Monday, February 25, 2013

रामायण की किन चौपाइयों से दूर होती हैं घर या काम की कौन सी परेशानियां?


रामायण की किन चौपाइयों से दूर होती हैं घर या काम की कौन सी परेशानियां?

1. सिरदर्द या दिमाग की कोई भी परेशानी दूर करने के लिए-

हनुमान अंगद रन गाजे। हाँक सुनत रजनीचर भाजे।।

2. नौकरी पाने के लिए -

बिस्व भरण पोषन कर जोई। ताकर नाम भरत जस होई।।

धन-दौलत, सम्पत्ति पाने के लिए -

जे सकाम नर सुनहि जे गावहि।सुख संपत्ति नाना विधि पावहि।।

3. पुत्र पाने के लिए -

प्रेम मगन कौसल्या निसिदिन जात न जान।

सुत सनेह बस माता बालचरित कर गान।।

4. शादी के लिए -

तब जनक पाइ वशिष्ठ आयसु ब्याह साजि संवारि कै।

मांडवी श्रुतकीरति उर्मिला, कुँअरि लई हँकारि कै॥

5. खोई वस्तु या व्यक्ति पाने के लिए -

गई बहोर गरीब नेवाजू। सरल सबल साहिब रघुराजू।।

6. पढ़ाई या परीक्षा में कामयाबी के लिए-

जेहि पर कृपा करहिं जनु जानी। कबि उर अजिर नचावहिं बानी॥

मोरि सुधारिहि सो सब भाँती। जासु कृपा नहिं कृपाँ अघाती॥

7. जहर उतारने के लिए -

नाम प्रभाउ जान सिव नीको। कालकूट फलु दीन्ह अमी को।।

8. नजर उतारने के लिए -

स्याम गौर सुंदर दोउ जोरी। निरखहिं छबि जननीं तृन तोरी।।

9. हनुमानजी की कृपा के लिए -

सुमिरि पवनसुत पावन नामू। अपनें बस करि राखे रामू।।

10. यज्ञोपवीत पहनने व उसकी पवित्रता के लिए -

जुगुति बेधि पुनि पोहिअहिं रामचरित बर ताग।

पहिरहिं सज्जन बिमल उर सोभा अति अनुराग।।

11. सफल व कुशल यात्रा के लिए -

प्रबिसि नगर कीजै सब काजा। ह्रदयँ राखि कोसलपुर राजा॥

12. शत्रुता मिटाने के लिए -

बयरु न कर काहू सन कोई। राम प्रताप विषमता खोई॥

13. सभी तरह के संकटनाश या भूत बाधा दूर करने के लिए -

प्रनवउँ पवन कुमार,खल बन पावक ग्यान घन।

जासु ह्रदयँ आगार, बसहिं राम सर चाप धर॥

14. बीमारियां व अशान्ति दूर करने के लिए -

दैहिक दैविक भौतिक तापा। राम राज काहूहिं नहि ब्यापा॥

15. अकाल मृत्यु भय व संकट दूर करने के लिए -

नाम पाहरु दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट।

लोचन निज पद जंत्रित जाहिं प्रान केहि बाट।।
लाइक करना ना भूलें: @[117414831765673:274:Shri Krishna Fan Club]
@[117414831765673:274:Shri Krishna Fan Club] @[117414831765673:274:Shri Krishna Fan Club]

जय सियाराम मित्रों..पढ़ें और जरुर शेयर करें!
रामायण की किन चौपाइयों से दूर होती हैं घर या काम की कौन सी परेशानियां?

