नव संवत्सर के दिन भगवान श्री राम ने सिंहासनारूढ़ होकर राम-राज्य की स्थापना की थी।
....राम राज्याभिषेक....
अवधपुरी बहुत ही सुंदर सजाई गई।
देवताओं ने पुष्पों की वर्षा की झड़ी लगा दी।
श्री रामचंद्रजी ने सेवकों को बुलाकर कहा कि तुम लोग जाकर पहले मेरे सखाओं को स्नान कराओ ॥
भगवान् के वचनसुनते ही सेवक जहाँ -तहाँ दौड़े और तुरंत ही उन्होंने सुग्रीवादि को स्नान कराया।
फिर करुणानिधान श्री रामजी ने भरतजी को बुलाया और उनकी जटाओं को अपने हाथों से सुलझाया ॥
तदनन्तर भक्त वत्सल कृपालु प्रभु श्री रघुनाथजी ने तीनों भाइयों को स्नान कराया।
भरतजी का भाग्य और प्रभु की कोमलता का वर्णन अरबों शेषजी भी नहीं कर सकते ॥
फिर श्री रामजी ने अपनी जटाएँ खोलीं और गुरुजी की आज्ञा माँगकर स्नान किया।
स्नान करके प्रभु ने आभूषण धारण किए।
उनके (सुशोभित) अंगों को देखकर सैकड़ों (असंख्य) कामदेव लजा गए ॥
(इधर) सासुओं ने जानकीजी को आदर के साथ तुरंत ही स्नान कराके उनके अंग-अंग में दिव्य वस्त्र और श्रेष्ठ आभूषण भली- भाँतिसजा दिए (पहना दिए) ॥
श्री राम के बायीं ओर रूप और गुणों की खान रमा (श्री जानकीजी) शोभित हो रही हैं।
उन्हें देखकर सब माताएँ अपना जन्म (जीवन) सफल समझकर हर्षित हुईं ॥
(काकभुशुण्डिजी कहते हैं-) हे पक्षीराज गरुड़जी! सुनिए, उस समय ब्रह्माजी, शिवजी और मुनियों के समूह तथा विमानों पर चढ़कर सब देवता आनंदकंद भगवान् के दर्शन करने के लिए आए ॥
प्रभु को देखकर मुनि वशिष्ठजी के मन में प्रेम भर आया।
उन्होंने तुरंत ही दिव्य सिंहासन मँगवाया, जिसका तेज सूर्य के समान था।
उसका सौंदर्य वर्णन नहीं किया जा सकता।
ब्राह्मणों को सिर नवाकर श्री रामचंद्रजी उस पर विराज गए ॥
श्री जानकीजी के सहित रघुनाथजी को देखकर मुनियों का समुदाय अत्यंत ही हर्षित हुआ।
तब ब्राह्मणों ने वेदमंत्रों का उच्चारण किया।
आकाश में देवता और मुनि'जय, हो , जय हो' ऐसी पुकार करने लगे ॥
(सबसे) पहले मुनि वशिष्ठजी ने तिलक किया।
फिर उन्होंने सब ब्राह्मणों को (तिलक करने की ) आज्ञा दी।
पुत्र को राजसिंहासन पर देखकर माताएँ हर्षित हुईं और उन्होंने बार-बार आरती उतारी ॥
उन्होंने ब्राह्मणों को अनेकों प्रकार के दान दिए और संपूर्ण याचकों को अयाचक बना दिया (मालामाल कर दिया)।
त्रिभुवन के स्वामी श्री रामचंद्रजी को (अयोध्या के) सिंहासन पर (विराजित) देखकर देवताओं ने नगाड़े बजाए ॥
आकाश में बहुत से नगाड़े बज रहे हैं।
गन्धर्व और किन्नर गा रहे हैं।
अप्सराओं के झुंड के झुंड नाच रहे हैं।
देवता और मुनि परमानंद प्राप्त कर रहे हैं।
भरत,लक्ष्मण और शत्रुघ्नजी , विभीषण, अंगद, हनुमान् और सुग्रीव आदि सहित क्रमशः छत्र, चँवर, पंखा , धनुष, तलवार, ढाल और शक्ति लिए हुए सुशोभित हैं ॥
