Sunday, March 31, 2013

भोजन सम्बन्धी कुछ नियम

सनातन धर्म के अनुसार भोजन ग्रहण करने के कुछ नियम है

भोजन सम्बन्धी कुछ नियम

१ पांच अंगो ( दो हाथ , २ पैर , मुख ) को अच्छी तरह से धो कर ही भोजन करे !
२. गीले पैरों खाने से आयु में वृद्धि होती है !
३. प्रातः और सायं ही भोजन का विधान है !
४. पूर्व और उत्तर दिशा की ओर मुह करके ही खाना चाहिए !
५. दक्षिण दिशा की ओर किया हुआ भोजन प्रेत को प्राप्त होता है !
६ . पश्चिम दिशा की ओर किया हुआ भोजन खाने से रोग की वृद्धि होती है !
७. शैय्या पर , हाथ पर रख कर , टूटे फूटे वर्तनो में भोजन नहीं करना चाहिए !
८. मल मूत्र का वेग होने पर , कलह के माहौल में , अधिक शोर में , पीपल , वट वृक्ष के नीचे , भोजन नहीं करना चाहिए !
९ परोसे हुए भोजन की कभी निंदा नहीं करनी चाहिए !
१०. खाने से पूर्व अन्न देवता , अन्नपूर्णा माता की स्तुति कर के , उनका धन्यवाद देते हुए , तथा सभी भूखो को भोजन प्राप्त हो इस्वर से ऐसी प्राथना करके भोजन करना चाहिए !
११. भोजन बनने वाला स्नान करके ही शुद्ध मन से , मंत्र जप करते हुए ही रसोई में भोजन बनाये और सबसे पहले ३ रोटिया अलग निकाल कर ( गाय , कुत्ता , और कौवे हेतु ) फिर अग्नि देव का भोग लगा कर ही घर वालो को खिलाये !
१२. इर्षा , भय , क्रोध , लोभ , रोग , दीन भाव , द्वेष भाव , के साथ किया हुआ भोजन कभी पचता नहीं है !
१३. आधा खाया हुआ फल , मिठाईया आदि पुनः नहीं खानी चाहिए !
१४. खाना छोड़ कर उठ जाने पर दुबारा भोजन नहीं करना चाहिए !
१५. भोजन के समय मौन रहे !
१६. भोजन को बहुत चबा चबा कर खाए !
१७. रात्री में भरपेट न खाए !
१८. गृहस्थ को ३२ ग्रास से ज्यादा न खाना चाहिए !
१९. सबसे पहले मीठा , फिर नमकीन , अंत में कडुवा खाना चाहिए !
२०. सबसे पहले रस दार , बीच में गरिस्थ , अंत में द्राव्य पदार्थ ग्रहण करे !
२१. थोडा खाने वाले को --आरोग्य , आयु , बल , सुख, सुन्दर संतान , और सौंदर्य प्राप्त होता है !
२२. जिसने ढिढोरा पीट कर खिलाया हो वहा कभी न खाए !
२३. कुत्ते का छुवा , रजस्वला स्त्री का परोसा , श्राध का निकाला , बासी , मुह से फूक मरकर ठंडा किया , बाल गिरा हुवा भोजन , अनादर युक्त , अवहेलना पूर्ण परोसा गया भोजन कभी न करे !
२४. कंजूस का , राजा का , वेश्या के हाथ का , शराब बेचने वाले का दिया भोजन कभी नहीं करना चाहिए !

Saturday, March 30, 2013

कैलाश पर्वत .......दुनिया का सबसे बड़ा रहस्यमयी पर्वत, अप्राकृतिक शक्तियों का भण्डारक



कैलाश पर्वत .......दुनिया का सबसे बड़ा रहस्यमयी पर्वत, अप्राकृतिक शक्तियों का भण्डारक

Axis Mundi (एक्सिस मुंडी ) .............प्रश्न पहेली रहस्य ...

एक्सिस मुंडी को ब्रह्मांड का केंद्र, दुनिया की नाभि या आकाशीय ध्रुव और भौगोलिक ध्रुव के रूप में, यह आकाश और पृथ्वी के बीच संबंध का एक बिंदु है जहाँ चारों दिशाएं मिल जाती हैं। और यह नाम, असली और महान, दुनिया के सबसे पवित्र और सबसे रहस्यमय पहाड़ों में से एक कैलाश पर्वत से सम्बंधित हैं। एक्सिस मुंडी वह स्थान है अलौकिक शक्ति का प्रवाह होता है और आप उन शक्तियों के साथ संपर्क कर सकते हैं रूसिया के वैज्ञानिक ने वह स्थान कैलाश पर्वत बताया है।

भूगोल और पौराणिक रूप से कैलाश पर्वत महत्वपूर्ण भूमिका निभाता हैं। इस पवित्र पर्वत की ऊंचाई 6714 मीटर है। और यह पास की हिमालय सीमा की चोटियों जैसे माउन्ट एवरेस्ट के साथ प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकता पर इसकी भव्यता ऊंचाई में नहीं, लेकिन अपनी विशिष्ट आकार में निहित है। कैलाश पर्वत की संरचना कम्पास के चार दिक् बिन्दुओं के सामान है और एकान्त स्थान पर स्थित है जहाँ कोई भी बड़ा पर्वत नहीं है। कैलाश पर्वत पर चड़ना निषिद्ध है पर 11 सदी में एक तिब्बती बौद्ध योगी मिलारेपा ने इस पर चड़ाई की थी।

कैलाश पर्वत चार महान नदियों के स्त्रोतों से घिरा है सिंध, ब्रह्मपुत्र, सतलज और कर्णाली या घाघरा तथा दो सरोवर इसके आधार हैं पहला मानसरोवर जो दुनिया की शुद्ध पानी की उच्चतम झीलों में से एक है और जिसका आकर सूर्य के सामान है तथा राक्षस झील जो दुनिया की खारे पानी की उच्चतम झीलों में से एक है और जिसका आकार चन्द्र के सामान है। ये दोनों झीलें सौर और चंद्र बल को प्रदर्शित करते हैं जिसका सम्बन्ध सकारात्मक और नकारात्मक उर्जा से है। जब दक्षिण चेहरे से देखते हैं तो एक स्वस्तिक चिन्ह वास्तव में देखा जा सकता है.

कैलाश पर्वत और उसके आस पास के बातावरण पर अध्यन कर रहे रसिया के वैज्ञानिक Tsar Nikolai Romanov और उनकी टीम ने तिब्बत के मंदिरों में धर्मं गुरुओं से मुलाकात की उन्होंने बताया कैलाश पर्वत के चारों ओर एक अलौकिक शक्ति का प्रवाह होता है जिसमे तपस्वी आज भी आध्यात्मिक गुरुओं के साथ telepathic संपर्क करते है।

" In shape it (Mount Kailas) resembles a vast cathedral… the sides of the mountain are perpendicular and fall sheer for hundreds of feet, the strata horizontal, the layers of stone varying slightly in colour, and the dividing lines showing up clear and distinct...... which give to the entire mountain the appearance of having been built by giant hands, of huge blocks of reddish stone. "

(G.C. Rawling, The Great Plateau, London, 1905).

रूसिया के वैज्ञानिकों का दावा है की कैलाश पर्वत प्रकृति द्वारा निर्मित सबसे उच्चतम पिरामिड है। जिसको तीन साल पहले चाइना के वैज्ञानिकों द्वारा सरकारी चाइनीज़ प्रेस में नकार दिया था। आगे कहते हैं " कैलाश पर्वत दुनिया का सबसे बड़ा रहस्यमयी, पवित्र स्थान है जिसके आस पास अप्राकृतिक शक्तियों का भण्डार है। इस पवित्र पर्वत सभी धर्मों ने अलग अलग नाम दिए हैं। "

रूसिया वैज्ञानिकों की यह रिपोर्ट UNSpecial! Magzine में January-August 2004 को प्रकाशित की गयी थी।

With deep thanks to Mr. Wolf Scott, former Deputy Director of UNRISD,


।। जयतु संस्‍कृतम् । जयतु भारतम् ।।
 — 
कैलाश पर्वत .......दुनिया का सबसे बड़ा रहस्यमयी पर्वत, अप्राकृतिक शक्तियों का भण्डारक

Axis Mundi (एक्सिस मुंडी ) .............प्रश्न पहेली रहस्य ...

एक्सिस मुंडी को ब्रह्मांड का केंद्र, दुनिया की नाभि या आकाशीय ध्रुव और भौगोलिक ध्रुव के रूप में, यह आकाश और पृथ्वी के बीच संबंध का एक बिंदु है जहाँ चारों दिशाएं मिल जाती हैं। और यह नाम, असली और महान, दुनिया के सबसे पवित्र और सबसे रहस्यमय पहाड़ों में से एक कैलाश पर्वत से सम्बंधित हैं। एक्सिस मुंडी वह स्थान है अलौकिक शक्ति का प्रवाह होता है और आप उन शक्तियों के साथ संपर्क कर सकते हैं रूसिया के वैज्ञानिक ने वह स्थान कैलाश पर्वत बताया है।

भूगोल और पौराणिक रूप से कैलाश पर्वत महत्वपूर्ण भूमिका निभाता हैं। इस पवित्र पर्वत की ऊंचाई 6714 मीटर है। और यह पास की हिमालय सीमा की चोटियों जैसे माउन्ट एवरेस्ट के साथ प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकता पर इसकी भव्यता ऊंचाई में नहीं, लेकिन अपनी विशिष्ट आकार में निहित है। कैलाश पर्वत की संरचना कम्पास के चार दिक् बिन्दुओं के सामान है और एकान्त स्थान पर स्थित है जहाँ कोई भी बड़ा पर्वत नहीं है। कैलाश पर्वत पर चड़ना निषिद्ध है पर 11 सदी में एक तिब्बती बौद्ध योगी मिलारेपा ने इस पर चड़ाई की थी।

कैलाश पर्वत चार महान नदियों के स्त्रोतों से घिरा है सिंध, ब्रह्मपुत्र, सतलज और कर्णाली या घाघरा तथा दो सरोवर इसके आधार हैं पहला मानसरोवर जो दुनिया की शुद्ध पानी की उच्चतम झीलों में से एक है और जिसका आकर सूर्य के सामान है तथा राक्षस झील जो दुनिया की खारे पानी की उच्चतम झीलों में से एक है और जिसका आकार चन्द्र के सामान है। ये दोनों झीलें सौर और चंद्र बल को प्रदर्शित करते हैं जिसका सम्बन्ध सकारात्मक और नकारात्मक उर्जा से है। जब दक्षिण चेहरे से देखते हैं तो एक स्वस्तिक चिन्ह वास्तव में देखा जा सकता है.

कैलाश पर्वत और उसके आस पास के बातावरण पर अध्यन कर रहे रसिया के वैज्ञानिक Tsar Nikolai Romanov और उनकी टीम ने तिब्बत के मंदिरों में धर्मं गुरुओं से मुलाकात की उन्होंने बताया कैलाश पर्वत के चारों ओर एक अलौकिक शक्ति का प्रवाह होता है जिसमे तपस्वी आज भी आध्यात्मिक गुरुओं के साथ telepathic संपर्क करते है।

" In shape it (Mount Kailas) resembles a vast cathedral… the sides of the mountain are perpendicular and fall sheer for hundreds of feet, the strata horizontal, the layers of stone varying slightly in colour, and the dividing lines showing up clear and distinct...... which give to the entire mountain the appearance of having been built by giant hands, of huge blocks of reddish stone. "

(G.C. Rawling, The Great Plateau, London, 1905).