1. सिरदर्द या दिमाग की कोई भी परेशानी दूर करने के लिए-

हनुमान अंगद रन गाजे। हाँक सुनत रजनीचर भाजे।।

2. नौकरी पाने के लिए -

बिस्व भरण पोषन कर जोई। ताकर नाम भरत जस होई।।

धन-दौलत, सम्पत्ति पाने के लिए -

जे सकाम नर सुनहि जे गावहि।सुख संपत्ति नाना विधि पावहि।।

3. पुत्र पाने के लिए -

प्रेम मगन कौसल्या निसिदिन जात न जान।

सुत सनेह बस माता बालचरित कर गान।।

4. शादी के लिए -

तब जनक पाइ वशिष्ठ आयसु ब्याह साजि संवारि कै।

मांडवी श्रुतकीरति उर्मिला, कुँअरि लई हँकारि कै॥

5. खोई वस्तु या व्यक्ति पाने के लिए -

गई बहोर गरीब नेवाजू। सरल सबल साहिब रघुराजू।।

6. पढ़ाई या परीक्षा में कामयाबी के लिए-

जेहि पर कृपा करहिं जनु जानी। कबि उर अजिर नचावहिं बानी॥

मोरि सुधारिहि सो सब भाँती। जासु कृपा नहिं कृपाँ अघाती॥

7. जहर उतारने के लिए -

नाम प्रभाउ जान सिव नीको। कालकूट फलु दीन्ह अमी को।।

8. नजर उतारने के लिए -

स्याम गौर सुंदर दोउ जोरी। निरखहिं छबि जननीं तृन तोरी।।

9. हनुमानजी की कृपा के लिए -

सुमिरि पवनसुत पावन नामू। अपनें बस करि राखे रामू।।

10. यज्ञोपवीत पहनने व उसकी पवित्रता के लिए -

जुगुति बेधि पुनि पोहिअहिं रामचरित बर ताग।

पहिरहिं सज्जन बिमल उर सोभा अति अनुराग।।

11. सफल व कुशल यात्रा के लिए -

प्रबिसि नगर कीजै सब काजा। ह्रदयँ राखि कोसलपुर राजा॥

12. शत्रुता मिटाने के लिए -

बयरु न कर काहू सन कोई। राम प्रताप विषमता खोई॥

13. सभी तरह के संकटनाश या भूत बाधा दूर करने के लिए -

प्रनवउँ पवन कुमार,खल बन पावक ग्यान घन।

जासु ह्रदयँ आगार, बसहिं राम सर चाप धर॥

14. बीमारियां व अशान्ति दूर करने के लिए -

दैहिक दैविक भौतिक तापा। राम राज काहूहिं नहि ब्यापा॥

15. अकाल मृत्यु भय व संकट दूर करने के लिए -

नाम पाहरु दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट।

लोचन निज पद जंत्रित जाहिं प्रान केहि बाट।।

Tuesday, February 19, 2013

शिवलिंग के रंग दिन में तीन बार बदलते हैं





उत्तर प्रदेश में शाहजहांपुर के कोतवाली इलाके में स्थित एक मंदिर में स्थित जुड़वा शिवलिंग के रंग दिन में तीन बार बदलते हैं।

सुबह में शिवलिंग का रंग भूरा, दोपहर में हरा और शाम में काला हो जाता है।

करीब चार सौ साल पुराने शिवलिंग की इतनी मान्यता है कि देश के कोने कोने से लोग अपनी मुरादें लिये यहां आते हैं जो पूरी होती है।

शहीदों की नगरी शाहजहांपुर के कोतवाली इलाके के चौक में बाबा चौकसीनाथ का मंदिर है जिसमें यह जुड़वा शिवलिंग लगा है जो चार सौ साल पुराना है।

बादशाह शाहजहां के सिपहसालार सुखलाल चौकसी चार सौ साल पहले यहां आये थे। उस समय गर्रा नदी पर पुल का निर्माण हो रहा था।

उन्होंनें अपने सहयोगियों के साथ यहां रहने की योजना बनायी। उस वक्त इस इलाके में पेड़ और झाड़ियों ही थीं। पेड़ और झाडियों को काट कर जब साफ किया जा रहा था तब एक कुल्हाड़ी शिवलिंग से जा टकरायी। शिवलिंग को जब खोद कर निकाला गया तो उस पर कुल्हाड़ी का निशान बना था।

इसके बाद सुखलाल चौकसी ने बादशाह शाहजहां की नौकरी छोड़ दी और यहीं रह कर पूर्जा अर्चना करने लगे। शिवलिंग को स्थापित कर एक मंदिर का निर्माण कराया गया जिसे चौकसी बाबा मंदिर का नाम दिया गया। अमावस्या और सोमवार के दिन यहां दूर दूर से श्रद्धालु अपनी मनौती लिये यहां आते हैं।

हर साल महाशिवरात्रि को यहां भव्य आयोजन होता है। इस दिन यहां सबसे ज्यादा भीड़ होती है।

यह मंदिर पौराणिक होने के साथ ही आस्था का भी केन्द्र है। बताते हैं कि बाबा चौकसी नाथ के मंदिर से कोई भी श्रद्धालु खाली हाथ नहीं लौटा। लोग यहां झोली फैलाकर आते हैं और भरकर ले जाते हैं। सबसे ज्यादा आश्चर्य की बात इसका जुड़वा होना है। मंदिर में शिवलिंग के निकट ही शाहजहां से लेकर ब्रिटिश काल तक के सिक्के लगे हैं। जोडे में शिवलिंग को शिव पार्वती का स्वरूप माना जाता है।

Friday, February 15, 2013

भारत में धर्मपरिवर्तन धंधा बन चुका है


आज भारत में धर्मपरिवर्तन धंधा बन चुका है जिसके मूल में राजीनीतिक साम्राज्यवाद और बहुराष्ट्रीय कंपनियों का पैसा लगा हुआ है. भारत के संविधान में मौलिक अधिकारों की धारा 25 के तहत भारत के हर नागरिक को यह अधिकार मिला हुआ है कि वह कोई धर्म अपनाने के लिए आजाद है. लेकिन आज भारत में जो धर्मांतरण हो रहा है उसका एक राजनीतिक मकसद है और यह बहुराष्ट्रीय कंपनी के व्यापार में बदल चुका है. यह परावर्तित लोगों को साम्राज्यवादी ताकतों का पिछलग्गू बनाता है.