श्री सीताजी सहित सूर्यवंश के विभूषण श्री रामजी के शरीर में अनेकों कामदेवों की छबि शोभा दे रही है।
नवीन जलयुक्त मेघों के समान सुंदर श्याम शरीर पर पीताम्बर देवताओं के मन को भी मोहित कर रहा है।
मुकुट, बाजूबंद आदि विचित्र आभूषण अंग-अंग में सजे हुए हैं।
कमल के समान नेत्र हैं, चौड़ी छाती है और लंबी भुजाएँ हैं जो उनके दर्शन करते हैं, वे मनुष्य धन्य हैं ॥
हे पक्षीराज गरुड़जी ! वह शोभा , वह समाज और वह सुख मुझसे कहते नहीं बनता।
सरस्वतीजी , शेषजी और वेद निरंतर उसका वर्णन करते हैं, और उसका रस (आनंद) महादेवजी ही जानते हैं॥
सब देवताअलग-अलग स्तुति करके अपने-अपने लोक को चले गए।
तब भाटों का रूप धारण करके चारों वेद वहाँ आए जहाँ श्री रामजी थे॥
कृपानिधानसर्वज्ञ प्रभु ने (उन्हें पहचानकर) उनका बहुत ही आदर किया।
इसका भेद किसी ने कुछ भी नहीं जाना।
वेद गुणगान करने लगे ॥
सगुण और निर्गुण रूप!
हे अनुपम रूप- लावण्ययुक्त!
हे राजाओं के शिरोमणि! आपकी जय हो।
आपने रावण आदि प्रचण्ड, प्रबल और दुष्ट निशाचरों को अपनी भुजाओं के बल से मार डाला।
आपने मनुष्य अवतार लेकर संसार के भार को नष्ट करके अत्यंत कठोर दुःखों को भस्म कर दिया।
हे दयालु! हे शरणागत की रक्षा करने वाले प्रभो! आपकी जय हो।
मैं शक्ति (सीताजी) सहित शक्तिमान् आपको नमस्कार करता हूँ ॥
हे हरे! आपकी दुस्तर माया के वशीभूत होने के कारण देवता , राक्षस, नाग, मनुष्य और चर, अचर सभी काल कर्म और गुणों से भरे हुए (उनके वशीभूत हुए)दिन-रात अनन्त भव (आवागमन) के मार्ग में भटक रहे हैं।
हे नाथ! इनमें से जिनको आपने कृपा करके (कृपादृष्टि) से देख लिया , वे (माया जनित) तीनों प्रकार के दुःखों से छूट गए।
हे जन्म-मरण के श्रम को काटने में कुशल श्री रामजी ! हमारी रक्षा कीजिए।
हम आपको नमस्कार करते हैं॥
जिन्होंने मिथ्या ज्ञान के अभिमान में विशेष रूप से मतवाले होकर जन्म-मृत्यु (के भय) को हरने वाली आपकी भक्ति का आदर नहीं किया, हे हरि! उन्हें देव- दुर्लभ(देवताओं को भी बड़ी कठिनता से प्राप्त होने वाले, ब्रह्मा आदि के ) पद को पाकर भी हम उस पद से नीचे गिरते देखते हैं (परंतु), जो सब आशाओं को छोड़कर आप पर विश्वास करके आपके दास हो रहते हैं, वे केवल आपका नाम ही जपकर बिना ही परिश्रम भवसागर से तर जाते हैं।
हे नाथ! ऐसे आपका हम स्मरण करते हैं॥
जो चरण शिवजी और ब्रह्माजी के द्वारा पूज्य हैं, तथा जिन चरणों की कल्याणमयी रज का स्पर्श पाकर (शिला बनी हुई) गौतम ऋषि की पत्नी अहल्या तर गई, जिन चरणों के नख से मुनियों द्वारा वन्दित, त्रैलोक्य को पवित्र करने वाली देवनदी गंगाजी निकलीं और ध्वजा, वज्र अंकुश और कमल, इन चिह्नों से युक्त जिन चरणों में वन में फिरते समय काँटे चुभ जाने से घट्ठे पड़ गए हैं, हे मुकुन्द!