रूसिया के वैज्ञानिकों का दावा है की कैलाश पर्वत प्रकृति द्वारा निर्मित सबसे उच्चतम पिरामिड है। जिसको तीन साल पहले चाइना के वैज्ञानिकों द्वारा सरकारी चाइनीज़ प्रेस में नकार दिया था। आगे कहते हैं " कैलाश पर्वत दुनिया का सबसे बड़ा रहस्यमयी, पवित्र स्थान है जिसके आस पास अप्राकृतिक शक्तियों का भण्डार है। इस पवित्र पर्वत सभी धर्मों ने अलग अलग नाम दिए हैं। "

रूसिया वैज्ञानिकों की यह रिपोर्ट UNSpecial! Magzine में January-August 2004 को प्रकाशित की गयी थी।

With deep thanks to Mr. Wolf Scott, former Deputy Director of UNRISD,


।। जयतु संस्‍कृतम् । जयतु भारतम् ।।

Friday, March 29, 2013

काबा और भगवान शिव

सनातन धर्म से ही सब संस्कृतियो का अविर्भाव हुआ है यह शत प्रतिशत सत्य है बाद मे कुछ आपापंथी सिरपिरो ने अपना2 पंथ चला लिया

हिन्दुओं की भांति इस्लाम में

भी वर्ष के चार महीने पवित्र माने जाते हैं। इस दौरान

भक्तगण बुरे कर्मों से बचते हैं और अपने भगवान

का ध्यान करते हैं, यह परम्परा भी हिन्दुओं के

“चातुर्मास” से ली गई है। “शबे-बारात”

शिवरात्रि का ही एक अपभ्रंश है, जैसा कि सिद्ध करने

की कोशिश है कि काबा में एक विशाल शिव मन्दिर था,

तत्कालीन लोग शिव की पूजा करते थे और

शिवरात्रि मनाते थे, शिव विवाह के इस पर्व को इस्लाम

में “शब-ए-बारात” का स्वरूप प्राप्त हुआ।




काबा में मुस्लिम श्रद्धालु उस

पवित्र जगह की सात बार परिक्रमा करते हैं,

दुनिया की किसी भी मस्जिद में “परिक्रमा” की कोई

परम्परा नहीं है, ऐसा क्यों? हिन्दू संस्कृति में प्रत्येक

मन्दिर में मूर्ति की परिक्रमा करने

की परम्परा सदियों पुरानी है। क्या काबा में यह

“परिक्रमा परम्परा” पुरातन शिव मन्दिर होने के काल से

चली आ रही है? अन्तर सिर्फ़ इतना है कि मुस्लिम

श्रद्धालु ये परिक्रमा उल्टी ओर (Anticlockwise)

करते हैं, जबकि हिन्दू भक्त सीधी तरफ़

यानी Clockwise। लेकिन हो सकता है कि यह बारीक

सा अन्तर इस्लाम के आगमन के बाद किया गया हो, जिस

प्रकार उर्दू भी दांये से बांये लिखी जाती है, उसी तर्ज

पर। “सात” परिक्रमाओं की परम्परा संस्कृत में

“सप्तपदी” के नाम से जानी जाती है, जो कि हिन्दुओं में

पवित्र विवाह के दौरान अग्नि के चारों तरफ़ लिये जाते हैं।

“मखा” का मतलब होता है “अग्नि”, और पश्चिम

एशिया स्थित “मक्का” में अग्नि के सात फ़ेरे

लिया जाना किस संस्कृति की ओर इशारा करता है?







काबा से जुड़ी एक और हिन्दू

संस्कृति परम्परा है “पवित्र गंगा” की अवधारणा।

जैसा कि सभी जानते हैं भारतीय संस्कृति में शिव के साथ

गंगा और चन्द्रमा के रिश्ते को कभी अलग

नहीं किया जा सकता। जहाँ भी शिव होंगे, पवित्र

गंगा की अवधारणा निश्चित ही मौजूद होती है। काबा के

पास भी एक पवित्र झरना पाया जाता है,

इसका पानी भी पवित्र माना जाता है, क्योंकि इस्लामिक

काल से पहले भी इसे पवित्र (आबे ज़म-ज़म)

ही माना जाता था। आज भी मुस्लिम श्रद्धालु हज के

दौरान इस आबे ज़मज़म को अपने साथ बोतल में भरकर ले

जाते हैं। ऐसा क्यों है कि कुम्भ में शामिल होने वाले

हिन्दुओं द्वारा गंगाजल को पवित्र मानने और उसे

बोतलों में भरकर घरों में ले जाने, तथा इसी प्रकार हज

की इस परम्परा में इतनी समानता है? इसके पीछे

क्या कारण है।




जैसा कि सभी जानते हैं राजा विक्रमादित्य शिव के परम भक्त थे, उज्जैन एक

समय विक्रमादित्य के शासनकाल में राजधानी रही,

जहाँ कि सबसे बड़े शिवलिंग महाकालेश्वर विराजमान हैं।

ऐसे में जब विक्रमादित्य का शासनकाल और क्षेत्र अरब

देशों तक फ़ैला था, तब क्या मक्का जैसी पवित्र जगह पर

उन्होंने शिव का पुरातन मन्दिर स्थापित नहीं किया होगा?




आज भी मक्का के काबा में प्राचीन

शिवलिंग के चिन्ह देखे जा सकते हैं। ऐसा प्रतीत होता है

कि काबा में प्रत्येक मुस्लिम जिस काले पत्थर को छूते

और चूमते हैं वह शिवलिंग ही है। हालांकि अरबी परम्परा ने

अब काबा के शिव मन्दिर की स्थापना के

चिन्हों को मिटा दिया है, लेकिन इसकी खोज

विक्रमादित्य के उन शिलालेखों से लगाई जा सकती है

जिनका उल्लेख “सायर-उल-ओकुल” में है।










कोई यह न समजे की भगवान शिव

केवल भारत में पूजित है । विदेशो में भी कई स्थानों पर

शिव मुर्तिया अथवा शिवलिंग प्राप्त हुए है कल्याण के

शिवांक के अनुसार उत्तरी अफ्रीका के इजिप्त में

तथा अन्य कई प्रान्तों में नंदी पर विराजमान शिव




की अनेक मुर्तिया है वहा के लोग बेल पत्र और दूध से

इनकी पूजा करते है । तुर्किस्थान के बबिलन नगर में

१२०० फिट का महा शिवलिंग है । पहले

ही कहा गया की शिव सम्प्रदायों से ऊपर है। मुसलमान

भाइयो के तीर्थ मक्का में भी मक्केश्वर नमक शिवलिंग

होना शिव का लीला ही है वहा के जमजम नमक कुएं में

भी एक शिव लिंग है जिसकी पूजा खजूर की पतियों से

होती है इस कारण यह है की इस्लाम में खजूर का बहूत

महत्व है । अमेरिका के ब्रेजील में न जाने कितने प्राचीन

शिवलिंग है । स्क्यात्लैंड में एक स्वर्णमंडित शिवलिंग है

जिसकी पूजा वहा के निवासी बहूत श्रदा से करते है ।

indochaina में भी शिवालय और शिलालेख उपलब्ध है ।

यहाँ विस्तार में जाने की आवश्यकता नहीं । शिव निश्चय

ही विश्वदेव है




जब इस्लाम मूर्तिपूजा के विरुद्ध है,
फिर इसका क्या कारण है कि मुसलमान अपनी नमाज़ में
काबा की ओर झुकते हैं और उसकी पूजा करते हैं????




इस्लाम मजहब के प्रवर्तक मोहम्मद स्वयं भी वैदिक परिवार में

हिन्दू के रूप में जन्में थे, और जब उन्होंने अपने हिन्दू

परिवार की परम्परा और वंश से संबंध तोड़ने और स्वयं

को पैगम्बर घोषित करना निश्चित किया, तब संयुक्त




हिन्दू परिवार छिन्न-भिन्न हो गया और काबा में स्थित

महाकाय शिवलिंग (संगे अस्वद) के रक्षार्थ हुए युद्ध में

पैगम्बर मोहम्मद के चाचा उमर-बिन-ए-हश्शाम

को भी अपने प्राण गंवाने पड़े। उमर-बिन-ए-हश्शाम

का अरब में एवं केन्द्र काबा (मक्का) में इतना अधिक

सम्मान होता था कि सम्पूर्ण अरबी समाज,

जो कि भगवान शिव के भक्त थे एवं वेदों के उत्सुक

गायक तथा हिन्दू देवी-देवताओं के अनन्य उपासक थे,

उन्हें अबुल हाकम अर्थात ‘ज्ञान का पिता’ कहते थे।

बाद में मोहम्मद के नये सम्प्रदाय ने उन्हें ईष्यावश अबुल

जिहाल ‘अज्ञान का पिता’ कहकर उनकी निन्दा की।

जब मोहम्मद ने मक्का पर आक्रमण किया, उस समय

वहाँ बृहस्पति, मंगल, अश्विनी कुमार, गरूड़, नृसिंह

की मूर्तियाँ प्रतिष्ठित थी। साथ ही एक

मूर्ति वहाँ विश्वविजेता महाराजा बलि की भी थी, और

दानी होने की प्रसिद्धि से उसका एक हाथ सोने

का बना था। ‘Holul’ के नाम से अभिहित यह

मूर्ति वहाँ इब्राहम और इस्माइल की मूर्त्तियो के बराबर

रखी थी। मोहम्मद ने उन सब मूर्त्तियों को तोड़कर

वहाँ बने कुएँ में फेंक दिया, किन्तु तोड़े गये शिवलिंग

का एक टुकडा आज भी काबा में सम्मानपूर्वक न केवल

प्रतिष्ठित है, वरन् हज करने जाने वाले मुसलमान उस

काले (अश्वेत) प्रस्तर खण्ड अर्थात ‘संगे अस्वद’

को आदर मान देते हुए चूमते है।




भगवान शिव के जितने रूप और
उपासना के जितने विधान संसार भर में प्रचलित रहे हैं, वे
अवर्णनीय हैं। हमारे देश में ही नहीं, भगवान शिव
की प्रतिष्ठा पूरे संसार में ही फैली हुई है। उनके विविध
रूपों को पूजने का सदा से ही प्रचलन रहा है। शिव के मंदिर

अफगानिस्तान के हेमकुट पर्वत से लेकर मिस्र, ब्राजील,
तुर्किस्तान के बेबीलोन, स्कॉटलैंड के ग्लासगो, अमेरिका,
चीन, जापान, कम्बोडिया, जावा, सुमात्रा तक हर जगह
पाए गए हैं। अरब में मुहम्मद पैगम्बर से पूर्व शिवलिंग
को 'लात' कहा जाता था। मक्का के कावा में संग अवसाद
के यप में जिस काले पत्थर की उपासना की जाती रही है,
भविष्य पुराण में उसका उल्लेख मक्केश्वर के रूप में हुआ
है। इस्लाम के प्रसार से पहले इजराइल और अन्य
यहूदियों द्वारा इसकी पूजा किए जाने के स्पष्ट प्रमाण
मिले हैं। ऐसे प्रमाण भी मिले हैं कि हिरोपोलिस में वीनस
मंदिर के सामने दो सौ फीट ऊंचा प्रस्तर लिंग था।
यूरोपियन फणिश और इबरानी जाति के पूर्वज बालेश्वर
लिंड के पूजक थे। बाईबिल में इसका शिउन के रूप में
उल्लेख हुआ है







सऊदी अरब के पास
ही यमन नामक राज्य है इसका उल्लेख श्रीमद्भागवत
में मिलता है श्री कृष्ण ने कालयवन नामक राक्षस के
विनाश किया था यह यमन राज्य उसी द्वीप पर स्थित है ।।



हजारों वर्षों से जीवित है सात महामानव


हजारों वर्षों से जीवित है सात महामानव

यह दुनिया का एक आश्चर्य है। विज्ञान इसे नहीं मानेगा, योग और आयुर्वेद कुछ हद तक इससे सहमत हो सकता है, लेकिन जहाँ हजारों वर्षों की बात हो तो फिर योगाचार्यों के लिए भी शोध का विषय होगा। इसका दावा नहीं किया जा सकता और इसके किसी भी प्रकार के सबूत नहीं है। यह आलौकिक है। किसी भी प्रकार के चमत्कार से इन्कार नहीं किया जा सकता। सिर्फ शरीर बदल-बदलकर ही हजारों वर्षों तक जीवित रहा जा सकता है। यह संसार के सात आश्चर्यों की तरह है। 

हिंदू इतिहास और पुराण अनुसार ऐसे सात व्यक्ति हैं, जो चिरंजीवी हैं। यह सब किसी न किसी वचन, नियम या शाप से बंधे हुए हैं और यह सभी दिव्य शक्तियों से संपन्न है। योग में जिन अष्ट सिद्धियों की बात कही गई है वे सारी शक्तियाँ इनमें विद्यमान है। यह परामनोविज्ञान जैसा है, जो परामनोविज्ञान और टेलीपैथी विद्या जैसी आज के आधुनिक साइंस की विद्या को जानते हैं वही इस पर विश्वास कर सकते हैं। आओ जानते हैं कि हिंदू धर्म अनुसार कौन से हैं यह सात जीवित महामानव।

1. बलि : राजा बलि के दान के चर्चे दूर-दूर तक थे। देवताओं पर चढ़ाई करने राजा बलि ने इंद्रलोक पर अधिकार कर लिया था। बलि सतयुग में भगवान वामन अवतार के समय हुए थे। राजा बलि के घमंड को चूर करने के लिए भगवान ने ब्राह्मण का भेष धारण कर राजा बलि से तीन पग धरती दान में माँगी थी। राजा बलि ने कहा कि जहाँ आपकी इच्छा हो तीन पैर रख दो। तब भगवान ने अपना विराट रूप धारण कर दो पगों में तीनों लोक नाप दिए और तीसरा पग बलि के सर पर रखकर उसे पाताल लोक भेज दिया।

