चाहते थे अथवा महाभारत में अर्जुन और अश्वत्थामा ने किया । वैसी स्थिति में ब्रह्मास्त्र की प्रक्षेपव्याहृति है “अमुकशत्रूम् हन हन हूं फट्” (अमुक के स्थान पर शत्रु का नाम लें,जैसे कि मेरा,किन्तु तब ब्रह्मास्त्र वापस आपपर ही मुड़ जायगा क्योंकि मेरी कुण्डली में शत्रुहन्ता योग है ।)।
इतना बताने पर भी आप किसी भी दिव्यास्त्र की सिद्धि नहीं कर सकते क्योंकि देवगण कोई न कोई विघ्न डाल देंगे । कारण है दिव्यास्त्र हेतु पात्रता ।

Friday, March 13, 2020

रोगों के लिए अचूक घरेलु अध्यात्मिक एवं पारम्परिक उपाय

सभी प्रकार के रोगों के लिए अचूक घरेलु अध्यात्मिक एवं पारम्परिक उपाय!!!!!!!!

* राम कृपाँ नासहिं सब रोगा। जौं एहि भाँति बनै संजोगा॥
सदगुर बैद बचन बिस्वासा। संजम यह न बिषय कै आसा॥

भावार्थ:-यदि श्री रामजी की कृपा से इस प्रकार का संयोग बन जाए तो ये सब रोग नष्ट हो जाएँ। सद्गुरु रूपी वैद्य के वचन में विश्वास हो। विषयों की आशा न करे, यही संयम (परहेज) हो॥

हिन्दू-धर्म की सबसे बड़ी विशेषता इसकी आध्यात्मिक मान्यतायें—आस्थायें हैं। अध्यात्म ही हिन्दू-धर्म की आत्मा है। यह आध्यात्मिक मान्यताओं को अन्य मान्यताओं की अपेक्षा अधिक महत्व देता है। हिन्दू धर्म के अनुसार मनुष्य को अपनी सीमित चेतना का उपयोग उच्चस्तर, असीम आत्म-अस्तित्व तथा परमानन्द की प्राप्ति के लिए करना आवश्यक है। हिन्दू-धर्म समस्त ब्रह्माण्ड की आध्यात्मिक एकता को लेकर चलता है और उसका प्रयोग मानव-जीवन में करके उसे व्यापक एवं महान् बनाना है।

आज की दौड़ती भागती जिन्दगी में हर कोई किसी न किसी रोग से ग्रसित है तो मैंने सोचा कि आज मैं आपको रोग निवारण के कुछ ऐसे घरेलु अध्यात्मिक और पारंपरिक उपाय बताऊ जो आज भी इतने ही कारगर है जितने पुराने समय में थे. हालाकि कुछ लोग इसे अन्धविश्वास भी कह सकते है परन्तु इसको करने से कोई नुकसान भी नहीं है. इनको अगर अपने डाक्टरी इलाज के साथ कर लिया जाय तो इसमें बुराई ही क्या है।

जिस घर में जब कोई रोग आ जाता है तो उस रोगी के साथ साथ उस घर के सभी व्यक्ति भी मानसिक रूप से चिंता और आशांति का अनुभव करने लगते है , लेकिन कुछ छोटी छोटी बातो को ध्यान में रखकर हम हालत पर काबू पा सकते है , शीघ्र स्वास्थ्य लाभ प्राप्त कर सकते है

यदि आपके परिवार में कोई व्यक्ति बीमार है तो अगर संभव हो तो उसे सोमवार को डॉक्टर को दिखाएँ और उसकी दवा की पहली खुराक भगवान शिव को अर्पित करके कुछ राशी भी चड़ा दें और रोगी व्यक्ति के शीघ्र स्वास्थ्य लाभ की प्रार्थना करें , व्यक्ति के बहुत जल्दी ही ठीक हो जाने की सम्भावना बन जाती है ।

हर पूर्णिमा को किसी भी शिव मंदिर में भगवान भोलेनाथ से अपने परिवार को निरोग रखने की प्रार्थना रखें ,तत्पश्चात मंदिर में और गरीबों में कुछ ना कुछ फल,मिठाई और नगद दान अवश्य दें ।

रोगी व्यक्ति को मंगलवार और शनिवार किसी भी दिन हनुमान जी की मूर्ति से सिंदूर लेकर उसके माथे पर लगाने से उसका दिल मजबूत होता है और रोगी जल्दी स्वस्थ भी होता है ।