हे राम! हे रमापति! हम आपके उन्हीं दोनों चरणकमलों को नित्य भजते रहते हैं ॥
वेदशास्त्रों ने कहा है कि जिसका मूल अव्यक्त (प्रकृति) है,
जो (प्रवाह रूप से) अनादि है, जिसके चार त्वचाएँ, छह तने, पच्चीस शाखाएँ और अनेकों पत्ते और बहुत से फूल हैं, जिसमें कड़वे और मीठे दो प्रकार के फल लगे हैं, जिस पर एक ही बेल है, जो उसी के आश्रित रहती है, जिसमें नित्य नए पत्ते और फूल निकलते रहते हैं, ऐसे संसार वृक्ष स्वरूप (विश्व रूप में प्रकट) आपको हम नमस्कार करते हैं॥॥
ब्रह्म अजन्मा है, अद्वैत है, केवल अनुभव से ही जाना जाता है और मन से परे है-(जो इस प्रकार कहकर उस) ब्रह्म का ध्यान करते हैं, वे ऐसा कहा करें और जाना करें, किंतु हे नाथ! हम तो नित्य आपका सगुण यश ही गाते हैं।
हे करुणा के धाम प्रभो ! हे सद्गुणों की खान!
हे देव! हम यह वर माँगते हैं कि मन, वचन और कर्म से विकारों को त्यागकर आपके चरणों में ही प्रेम करें॥॥
वेदों ने सबके देखते यह श्रेष्ठ विनती की।
फिर वे अंतर्धान हो गए और ब्रह्मलोक को चले गए ॥
काकभुशुण्डिजी कहते हैं- हे गरुड़जी ! सुनिए, तब शिवजी वहाँ आए जहाँ श्री रघुवीर थे और गद्गद् वाणी से स्तुति करने लगे। उनका शरीर पुलकावली से पूर्ण हो गया-॥॥
हे राम! हे रमारमण (लक्ष्मीकांत)! हे जन्म- मरण के संताप का नाश करने वाले! आपकी जय हो, आवागमन के भय से व्याकुल इस सेवक की रक्षा कीजिए।
हे अवधपति ! हे देवताओं के स्वामी! हे रमापति! हे विभो! मैं शरणागत आपसे यही माँगता हूँ कि हे प्रभो ! मेरी रक्षा कीजिए॥॥
हे दस सिर और बीस भुजाओं वाले रावण का विनाश करके पृथ्वी के सब महान् रोगों (कष्टों) को दूर करने वाले श्री रामजी! राक्षस समूह रूपी जो पतंगे थे, वे सब आपके बाण रूपी अग्नि के प्रचण्ड तेज से भस्म हो गए॥॥
आप पृथ्वी मंडल के अत्यंत सुंदर आभूषण हैं,
आप श्रेष्ठ बाण, धनुष और तरकस धारण किए हुए हैं।
महान् मद, मोह और ममता रूपी रात्रि के अंधकार समूह के नाश करने के लिए आप सूर्य के तेजोमय किरण समूह हैं ॥॥
कामदेव रूपी भील ने मनुष्य रूपी हिरनों के हृदय में कुभोग रूपी बाण मारकर उन्हें गिरा दिया है।
हे नाथ! हे (पाप- ताप का हरण करने वाले) हरे !