2. परशुराम : परशुराम राम के काल के पूर्व महान ऋषि रहे हैं। उनके पिता का नाम जमदग्नि और माता का नाम रेणुका है। पति परायणा माता रेणुका ने पाँच पुत्रों को जन्म दिया, जिनके नाम क्रमशः वसुमान, वसुषेण, वसु, विश्वावसु तथा राम रखे गए। राम की तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें फरसा दिया था इसीलिए उनका नाम परशुराम हो गया।

भगवान पराशुराम राम के पूर्व हुए थे, लेकिन वे चिरंजीवी होने के कारण राम के काल में भी थे। भगवान परशुराम विष्णु के छठवें अवतार हैं। इनका प्रादुर्भाव वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया को हुआ, इसलिए उक्त तिथि अक्षय तृतीया कहलाती है। इनका जन्म समय सतयुग और त्रेता का संधिकाल माना जाता है।
3. हनुमान : अंजनी पुत्र हनुमान को भी अजर अमर रहने का वरदान मिला हुआ है। यह राम के काल में राम भगवान के परम भक्त रहे हैं। हजारों वर्षों बाद वे महाभारत काल में भी नजर आते हैं। महाभारत में प्रसंग हैं कि भीम उनकी पूँछ को मार्ग से हटाने के लिए कहते हैं तो हनुमानजी कहते हैं कि तुम ही हटा लो, लेकिन भीम अपनी पूरी ताकत लगाकर भी उनकी पूँछ नहीं हटा पाता है।

4. विभिषण : रावण के छोटे भाई विभिषण। जिन्होंने राम की नाम की महिमा जपकर अपने भाई के विरु‍द्ध लड़ाई में उनका साथ दिया और जीवन भर राम नाम जपते रहें। 

5. ऋषि व्यास : महाभारतकार व्यास ऋषि पराशर एवं सत्यवती के पुत्र थे, ये साँवले रंग के थे तथा यमुना के बीच स्थित एक द्वीप में उत्पन्न हुए थे। अतएव ये साँवले रंग के कारण 'कृष्ण' तथा जन्मस्थान के कारण 'द्वैपायन' कहलाए। इनकी माता ने बाद में शान्तनु से विवाह किया, जिनसे उनके दो पुत्र हुए, जिनमें बड़ा चित्रांगद युद्ध में मारा गया और छोटा विचित्रवीर्य संतानहीन मर गया। 

कृष्ण द्वैपायन ने धार्मिक तथा वैराग्य का जीवन पसंद किया, किन्तु माता के आग्रह पर इन्होंने विचित्रवीर्य की दोनों सन्तानहीन रानियों द्वारा नियोग के नियम से दो पुत्र उत्पन्न किए जो धृतराष्ट्र तथा पाण्डु कहलाए, इनमें तीसरे विदुर भी थे। व्यासस्मृति के नाम से इनके द्वारा प्रणीत एक स्मृतिग्रन्थ भी है। भारतीय वांड्मय एवं हिन्दू-संस्कृति व्यासजी की ऋणी है। 

6. अश्वत्थामा : अश्वथामा गुरु द्रोणाचार्य के पुत्र हैं। अश्वस्थामा के माथे पर अमरमणि है और इसीलिए वह अमर हैं, लेकिन अर्जुन ने वह अमरमणि निकाल ली थी। ब्रह्मास्त्र चलाने के कारण कृष्ण ने उन्हें शाप दिया था कि कल्पांत तक तुम इस धरती पर जीवित रहोगे, इसीलिए अश्वत्थामा सात चिरन्जीवियों में गिने जाते हैं। माना जाता है कि वे आज भी जीवित हैं तथा अपने कर्म के कारण भटक रहे हैं। हरियाणा के कुरुक्षेत्र एवं अन्य तीर्थों में यदा-कदा उनके दिखाई देने के दावे किए जाते रहे हैं। मध्यप्रदेश के बुरहानपुर के किले में उनके दिखाई दिए जाने की घटना भी प्रचलित है। 

7. कृपाचार्य : शरद्वान् गौतम के एक प्रसिद्ध पुत्र हुए हैं कृपाचार्य। कृपाचार्य अश्वथामा के मामा और कौरवों के कुलगुरु थे। शिकार खेलते हुए शांतनु को दो शिशु प्राप्त हुए। उन दोनों का नाम कृपी और कृप रखकर शांतनु ने उनका लालन-पालन किया। महाभारत युद्ध में कृपाचार्य कौरवों की ओर से सक्रिय थे।

Monday, March 25, 2013

हिंदुओ का पैसा मुसलमानों में बाट रही है Congress

आज सबूतों के साथ देखिये की किस तरह हम आम हिंदुओ का पैसा कांग्रेस धर्मनिरपेक्षता के बहाने मुसलमानों में बाट रही है ताकि उसका वोट बैंक और मजबूत हो सके औत ज्यादातर हिंदू आज भी अनजान है !!!!

आज सबूतों के साथ देखिये की किस तरह हम आम हिंदुओ का पैसा कांग्रेस धर्मनिरपेक्षता के बहाने मुसलमानों में बाट रही है ताकि उसका वोट बैंक और मजबूत हो सके औत ज्यादातर हिंदू आज भी अनजान है और गुलामो की तरह कांग्रेस, समाजवादी पार्टी जैसी देशद्रोही पार्टियों कों वोट दे रही है ! हिंदू लाईट बिल, पानी पट्टी, गृह कर, इनकम टैक्स, अमरनाथ यात्रा पर टैक्स चुकाता है और कांग्रेस उसे सेक्युलरिजम के नाम पर मुसलमानों में बाटती है !
2) मुस्लिमों कों मुफ्त लैपटॉप
http://zeenews.india.com/news/uttar-pradesh/unemployment-allowance-free-laptops-in-up_763936.html
3) मदरसों कों मुफ्त जमिन
http://zeenews.india.com/election09/story.aspx?aid=684052
4) दंगा नियंत्रण पुलिस पर खर्च
http://www.youtube.com/watch?v=08gud4_bS-o
5) मुसलमानों कों आरक्षण
http://www.siasat.com/english/news/muslim-reservation-cong-achievement-not-ysrs-ma-shabbir
6) आतंकवादियों कों पेन्शन
http://www.youtube.com/watch?v=j8DKwLE2Emw&noredirect=1
7) इस्लामी कॉलेजो कों अनुदान
http://www.patrika.com/news.aspx?id=959273

Sunday, March 24, 2013

गणेश जी को बुद्धि देने वाले देव कहा जाता है .???


गणेश जी को बुद्धि देने वाले देव कहा जाता है .???

यदि हम ध्यान से देखें तो ब्रेन की अंदरूनी आकृति गणेश जी की तरह है !

जब हम गणेश जी का ध्यान करते है तो उन्ही की तरह आकृति वाले अंग - ब्रेन पर सारी ऊर्जा केन्द्रित हो जाती है और उसका विकास होता है .!

इसीलिए गणेश जी को बुद्धिदाता कहा गया है .बुद्धि का पूर्ण विकास होने से सिद्धियाँ भी प्राप्त होती है . जहां बुद्धिमत्ता है वहां लक्ष्मी जी तो आ ही जाती है !

पेंडुलम डाउजिंग : एक रहस्यमय विद्या का रहस्य

पेंडुलम डाउजिंग : एक रहस्यमय विद्या का रहस्य
 
 
pendulum Dowsing
 

हमारे अवचेतन मन में वह शक्ति होती है कि हम एक ही पल में इस ब्रह्मांड में कहीं भी मौजूद किसी भी तरंगों से संपर्क कर सकते हैं, सारा ब्रह्मांड तरंगों के माध्यम से एक-दूसरे से जुड़ा हुआ है।

उन तरंगों के माध्यम से हम जो जानना चाहते हैं या हमारे जो भी सवाल होते हैं - जैसे जमीन के अंदर पानी खोजना या कोई खोई हुई चीजों को तलाशना उसे हम डाउजिंग कहते हैं।

डाउजिंग किसी भी छुपी हुई बात को खोजने वाली विद्या है। इसके लिए हम पेंडुलम या डाउजिंग रॉड का उपयोग करते हैं। इसमें से कोई यंत्र को हाथों से पकड़ कर जब हम कोई सवाल करते हैं तो यह पेंडुलम अपने आप गति करने लगता है।

जिसे हम निर्देश दे सकते हैं कि यदि जवाब सकारात्मक है तो सीधे हाथ की और गति करना है और जवाब यदि नकारात्मक है तो उलटे हाथ की और गति करना है।
pendulum

कुछ अलग तरह के प्रश्नों के लिए हम चार्ट का भी उपयोग कर सकते हैं। आप देखेंगे कि ये गति हम नहीं करते बल्कि हमारे हाथों में लगा यंत्र अपने आप अलग-अलग तरह से गति करने लगता है।

जैसे ही हम यंत्र को हाथ में लेकर कोई सवाल करते हैं तो हमारा अवचेतन मन उन तरंगों को आकर्षित कर लेता है और उन्हीं तरंगों के माध्यम से वो यंत्र हमारे हाथों में गति करने लगता है। इसे सिखने के लिए जो जरूरी बात है वह है ध्यान।

ध्यान क्यों? क्योंकि जब हम यंत्र से सवाल करते हैं तो हमारा चेतन मन सवाल करता है और जवाब पाने के लिए जरूरी है कि सवाल करने के बाद चेतन मन शांत हो जाए और ऐसा करते ही हमारा अवचेतन मन सक्रिय होकर उन तरंगों को अपनी और आकर्षित करने लगेगा और पेंडुलम यंत्र किसी भी छुपी हुई बात का जवाब देने में सफल हो जाएगा।

Friday, March 22, 2013

गंगा में अपने पिता की अस्थियाँ विसर्जित करता विदेशी बालक


गंगा में अपने पिता की अस्थियाँ विसर्जित करता विदेशी बालक 

गंगा में अपने पिता की अस्थियाँ विसर्जित करता विदेशी बालक 

इस फोटो को देखिये यह द्रश्य नवम्बर 2010 का है ..
हरिद्वार स्थित हर की पौडी में गंगा के तट पर चार साल का एक नन्हा बालक अपने पिता की अस्थियाँ विसर्जित कर रहा है। पिता की आत्मा की शांति और मोक्ष की कामना के साथ।

पंडित संस्कार करा रहे थे और निकट ही आँखों में आँसू लिए उसकी माँ मेस्टर बूर और कुछ परिजन भी थे । किसी हिंदू परिवार के लिए मत्यु के बाद ये जरूरी संस्कार है लेकिन यहाँ दिलचस्प ये है कि ये बालक हिंदू नहीं जर्मन है।

जी हाँ, सात समंदर पार से ये परिवार गंगा और हिंदू रीति-रिवाज में अपनी आस्था और विश्वास के कारण ही जर्मनी से भारत आया था । 

इस बालक के पिता कैंसर से पीड़ित थे और सिर्फ 40 वर्ष के थे और मेस्टर के अनुसार प्राच्य दर्शन से प्रभावित थे और हिंदू संस्कारों का अक्सर जिक्र किया करते थे।

उनके निधन के बाद मेस्टर को लगा कि गंगा में अपने पति की अस्थियाँ विसर्जित करके ही वो उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि दे पाएँगी। इसलिए उन्होंने हरिद्वार आने का फैसला किया। मेस्टर बूर की खुद भी भारतीय दर्शन और धार्मिक चिंतन में गहरी आस्था है।

मेस्टर कहती हैं, 'मेरे पति को मौत से पहले काफी कष्ट सहना पड़ा और मैं चाहती थी कि उनकी आत्मा सारे कष्टों से मुक्त हो जाए इसलिए मैं गंगा की शरण में आई। मैंने यहाँ हिंदू पुरोहितों से बात की और उन्होंने मुझे ये संस्कार करने की सलाह दी।'

मुझे बताया गया कि ये संस्कार बेटे के हाथ से ही होना चाहिए इसलिए मैं अपने बेटे को लेकर यहाँ आई। मेस्टर बूर के लिए ये एक भाव विह्वल कर देने वाला क्षण था और उनके चेहरे पर असीम संतोष के भाव थे।

हिंदू संस्कारों के प्रति मेस्टर का आग्रह इतना ज्यादा है कि उन्होंने ईसाई होने के बावजूद अपने पति का दाह संस्कार करवाया उनके शरीर को दफनाया नहीं।

हरिद्वार में उनका संस्कार कराने वाले प्राच्य विद्या सोसायटी के अध्यक्ष प्रतीक मिश्रपुरी कहते हैं, 'विदेशी तो हमारी संस्कति के प्रति समर्पित हो रहे हैं। वो इनका महत्व समझ रहे हैं, लेकिन खुद भारतीय अपने संस्कारों से विमुख हो रहे हैं।'