मैं जब धर्मपरिवर्तन को व्यापार कहता हूं तो यह अनायास नहीं है. इसके पीछे ठोस तथ्य हैं. इसके लिए मैं सेविन्थ डे एडवेन्टिस्ट चर्च का उदाहरण पेश करना चाहूंगा. एक अकेले सेवेन्थ डे एडवेन्टिस्ट चर्च ने साल 2004 में विदेशों से 5850 करोड़ रूपये प्राप्त किये. इस पैसे का उपयोग 10 लाख लोगों का धर्मपरिवर्तन करने के लिए किया गया. कनाडा के धर्म-प्रचारक रॉनवाट्स सेवेन्थ डे एडवेन्टिस्ट चर्च के दक्षिण एशिया के प्रमुख हैं. 1997 में व्यापारिक वीजा लेकर वे भारत में दाखिल हुए थे. जब वे भारत आये थे तो उस समय इस चर्च के सवा दो लाख सदस्य थे. यह इस चर्च के 103 साल के काम का नतीजा था. लेकिन बाद के पांच सालों में सदस्यों की संख्या अचनाक बहुत तेजी से बढ़ी और यह सात लाख हो गयी. ग्लोबल इन्वेगेलिज्म के निदेशक मार्क फिन्ले ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा है कि अकेले 2004 में भारत में 10 लाख 71 हजार 135 लोगों ने ईसाई धर्म ग्रहण किया जो कि पिछले पंद्रह सालों में सर्वाधिक था. यही रिपोर्ट कहती है कि भारत में 15 से 30 वर्ष के 6 लाख नौजवान चर्च के प्रचार, भीड़ को धर्म सभाओं तक लाने व चमत्कारी शो आयोजित करने में लगे हुए हैं.

अब यह ज्यादा स्पष्ट नजर आने लगा है कि धर्म परिवर्तन के काम को साम्राज्यवादी देशों ने अपने हित के कामों में प्रमुख स्थान दिया है. कनाडा की डोरोथी वाट्स एक योजना चला रही हैं जिसका नाम है 10 गांव और 25 घर. यह एक धर्मपरिवर्तन योजना है जो गांवों को अपना निशाना बनाती है. 1998 में 10 गांव कार्यक्रम 17 बार चलाए गये और उससे 9337 लोग ईसा की शरण में पहुंचे. 1999 में यह कार्यक्रम 40 बार आयोजित किया गया और इस साल इससे 40 हजार लोग ईसाई बने. अपने इन शुरूआती नतीजों से उत्साहित होकर डोरोथी वाट्स ने अब 50 गांव योजना शुरू की है. इससे हर महीने 10 हजार लोगों को बैप्टाईज किया जा सकेगा या ईसाई बनाया जा सकेगा.

अमेरिका की मैसिव इवेन्गुलाईजेशन आफ इंडिया नामक संस्था धर्म प्रचार और धर्म परिवर्तन की नयी तकनीकि से लैस होकर इस काम में उतरी है. यूं तो यह योजना 1990 में शुरू की गयी थी लेकिन बुश जूनियर के अमरीकी राष्ट्रपति बनने के बाद इसे गति मिली. इस योजना का असली मकसद है कि भारत को तेजी से ईसाई देश में बदलना है. इस योजना के तहत भारत गरीबों का धर्म परिवर्तन करके उन्हें ज्यादा से ज्यादा चर्च निर्माण के लिए जगह उपलब्ध कराना है. इस संस्था के पास पैसे की कमी नहीं है और वह एक पास्टर (मुख्य ईसाई प्रचारक) को 10 हजार रूपये मासिक तनख्वाह देती है. एक पास्टर के नीचे जो लड़के काम करते हैं उन्हें तीन से पांच हजार रूपये मासिक दिया जाता है. इसके अलावा गांव में जिन्हें रिसोर्स पर्सन के रूप में इस्तेमाल किया जाता है उन्हें भी पांच सौ रूपये मासिक दिया जाता है.

धर्म परिवर्तन का असर तब दिखाई पड़ता है जब ईसाई अलग राज्य की मांग करने लगते हैं.या फिर अलग देश का ही सपना देखने लगते हैं. उत्तर पूर्व में नेशनल लिबरेशन फ्रंट आफ त्रिपुरा बाकायदा अलग ईसाई राज्य बनाने का आंदोलन चला रहा है. उसकी घोषणा में साफ लिखा है कि उसे त्रिपुरा को खुदा की राजधानी बनाना है. अप्रैल सन 2000 में सीआरपीएफ ने बैप्टिस्ट चर्च आफ त्रिपुरा के सचिव को भारी मात्रा में गोला-बारूद, 50 जिलेटिन की छड़ें, 5 किलो पोटेशियम, 2 किलो सल्फर और बम बनाने के दूसरे सामान के साथ गिरफ्तार किया था. चर्च का दूसरा पदाधिकारी जटन कोलोई ने गिरफ्तार होने पर बयान दिया कि उसने नेशनल लिब्रेशन फ्रण्ट आफ त्रिपुरा के बेस में गोरिल्ला युद्ध का प्रशिक्षण लिया है.