उसे मारकर विषय रूपी वन में भूल पड़े हुए इन पामर अनाथ जीवों की रक्षा कीजिए ॥॥
लोग बहुत से रोगों और वियोगों (दुःखों) से मारे हुए हैं।
ये सब आपके चरणों के निरादर के फल हैं।
जो मनुष्य आपके चरणकमलों में प्रेम नहीं करते, वे अथाह भवसागर में पड़े हैं ॥
जिन्हें आपके चरणकमलों में प्रीति नहीं है वे नित्य ही अत्यंत दीन, मलिन (उदास) और दुःखी रहते हैं और जिन्हें आपकी लीला कथा का आधार है, उनको संत और भगवान् सदा प्रिय लगने लगते हैं॥॥
उनमें न राग (आसक्ति) है, न लोभ, न मान है, न मद।
उनको संपत्ति सुख और विपत्ति (दुःख) समान है।
इसी से मुनि लोग योग (साधन) का भरोसा सदा के लिए त्याग देते हैं और प्रसन्नता के साथ आपके सेवक बन जाते हैं॥॥
वे प्रेमपूर्वक नियम लेकर निरंतर शुद्ध हृदय सेआपके चरणकमलों की सेवा करते रहते हैं और निरादर और आदर को समान मानकर वे सब संत सुखी होकर पृथ्वी पर विचरते हैं ॥॥
हे मुनियों के मन रूपी कमल के भ्रमर! हे महान् रणधीर एवं अजेय श्री रघुवीर! मैं आपको भजता हूँ (आपकी शरण ग्रहण करता हूँ)
हे हरि ! आपका नाम जपता हूँ और आपको नमस्कार करता हूँ।
आप जन्म-मरण रूपी रोग की महान् औषध और अभिमान के शत्रु हैं॥॥
आप गुण, शील और कृपा के परम स्थान हैं।
आप लक्ष्मीपति हैं, मैं आपको निरंतर प्रणाम करता हूँ।
हे रघुनन्दन! (आप जन्म-मरण, सुख- दुःख, राग-द्वेषादि) द्वंद्व समूहों का नाश कीजिए।
हे पृथ्वी का पालन करने वाले राजन्।
इस दीन जन की ओर भी दृष्टि डालिए॥॥
मैं आपसे बार-बार यही वरदान माँगता हूँ कि मुझे आपके चरण कमलों की अचल भक्ति और आपके भक्तों का सत्संग सदा प्राप्त हो।
हे लक्ष्मीपते! हर्षित होकर मुझे यही दीजिए॥
श्री रामचंद्रजी के गुणों का वर्णन करके उमापति महादेवजी हर्षित होकर कैलास को चले गए।
तब प्रभु ने वानरों को सब प्रकार से सुख देने वाले डेरे दिलवाए ॥॥
हे गरुड़जी ! सुनिए यह कथा (सबको) पवित्र करने वाली है, (दैहिक, दैविक, भौतिक) तीनों प्रकार के तापों का और जन्म-मृत्यु के भयका नाश करने वाली है।
महाराज श्री रामचंद्रजी के कल्याणमय राज्याभिषेक का चरित्र (निष्कामभाव से) सुनकर मनुष्य वैराग्य और ज्ञान प्राप्त करते हैं ॥॥
और जो मनुष्य सकामभाव से सुनते और जो गाते हैं, वे अनेकों प्रकार के सुख और संपत्ति पाते हैं।
वे जगत् में देवदुर्लभ सुखों को भोगकर अंतकाल में श्री रघुनाथजी के परमधाम को जाते हैं ॥॥
इसे जो जीवन्मुक्त, विरक्त और विषयी सुनते हैं, वे (क्रमशः ) भक्ति, मुक्ति और नवीन संपत्ति (नित्य नए भोग) पाते हैं।
हे पक्षीराज गरुड़जी! मैंने अपनी बुद्धि की पहुँच के अनुसार रामकथा वर्णन की है, जो (जन्म- मरण) भय और दुःख हरने वाली है ॥॥
यह वैराग्य, विवेक और भक्ति को दृढ़ करने वाली है तथा मोह रूपी नदी के (पार करने) के लिए सुंदर नाव है।
अवधपुरी में नित नए मंगलोत्सव होते हैं।
सभी वर्गों के लोग हर्षित रहते हैं॥॥
श्री रामजी के चरणकमलों में- जिन्हें श्री शिवजी, मुनिगण और ब्रह्माजी भी नमस्कार करते हैं, सबकी नित्य नवीन प्रीति है।
भिक्षुकों को बहुत प्रकार के वस्त्राभूषण पहनाए गए और ब्राह्मणों ने नाना प्रकार के दान पाए ॥
....राम राज्याभिषेक....