हिंदू वैवाहिक परंपरा के प्रति विदेशियों का आकर्षण नई बात नहीं है, लेकिन हिंदू तरीके से अंतिम संस्कार कराना विरल घटना है।इस फोटो को देखिये यह द्रश्य नवम्बर 2010 का है ..
हरिद्वार स्थित हर की पौडी में गंगा के तट पर चार साल का एक नन्हा बालक अपने पिता की अस्थियाँ विसर्जित कर रहा है। पिता की आत्मा की शांति और मोक्ष की कामना के साथ।

पंडित संस्कार करा रहे थे और निकट ही आँखों में आँसू लिए उसकी माँ मेस्टर बूर और कुछ परिजन भी थे । किसी हिंदू परिवार के लिए मत्यु के बाद ये जरूरी संस्कार है लेकिन यहाँ दिलचस्प ये है कि ये बालक हिंदू नहीं जर्मन है।

जी हाँ, सात समंदर पार से ये परिवार गंगा और हिंदू रीति-रिवाज में अपनी आस्था और विश्वास के कारण ही जर्मनी से भारत आया था ।

इस बालक के पिता कैंसर से पीड़ित थे और सिर्फ 40 वर्ष के थे और मेस्टर के अनुसार प्राच्य दर्शन से प्रभावित थे और हिंदू संस्कारों का अक्सर जिक्र किया करते थे।

उनके निधन के बाद मेस्टर को लगा कि गंगा में अपने पति की अस्थियाँ विसर्जित करके ही वो उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि दे पाएँगी। इसलिए उन्होंने हरिद्वार आने का फैसला किया। मेस्टर बूर की खुद भी भारतीय दर्शन और धार्मिक चिंतन में गहरी आस्था है।

मेस्टर कहती हैं, 'मेरे पति को मौत से पहले काफी कष्ट सहना पड़ा और मैं चाहती थी कि उनकी आत्मा सारे कष्टों से मुक्त हो जाए इसलिए मैं गंगा की शरण में आई। मैंने यहाँ हिंदू पुरोहितों से बात की और उन्होंने मुझे ये संस्कार करने की सलाह दी।'

मुझे बताया गया कि ये संस्कार बेटे के हाथ से ही होना चाहिए इसलिए मैं अपने बेटे को लेकर यहाँ आई। मेस्टर बूर के लिए ये एक भाव विह्वल कर देने वाला क्षण था और उनके चेहरे पर असीम संतोष के भाव थे।

हिंदू संस्कारों के प्रति मेस्टर का आग्रह इतना ज्यादा है कि उन्होंने ईसाई होने के बावजूद अपने पति का दाह संस्कार करवाया उनके शरीर को दफनाया नहीं।

हरिद्वार में उनका संस्कार कराने वाले प्राच्य विद्या सोसायटी के अध्यक्ष प्रतीक मिश्रपुरी कहते हैं, 'विदेशी तो हमारी संस्कति के प्रति समर्पित हो रहे हैं। वो इनका महत्व समझ रहे हैं, लेकिन खुद भारतीय अपने संस्कारों से विमुख हो रहे हैं।'

हिंदू वैवाहिक परंपरा के प्रति विदेशियों का आकर्षण नई बात नहीं है, लेकिन हिंदू तरीके से अंतिम संस्कार कराना विरल घटना है।

Wednesday, March 20, 2013

कौन सर्वोत्कृष्ट धर्म है?

एक राजा हुआ। उसने दूर-दूर खबर कर कि जो भी धर्म श्रेष्ठ होगा, मैं उसे स्वीकार करूंगा। अब तो उसके पास एक से बढ़कर एक विद्वान आने लगे, जो अपने धर्म की श्रेष्ठता का बखान करते हुए दूसरे के धर्म के दोष गिनाते। लेकिन राजा के सामने कुछ सिद्ध न हो पाया कि कौन धर्म चरम धर्म है। कौन सर्वोत्कृष्ट धर्म है? जब यही सिद्ध न हुआ तो राजा अधर्म के जीवन में जीता रहा। उसने कहा, जिस दिन सर्वश्रेष्ठ धर्म उपलब्ध हो जाएगा, उस दिन मैं धर्म का अनुसरण करूँगा। जब तक सर्वश्रेष्ठ धर्म का पता ही नही है, तो मैं कैसे अपना जीवन को छोडू और बदलु? तो जीवन तो वह अधर्म में जीता रहा, लेकिन सर्वश्रेष्ठ धर्म की खोज में पंडितो के विवाद को सुनता रहा। 

ऐसे ही दलीले सुनते-सुनते राजा का जीवन बीतने लगा। फिर तो राजा बूढ़ा होने लगा और घबरा गया कि अब क्या होगा? अधर्म का जीवन दुःख देने लगा। लेकिन जब सर्वश्रेष्ठ धर्म ही न मिले, तो वह चले भी कैसे धर्म की रह पर?

अंतत: वह एक प्रसिद्ध फकीर के पास गया। राजा ने संत को अपनी परेशानी बताते हुए कहा - मैं सर्वश्रेष्ठ धर्म की खोज में हूं। लेकिन आज तक मुझे वह नहीं मिल सका है। फकीर ने कहा - सर्वश्रेष्ठ धर्म! क्या संसार में बहुत से धर्म होते हैं, जो श्रेष्ठ और अश्रेष्ठ धर्म की बात उठे, धर्म तो एक है। कोई धर्म अच्छा, कोई धर्म बुरा, यह तो होता ही नहीं। सर्वश्रेष्ठ का सवाल ही नहीं है। राजा बोला, लेकिन मेरे पास तो जितने लोग आए, उन्होंने कहा हमारा धर्म श्रेष्ठ है। उस फकीर ने कहा, जरुर उन्होंने धर्म के नाम से मैं श्रेष्ठ हूँ यही कहा। उनका अहंकार बोल होगा। धर्म तो एक है,अहंकार अनेक है। राजा से उसने कहा, जब भी कोई पथ से बोलता है किसी धर्म से बोलता है, तो समझ लेना, वह धर्म के पक्ष में नही बोल रहा है, अपने पक्ष में बोल रहा है। और जहाँ पक्ष है, जहाँ पथ है, वहाँ धर्म नही होता। धर्म तो वही होता है जहाँ व्यक्ति निष्पक्ष होता है। पक्षपाती मन में धर्म नही हो सकता है। सच्चाई राजा प्रभावित हुआ।उसने कहा, तो फिर मुझे बताओ, मैं क्या करु? उस फकीर ने कहा- आओ नदी के किनारे चलते हैं वहीं बताऊंगा। नदी पर पहुंच फकीर ने कहा - जो सर्वश्रेष्ठ नाव हो तुम्हारी राजधानी की , तो उसमें बैठ कर उस तरफ चलें। राजा ने कहा यह बिलकुल ठीक है। राजा जाए तो सर्वश्रेष्ठ नाव आनी चाहिए। बीस-पच्चीस जो अच्छी से अच्छी नावें थी, वे बुलाई गई। और वह फकीर भी अजीब था, एक-एक नाव में दोस निकलने लगा कि इसमें यह खराबी है, इसमें यह दाग लगा हुआ है। यह तो आपके बैठने के योग्य नही है। राजा भी थक गया। सुबह से साँझ हो गई। भूखा प्यासा राजा फकीर से बोला - क्या बकवास लगा रखा है, इनमें से तो कोई भी नाव पार करा देगी और अगर नाव पसंद नहीं है, तो खुद ही तैर कर पार कर लें, छोटी सी नदी तो है। 

फकीर हंसने लगा और बोला - यही तो मैं सुनना चाहता हूं। राजन! धर्म की कोई नाव नहीं होती। धर्म तो तैरकर ही पार करना होता है, खुद। कोई किसी दूसरे को बिठाकर पार नहीं करा सकता। धर्म की कोई नाव नही होती। और जो कहता हो धर्म की नाव होती है, समझ लेना, धर्म से उसे कोई मतलब नहीं, कोई नाव चलाने वालो का व्यापारी होगा वह, जो नाव चलाने वाले है, उनका व्यपार है उनकी कोई नाव नही है। धर्म तो तैर कर ही पार करना होता है-व्यक्तिगत। वे जल्दी नदी में उतरे और पर हो गए। वह थोड़ी देर की बात थी, लेकिन नाव की प्रतीक्षा में और अच्छी नाव की खोज में सारा दिन व्यर्थ हुआ था।

''मत्स्य पुराण''


''मत्स्य पुराण''

वैष्णव सम्प्रदाय से सम्बन्धित 'मत्स्य पुराण' व्रत, पर्व, तीर्थ, दान, राजधर्म और वास्तु कला की दृष्टि से एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण पुराण है। इस पुराण की श्लोक संख्या चौदह हज़ार है। इसे दो सौ इक्यानवे अध्यायों में विभाजित किया गया है। इस पुराण के प्रथम अध्याय में 'मत्स्यावतार' के कथा है। उसी कथा के आधार पर इसका यह नाम पड़ा है। प्रारम्भ में प्रलय काल में पूर्व एक छोटी मछली मनु महाराज की अंजलि में आ जाती है। वे दया करके उसे अपने कमण्डल में डाल लेते हैं। किन्तु वह मछली शनै:-शनैष् अपना आकार बढ़ाती जाती है। सरोवर और नदी भी उसके लिए छोटी पड़ जाती है। तब मनु उसे सागर में छोड़ देते हैं और उससे पूछते हैं कि वह कौन है?

प्रलय काल
मत्स्य अवतार भगवान मत्स्य मनु को बताते हैं कि प्रलय काल में मेरे सींग में अपनी नौका को बांधकर सुरक्षित ले जाना और सृष्टि की रचना करना। वे भगवान के 'मत्स्य अवतार' को पहचान कर उनकी स्तुति करते हैं। मनु प्रलय काल में मत्स्य भगवान द्वारा अपनी सुरक्षा करते हैं। फिर ब्रह्मा द्वारा मानसी सृष्टि होती है। किन्तु अपनी उस सृष्टि का कोई परिणाम न देखकर दक्ष प्रजापति मैथुनी-सृष्टि से सृष्टि का विकास करते हैं।