इन्हीं बातों को देखते हुए हम धर्म परिवर्तन को सही नहीं मानते. अगर धर्मपरिवर्तन साम्राज्यवादी हितों की पूर्ती, जातीय उत्पीड़न और सामाजिक गैर बराबरी को बढ़ाता है तो हम इसका विरोध करते हैं. अगर वह चर्चों, मिशन, अस्पतालों और शिक्षण संस्थानों में उच्च जाति के ईसाईयों का कब्जा बरकार रखता है और गरीबों और दलित ईसाईयों को वहां प्रवेश की भी मनाही होती है तो ऐसे धर्म परिवर्तन का मकसद समझ में आता है. —

मित्रो यहाँ click करे सारा खेल समझे !

http://www.youtube.com/watch?v=4jNe3iCBrVo

वन्देमातरम !!
 

इसलिए खराब नहीं होता गंगाजल

इसलिए खराब नहीं होता गंगाजल

गंगा जल आखिर खराब क्यों नहीं होता ? पतित पावनी गंगा नदी का नाम आते ही ये सवाल अक्सर दिमाग को खटखटा देता है। लेकिन इसका भी... जवाब मिल गया है।


दरअसल, हिमालय की कोख गंगोत्री से निकली गंगा का जल इसलिए कभी खराब नहीं होता, क्योंकि इसमें गंधक, सल्फर, खनिज की सर्वाधिक मात्रा पाई जाती है। राष्ट्रीय जल विज्ञान संस्थान रूड़की के निदेशक डाॅ. आरडी सिंह ने बताया कि हरिद्वार में गोमुख गंगोत्री से आ रही गंगा के जल की गुणवत्ता पर इसलिए कोई दुष्प्रभाव नहीं पड़ता, क्योंकि यह हिमालय पर्वत पर उगी हुई अनेकों जीवन दायनि उपयोगी जड़ी बुटियों के ऊपर से स्पर्श करता हुआ आता है।

अन्य कारण भी

वरिष्ठ वैज्ञानिक डाॅ. मुकेश कुमार शर्मा ने बताया कि गंगा जल खराब नहीं होने के कई वैज्ञानिक कारण भी हैं। एक यह कि गंगा जल में बैट्रिया फोस नामक एक बैक्टीरिया पाया गया है, जो पानी के अंदर रासायनिक क्रियाओं से उत्पन्न होने वाले अवांछनीय पदार्थों को खाता रहता है। इससे जल की शुद्धता बनी रहती है। दूसरा गंगा के पानी में गंधक की प्रचुर मात्रा मौजूद रहती है, इसलिए भी यह खराब नहीं होता।

गंगा को मैला हमने बनाया

डाॅ. सिंह ने बताया कि गंगा हरिद्वार से आगे अन्य शहरों की ओर बढ़ती जाती है वैसे ही शहरों, नगर निगमों और खेतीबाड़ी का कूड़ा करकट तथा औद्योगिक रसायनों का मिश्रण गंगा में डाल दिया जाता है। यही वजह है कि कानपुर, वाराणसी और इलाहाबाद का गंगा जल आज पीने योग्य नहीं रह गया है।

Thursday, February 14, 2013

कामसूत्र, ऋषि वात्स्यायन और विदेशी इस्लामिक दुष्प्रचार

कामसूत्र, ऋषि वात्स्यायन और विदेशी इस्लामिक दुष्प्रचार







अक्सर मैंने कुछ लोगो विशेषत: मुसलमानों को ये कहते सुना है की सनातन धर्म में कामसूत्र एक कलंक है और वे बार बार कुछ पाखंडियो बाबाओ के साथ साथ कामसूत्र को लेकर सनातन धर्म पर तरह तरह के अनर्लग आरोप व् आक्षेप लगाते रहते है| चूँकि जब मैंने ऋषि वात्सयायन द्वारा रचित कामसूत्र का अध्ययन किया तो ज्ञात हुआ की कामसूत्र को लेकर जितना दुष्प्रचार हिन्दुओ ने किया है उतना तो मुसलमानों और अंग्रेजो ने भी नहीं किया | मुसलमान विद्वान व् अंग्रेज इस बात पर शोर मचाते रहते है की भारतीय संस्कृति में कामसूत्र के साथ साथ अश्लीलता भरी हुई है और ऐसे में वे खजुराहो और अलोरा अजन्ता की गुफाओं की मूर्तियों, चित्रकारियो का हवाला दे कर भारत संस्कृति के खिलाफ जमकर दुष्प्रचार करते है|

आज मैं आप सभी के समक्ष उन सभी तथ्यों को उजागर करूँगा जिसके अनुसार कामसूत्र अश्लील न होकर एक जीवन पद्दति पर आधारित है, ये भारतीय संस्कृति की उस महानता को दर्शाता है जिसने पति पत्नी को कई जन्मो तक एक ही बंधन में बाँधा जाता है और नारी को उसके अधिकार के साथ धर्म-पत्नी का दर्जा मिलता है, भारतीय संस्कृति में काम को हेय की दृष्टि से न देख कर जीवन के अभिन्न अंग के रूप में देखा गया है, इसका अर्थ ये नहीं की हमारी संस्कृति अश्लील है, कामसूत्र में काम को इन्द्रियों द्वारा नियंत्रित करके भोगने का साधन दर्शाया गया है, वास्तव में ये केवल एक दुष्प्रचार है की कामसूत्र में अश्लीलता है और ये विचारधारा तब और अधिक फैली जब कामसूत्र फिल्म आई थी, जिसमे काम को एक वासना के रूप में दिखा कर न केवल ऋषि वात्सयायन का अपमान किया गया था अपितु ऋषि वात्स्यायन द्वारा रचित कामसूत्र के असली मापदंडो के भी प्रतिकूल है, अब आगे लेख में आप पढेंगे की ऐसा क्या है कामसूत्र में??