अवधपुरी बहुत ही सुंदर सजाई गई।
देवताओं ने पुष्पों की वर्षा की झड़ी लगा दी।
श्री रामचंद्रजी ने सेवकों को बुलाकर कहा कि तुम लोग जाकर पहले मेरे सखाओं को स्नान कराओ ॥
भगवान् के वचनसुनते ही सेवक जहाँ -तहाँ दौड़े और तुरंत ही उन्होंने सुग्रीवादि को स्नान कराया।
फिर करुणानिधान श्री रामजी ने भरतजी को बुलाया और उनकी जटाओं को अपने हाथों से सुलझाया ॥
तदनन्तर भक्त वत्सल कृपालु प्रभु श्री रघुनाथजी ने तीनों भाइयों को स्नान कराया।
भरतजी का भाग्य और प्रभु की कोमलता का वर्णन अरबों शेषजी भी नहीं कर सकते ॥
फिर श्री रामजी ने अपनी जटाएँ खोलीं और गुरुजी की आज्ञा माँगकर स्नान किया।
स्नान करके प्रभु ने आभूषण धारण किए।
उनके (सुशोभित) अंगों को देखकर सैकड़ों (असंख्य) कामदेव लजा गए ॥
(इधर) सासुओं ने जानकीजी को आदर के साथ तुरंत ही स्नान कराके उनके अंग-अंग में दिव्य वस्त्र और श्रेष्ठ आभूषण भली- भाँतिसजा दिए (पहना दिए) ॥
श्री राम के बायीं ओर रूप और गुणों की खान रमा (श्री जानकीजी) शोभित हो रही हैं।
उन्हें देखकर सब माताएँ अपना जन्म (जीवन) सफल समझकर हर्षित हुईं ॥
(काकभुशुण्डिजी कहते हैं-) हे पक्षीराज गरुड़जी! सुनिए, उस समय ब्रह्माजी, शिवजी और मुनियों के समूह तथा विमानों पर चढ़कर सब देवता आनंदकंद भगवान् के दर्शन करने के लिए आए ॥
प्रभु को देखकर मुनि वशिष्ठजी के मन में प्रेम भर आया।
उन्होंने तुरंत ही दिव्य सिंहासन मँगवाया, जिसका तेज सूर्य के समान था।
उसका सौंदर्य वर्णन नहीं किया जा सकता।
ब्राह्मणों को सिर नवाकर श्री रामचंद्रजी उस पर विराज गए ॥
श्री जानकीजी के सहित रघुनाथजी को देखकर मुनियों का समुदाय अत्यंत ही हर्षित हुआ।
तब ब्राह्मणों ने वेदमंत्रों का उच्चारण किया।
आकाश में देवता और मुनि'जय, हो , जय हो' ऐसी पुकार करने लगे ॥
(सबसे) पहले मुनि वशिष्ठजी ने तिलक किया।
फिर उन्होंने सब ब्राह्मणों को (तिलक करने की ) आज्ञा दी।
पुत्र को राजसिंहासन पर देखकर माताएँ हर्षित हुईं और उन्होंने बार-बार आरती उतारी ॥
उन्होंने ब्राह्मणों को अनेकों प्रकार के दान दिए और संपूर्ण याचकों को अयाचक बना दिया (मालामाल कर दिया)।
त्रिभुवन के स्वामी श्री रामचंद्रजी को (अयोध्या के) सिंहासन पर (विराजित) देखकर देवताओं ने नगाड़े बजाए ॥
आकाश में बहुत से नगाड़े बज रहे हैं।
गन्धर्व और किन्नर गा रहे हैं।
अप्सराओं के झुंड के झुंड नाच रहे हैं।
देवता और मुनि परमानंद प्राप्त कर रहे हैं।
भरत,लक्ष्मण और शत्रुघ्नजी , विभीषण, अंगद, हनुमान् और सुग्रीव आदि सहित क्रमशः छत्र, चँवर, पंखा , धनुष, तलवार, ढाल और शक्ति लिए हुए सुशोभित हैं ॥
श्री सीताजी सहित सूर्यवंश के विभूषण श्री रामजी के शरीर में अनेकों कामदेवों की छबि शोभा दे रही है।