वंश
इसके उपरान्त 'मत्स्य पुराण' में मन्वन्तर, सूर्य वंश, चंद्र वंश, यदु वंश, क्रोष्टु वंश, पुरू वंश, कुरु वंश और अग्नि वंश आदि का वर्णन है। फिर ऋषि-मुनियों के वंशों का उल्लेख किया गया है।
राजधर्म और राजनीति
इस पुराण में 'राजधर्म' और 'राजनीति' का अत्यन्त श्रेष्ठ वर्णन है। इस दृष्टि से 'मत्स्य पुराण' काफ़ी महत्त्वपूर्ण है। प्राचीन काल में राजा का विशेष महत्त्व होता था। इसीलिए उसकी सुरक्षा का बहुत ध्यान रखना पड़ता था। क्योंकि राजा की सुरक्षा से ही राज्य की सुरक्षा और श्रीवृद्धि सम्भव हो पाती थी। इस दृष्टि से इस पुराण में बहुत व्यावहारिक ज्ञान दिया गया है। 'मत्स्य पुराण' कहता है कि राजा को अपनी सुरक्षा की दृष्टि से अत्यन्त शंकालु तथा सतर्क रहना चाहिए। बिना परीक्षण किए वह भोजन कदापि न करे। शय्या पर जाने से पूर्व अच्छी प्रकार से देख ले कि उसमें कोई विषधर आदि तो नहीं छोड़ा गया है। उसे कभी भीड़ या जलाशय में अकेले प्रवेश नहीं करना चाहिए। अनजान अश्व या हाथी पर नहीं चढ़ना चाहिए। किसी अनजान स्त्री से सम्बन्ध नहीं बनाने चाहिए। इस पुराण में छह प्रकार के दुर्गों- धनु दुर्ग, मही दुर्ग, नर दुर्ग, वार्क्ष दुर्ग, जल दुर्ग औ गिरि दुर्ग के निर्माण की बात कही गई है। आपातकाल के लिए उसमें सेना और प्रजा के लिए भरपूर खाद्य सामग्री, अस्त्र-शस्त्र एवं औषधियों का संग्रह करके रखना चाहिए। उस काल में भी राज्य का जीवन आराम का नहीं होता था। राजा को हर समय काक दृष्टि से सतर्क रहना पड़ता था। इसीलिए उसे विश्वसनीय कर्मचारियों का चयन करना पड़ता था। उनसे मधुर व्यवहार बनाना पड़ता था। तथा च मधुराभाषी भवेत्कोकिलवन्नृप:। काकशंकी भवेन्नित्यमज्ञातवसतिं वसेत्॥ अर्थात् राजा को कोयल के समान मधुर वचन बोलने वाला होना चाहिए। जो पुर या बस्ती अज्ञात है, उसमें उसे निवास करना चाहिए। उसे सदैव कौए के समान शंकायुक्त रहना चाहिए। भाव यही है कि राजा को एकाएक किसी पर भी विश्वास नहीं करना चाहिए। उसे सदैव अपनी प्रजा का विश्वास और समर्थन प्राप्त करते रहना चाहिए। गुप्तचरों द्वारा राज्य की गतिविधियों का पता लगाते रहना चाहिए। श्रीवृद्धि तथा समृद्धि 'मत्स्य पुराण' में पुरुषार्थ पर विशेष बल दिया गया है। जो व्यक्ति आलसी होता है और कर्म नहीं करता, वह भूखों मरता है। भाग्य के भरोसे बैठे रहने वाला व्यक्ति कभी भी जीवन में सफल नहीं हो सकता। श्रीवृद्धि तथा समृद्धि उससे सदैव रूठी रहती है। स्थापत्य कला इस पुराण में 'स्थापत्य कला' का भी सुन्दर विवेचन किया गया है। इसमें उस काल के अठारह वास्तुशिल्पियों के नाम तक दिए गए हैं। जिनमें विश्वकर्मा और मय दानव का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इसमें बताया गया है कि सबसे उत्तम गृह वह होता है, जिसमें चारों ओर दरवाज़े और दालान होते हैं। उसे 'सर्वतोभद्र' नाम दिया गया है। देवालय और राजनिवास के लिए ऐसा ही भवन प्रशस्त माना जाता है। इसी प्रकार 'नन्द्यावर्त्त', 'वर्द्धमान' , 'स्वस्तिक' तथा 'रूचक' नामक भवनों का उल्लेख भी किया गया है। राजा के निवास गृह पांच प्रकार के बताए गए हैं। सर्वोत्तम गृह की लम्बाई एक सौ साठ हाथ (54 गज) होती है। नर्मदा नदी उस काल में आज की भांति नए घर में प्रवेश हेतु शुभ मुहूर्त्तो की गणना पर पूरा विचार किया जाता था। तभी लोक गृह प्रवेश करते थे। 'मत्स्य पुराण' में प्राकृतिक शोभा का बड़ा ही सुन्दर वर्णन किया गया है। हिमालय पर्वत, कैलाश पर्वत, नर्मदा एवं वाराणसी के शोभा-वर्णन में भाषा और भाव का अति सुन्दर संयोग हुआ है- तपस्तिशरणं शैलं कामिनामतिदुर्लभम्। मृगैर्यथानुचरितन्दन्ति भिन्नमहाद्रुमम्॥ अर्थात् यह हिमालय पर्वत तपस्वियों की पूर्णतया रक्षा करने वाला है। यह काम-भावना रखने वालों के लिए अत्यन्त दुर्लभ है। यह हाथियों के समान महान और विशाल वृक्षों से युक्त है। मृगों की भांति अनुचरित है अर्थात् जिस प्रकार मृगों के सौन्दर्य का वर्णन नहीं किया जा सकता, उसकी प्रकार हिमालय की शोभा का भी वर्णन करना बड़ा कठिन है।

सावित्री सत्यवान
इस पुराण का सबसे महत्त्वपूर्ण आख्यान 'सावित्री सत्यवान' की कथा है। पतिव्रता स्त्रियों में सावित्री की गणना सर्वोपरि की जाती है। सावित्री अपनी लगन, दूरदृष्टि, बुद्धिमत्ता और पतिप्रेम के कारण अपने मृत पति को यमराज के पाश से भी छुड़ा लाने में सफल हो जाती है।

शकुन-अपशकुन
इसके अतिरिक्त 'मत्स्य पुराण' में देवी और विष्णु की उपासना, वाराणसी एवं नर्मदा नदी का माहात्म्य, मंगल-अमंगल सूचक शकुन, स्वप्न विचार, अंग फड़कने का सम्भावित फल; व्रत, तीर्थ और दान की महिमा आदि का वर्णन अनेकानेक लोकोपयोगी आख्यानों के माध्यम से किया गया है।

नृसिंह अवतार
'नृसिंह अवतार' की कथा, भक्त प्रह्लाद को विष्णु के विराट रूप का दर्शन तथा देवासुर संग्राम में दोनों ओर के वीरों का वर्णन पुराणकार की कल्पना का सुन्दर परिचय देता है। इस पुराण का काव्य तत्त्व भी अति सुन्दर है। वर्णन शैली अत्यन्त सहज है। अनेक स्थलों पर शब्द व्यंजना का सौन्दर्य देखते ही बनता है। आयुर्वेद चिकित्सा इस पुराण की एक विशेषता और भी है। पुराणकार को आयुर्वेद चिकित्सा का अच्छा ज्ञान प्राप्त था, ऐसा प्रतीत होता है। क्योंकि इसमें औषधियों और जड़ी-बूटियों की एक लम्बी सूची दी गई है। साथ ही साथ यह भी बताया गया है कि कौन-सी दवा किस व्याधि के काम आती है। इसका वर्णन विस्तार के साथ इस पुराण में किया गया है। मूर्तियों के निर्माण देवताओं की मूर्तियों के निर्माण की पूरी प्रकिया और उनके आकार-प्रकार का पूरा ब्योरा 'मत्स्य पुराण' में उपलब्ध होता है। प्रत्येक देवता की मूर्ति के अलग-अलग लक्षण बताए गए हैं। साथ ही उनके विशेष चिह्नों का विवरण भी दिया गया है। एक जगह तो यहाँ तक कहा गया है कि मूर्ति की कटि अठारह अंगुल से अधिक नहीं होनी चाहिए। स्त्री-मूर्ति की कटि बाईस अंगुल तथा दोनों स्तनों की माप बारह-बारह अंगुल होनी चाहिए। इसी प्रकार शरीर के प्रत्येक भाग की माप बड़ी बारीकी से प्रस्तुत की गई है। इससे पुराणकार की सूक्ष्म परख और कलात्मक दृष्टि का पता चलता है। वस्तुत: कला, धर्म, राजनीति, दान-पुण्य, स्थापत्य, शिल्प और काव्य-सौन्दर्य की दृष्टि से यह एक उत्तम पुराण है |

Monday, March 18, 2013

ऋषियों ने "हिन्दुस्थान" नाम दिया था

हिंदू शब्द वैदिक साहित्य में प्रयुक्त ' सिंधु ' का तदभव रूप है | वैदिक साहित्य में " सप्तसिंधु " शब्द का प्रयोग हुआ है | जो स्वात, गोमती, कुम्भा, वितस्ता, चंद्रभागा, इरावती, सिंधु इन सात नदियों से व्यापक प्रदेश का सूचक है |

पुराने समय में विदेशी लोग भारत को उसके उत्तर- पश्चिम में बहने वाले महानद सिंधु के नाम से पुकारते थे, जिसे ईरानियो ने हिंदू और यूनानियो ने हंकार का लोप करके " इण्डोस " कहा | वही कालान्तर में हिंदू बना और व्यापक रूप से प्रचलित है | भारतवर्ष में रहने वाले " समाज "को लोग हिंदू नाम से ही जानते आये है | हज़ार वर्ष से भी अधिक समय हो चूका है, भारतीय समाज, संस्कृति, जाति और राष्ट्र की पहचान के लिये " हिंदू " शब्द सारे संसार में प्रयोग किया जा रहा है |

विदेशियों से अपनी उच्चारण सुविधा के लिये सिंधु का हिंदू या इण्डोस बनाया था, किन्तु इतने मात्र से हमारे पूर्वजों ने इसको त्याज्य नहीं माना | हिंदू जाति ने हिंदू शब्द को न केवल गौरवपूर्वक स्वीकार किया अपितु हिंदुत्व की लाज रखने और उसके संरक्षण के लिये भारी बलिदान भी दिए है |

अद्भुत कोष, हेमंतकविकोष, शमकोष,शब्द-कल्पद्रुम, पारिजात हरण नाटक. शाङ् र्गधर पद्धति, काली का पुराण आदि अनेक संस्कृत ग्रंथो में हिंदू शब्द का प्रयोग पाया जाता है |

ईसा की सातवीं शताब्दी में भारत में आने वाले चीनी यात्री ह्वेंनसांग ने कहा की यह के लोगो को " हिंतू " नाम से पुकारा जाता था | चंदबरदाई के पृथ्वीराज रासो में " हिंदू " शब्द का प्रचुर प्रयोग हुआ है | 

पृथ्वीराज चौहान को " हिंदू अधिपति " संबोधित किया गया है | बीकानेर के राजकुमार नामक कवि ने जो अकबर के दरबार में रहता था मारवाड़ी बोली में एक कविता के द्वारा महाराणा से अपील की थी की तुम अकेले हिन्दुओ की नाक हो, हिंदू जाति की लाज तुम्हारे हाथ में है | राणा प्रताप ने हिंदू जाति की रक्षा के लिये अनेक कष्ट सहे | इसी प्रकार जब औरगजेब ने हिन्दुओ पर अत्याचार करना शुरू किया तब उदयपुर के महाराजा राजसिंह ने औरंगजेब से चिट्ठी लिखकर कहा की मै हिंदू जाति का सरदार हू इसलिए पहले मुझपे जजिया लगाने का साहस करो |

समर्थ गुरु रामदास ने बड़े अभिमान पूर्वक हिंदू और हिन्दुस्थान शब्दों का प्रयोग किया |

शिवाजी ने हिंदुत्व की रक्षा की प्रेरणा दी और गुरु तेग बहादुर और गुरु गोविन्द सिंह तो हिंदुत्व के लिये जिए और मरे | गुरु गोविन्द सिंह ने अपने सामने महान आदर्श रखा -

सकल जगत में खालसा पंथ गाजे |
जगे धर्म हिंदू सकल भंड भाजे ||

वीर पेशवा, सुजान सिंह, जयसिंह, राणा बप्पा, राणा सांगा आदि इतिहास प्रसिद्ध वीरो और देशभक्तों ने हिंदू कहलाने और हिंदुत्व की रक्षा के लिये जूझने में अभिमान व्यक्त किया | स्वामी विवेकानंद ने अपने को गर्वपूर्वक हिंदू कहा था | तात्पर्य यह है की हमारे देश के इतिहास में हिंदू कहलाना और हिंदुत्व की रक्षा करना बड़े गर्व और अभिमान की बात समझी जातो थी |

भारतवर्ष को प्राचीन ऋषियों ने "हिन्दुस्थान" नाम दिया था जिसका अपभ्रंश "हिन्दुस्तान" है। 

"बृहस्पति आगम" के अनुसार:
हिमालयात् समारभ्य यावत् इन्दु सरोवरम्। तं देवनिर्मितं देशं हिन्दुस्थानं प्रचक्षते॥

गाय की महिमा




गाय की महिमा को शब्दों में नहीं बाँधा जा सकता। मनुष्य अगर गौमाता को महत्व देना सीख ले तो गौ माता उनके दुख दूर कर देती है। गाय हमारे जीवन से जु़ड़ी है। उसके दूध से लेकर मूत्र तक का उपयोग किया जा रहा है। गौमूत्र से बनने वाली दवाएँ बीमारियों को दूर करने के लिए रामबाण मानी जाती है।

रोज सुबह गौ दर्शन हो जाए तो समझ लें कि दिन सुधर गया, क्योंकि गौ-दर्शन के बाद और किसी के दर्शन की आवश्यकता नहीं रह जाती। लोग अपने लिए आलीशान इमारतें बना रहे हैं यदि इतना धन कमाने वाले अपनी कमाई का एक हिस्सा भी गौ सेवा और उसकी रक्षा के लिए खर्च करें तो गौमाता उनकी रक्षा करेगी। इसलिए गौ दर्शन सबसे सर्वोत्तम माना जाता है।

गाय और ब्राह्मण कभी साथ नहीं छोड़ते हैं लेकिन आज के लोगों ने दोनों का ही साथ छोड़ दिया है। जब पांडव वन जा रहे थे तो उन्होंने भी गाय और ब्राह्मण का साथ माँगा था। समय के बदलते दौर में राम, कृष्ण और परशुराम आते रहे और उन्होंने भी गायों और संतों के उद्धार का काम किया। इसकी बड़ी महिमा सूरदास और तुलसीदास ने गौ कथा का वर्णन किया है। लोग दृश्य देवी की पूजा नहीं करते और अदृश्य देवता की तलाश में भटकते रहते हैं। उनको नहीं मालूम की भविष्य में बड़ी समस्याओं का हल भी गाय से मिलने वाले उत्पादों से मिल सकता है। आने वाले दिनों में संकट के समय गौमाता ही लोगों की रक्षा करेंगी। इस सच्चाई से लोग अनजान हैं।


सबसे स्वतंत्र रस जो भी अनघ पियेगा
पूरा जीवन केवल वह वीर जियेगा!