यदि कोई बीमार व्यक्ति प्रात: काल एक गिलास पानी लेकर पूर्व दिशा की ओर मुंह करके खड़े होकर एँ मन्त्र का 21 बार जाप करके पी जाय एवं ईश्वर से अपने रोग को दूर करने के लिए प्रार्थना करें तो शीघ्र ही स्वास्थ्य लाभ प्राप्त होता है। यह प्रयोग सोमवार से शुरू करके रविवार तक लगातार 7 दिन तक करना चाहिए ।

अशोक के वृक्ष की ताजा तीन पत्तियों को प्रतिदिन प्रातः चबाने से चिंताओं से मुक्ति मिलती है और स्वास्थ्य भी उत्तम बना रहता है ।

यदि किसी बीमार व्यक्ति का रोग ठीक ना हो रहा हो तो उसके तकिये के नीचे सहदेई और पीपल की जड़ रखने से बीमारी जल्दी ठीक होती है ।

यदि किसी रोगी को मृत्युतुल्य पीड़ा हो रही हो , तो जौ के आटे ( बाजार में यह आसानी से उपलब्ध है ) में काले तिल और सरसों का तेल मिला कर रोटी बना कर रोगी के ऊपर से 7 बार उतार कर किसी भैंसे को खिलाएं त्वरित लाभ मिलता है ।

सूर्य जब भी मेष राशी में ( 13 से 15 अप्रैल ) में प्रवेश करें तो प्रात: काल नीम की ताजी कपोलें गुड़ व मसूर के साथ पीस कर खाने से वर्ष भर रोग दूर रहते है , यह घर के सभी छोटे बड़े व्यक्तियों को खाना चाहिए ।

यदि कोई व्यक्ति लम्बे समय से बीमार है तो उसे घर के दक्षिण पश्चिम कोने ( नैत्रत्य कोण ) के कमरे में दक्षिण दिशा में सर रखकर सुलाएं , उनकी दवाएं और जल कमरे के ईशान कोण में रखें । ध्यान रखें रोगी व्यक्ति अपनी दवाएं और अपना खाना पीना ईशान कोण अथवा पूर्व की तरफ मुंह करके ही खाएं ।

यदि घर का कोई व्यक्ति अधिक समय से बीमार हो तो उसके तकिये के नीचे मणिक्य रखने से वह जल्दी स्वस्थ होता है ।

सभी रोगों में पीपल की सेवा से बहुत लाभ प्राप्त होता है , रविवार को छोड़कर नियमित रूप से पीपल के वृक्ष पर प्रात: मीठा जल चड़ाकर उसकी जड़ जो छूकर अपने माथे से लगायें पुरुष पीपल की 7 परिक्रमा करें स्त्री ना करें और अपने रोग को दूर करने की प्रार्थना करें अति शीघ्र लाभ मिलता है ।

यदि आपके परिवार में कोई लम्बे समय से बीमार है तो आप प्रति माह कम से कम एक बार किसी भी अस्पताल में जाकर गरीबों में अपनी सामर्थ्यानुसार दवा एवं फलों का वितरण अवश्य करें, इससे रोगी को भी लाभ होगा और घर के अन्य सभी सदस्य भी निरोगी रहेंगे। यह बहुत ही चमत्कारी और सिद्ध प्रयोग है ।

यदि आप कभी किसी भी बीमार व्यक्ति को देखने जाएँ तो फूल और फल लेकर अवश्य जाएँ और यदि संभव हो तो कुछ ना कुछ नकद राशी भी अवश्य दें , इससे आपके परिवार का सदैव रोगों से बचाव होगा।

रोगी व्यक्ति को पान में गुलाब की सात पंखुडियां खिलाने से अगर उसको कोई नजर लगी है तो उससे छुटकारा मिलता है और दवा भी जल्दी असर करती है ।

यदि कोई व्यक्ति मरणासन्न अवस्था में हो उसके बचने की कोई आशा ना हो परन्तु उसके प्राण भी नहीं निकल रहें हो तो उसके हाथ से नमक का दान करवाना चाहिए ।

स्वस्थ शरीर के लिए एक रुपये का सिक्का लें। रात को उसे सिरहाने रख कर सो जाएं। प्रातः इसे शमशान की सीमा में फेंक आएं। शरीर स्वस्थ रहेगा।

यदि कोई व्यक्ति काफी समय से बीमार है तो एक नारियल से उसकी नज़र उतार कर उस नारियल को तंदूर/अंगीठी/हवनकुंड अथवा किसी तसले में आग जलाकर उसमें जलाने से रोगी अति शीघ्र स्वस्थ होने लगता है ।