नवीन जलयुक्त मेघों के समान सुंदर श्याम शरीर पर पीताम्बर देवताओं के मन को भी मोहित कर रहा है।
मुकुट, बाजूबंद आदि विचित्र आभूषण अंग-अंग में सजे हुए हैं।
कमल के समान नेत्र हैं, चौड़ी छाती है और लंबी भुजाएँ हैं जो उनके दर्शन करते हैं, वे मनुष्य धन्य हैं ॥
हे पक्षीराज गरुड़जी ! वह शोभा , वह समाज और वह सुख मुझसे कहते नहीं बनता।
सरस्वतीजी , शेषजी और वेद निरंतर उसका वर्णन करते हैं, और उसका रस (आनंद) महादेवजी ही जानते हैं॥
सब देवताअलग-अलग स्तुति करके अपने-अपने लोक को चले गए।
तब भाटों का रूप धारण करके चारों वेद वहाँ आए जहाँ श्री रामजी थे॥
कृपानिधानसर्वज्ञ प्रभु ने (उन्हें पहचानकर) उनका बहुत ही आदर किया।
इसका भेद किसी ने कुछ भी नहीं जाना।
वेद गुणगान करने लगे ॥
सगुण और निर्गुण रूप!
हे अनुपम रूप- लावण्ययुक्त!
हे राजाओं के शिरोमणि! आपकी जय हो।
आपने रावण आदि प्रचण्ड, प्रबल और दुष्ट निशाचरों को अपनी भुजाओं के बल से मार डाला।
आपने मनुष्य अवतार लेकर संसार के भार को नष्ट करके अत्यंत कठोर दुःखों को भस्म कर दिया।
हे दयालु! हे शरणागत की रक्षा करने वाले प्रभो! आपकी जय हो।
मैं शक्ति (सीताजी) सहित शक्तिमान् आपको नमस्कार करता हूँ ॥
हे हरे! आपकी दुस्तर माया के वशीभूत होने के कारण देवता , राक्षस, नाग, मनुष्य और चर, अचर सभी काल कर्म और गुणों से भरे हुए (उनके वशीभूत हुए)दिन-रात अनन्त भव (आवागमन) के मार्ग में भटक रहे हैं।
हे नाथ! इनमें से जिनको आपने कृपा करके (कृपादृष्टि) से देख लिया , वे (माया जनित) तीनों प्रकार के दुःखों से छूट गए।
हे जन्म-मरण के श्रम को काटने में कुशल श्री रामजी ! हमारी रक्षा कीजिए।
हम आपको नमस्कार करते हैं॥
जिन्होंने मिथ्या ज्ञान के अभिमान में विशेष रूप से मतवाले होकर जन्म-मृत्यु (के भय) को हरने वाली आपकी भक्ति का आदर नहीं किया, हे हरि! उन्हें देव- दुर्लभ(देवताओं को भी बड़ी कठिनता से प्राप्त होने वाले, ब्रह्मा आदि के ) पद को पाकर भी हम उस पद से नीचे गिरते देखते हैं (परंतु), जो सब आशाओं को छोड़कर आप पर विश्वास करके आपके दास हो रहते हैं, वे केवल आपका नाम ही जपकर बिना ही परिश्रम भवसागर से तर जाते हैं।
हे नाथ! ऐसे आपका हम स्मरण करते हैं॥
जो चरण शिवजी और ब्रह्माजी के द्वारा पूज्य हैं, तथा जिन चरणों की कल्याणमयी रज का स्पर्श पाकर (शिला बनी हुई) गौतम ऋषि की पत्नी अहल्या तर गई, जिन चरणों के नख से मुनियों द्वारा वन्दित, त्रैलोक्य को पवित्र करने वाली देवनदी गंगाजी निकलीं और ध्वजा, वज्र अंकुश और कमल, इन चिह्नों से युक्त जिन चरणों में वन में फिरते समय काँटे चुभ जाने से घट्ठे पड़ गए हैं, हे मुकुन्द!