"डूबती कश्ती को अब किनारा देना होगा ,
लडखडाते देश को हमें सहारा देना होगा,
लिखना है इतिहास हमे अपने हिन्द का,
फिर इस काम में लहू हमें हमारा देना होगा !"

जय हिन्द जय भारत जय हिंदुत्व जय महाकाल

Sunday, March 17, 2013

कुछ बाते हिन्दुओ के बारे में..


1) अगर हिंदू नाम वेदो में है तो राम या कृशन ने अपने को आर्या क्यो कहा?

: हिन्दू नाम वेदों में नहीं है , हिन्दू कोई मजहब नहीं है जो लोग सप्त सिन्दू नदियो के देश में रहते है उन्हें हिन्दू कहा गया, सिन्दू को indus valley भी कहा गया है जिसके नाम पर india नाम पड़ा. यानि जो लोग इंडिया में रहते है उन्हें हिन्दू कहा गया. हिन्दू शब्द धर्म के लिए मुसलमानों के हिंदुस्तान ने आने के बाद ही प्रयोग किया गया . राम और क्रिशन के समय इस देश का नाम अर्याब्रत था और यह चीन से लेकर श्री लंका और अरब तक फेला था ,जो लोग अर्याब्रत में रहते थे बो आर्यन कहलाये, सभ्य लोगो को आर्यन कहा गया, जब पूरी दुनिया में लोग नागे घूमते थे तब हिंदुस्तान में राम और कृषण जैसे शूरवीर राजा थे.

2) हिंदू मूर्ति पूजा क्यो करते है जबकि वेदो मे ये मना है?

: किसने कहा हिन्दू मूर्ति पूजा करता है , क्या हिन्दू मिटी,कागज ,धातु की पूजा करता है , उत्तर है नहीं जैसे हम अपने चाहने वालो का चित्र बना कर उन्हें अपनी दीवार पर टांग देंते है,और उस चित्र में न तो उसका सरीर होता है ना रक्त ना मॉस और न ही आत्मा , उसे घर में सजा देते है जब उस चाहने वाले की याद आती है तो चित्र को देखते है और मन की आँखों से दरसन हो जाते है , बैसे ही भक्त की भक्ति भगवान् को आकर देती है और उसकी सोच और कल्पना भगवान् को आकार देना सुरू कर देती है .कोई कागज ,मिटी या धातु की पूजा नहीं करता उस मूर्त में उसे अपने भगवान् के दर्शन होते है. इससे साबित हो जाता है की हिन्दू मूर्ति पूजा नहीं करता बल्कि बह तो उस परमेश्वर को अनेक रूपों में देखता है , हर जीव में हर बस्तु में उसे केवेल परमेश्वर के दर्शन होते है , क्या कोई मुसलमान मक्का पर थूक सकता है ? क्या कोई मुसलमान मक्का के चित्र पर थूक सकता है? , अल्लाह तो सात आसमान के ऊपर है मस्जिद में नहीं तो क्या मस्जिद पर थूक सकता है ?, बैसे ही हिन्दू मंदिर जाता है मन की शांति के लिए, मूरत तो बस एक बहाना है असली मकसद उसको पाना है , वेदों में कही नहीं लिखा मूर्ति पूजा मत करो ये जरूर लिखा है की उस परमेश्वर की कोई प्रतिमा नहीं है पर इसका एह मतलब नहीं की प्रतिमा बनाना पाप है बेद कहता है की जो लोग इश्बर की प्रतिमा बनाते है बह एक छोर पकड़ते है और धिरे धिरे उसके दुसरे छोर की और जाते है बह इंसान ही उसके परम निरंकार स्वरुप को जानते है और उसके दुसरे छोर को पा जाते है और उस परमेश्वर में लीन हो जाते है बाकि केवल अँधेरे में रहते है , और मंदिर का अर्थ है मन के अन्दर, मुसलमान बाहरी मूरत को तो तोड़ सकते है पर क्या मन की मूरत को तोड़ पयोगे ?

3) हिंदू जाती मे इतनी भिन्नटाए वा मानताएँ क्यो हैं ?

वेद कहता है की जैसे बारिश का पानी अलग अलग रास्तो या नदियों से होकर अंत में सागर में मिल जाता है बैसे ही जीव भी अलग अलग रास्तो से परमात्मा को पाने का प्रयास करता है और अंत में परम में मिल जाता है ,सब जीवो में उसी की चेतना है , भगवान् ने जीवो को भी तो अलग अलग बनाया है , जो एक को अच्छा लगता है बो दुसरे को नहीं लगता ,सबकी सोच अलग अलग ,इसीलिए भगवान् को पाने का एक रास्ता नहीं हो सकता , हिन्दू धर्म कोई बंधन नहीं मानता है पूरी आजादी है जिसे जो अच्छा लगता है जो उचित लगता है बही करे, भगवान् को कोई फरक नहीं पड़ता जिसे जैसे पूजा करनी हो करे नहीं करनी हो तो न करे , "कहते है जैसी करनी बैसी भरनी " मुसलमनो में भी तो कई अलग अलग बिचारो वाले लोग है जैसे सिया और सुन्नी, कुछ मुहम्मद को अपना पैगम्बर मानते है कुछ अली को पैगम्बर मानते है , मुसलमानों ने भी कई अलग जातियो का मुस्लिम समाज को बनाया हुआ है और इनमे तो उंच नीच भी है , नमाज पड़ने के तरीके अलग अलग है कोई नमाज अरबी में पड़ता है ,कोई चुप चाप केवेल सुनता है और झुकता है, पहले तो यह साबित करो की झुक कर नमाज पड़ कर अल्लाह की पूजा हो जाती है ,कोई गारंटी है की अल्लाह की इबादत बाकई सच में होती है या ये सब ढोंग है दुनिया को दिखने के लिए.


4)हिंदू धर्म में स्त्री की क्या अहमियत है?

हिन्दू धर्म वेद में स्त्री को जगत जननी माता कहा गया है, उसे पुरुष की आदि शक्ति भी कहा गया है , मुसलमनो की तरह केवेल शारीरिक उपभोग की बस्तु नहीं माना गया ,जिसे जब दिल किया मुस्लिम पत्नी को दिनभर कंबल जैसे बुर्का मेँ बंद करके रख देँ। तेज गरमी हो या सर्दी । जब यौन जरुरत होँ खोलेँ ,युज करेँ फिर पैक कर देँ। विरोध करे तो छडी से पीटो, कुरान आपके साथ है । मस्जिद में औरतों पर पाबन्दी क्यों?विश्व के जितने भी बड़े धर्म है , सभी में उनके उपासना ग्रहों में पुरुषों के साथ स्त्रियों प्रवेश करने की अनुमति दी गयी है . जसे मंदिरों में अक्सर हिन्दू पुरुष अपनीपत्नियों और माता बहिनों के साथ पूजाऔर दर्शन ......के लिए जाते है . गुरुद्वारों में भी पुरुष -स्त्री साथ ही अरदास करते है . और चर्च में भीऐसा ही होता है ,लेकिन कभी किसी ने इस बात पर गौर किया है कि पुरषोंके साथ औरतें दरगाहों में तो जा सकती हैं,लेकिन मस्जिदों में उनके प्रवेश पर पाबन्दी क्यों है .जबकि इस्लाम पुरुष और स्त्री की समानता का दावा करता है

5)हिंदू वाक्य का क्या मतलब होता है ?

-हिन्दू कोई मजहब नहीं है जो लोग सप्त सिन्दू नदियो के देश में रहते है उन्हें हिन्दू कहा गया, सिन्दू को indus valley भी कहा गया है जिसके नाम पर india नाम पड़ा. यानि जो लोग इंडिया में रहते है उन्हें हिन्दू कहा गया. धर्म के लिए यह नाम मुसलमानों के हिंदुस्तान ने आने के बाद ही प्रयोग किया गया है.

6) हिंदू इतना कायर क्यो होता है?

-हिन्दू सब इंसानों और धर्मो का सम्मान करता आया है इसीलिए सब लोगो की सुख की कामना करता है-कोई मजहब का भेद नहीं मानता सब इंसानों को एक ही मानता है और यह मानता है की इश्बर की पूजा करने के लिए मुसलमान या हिन्दू होने की जरुरत नहीं है , सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामय: ।सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चि दु:ख भाग्भवेत॥ इसीलिए मुसलमानों ने हमारी उदारता का गलत फायदा उठाया और हमारी खमोसी को कमजोरी समझा इसका फायदा धर्म प्रचार के लिए किया , और मुसलमान इसे कायरता कहते है , पानी सर से ऊपर हो जायेगा तो तुम्हे हिन्द शेरो से कोई नहीं बचा सकता , इतिहास गबाह है मुसलमान जैसा कायर अब तक इस धरती पर नहीं है जब ये तादात में थोड़े होते है तो PEACE PEACE की बात करते है जब तादात में बढ जाती है तो गीदरो की तरह हमला बोल देते है, दुसरे के धर्म का मजाक उड़ाते है अपने धर्म का प्रचार करने के लिए जूठ भी बोलते है

जनेऊ पहनने से क्या लाभ?


:: जनेऊ पहनने से क्या लाभ? ::

पूर्व में बालक की उम्र आठ वर्ष होते ही उसका यज्ञोपवित संस्कार कर दिया जाता था। वर्तमान में यह प्रथा लोप सी गयी है। जनेऊ पहनने का हमारे स्वास्थ्य से सीधा संबंध है। विवाह से पूर्व तीन धागों की तथा विवाहोपरांत छह धागों की जनेऊ धारण की जाती है। पूर्व काल में जनेऊ पहनने के पश्चात ही बालक को पढऩे का अधिकार मिलता था। मल-मूत्र विसर्जन के पूर्व जनेऊ को कानों पर कस कर दो बार लपेटना पड़ता है। इससे कान के पीछे की दो नसे जिनका संबंध पेट की आंतों से है। आंतों पर दबाव डालकर उनको पूरा खोल देती है। जिससे मल विसर्जन आसानी से हो जाता है तथा कान के पास ही एक नस से ही मल-मूत्र विसर्जन के समय कुछ द्रव्य विसर्जित होता है। जनेऊ उसके वेग को रोक देती है, जिससे कब्ज, एसीडीटी, पेट रोग, मूत्रन्द्रीय रोग, रक्तचाप, हृदय रोगों सहित अन्य संक्रामक रोग नहीं होते। जनेऊ पहनने वाला नियमों में बंधा होता है। वह मल विसर्जन के पश्चात अपनी जनेऊ उतार नहीं सकता। जब तक वह हाथ पैर धोकर कुल्ला न कर ले। अत: वह अच्छी तरह से अपनी सफाई करके ही जनेऊ कान से उतारता है। यह सफाई उसे दांत, मुंह, पेट, कृमि, जिवाणुओं के रोगों से बचाती है। जनेऊ का सबसे ज्यादा लाभ हृदय रोगियों को होता है।

यज्ञोपवीत (जनेऊ) एक संस्कार है। इसके बाद ही द्विज बालक को यज्ञ तथा स्वाध्याय करने का अधिकार प्राप्त होता है। यज्ञोपवीत धारण करने के मूल में एक वैज्ञानिक पृष्ठभूमि भी है। शरीर के पृष्ठभाग में पीठ पर जाने वाली एक प्राकृतिक रेखा है जो विद्युत प्रवाह की तरह कार्य करती है। यह रेखा दाएं कंधे से लेकर कटि प्रदेश तक स्थित होती है। यह नैसर्गिक रेखा अति सूक्ष्म नस है। इसका स्वरूप लाजवंती वनस्पति की तरह होता है। यदि यह नस संकोचित अवस्था में हो तो मनुष्य काम-क्रोधादि विकारों की सीमा नहीं लांघ पाता। अपने कंधे पर यज्ञोपवीत है इसका मात्र एहसास होने से ही मनुष्य भ्रष्टाचार से परावृत्त होने लगता है। यदि उसकी प्राकृतिक नस का संकोच होने के कारण उसमें निहित विकार कम हो जाए तो कोई आश्यर्च नहीं है। इसीलिए सभी धर्मों में किसी न किसी कारणवश यज्ञोपवीत धारण किया जाता है। सारनाथ की अति प्राचीन बुद्ध प्रतिमा का सूक्ष्म निरीक्षण करने से उसकी छाती पर यज्ञोपवीत की सूक्ष्म रेखा दिखाई देती है। यज्ञोपवीत केवल धर्माज्ञा ही नहीं बल्कि आरोग्य का पोषक भी है, अतएव एसका सदैव धारण करना चाहिए। शास्त्रों में दाएं कान में माहात्म्य का वर्णन भी किया गया है। आदित्य, वसु, रूद्र, वायु, अगि्न, धर्म, वेद, आप, सोम एवं सूर्य आदि देवताओं का निवास दाएं कान में होने के कारण उसे दाएं हाथ से सिर्फ स्पर्श करने पर भी आचमन का फल प्राप्त होता है। यदि ऎसे पवित्र दाएं कान पर यज्ञोपवीत रखा जाए तो अशुचित्व नहीं रहता। 

