Sunday, July 20, 2014

वेद व्यास जी वर्णसंकर नहीं


वेद व्यास जी पर वर्णसंकर आक्षेप का जबाब (वेद व्यास जी वर्णसंकर नहीं)
==========================================

अक्सर मैं देखता आया हूँ हमारे परम पूज्य वेद व्यास जी पर आक्षेप किया जाता है कि वो वर्णसंकर थे? लेकिन वास्तविकता कितनी अलग है देखिये?

वर्णव्यवस्था के अनुसार ब्राह्मण दम्पति की संतान ब्राह्मण कहलाती है, क्षत्रिय दम्पति की संतान क्षत्रिय कहलाती है इसी प्रकार वैश्य और शुद्र दम्पति की संतान क्रमशः वैश्य और शुद्र कहलाती है इसके अलावा एक वर्ण के व्यक्ति द्वारा अन्य किसी भी वर्ण (अपने वर्ण से भिन्न) या जाती की स्त्री से जन्मी संतान वर्णसंकर कहलाती है जैसा कि आक्षेप महर्षि वेदव्यास जी पर लगाया गया है!! देखें-

सवर्णेभ्यः सवर्णासु जायन्ते हि सजातयः। (-याज्ञवल्क्य स्मृति आचाराध्याय 4/90)

अर्थ- सवर्ण(पुरुषोँ) द्वारा प्रशस्त (ब्राह्म आदि) विवाहोँ से ग्रहण की गयी सवर्णा (समान वर्ण) की स्त्रियोँ मेँ उत्पन्न पुत्र सजाति (उसी वर्ण के ) होते हैँ |

वेद व्यास जी पर शंका
======================
ये सर्वविदित है कि वेदव्यास की के पिता मुनि पराशर एक विशुद्ध ब्राह्मण थे! अतः अब अज्ञानी शंका उठाते हैं उनकी माता सत्यवती जिन्हें मत्स्यगंधा भी कहते हैं उन पर तो उनकी शंका के निवारण हेतु पहले सत्यवती जी कौन थी यह जानना आवश्यक है! 

सत्यवती महाभारत की एक महत्वपूर्ण पात्र है। उसका विवाह हस्तिनापुरनरेश शान्तनु से हुआ। उसका मूल नाम 'मत्स्यगंधा' था। वह ब्रह्मा के शाप से मत्स्यभाव को प्राप्त हुई "अद्रिका" नाम की अप्सरा के गर्भ से उपरिचर वसु द्वारा उत्पन्न एक कन्या थी। इसका ही नाम बाद में सत्यवती हुआ। (महाभारत आदिपर्व)
अब विचारणीय तथ्य है कि -
मत्स्यगंधा (सत्यवती) अप्सरा की पुत्री थीं चूँकि अप्सरा देवकन्या होती है और देवों में कोई भी वर्ण व्यवस्था नहीं होती अतः देखिये इस विषय में आद्य जगद्गुरु श्री शंकराचार्य जी अपने गीता भाष्य (अध्याय ४.१३) में कहते हैं -

मानुष एव लोके वर्णाश्रमादिकर्माधिकारः । नान्येषु लोकेष्विति नियमः किं निमित्तः ? इति । 

अथवा वर्णाश्रमादिप्रविभागोपेता मनुष्या मम वर्त्मानुवर्तन्ते सर्वश [गीता ४.११] इत्युक्तं कस्मात्पुनः कारणान्नियमेन तवैव वर्त्मानुवर्तन्ते, नान्यस्य किम् ? उच्यते!!

यानी इससे सिद्ध होता है कि देवताओं में कोई वर्ण व्यवस्था नहीं होती |
अब मनुस्मृति की आज्ञा देखिये-
पुमानपुंसोऽधिके शुक्रे स्त्रीभवत्यधिके स्त्रियाः ।
समेऽपुमान्पुंस्त्रियौ वा क्षीणेऽल्पे च विपर्ययः।। (३.४९)

अर्थात्- पुरुष के वीर्य अधिक हो तो पुत्र और स्त्री (माता) का रज अधिक हो तो कन्या होती है और दोनोँ का बराबर हो तो नपुंसक या पुत्र पुत्री दोनोँ पैदा होँ व दोनोँ का न्यून होवै तो गर्भ नहीँ रहता !

अतः कन्या मेँ मातृप्रधानता होती है और पुत्र मेँ पितृप्रधानता अर्थात् कन्या मातृअंश का प्रबल उत्कर्ष रहता है किँतु पुत्र मेँ पितृ अंश का !

इसके अनुसार मत्स्यगंधा अपनी मातृ अंशको ग्रहण करेंगी इस प्रकार वो भी देव कन्या ही हुयीं!!

अब बात आती है वेदव्यास जी की चूँकि उनकी माता देवकन्या हुयीं और उनके पिता विशुद्ध ब्राह्मण और माता देवकन्या होने के कारण वर्ण से मुक्त होंगी फिर मनुस्मृति के उसी श्लोक के अनुसार वेद व्यास जी में पितृ अंश प्रबल होगा अतः वे विशुद्ध ब्राह्मण ही होंगे!!!!

इस प्रकार महर्षि वेदव्यास विशुद्ध ब्राह्मण स्पष्ट हैं ||

||जय श्री राम ||

3 comments:

  1. पहली गलत बात तो यह है कि वर्ण व्यवस्था कर्म पर आधारित थी। न कि जन्म पर, जैसा कि आपने उल्लेख किया है। आप जैसे लोगों की वजह से ही हिंदू धर्म (खीरा की भांति) विभाजित है। और घटता - घटता केवल भारत तक सिमट कर रह गया है। मेरी सभी पाठकों से करबद्ध प्रार्थना है कि ऐसे लोगों को पहचानने और अंकुश लगाएं। अन्यथा वह दिन दूर नहीं जब हम भारत में भी अल्पसंख्यक हो जाएंगे और तत्पश्चात लगभग समाप्त।

    ReplyDelete
  2. Superb ઇન્ફોર્મેશન

    ReplyDelete