सौजन्य से – Saffron Hindurashtra

कौन थे महर्षि वात्‍स्‍यायन


महर्षि वात्स्यायन भारत के प्राचीनकालीन महान दार्शनिक थे. इनके काल के विषय में इतिहासकार एकमत नहीं हैं. अधिकृत प्रमाण के अभाव में महर्षि का काल निर्धारण नहीं हो पाया है. कुछ स्‍थानों पर इनका जीवनकाल ईसा की पहली शताब्‍दी से पांचवीं शताब्‍दी के बीच उल्लिखित है. वे ‘कामसूत्र’ और ‘न्यायसूत्रभाष्य’ नामक कालजयी ग्रथों के रचयिता थे. महर्षि वात्स्यायन का जन्म बिहार राज्य में हुआ था. उन्‍होंने कामसूत्र में न केवल दाम्पत्य जीवन का श्रृंगार किया है, बल्कि कला, शिल्पकला और साहित्य को भी श्रेष्‍ठता प्रदान की है. कामसूत्र’ का अधिकांश भाग मनोविज्ञान से संबंधित है. यह जानकर अत्‍यंत आश्‍चर्य होता है कि आज से दो हजार वर्ष से भी पहले विचारकों को स्‍त्री और पुरुषों के मनोविज्ञान का इतना सूक्ष्‍म ज्ञान था. इस जटिल विषय पर वात्‍स्‍यायन रचित ‘कामसूत्र’ बहुत ज्‍यादा प्रसिद्ध हुआ.
भारतीय संस्‍कृति में कभी भी ‘काम’ को हेय नहीं समझा गया. काम को ‘दुर्गुण’ या ‘दुर्भाव’ न मानकर इन्‍हें चतुर्वर्ग अर्थ, काम, मोक्ष, धर्म में स्‍थान दिया गया है. हमारे शास्‍त्रकारों ने जीवन के चार पुरुषार्थ बताए हैं- ‘धर्म’, ‘अर्थ’, ‘काम’ और ‘मोक्ष’. सरल शब्‍दों में कहें, तो धर्मानुकूल आचरण करना, जीवन-यापन के लिए उचित तरीके से धन कमाना, मर्यादित रीति से काम का आनंद उठाना और अंतत: जीवन के अनसुलझे गूढ़ प्रश्‍नों के हल की तलाश करना. वासना से बचते हुए आनंददायक तरीके से काम का आनंद उठाने के लिए कामसूत्र के उचित ज्ञान की आवश्‍यकता होती है. वात्‍स्‍यायन का कामसूत्र इस उद्देश्‍य की पूर्ति में एकदम साबित होता है. ‘काम सुख’ से लोग वंचित न रह जाएं और समाज में इसका ज्ञान ठीक तरीके से फैल सके, इस उद्देश्‍य से प्राचीन काल में कई ग्रंथ लिखे गए.

जीवन के इन चारों पुरुषार्थों के बीच संतुलन बहुत ही आवश्‍यक है. ऋषि-मुनियों ने इसकी व्‍यवस्‍था बहुत ही सोच-विचारकर दी है. यानी ऐसा न हो कि कोई केवल धन कमाने के पीछे ही पड़ा रहे और नीति-शास्‍त्रों को बिलकुल ही भूल जाए. या काम-क्रीड़ा में इतना ज्‍यादा डूब जाए कि उसे संसार को रचने वाले की सुध ही न रह जाए.

जीवन के इन चारों पुरुषार्थों के बीच संतुलन बहुत ही आवश्‍यक है. ऋषि-मुनियों ने इसकी व्‍यवस्‍था बहुत ही सोच-विचारकर दी है. यानी ऐसा न हो कि कोई केवल धन कमाने के पीछे ही पड़ा रहे और नीति-शास्‍त्रों को बिलकुल ही भूल जाए. या काम-क्रीड़ा में इतना ज्‍यादा डूब जाए कि उसे संसार को रचने वाले की सुध ही न रह जाए.

मनुष्‍य को बचपन और यौवनावस्‍था में विद्या ग्रहण करनी चाहिए. उसे यौवन में ही सांसारिक सुख और वृद्वावस्‍था में धर्म व मोक्ष प्राप्ति का प्रयत्‍न करना चाहिए. अवस्‍था को पूरी तरह से निर्धारित करना कठिन है, इसलिए मनुष्‍य ‘त्रिवर्ग’ का सेवन इच्‍छानुसार भी कर सकता है. पर जब तक वह विद्याध्‍ययन करे, तब तक उसे ब्रह्मचर्य रखना चाहिए यानी ‘काम’ से बचना चाहिए.

कान द्वारा अनुकूल शब्‍द, त्‍वचा द्वारा अनूकूल स्‍पर्श, आंख द्वारा अनुकूल रूप, नाक द्वारा अनुकूल गंध और जीभ द्वारा अनुकूल रस का ग्रहण किया जाना ‘काम’ है. कान आदि पांचों ज्ञानेन्द्रियों के साथ मन और आत्‍मा का भी संयोग आवश्‍यक है.