यज्ञोपवीत (संस्कृत संधि विच्छेद= यज्ञ+उपवीत) शब्द के दो अर्थ हैं-
उपनयन संस्कार जिसमें जनेऊ पहना जाता है और विद्यारंभ होता है। मुंडन और पवित्र जल में स्नान भी इस संस्कार के अंग होते हैं। जनेऊ पहनाने का संस्कार 

सूत से बना वह पवित्र धागा जिसे यज्ञोपवीतधारी व्यक्ति बाएँ कंधे के ऊपर तथा दाईं भुजा के नीचे पहनता है। यज्ञ द्वारा संस्कार किया गया उपवीत, यज्ञसूत्र या जनेऊ

यज्ञोपवीत एक विशिष्ट सूत्र को विशेष विधि से ग्रन्थित करके बनाया जाता है। इसमें सात ग्रन्थियां लगायी जाती हैं । ब्राम्हणों के यज्ञोपवीत में ब्रह्मग्रंथि होती है। तीन सूत्रों वाले इस यज्ञोपवीत को गुरु दीक्षा के बाद हमेशा धारण किया जाता है। तीन सूत्र हिंदू त्रिमूर्ति ब्रह्मा, विष्णु और महेश के प्रतीक होते हैं। [7]अपवित्र होने पर यज्ञोपवीत बदल लिया जाता है। बिना यज्ञोपवीत धारण कये अन्न जल गृहण नहीं किया जाता। यज्ञोपवीत धारण करने का मन्त्र है

यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात् ।
आयुष्यमग्रं प्रतिमुञ्च शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः।।

जनेऊ को लेकर लोगों में कई भ्रांति मौजूद है| लोग जनेऊ को धर्म से जोड़ दिए हैं जबकि सच तो कुछ और ही है| तो आइए जानें कि सच क्या है? जनेऊ पहनने से आदमी को लकवा से सुरक्षा मिल जाती है| क्योंकि आदमी को बताया गया है कि जनेऊ धारण करने वाले को लघुशंका करते समय दाँत पर दाँत बैठा कर रहना चाहिए अन्यथा अधर्म होता है| दरअसल इसके पीछे साइंस का गहरा रह्स्य छिपा है| दाँत पर दाँत बैठा कर रहने से आदमी को लकवा नहीं मारता| आदमी को दो जनेऊ धारण कराया जाता है, एक पुरुष को बताता है कि उसे दो लोगों का भार या ज़िम्मेदारी वहन करना है, एक पत्नी पक्ष का और दूसरा अपने पक्ष का अर्थात् पति पक्ष का| अब एक एक जनेऊ में 9 - 9 धागे होते हैं| जो हमें बताते हैं कि हम पर पत्नी और पत्नी पक्ष के 9 - 9 ग्रहों का भार ये ऋण है उसे वहन करना है| अब इन 9 - 9 धांगों के अंदर से 1 - 1 धागे निकालकर देंखें तो इसमें 27 - 27 धागे होते हैं| अर्थात् हमें पत्नी और पति पक्ष के 27 - 27 नक्षत्रों का भी भार या ऋण वहन करना है| अब अगर अंक विद्या के आधार पर देंखे तो 27+9 = 36 होता है, जिसको एकल अंक बनाने पर 36 = 3+6 = 9 आता है, जो एक पूर्ण अंक है| अब अगर इस 9 में दो जनेऊ की संख्या अर्थात 2 और जोड़ दें तो 9 + 2 = 11 होगा जो हमें बताता है की हमारा जीवन अकेले अकेले दो लोगों अर्थात् पति और पत्नी ( 1 और 1 ) के मिलने सेबना है | 1 + 1 = 2 होता है जो अंक विद्या के अनुसार चंद्रमा का अंक है और चंद्रमा हमें शीतलता प्रदान करता है| जब हम अपने दोनो पक्षों का ऋण वहन कर लेते हैं तो हमें अशीम शांति की प्राप्ति हो जाती है|

यथा-निवीनी दक्षिण कर्णे यज्ञोपवीतं कृत्वा मूत्रपुरीषे विसृजेत। अर्थात अशौच एवं मूत्र विसर्जन के समय दाएं कान पर जनेऊ रखना आवश्यक है। अपनी अशुचि अवस्था को सूचित करने के लिए भी यह कृत्य उपयुक्त सिद्ध होता है। हाथ पैर धोकर और कुल्ला करके जनेऊ कान पर से उतारें। इस नियम के मूल में शास्त्रीय कारण यह है कि शरीर के नाभि प्रदेश से ऊपरी भाग धार्मिक क्रिया के लिए पवित्र और उसके नीचे का हिस्सा अपवित्र माना गया है। दाएं कान को इतना महत्व देने का वैज्ञानिक कारण यह है कि इस कान की नस, गुप्तेंद्रिय और अंडकोष का आपस में अभिन्न संबंध है। मूत्रोत्सर्ग के समय सूक्ष्म वीर्य स्त्राव होने की संभावना रहती है। दाएं कान को ब्रrासूत्र में लपेटने पर शुक्र नाश से बचाव होता है। यह बात आयुर्वेद की दृष्टि से भी सिद्ध हुई है। यदि बार-बार स्वप्नदोष होता हो तो दायां कान ब्रrासूत्र से बांधकर सोने से रोग दूर हो जाता है। 
बिस्तर में पेशाब करने वाले लडकों को दाएं कान में धागा बांधने से यह प्रवृत्ति रूक जाती है। किसी भी उच्छृंखल जानवर का दायां कान पकडने से वह उसी क्षण नरम हो जाता है। अंडवृद्धि के सात कारण हैं। मूत्रज अंडवृद्धि उनमें से एक है। दायां कान सूत्रवेष्टित होने पर मूत्रज अंडवृद्धि का प्रतिकार होता है। इन सभी कारणों से मूत्र तथा पुरीषोत्सर्ग करते समय दाएं कान पर जनेऊ रखने की शास्त्रीय आज्ञा है।
:: जनेऊ पहनने से क्या लाभ? ::

पूर्व में बालक की उम्र आठ वर्ष होते ही उसका यज्ञोपवित संस्कार कर दिया जाता था। वर्तमान में यह प्रथा लोप सी गयी है। जनेऊ पहनने का हमारे स्वास्थ्य से सीधा संबंध है। विवाह से पूर्व तीन धागों की तथा विवाहोपरांत छह धागों की जनेऊ धारण की जाती है। पूर्व काल में जनेऊ पहनने के पश्चात ही बालक को पढऩे का अधिकार मिलता था। मल-मूत्र विसर्जन के पूर्व जनेऊ को कानों पर कस कर दो बार लपेटना पड़ता है। इससे कान के पीछे की दो नसे जिनका संबंध पेट की आंतों से है। आंतों पर दबाव डालकर उनको पूरा खोल देती है। जिससे मल विसर्जन आसानी से हो जाता है तथा कान के पास ही एक नस से ही मल-मूत्र विसर्जन के समय कुछ द्रव्य विसर्जित होता है। जनेऊ उसके वेग को रोक देती है, जिससे कब्ज, एसीडीटी, पेट रोग, मूत्रन्द्रीय रोग, रक्तचाप, हृदय रोगों सहित अन्य संक्रामक रोग नहीं होते। जनेऊ पहनने वाला नियमों में बंधा होता है। वह मल विसर्जन के पश्चात अपनी जनेऊ उतार नहीं सकता। जब तक वह हाथ पैर धोकर कुल्ला न कर ले। अत: वह अच्छी तरह से अपनी सफाई करके ही जनेऊ कान से उतारता है। यह सफाई उसे दांत, मुंह, पेट, कृमि, जिवाणुओं के रोगों से बचाती है। जनेऊ का सबसे ज्यादा लाभ हृदय रोगियों को होता है।

यज्ञोपवीत (जनेऊ) एक संस्कार है। इसके बाद ही द्विज बालक को यज्ञ तथा स्वाध्याय करने का अधिकार प्राप्त होता है। यज्ञोपवीत धारण करने के मूल में एक वैज्ञानिक पृष्ठभूमि भी है। शरीर के पृष्ठभाग में पीठ पर जाने वाली एक प्राकृतिक रेखा है जो विद्युत प्रवाह की तरह कार्य करती है। यह रेखा दाएं कंधे से लेकर कटि प्रदेश तक स्थित होती है। यह नैसर्गिक रेखा अति सूक्ष्म नस है। इसका स्वरूप लाजवंती वनस्पति की तरह होता है। यदि यह नस संकोचित अवस्था में हो तो मनुष्य काम-क्रोधादि विकारों की सीमा नहीं लांघ पाता। अपने कंधे पर यज्ञोपवीत है इसका मात्र एहसास होने से ही मनुष्य भ्रष्टाचार से परावृत्त होने लगता है। यदि उसकी प्राकृतिक नस का संकोच होने के कारण उसमें निहित विकार कम हो जाए तो कोई आश्यर्च नहीं है। इसीलिए सभी धर्मों में किसी न किसी कारणवश यज्ञोपवीत धारण किया जाता है। सारनाथ की अति प्राचीन बुद्ध प्रतिमा का सूक्ष्म निरीक्षण करने से उसकी छाती पर यज्ञोपवीत की सूक्ष्म रेखा दिखाई देती है। यज्ञोपवीत केवल धर्माज्ञा ही नहीं बल्कि आरोग्य का पोषक भी है, अतएव एसका सदैव धारण करना चाहिए। शास्त्रों में दाएं कान में माहात्म्य का वर्णन भी किया गया है। आदित्य, वसु, रूद्र, वायु, अगि्न, धर्म, वेद, आप, सोम एवं सूर्य आदि देवताओं का निवास दाएं कान में होने के कारण उसे दाएं हाथ से सिर्फ स्पर्श करने पर भी आचमन का फल प्राप्त होता है। यदि ऎसे पवित्र दाएं कान पर यज्ञोपवीत रखा जाए तो अशुचित्व नहीं रहता। 

यज्ञोपवीत (संस्कृत संधि विच्छेद= यज्ञ+उपवीत) शब्द के दो अर्थ हैं-
उपनयन संस्कार जिसमें जनेऊ पहना जाता है और विद्यारंभ होता है। मुंडन और पवित्र जल में स्नान भी इस संस्कार के अंग होते हैं। जनेऊ पहनाने का संस्कार 

सूत से बना वह पवित्र धागा जिसे यज्ञोपवीतधारी व्यक्ति बाएँ कंधे के ऊपर तथा दाईं भुजा के नीचे पहनता है। यज्ञ द्वारा संस्कार किया गया उपवीत, यज्ञसूत्र या जनेऊ

यज्ञोपवीत एक विशिष्ट सूत्र को विशेष विधि से ग्रन्थित करके बनाया जाता है। इसमें सात ग्रन्थियां लगायी जाती हैं । ब्राम्हणों के यज्ञोपवीत में ब्रह्मग्रंथि होती है। तीन सूत्रों वाले इस यज्ञोपवीत को गुरु दीक्षा के बाद हमेशा धारण किया जाता है। तीन सूत्र हिंदू त्रिमूर्ति ब्रह्मा, विष्णु और महेश के प्रतीक होते हैं। [7]अपवित्र होने पर यज्ञोपवीत बदल लिया जाता है। बिना यज्ञोपवीत धारण कये अन्न जल गृहण नहीं किया जाता। यज्ञोपवीत धारण करने का मन्त्र है

यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात् ।
आयुष्यमग्रं प्रतिमुञ्च शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः।।