सात जटा वाले नारियल शुक्ल पक्ष के सोमवार को ॐ नमा शिवाये मन्त्र का जाप करते हुए नदी में प्रवाहित करने से उस व्यक्ति के घर से रोग और दरिद्रता का नाश होता है ।

रोगी के पीने वाले जल में थोड़ा सा गंगाजल मिला दीजिये ,वह जब भी जल पिए उसे वह जल ही पीने को दिया जाय....... शीघ्र स्वास्थ्य लाभ मिलेगा ।

जिस व्यक्ति की तबियत ख़राब रहती है उसके पलंग की पाए में चाँदी के तार में एक गोमती चक्र बांध दें स्वास्थ्य सम्बन्धी परेशानी दूर होने लगेगी । ( गोमती चक्र को पहले गंगाजल में धोकर घर के मंदिर में रखकर तिलक लगाकर धुप/दीप/अगरबत्ती दिखाकर शुद्ध कर लें।)

एक देसी पान,गुलाब का फूल और ग्यारह बताशे बीमार व्यक्ति के ऊपर से 31 बार उतार कर किसी चौराहे पर रख दें ध्यान रहे कोई टोके नहीं ....व्यक्ति को शीघ्रता से स्वास्थ्य लाभ मिलने लगेगा ।

यदि कोई व्यक्ति तमाम इलाज के बाद भी बीमार रहता है तो पुष्य नक्षत्र में सहदेवी की जड़ उसके पास रखिये .....रोग दूर लगेगा ।

पीपल के वृक्ष को प्रातः 12 बजे के पहले, जल में थोड़ा दूध मिला कर सींचें और शाम को तेल का दीपक और अगरबत्ती जलाएं। ऐसा किसी भी वार से शुरू करके 7 दिन तक करें। बीमार व्यक्ति को आराम मिलना प्रारम्भ हो जायेगा।

किसी सिद्ध स्थान पर सूर्यास्त के पश्चात् तेल का दीपक जलाएं। अगरबत्ती जलाएं और बताशे रखें, फिर वापस मुड़ कर न देखें। बीमार व्यक्ति शीघ्र अच्छा हो जायेगा।

धोबी के घर से तुरंत धुलकर आये वस्त्रों को मन ही मन रोगी के अच्छे स्वास्थ्य की प्रार्थना करते हुए रोगी के शरीर से स्पर्श करा देने से बहुत जल्दी आराम मिलता है ।

हर माह के प्रथम सोमवार को सुबह सवेरे अपने ईष्ट देव का नाम लेते हुए थोड़ी सी पीली सरसों अपने सर पर से 7 बार घुमाकर घर से बाहर फ़ेंक दें .....रोग आपके पास भी नहीं आयेंगे ।

यदि घर में आपकी माता जी को निरंतर कोई रोग सता रहा है तो सोमवार के दिन 121 किसी भी साइज़ के पेड़े लेकर बच्चो और गरीबों में बाँट दें ......निश्चय ही रोग में आराम मिलेगा ।

अशोक के ताजे तीन पत्ते सुबह सुबह रोजाना बिना कुछ खाए चबाये जाएँ तो व्यक्ति शारीरिक एवं मानसिक रूप से स्वस्थ रहता है ....इसके सेवन से रोग और चिन्ताओं का भी नाश होता है।

सदैव ध्यान दें भैया दूज (यम दीतिया) के दिन बहन के घर उसके हाथ से बना भोजन करने से, गुरु पूर्णिमा के दिन गुरु के घर/मंदिर से प्रसाद लेकर खाने से, बसंत पंचमी के दिन पत्नी के हाथ से बने पीले चावल खाने से एवं मात्र नवमी के दिन माँ के हाथ से बना भोजन करने से व्यक्ति निरोगी रहता है उसकी आयु में निसंदेह वृद्धि होती है।

स्वस्थ जीवन जीने के लिये रात्रि को अपने सिरहाने पानी किसी लोटे या गिलास में रख दें। सुबह उसे पी कर बर्तन को उल्टा रख दें तथा दिन में भी पानी पीने के बाद बर्तन को उल्टा रखने से व्यक्ति सदैव स्वस्थ बना रहता है।

बाजार से कपास के थोड़े से फूल खरीद लें। रविवार शाम 5 फूल, आधा गिलास पानी में साफ कर के भिगो दें। सोमवार को प्रात: उठ कर फूल को निकाल कर फेंक दें तथा बचे हुए पानी को पी जाएं। जिस पात्र में पानी पीएं, उसे कहीं पर भी उल्टा कर के रख दें। कुछ ही दिनों में आश्चर्यजनक स्वास्थ्य लाभ अनुभव करेंगे।