हे राम! हे रमापति! हम आपके उन्हीं दोनों चरणकमलों को नित्य भजते रहते हैं ॥
वेदशास्त्रों ने कहा है कि जिसका मूल अव्यक्त (प्रकृति) है,
जो (प्रवाह रूप से) अनादि है, जिसके चार त्वचाएँ, छह तने, पच्चीस शाखाएँ और अनेकों पत्ते और बहुत से फूल हैं, जिसमें कड़वे और मीठे दो प्रकार के फल लगे हैं, जिस पर एक ही बेल है, जो उसी के आश्रित रहती है, जिसमें नित्य नए पत्ते और फूल निकलते रहते हैं, ऐसे संसार वृक्ष स्वरूप (विश्व रूप में प्रकट) आपको हम नमस्कार करते हैं॥॥
ब्रह्म अजन्मा है, अद्वैत है, केवल अनुभव से ही जाना जाता है और मन से परे है-(जो इस प्रकार कहकर उस) ब्रह्म का ध्यान करते हैं, वे ऐसा कहा करें और जाना करें, किंतु हे नाथ! हम तो नित्य आपका सगुण यश ही गाते हैं।
हे करुणा के धाम प्रभो ! हे सद्गुणों की खान!
हे देव! हम यह वर माँगते हैं कि मन, वचन और कर्म से विकारों को त्यागकर आपके चरणों में ही प्रेम करें॥॥
वेदों ने सबके देखते यह श्रेष्ठ विनती की।
फिर वे अंतर्धान हो गए और ब्रह्मलोक को चले गए ॥
काकभुशुण्डिजी कहते हैं- हे गरुड़जी ! सुनिए, तब शिवजी वहाँ आए जहाँ श्री रघुवीर थे और गद्गद् वाणी से स्तुति करने लगे। उनका शरीर पुलकावली से पूर्ण हो गया-॥॥
हे राम! हे रमारमण (लक्ष्मीकांत)! हे जन्म- मरण के संताप का नाश करने वाले! आपकी जय हो, आवागमन के भय से व्याकुल इस सेवक की रक्षा कीजिए।
हे अवधपति ! हे देवताओं के स्वामी! हे रमापति! हे विभो! मैं शरणागत आपसे यही माँगता हूँ कि हे प्रभो ! मेरी रक्षा कीजिए॥॥
हे दस सिर और बीस भुजाओं वाले रावण का विनाश करके पृथ्वी के सब महान् रोगों (कष्टों) को दूर करने वाले श्री रामजी! राक्षस समूह रूपी जो पतंगे थे, वे सब आपके बाण रूपी अग्नि के प्रचण्ड तेज से भस्म हो गए॥॥
आप पृथ्वी मंडल के अत्यंत सुंदर आभूषण हैं,
आप श्रेष्ठ बाण, धनुष और तरकस धारण किए हुए हैं।
महान् मद, मोह और ममता रूपी रात्रि के अंधकार समूह के नाश करने के लिए आप सूर्य के तेजोमय किरण समूह हैं ॥॥
कामदेव रूपी भील ने मनुष्य रूपी हिरनों के हृदय में कुभोग रूपी बाण मारकर उन्हें गिरा दिया है।
हे नाथ! हे (पाप- ताप का हरण करने वाले) हरे !