जनेऊ को लेकर लोगों में कई भ्रांति मौजूद है| लोग जनेऊ को धर्म से जोड़ दिए हैं जबकि सच तो कुछ और ही है| तो आइए जानें कि सच क्या है? जनेऊ पहनने से आदमी को लकवा से सुरक्षा मिल जाती है| क्योंकि आदमी को बताया गया है कि जनेऊ धारण करने वाले को लघुशंका करते समय दाँत पर दाँत बैठा कर रहना चाहिए अन्यथा अधर्म होता है| दरअसल इसके पीछे साइंस का गहरा रह्स्य छिपा है| दाँत पर दाँत बैठा कर रहने से आदमी को लकवा नहीं मारता| आदमी को दो जनेऊ धारण कराया जाता है, एक पुरुष को बताता है कि उसे दो लोगों का भार या ज़िम्मेदारी वहन करना है, एक पत्नी पक्ष का और दूसरा अपने पक्ष का अर्थात् पति पक्ष का| अब एक एक जनेऊ में 9 - 9 धागे होते हैं| जो हमें बताते हैं कि हम पर पत्नी और पत्नी पक्ष के 9 - 9 ग्रहों का भार ये ऋण है उसे वहन करना है| अब इन 9 - 9 धांगों के अंदर से 1 - 1 धागे निकालकर देंखें तो इसमें 27 - 27 धागे होते हैं| अर्थात् हमें पत्नी और पति पक्ष के 27 - 27 नक्षत्रों का भी भार या ऋण वहन करना है| अब अगर अंक विद्या के आधार पर देंखे तो 27+9 = 36 होता है, जिसको एकल अंक बनाने पर 36 = 3+6 = 9 आता है, जो एक पूर्ण अंक है| अब अगर इस 9 में दो जनेऊ की संख्या अर्थात 2 और जोड़ दें तो 9 + 2 = 11 होगा जो हमें बताता है की हमारा जीवन अकेले अकेले दो लोगों अर्थात् पति और पत्नी ( 1 और 1 ) के मिलने सेबना है | 1 + 1 = 2 होता है जो अंक विद्या के अनुसार चंद्रमा का अंक है और चंद्रमा हमें शीतलता प्रदान करता है| जब हम अपने दोनो पक्षों का ऋण वहन कर लेते हैं तो हमें अशीम शांति की प्राप्ति हो जाती है|

यथा-निवीनी दक्षिण कर्णे यज्ञोपवीतं कृत्वा मूत्रपुरीषे विसृजेत। अर्थात अशौच एवं मूत्र विसर्जन के समय दाएं कान पर जनेऊ रखना आवश्यक है। अपनी अशुचि अवस्था को सूचित करने के लिए भी यह कृत्य उपयुक्त सिद्ध होता है। हाथ पैर धोकर और कुल्ला करके जनेऊ कान पर से उतारें। इस नियम के मूल में शास्त्रीय कारण यह है कि शरीर के नाभि प्रदेश से ऊपरी भाग धार्मिक क्रिया के लिए पवित्र और उसके नीचे का हिस्सा अपवित्र माना गया है। दाएं कान को इतना महत्व देने का वैज्ञानिक कारण यह है कि इस कान की नस, गुप्तेंद्रिय और अंडकोष का आपस में अभिन्न संबंध है। मूत्रोत्सर्ग के समय सूक्ष्म वीर्य स्त्राव होने की संभावना रहती है। दाएं कान को ब्रrासूत्र में लपेटने पर शुक्र नाश से बचाव होता है। यह बात आयुर्वेद की दृष्टि से भी सिद्ध हुई है। यदि बार-बार स्वप्नदोष होता हो तो दायां कान ब्रrासूत्र से बांधकर सोने से रोग दूर हो जाता है। 
बिस्तर में पेशाब करने वाले लडकों को दाएं कान में धागा बांधने से यह प्रवृत्ति रूक जाती है। किसी भी उच्छृंखल जानवर का दायां कान पकडने से वह उसी क्षण नरम हो जाता है। अंडवृद्धि के सात कारण हैं। मूत्रज अंडवृद्धि उनमें से एक है। दायां कान सूत्रवेष्टित होने पर मूत्रज अंडवृद्धि का प्रतिकार होता है। इन सभी कारणों से मूत्र तथा पुरीषोत्सर्ग करते समय दाएं कान पर जनेऊ रखने की शास्त्रीय आज्ञा है।

Saturday, March 16, 2013

हिंदू इतिहास अनुसार इस संसार में पांच सती

स्त्री का पतिव्रता होना आज के युग में दुर्लभ
हो चला है। एक ही पति या पत्नी धर्म का पालन
करना हिन्दू धर्म के कर्तव्यों में शामिल है। यूं तो भारत
में हजारों ऐसी महिलाएं हुई हैं
जिनकी पतिव्रता पालन की मिसाल दी जाती है,
लेकिन उनमें से भी कुछ ऐसी हैं जो इतिहास का अमिट हिस्सा बन चुकी हैं।

हिंदू इतिहास अनुसार इस संसार में पांच सती हुई है,
जो क्रमश: इस प्रकार है
1.अनुसूया (ऋषि अत्रि की पत्नी),
2.द्रौपदी (पांडवों की पत्नी),
3.सुलक्षणा (रावण पुत्र मेघनाद की पत्नी),
4.सावित्री (जिन्होंने यमराज से अपना पति वापस ले लिया था),
5.मंदोदरी (रावण की पत्नी)।

1. अनुसूया : पतिव्रता देवियों में अनुसूया का स्थान
सबसे ऊंचा है। वे अत्रि-ऋषि की पत्नी थीं। एक बार
सरस्वती, लक्ष्मी और दुर्गा में यह विवाद
छिड़ा कि सर्वश्रेष्ठ पतिव्रता कौन है? अंत में तय
यही हुआ कि अत्रि पत्नी अनुसूया ही सर्वश्रेष्ठ
पतिव्रता हैं। इस बात की परीक्षा लेने के लिए अत्रि जब बहार गए थे तब त्रिदेव अनुसूया के आश्रम में
ब्राह्मण के भेष में भिक्षा मांगने लगे और अनुसूया से
कहा कि जब आप अपने संपूर्ण वस्त्र उतार देंगी तभी हम
भिक्षा स्वीकार करेंगे। तब अनुसूया ने अपने सतीत्व के
बल पर उक्त तीनों देवों को अबोध बालक बनाकर उन्हें
भिक्षा दी। माता अनुसूया ने देवी सीता को पतिव्रत का उपदेश दिया था।

2. द्रौपदी : द्रौपदी को कौन नहीं जानता। पांच
पांडवों की पत्नी द्रौपदी को सती के साथ ही पांच
कुवांरी कन्याओं में भी शामिल किया जाता है।
द्रौपदी के पिता पांचाल नरेश राजा ध्रुपद थे। एक
प्रतियोगिता के दौरान अर्जुन ने द्रौपदी को जीत
लिया था।

पांडव द्रौपदी को साथ लेकर माता कुंती के पास पहुंचे
और द्वार से ही अर्जुन ने पुकार कर अपनी माता से
कहा, ‘माते! आज हम लोग आपके लिए एक अद्भुत
भिक्षा लेकर आए हैं।’ इस पर कुंती ने भीतर से ही कहा,
‘पुत्रों! तुम लोग आपस में मिल-बांट उसका उपभोग कर
लो।’ बाद में यह ज्ञात होने पर कि भिक्षा वधू के रूप में हैं, कुंती को अत्यन्त दुख हुआ किन्तु माता के
वचनों को सत्य सिद्ध करने के लिए द्रौपदी ने
पांचों पांडवों को पति के रूप में स्वीकार कर लिया।

3.सुलक्षणा : रावण के पुत्र मेघनाद (इंद्रजीत)
की पत्नी सुलक्षणा को पंच सती में शामिल
किया गया है।

4.सावित्री : महाभारत अनुसार
सावित्री राजर्षि अश्वपति की पुत्री थी। उनके
पति का नाम सत्यवान
था जो वनवासी राजा द्युमत्सेन के पुत्र थे।
सावित्री के पति सत्यवान की असमय मृत्यु के बाद,
सावित्री ने अपनी तपस्या के बल पर सत्यवान को पुनर्जीवित कर लिया था। इनके नाम से वट
सावित्री नामक व्रत प्रचलित है जो महिलाएं अपने
पति की लंबी उम्र के लिए करती हैं। यह व्रत गृहस्थ
जीवन के मुख्य आधार पति-पत्नी को दीर्घायु, पुत्र,
सौभाग्य, धन समृद्धि से भरता है।

5. मंदोदरी : मंदोदरी लंकापति रावण की पत्नी थी।
हेमा अप्सरा से उत्पन्न रावण की पटरानी जो मेघनाद
की माता तथा मयासुर की कन्या थी। रावण
को सदा अच्छी सलाह देती थी और कहा जाता है
कि अपने पति के मनोरंजनार्थ इसी ने शतरंज के खेल
का प्रारंभ किया था। इसकी गणना भी पंचकन्याओं में है। सिंघलदीप की राजकन्या और एक
मातृका का भी नाम मंदोदरी था।
,
,
,
|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||

हनुमान जी के विवाह का रहस्य


संकट मोचन हनुमान जी के ब्रह्मचारी रूप से
तो सभी परिचित हैं.. उन्हें बाल
ब्रम्हचारी भी कहा जाता है
लेकिन क्या अपने कभी सुना है की हनुमान
जी का विवाह भी हुआ था ??
और उनका उनकी पत्नी के साथ एक मंदिर भी है ?? जिसके दर्शन के लिए दूर दूर से लोग आते हैं..

कहा जाता है कि हनुमान जी के उनकी पत्नी के साथ
दर्शन करने के बाद घर मे चल रहे पति पत्नी के बीच के
सारे तनाव खत्म हो जाते हैं. आन्ध्र प्रदेश के खम्मम जिले में बना हनुमान जी का यह
मंदिर काफी मायनों में ख़ास है.. ख़ास इसलिए
की यहाँ हनुमान जी अपने ब्रम्हचारी रूप में
नहीं बल्कि गृहस्थ रूप में अपनी पत्नी सुवर्चला के साथ
विराजमान है.

हनुमान जी के सभी भक्त यही मानते आये हैं की वे बाल
ब्रह्मचारी थे. और बाल्मीकि, कम्भ, सहित
किसी भी रामायण और रामचरित मानस में
बालाजी के इसी रूप का वर्णन मिलता है..

लेकिन पराशर संहिता में हनुमान जी के विवाह
का उल्लेख है. इसका सबूत है आंध्र प्रदेश के खम्मम ज़िले में
बना एक खास मंदिर जो प्रमाण है हनुमान
जी की शादी का। ये मंदिर याद दिलाता है रामदूत
के उस चरित्र का जब उन्हें विवाह के बंधन में
बंधना पड़ा था। लेकिन इसका ये अर्थ नहीं कि भगवान हनुमान बाल
ब्रह्मचारी नहीं थे। पवनपुत्र का विवाह भी हुआ
था और वो बाल ब्रह्मचारी भी थे। कुछ विशेष
परिस्थियों के कारण ही बजरंगबली को सुवर्चला के
साथ विवाह बंधन मे बंधना पड़ा।

हनुमान जी ने भगवान सूर्य को अपना गुरु बनाया था।
हनुमान, सूर्य से अपनी शिक्षा ग्रहण कर रहे थे... सूर्य
कहीं रुक नहीं सकते थे इसलिए हनुमान
जी को सारा दिन भगवान सूर्य के रथ के साथ साथ
उड़ना पड़ता और भगवान सूर्य उन्हें तरह-तरह
की विद्याओं का ज्ञान देते। लेकिन हनुमान को ज्ञान देते समय सूर्य के सामने एक
दिन धर्मसंकट खड़ा हो गया। कुल ९ तरह की विद्या में
से हनुमान जी को उनके गुरु ने पांच तरह
की विद्या तो सिखा दी लेकिन बची चार तरह
की विद्या और ज्ञान ऐसे थे जो केवल
किसी विवाहित को ही सिखाए जा सकते थे.

हनुमान पूरी शिक्षा लेने का प्रण कर चुके थे और इससे कम
पर वो मानने को राजी नहीं थे। इधर भगवान सूर्य के
सामने संकट था कि वो धर्म के अनुशासन के कारण
किसी अविवाहित को कुछ विशेष विद्याएं
नहीं सिखला सकते थे। ऐसी स्थिति में सूर्य देव ने
हनुमान को विवाह की सलाह दी.. और अपने प्रण को पूरा करने के लिए हनुमान भी विवाह
सूत्र में बंधकर शिक्षा ग्रहण करने को तैयार हो गए।
लेकिन हनुमान के लिए दुल्हन कौन हो और कहा से वह
मिलेगी इसे लेकर सभी चिंतित थे..

ऐसे में सूर्यदेव ने अपने शिष्य हनुमान को राह दिखलाई।
भगवान सूर्य ने अपनी परम तपस्वी और
तेजस्वी पुत्री सुवर्चला को हनुमान के साथ शादी के
लिए तैयार कर लिया। इसके बाद हनुमान ने
अपनी शिक्षा पूर्ण की और सुवर्चला सदा के लिए
अपनी तपस्या में रत हो गई। इस तरह हनुमान भले ही शादी के बंधन में बांध गए
हो लेकिन शाररिक रूप से वे आज भी एक
ब्रह्मचारी ही हैं.

पराशर संहिता में तो लिखा गया है की खुद सूर्यदेव ने
इस शादी पर यह कहा की यह शादी ब्रह्मांड के
कल्याण के लिए ही हुई है और इससे हनुमान का ब्रह्मचर्य
भी प्रभावित नहीं हुआ ..
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|| जय श्री राम ||