रात्रि के समय शयन कक्ष में कपूर जलाने से पितृ दोष का नाश होता है, घर में शांति बनी रहती है, बुरे स्वप्न नहीं आते है और सभी प्रकार के रोगों से भी छुटकारा मिलता है ।

पूर्णिमा के दिन रात्रि में घर में खीर बनाएं। ठंडी होने पर उसका मंदिर में मां लक्ष्मी को भोग लगाएं एवं चन्द्रमा और अपने पितरों का मन ही मन स्मरण करें और कुछ खीर काले कुत्तों को दे दें। ऐसा वर्ष भर पूर्णिमा में करते रहने से घर में सुख शांति, निरोगिता एवं हर्ष और उल्लास का वातावरण बना रहता है धन की कभी भी कमी नहीं रहती है ।

घर में कोई बीमार हो जाए तो उस रोगी को शहद में चन्दन मिला कर चटाएं |

यदि घर में पुत्र बीमार हो तो कन्याओं को हलवा खिलाएं एवं पीपल के पेड़ की लकड़ी को सिरहाने रखें।

जिस घर में स्त्रीवर्ग को निरन्तर स्वास्थ्य की पीड़ाएँ रहती हो, उस घर में तुलसी का पौधा लगाकर उसकी श्रद्धापूर्वक देखशल करने, संध्या के समय घी का दीपक जलाने से रोग पीड़ाएँ शीघ्र ही समाप्त होती है।

यदि घर में किसी की तबियत ज्यादा ख़राब लग रही है तो रविवार के दिन बूंदी के सवा किलो लड्डू किसी भी धार्मिक स्थान चड़ा कर उसका कम से कम 75% वहीँ पर प्रसाद के रूप में बांटे।

अगर परिवार में कोई परिवार में कोई व्यक्ति बीमार है तथा लगातार दवा सेवन के पश्चात् भी स्वास्थ्य लाभ नहीं हो रहा है, तो किसी भी रविवार से लगातार 3 दिन तक गेहूं के आटे का पेड़ा तथा एक लोटा पानी व्यक्ति के सिर के ऊपर से उसार कर जल को पौधे में डाल दें तथा पेड़ा गाय को खिला दें। इन 3 दिनों के अन्दर व्यक्ति अवश्य ही स्वस्थ महसूस करने लगेगा। अगर इस अवधि में रोगी ठीक हो जाता है, तो भी इस प्रयोग को अवश्य पूरा करना चाहिए।

पीपल के वृक्ष को प्रात: 12 बजे के पहले, जल में थोड़ा दूध मिला कर सींचें और शाम को तेल का दीपक और अगरबत्ती जलाएं। ऐसा किसी भी दिन से शुरू करके 7 दिन तक करें ( अगर सोमवार से शुरू करें तो अति उत्तम होगा )। रोग से ग्रस्त व्यक्ति को जल्दी ही आराम मिलना प्रारम्भ हो जायेगा।

शुक्रवार रात को मुठ्ठी भर काले साबुत चने भिगोयें। शनिवार की शाम उन्हें छानकर काले कपड़े में एक कील और एक काले कोयले के टुकड़े के साथ बांध दें । फिर इस पोटली को रोगी के ऊपर से 7 बार वार कर किसी तालाब या कुएं में फेंक दें। ऐसा लगातार 3 शनिवार करें। बीमार व्यक्ति शीघ्र अच्छा हो जायेगा|

यदि कोई प्राणी कहीं देर तक बैठा हो और उसके हाथ या पैर सुन्न हो जाएँ तो जो अंग सुन्न हो गया हो, उस पर उंगली से 27 का अंक लिख दीजिये, उसका सुन्न अंग तुरंत ठीक हो जाएगा।

काले तिल और जौ का आटा तेल में गूंथकर एक मोटी रोटी बनाकर उसे अच्छी तरह सेंकें। गुड को तेल में मिश्रित करके जिस व्यक्ति के मरने की आशंका हो, उसके सिर पर से 7 बार उतार कर मंगलवार या शनिवार को किसी भैंस को खिला दें।यह क्रिया करते समय ईश्वर से रोगी को शीघ्र स्वस्थ करने की प्रार्थना करते रहें।

गुड के गुलगुले सवाएं लेकर उसे 7 बार रोगी के सर से उतार कर मंगलवार या शनिवार व इतवार को चील-कौए को डाल दें, रोगी को तुरंत राहत मिलने लगती है।