स्‍पर्श विशेष के विषय में यह निश्चित है कि स्‍पर्श के द्वारा प्राप्‍त होने वाला विशेष आनंद ‘काम’ है. यही काम का प्रधान रूप है. कुछ आचार्यों का मत है कि कामभावना पशु-पक्षियों में भी स्‍वयं प्रवृत्त होती है और नित्‍य है, इसलिए काम की शिक्षा के लिए ग्रंथ की रचना व्‍यर्थ है. दूसरी ओर वात्‍स्‍यायन का मानना है कि चूंकि स्‍त्री-पुरुषों का जीवन पशु-पक्षियों से भिन्‍न है. इनके समागम में भी भिन्‍नता है, इसलिए मनुष्‍यों को शिक्षा के उपाय की आवश्‍यकता है. इसका ज्ञान कामसूत्र से ही संभव है. पशु-पक्षियों की मादाएं खुली और स्‍वतंत्र रहती हैं और वे ऋतुकाल में केवल स्‍वाभाविक प्रवृत्ति से समागम करती हैं. इनकी क्रियाएं बिना सोचे-विचारे होती हैं, इसलिए इन्‍हें किसी शिक्षा की आवश्‍यकता नहीं होती.
वात्‍स्‍यायन का मत है कि मनुष्‍य को काम का सेवन करना चाहिए, क्‍योंकि कामसुख मानव शरीर की रक्षा के लिए आहार के समान है. काम ही धर्म और अर्थ से उत्‍पन्‍न होने वाला फल है. हां, इतना अवश्‍य है कि काम के दोषों को जानकर उनसे अलग रहना चाहिए| कुछ आचार्यों का मत है कि स्त्रियों को कामसूत्र की शिक्षा देना व्‍यर्थ है, क्‍योंकि उन्‍हें शास्‍त्र पढ़ने का अधिकार नहीं है. इसके विपरीत वात्‍स्‍यायन का मत है कि स्त्रियों को इसकी शिक्षा दी जानी चाहिए, क्‍योंकि इस ज्ञान का प्रयोग स्त्रियों के बिना संभव नहीं है.
आचार्य घोटकमुख का मत है कि पुरुष को ऐसी युवती से विवाह करना चाहिए, जिसे पाकर वह स्‍वयं को धन्‍य मान सके तथा जिससे विवाह करने पर मित्रगण उसकी निंदा न कर सकें. वात्‍स्‍यायन लिखते हैं कि मनुष्‍य की आयु सौ वर्ष की है. उसे जीवन के विभिन्‍न भागों में धर्म, अर्थ और काम का सेवन करना चाहिए. ये ‘त्रिवर्ग’ परस्‍पर सं‍बंधित होना चाहिए और इनमें विरोध नहीं होना चाहिए.
कामशास्‍त्र पर वात्‍स्‍यायन के ‘कामसूत्र’ के अतिरिक्‍त ‘नागर सर्वस्‍व’, ‘पंचसायक’, ‘रतिकेलि कुतूहल’, ‘रतिमंजरी’, ‘रतिरहस्‍य’ आदि ग्रंथ भी अपने उद्देश्‍य में काफी सफल रहे.
वात्‍स्‍यायन रचित ‘कामसूत्र’ में अच्‍छे लक्षण वाले स्‍त्री-पुरुष, सोलह श्रृंगार, सौंदर्य बढ़ाने के उपाय, कामशक्ति में वृद्धि से संबंधित उपायों पर विस्‍तार से चर्चा की गई है.
इस ग्रंथ में स्‍त्री-पुरुष के ‘मिलन’ की शास्‍त्रोक्‍त रीतियां बताई गई हैं. किन-किन अवसरों पर संबंध बनाना अनुकूल रहता है और किन-किन मौकों पर निषिद्ध, इन बातों को पुस्‍तक में विस्‍तार से बताया गया है.
भारतीय विचारकों ने ‘काम’ को धार्मिक मान्‍यता प्रदान करते हुए विवाह को ‘धार्मिक संस्‍कार’ और पत्‍नी को ‘धर्मपत्‍नी’ स्‍वीकार किया है. प्राचीन साहित्‍य में कामशास्‍त्र पर बहुत-सी पुस्‍तकें उपलब्‍ध हैं. इनमें अनंगरंग, कंदर्प, चूड़ामणि, कुट्टिनीमत, नागर सर्वस्‍व, पंचसायक, रतिकेलि कुतूहल, रतिमंजरी, रहिरहस्‍य, रतिरत्‍न प्रदीपिका, स्‍मरदीपिका, श्रृंगारमंजरी आदि प्रमुख हैं.
पूर्ववर्ती आचार्यों के रूप में नंदी, औद्दालकि, श्‍वेतकेतु, बाभ्रव्‍य, दत्तक, चारायण, सुवर्णनाभ, घोटकमुख, गोनर्दीय, गोणिकापुत्र और कुचुमार का उल्‍लेख मिलता है. इस बात के पर्याप्‍त प्रमाण हैं कि कामशास्‍त्र पर विद्वानों, विचारकों और ऋषियों का ध्‍यान बहुत पहले से ही जा चुका था.