उसे मारकर विषय रूपी वन में भूल पड़े हुए इन पामर अनाथ जीवों की रक्षा कीजिए ॥॥
लोग बहुत से रोगों और वियोगों (दुःखों) से मारे हुए हैं।
ये सब आपके चरणों के निरादर के फल हैं।
जो मनुष्य आपके चरणकमलों में प्रेम नहीं करते, वे अथाह भवसागर में पड़े हैं ॥
जिन्हें आपके चरणकमलों में प्रीति नहीं है वे नित्य ही अत्यंत दीन, मलिन (उदास) और दुःखी रहते हैं और जिन्हें आपकी लीला कथा का आधार है, उनको संत और भगवान् सदा प्रिय लगने लगते हैं॥॥
उनमें न राग (आसक्ति) है, न लोभ, न मान है, न मद।
उनको संपत्ति सुख और विपत्ति (दुःख) समान है।
इसी से मुनि लोग योग (साधन) का भरोसा सदा के लिए त्याग देते हैं और प्रसन्नता के साथ आपके सेवक बन जाते हैं॥॥
वे प्रेमपूर्वक नियम लेकर निरंतर शुद्ध हृदय सेआपके चरणकमलों की सेवा करते रहते हैं और निरादर और आदर को समान मानकर वे सब संत सुखी होकर पृथ्वी पर विचरते हैं ॥॥
हे मुनियों के मन रूपी कमल के भ्रमर! हे महान् रणधीर एवं अजेय श्री रघुवीर! मैं आपको भजता हूँ (आपकी शरण ग्रहण करता हूँ)
हे हरि ! आपका नाम जपता हूँ और आपको नमस्कार करता हूँ।
आप जन्म-मरण रूपी रोग की महान् औषध और अभिमान के शत्रु हैं॥॥
आप गुण, शील और कृपा के परम स्थान हैं।
आप लक्ष्मीपति हैं, मैं आपको निरंतर प्रणाम करता हूँ।
हे रघुनन्दन! (आप जन्म-मरण, सुख- दुःख, राग-द्वेषादि) द्वंद्व समूहों का नाश कीजिए।
हे पृथ्वी का पालन करने वाले राजन्।
इस दीन जन की ओर भी दृष्टि डालिए॥॥
मैं आपसे बार-बार यही वरदान माँगता हूँ कि मुझे आपके चरण कमलों की अचल भक्ति और आपके भक्तों का सत्संग सदा प्राप्त हो।
हे लक्ष्मीपते! हर्षित होकर मुझे यही दीजिए॥
श्री रामचंद्रजी के गुणों का वर्णन करके उमापति महादेवजी हर्षित होकर कैलास को चले गए।
तब प्रभु ने वानरों को सब प्रकार से सुख देने वाले डेरे दिलवाए ॥॥
हे गरुड़जी ! सुनिए यह कथा (सबको) पवित्र करने वाली है, (दैहिक, दैविक, भौतिक) तीनों प्रकार के तापों का और जन्म-मृत्यु के भयका नाश करने वाली है।
महाराज श्री रामचंद्रजी के कल्याणमय राज्याभिषेक का चरित्र (निष्कामभाव से) सुनकर मनुष्य वैराग्य और ज्ञान प्राप्त करते हैं ॥॥
और जो मनुष्य सकामभाव से सुनते और जो गाते हैं, वे अनेकों प्रकार के सुख और संपत्ति पाते हैं।
वे जगत् में देवदुर्लभ सुखों को भोगकर अंतकाल में श्री रघुनाथजी के परमधाम को जाते हैं ॥॥
इसे जो जीवन्मुक्त, विरक्त और विषयी सुनते हैं, वे (क्रमशः ) भक्ति, मुक्ति और नवीन संपत्ति (नित्य नए भोग) पाते हैं।
हे पक्षीराज गरुड़जी! मैंने अपनी बुद्धि की पहुँच के अनुसार रामकथा वर्णन की है, जो (जन्म- मरण) भय और दुःख हरने वाली है ॥॥
यह वैराग्य, विवेक और भक्ति को दृढ़ करने वाली है तथा मोह रूपी नदी के (पार करने) के लिए सुंदर नाव है।
अवधपुरी में नित नए मंगलोत्सव होते हैं।
सभी वर्गों के लोग हर्षित रहते हैं॥॥
श्री रामजी के चरणकमलों में- जिन्हें श्री शिवजी, मुनिगण और ब्रह्माजी भी नमस्कार करते हैं, सबकी नित्य नवीन प्रीति है।
भिक्षुकों को बहुत प्रकार के वस्त्राभूषण पहनाए गए और ब्राह्मणों ने नाना प्रकार के दान पाए ॥
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