वात्‍स्‍यायन ने ब्रह्मचर्य और परम समाधि का सहारा लेकर कामसूत्र की रचना गृहस्‍थ जीवन के निर्वाह के लिए की की. इसकी रचना वासना को उत्तेजित करने के लिए नहीं की गई है. संसार की लगभग हर भाषा में इस ग्रन्थ का अनुवाद हो चुका है. इसके अनेक भाष्य और संस्करण भी प्रकाशित हो चुके हैं. वैसे इस ग्रन्थ के जयमंगला भाष्य को ही प्रमाणिक माना गया है. कामशास्‍त्र का तत्व जानने वाला व्‍यक्ति धर्म, अर्थ और काम की रक्षा करता हुआ अपनी लौकिक स्थिति सुदृढ़ करता है. साथ ही ऐसा मनुष्‍य जितेंद्रिय भी बनता है.कामशास्‍त्र का कुशल ज्ञाता धर्म और अर्थ का अवलोकन करता हुआ इस शास्‍त्र का प्रयोग करता है. ऐसे लोग अधिक वासना धारण करने वाले कामी पुरुष के रूप में नहीं जाने जाते.
वात्‍स्‍यायन ने कामसूत्र में न केवल दाम्पत्य जीवन का श्रृंगार किया है, बल्कि कला, शिल्पकला और साहित्य को भी श्रेष्‍ठता प्रदान की है. राजनीति के क्षेत्र में जो स्थान कौटिल्य का है, काम के क्षेत्र में वही स्थान महर्षि वात्स्यायन का है. करीब दो सौ वर्ष पूर्व प्रसिद्ध भाषाविद् सर रिचर्ड एफ़ बर्टन ब्रिटेन में इसका अंग्रेज़ी अनुवाद करवाया. अरब के विख्यात कामशास्त्र ‘सुगन्धित बाग’ पर भी इस ग्रन्थ की छाप है. राजस्थान की दुर्लभ यौन चित्रकारी के अतिरिक्‍त खजुराहो, कोणार्क आदि की शिल्पकला भी कामसूत्र से ही प्रेरित है.
एक ओर रीतिकालीन कवियों ने कामसूत्र की मनोहारी झांकियां प्रस्तुत की हैं. दूसरी ओर गीत-गोविन्द के रचयिता जयदेव ने अपनी रचना ‘रतिमंजरी’ में कामसूत्र का सार-संक्षेप प्रस्तुत किया है.

कामसूत्र के अनुसार -
स्‍त्री को कठोर शब्‍दों का उच्‍चारण, टेढ़ी नजर से देखना, दूसरी ओर मुंह करके बात करना, घर के दरवाजे पर खड़े रहना, द्वार पर खड़े होकर इधर-उधर देखना, घर के बगीचे में जाकर किसी के साथ बात करना और एकांत में अधिक देर तक ठहरना त्‍याग देना चाहिए.
स्‍त्री को चाहिए कि वह पति को आकर्षित करने के लिए बहुत से भूषणों वाला, तरह-तरह के फूलों और सुगंधित पदार्थों से युक्‍त, चंदन आदि के विभिन्‍न अनूलेपनों वाला और उज्‍ज्‍वल वस्‍त्र धारण करे.
स्‍त्री को अपने धन और पति की गुप्‍त मंत्रणा के बारे में दूसरों को नहीं बताना चाहिए.
पत्‍नी को वर्षभर की आय की गणना करके उसी के अनुसार व्‍यय करना चाहिए.
स्‍त्री को चाहिए कि वह सास-ससुर की सेवा करे और उनके वश में रहे. उनकी बातों का उत्तर न दे. उनके सामने बोलना ही पड़े, तो थोड़ा और मधुर बोले और उनके पास जोर से न हंसे. स्‍त्री को पति और परिवार के सेवकों के प्रति उदारता और कोमलता का व्‍यवहार करना चाहिए.
स्‍त्री और पुरुष में ये गुण होने चाहिए- प्रतिभा, चरित्र, उत्तम व्‍यवहार, सरलता, कृतज्ञता, दीर्घदृष्टि, दूरदर्शी. प्रतिज्ञा पालन, देश और काल का ज्ञान, नागरिकता, अदैन्‍य न मांगना, अधिक न हंसना, चुगली न करना, निंदा न करना, क्रोध न करना, अलोभ, आदरणीयों का आदर करना, चंचलता का अभाव, पहले न बोलना, कामशास्‍त्र में कौशल, कामशास्‍त्र से संब‍ंधित क्रियाओं, नृत्‍य-गीत आदि में कुशलता. इन गुणों के विपरीत दशा का होना दोष है.
ऐसे पुरुष यदि ज्ञानी भी हों, तो भी समागम के योग्‍य नहीं हैं- क्षय रोग से ग्रस्‍त, अपनी पत्‍नी से अधिक प्रेम करने वाला, कठोर शब्‍द बोलने वाला, कंजूस, निर्दय, गुरुजनों से परित्‍यक्‍त, चोर, दंभी, धन के लोभ से शत्रुओं तक से मिल जाने वाला, अधिक लज्‍जाशील.

वात्‍स्‍यायन ने पुरुषों के रूप को भी निखारने के उपाय बताए हैं. उनका मानना है कि रूप, गुण, युवावस्‍था, और दान आदि में धन का त्‍याग पुरुष को सुंदर बना देता है. तगर, कूठ और तालीस पत्र को पीसकर बनाया हुआ उबटन लगाना पुरुष को सुंदर बना देता है. पुनर्नवा, सहदेवी, सारिवा, कुरंटक और कमल के पत्तों से बनाया हुआ तेल आंख में लगाने से पुरुष रूपवान बन जाता है.

आधुनिक जीवनशैली और बढ़ती यौन-स्‍वच्‍छंदता ने समाज को कुछ भयंकर बीमारियों की सौगात दी है. एड्स भी ऐसी ही बीमारियों में से एक है. अगर लोगों को कामशास्‍त्र का उचित ज्ञान हो, तो इस तरह की बीमारियों से बचना एकदम मुमकिन है.

Saturday, February 9, 2013

हमारे हिन्दू धर्म तथा ब्रह्माण्ड में 108 अंक का क्या महत्व है....?


हमारे हिन्दू धर्म के किसी भी शुभ कार्य, पूजा , अथवा अध्यात्मिक व्यक्ति के नाम के पूर्व ""श्री श्री 108 "" लगाया जाता है...!

लेकिन क्या सच में आप जानते हैं कि.... हमारे हिन्दू धर्म तथा ब्रह्माण्ड में 108 अंक का क्या महत्व है....?????

दरअसल.... वेदान्त में एक""मात्रक विहीन सार्वभौमिक ध्रुवांक 108 "" का उल्लेख मिलता है.... जिसका अविष्कार हजारों वर्षों पूर्व हमारे
... ऋषि-मुनियों (वैज्ञानिकों) ने किया थाl

आपको समझाने में सुविधा के लिए मैं मान लेता हूँ कि............ 108 = ॐ (जो पूर्णता का द्योतक है).
अब आप देखें .........प्रकृती ­ में 108 की विविध अभिव्यंजना किस प्रकार की है।

1. सूर्य और पृथ्वी के बीच की दूरी/सूर्य का व्यास = 108 = 1 ॐ
150,000,000 km/1,391,000 km = 108 (पृथ्वी और सूर्य के बीच 108 सूर्य सजाये जा सकते हैं)

2. सूर्य का व्यास/ पृथ्वी का व्यास = 108 = 1 ॐ
1,391,000 km/12,742 km = 108 = 1 ॐ
सूर्य के व्यास पर 108 पृथ्वियां सजाई सा सकती हैं .

3. पृथ्वी और चन्द्र के बीच की दूरी/चन्द्र का व्यास = 108 = 1 ॐ
384403 km/3474.20 km = 108 = 1 ॐ
पृथ्वी और चन्द्र के बीच 108 चन्द्रमा आ सकते हैं .

4. मनुष्य की उम्र 108 वर्षों (1ॐ वर्ष) में पूर्णता प्राप्त करती है .
क्योंकि... वैदिक ज्योतिष के अनुसार.... मनुष्य को अपने जीवन काल में
विभिन्न ग्रहों की 108 वर्षों की अष्टोत्तरी महादशा से गुजरना पड़ता है .

5. एक शांत, स्वस्थ और प्रसन्न वयस्क व्यक्ति 200 ॐ श्वास लेकर एक दिन पूरा करता है .
1 मिनट में 15 श्वास >> 12 घंटों में 10800 श्वास >> दिनभर में 100 ॐ श्वास, वैसे ही रातभरमें 100 ॐ श्वास

6. एक शांत, स्वस्थ और प्रसन्न वयस्क व्यक्ति एक मुहुर्त में 4 ॐ ह्रदय की धड़कन पूरी करता है .
1 मिनट में 72 धड़कन >> 6 मिनटमें 432 धडकनें >> 1 मुहूर्त में 4 ॐ धडकनें ( 6 मिनट = 1 मुहूर्त)

7. सभी 9 ग्रह (वैदिक ज्योतिष में परिभाषित) भचक्र एक चक्र पूरा करते समय 12 राशियों से होकर गुजरते हैं और 12 x 9 = 108 = 1 ॐ

8. सभी 9 ग्रह भचक्र का एक चक्कर पूरा करते समय 27 नक्षत्रों को पार करते
हैं... और, प्रत्येक नक्षत्र के चार चरणहोते हैं और 27 x 4 = 108 = 1 ॐ

9. एक सौर दिन 200 ॐ विपल समय में पूरा होता है. (1 विपल = 2.5 सेकेण्ड)
1 सौर दिन (24 घंटे) = 1 अहोरात्र = 60 घटी = 3600 पल = 21600 विपल = 200 x 108 = 200 ॐ विपल
@@@@ उसी तरह ..... 108 का आध्यात्मिक अर्थ भी काफी गूढ़ है..... और,

1 ..... सूचित करता है ब्रह्म की अद्वितीयता/ ­एकत्व/पूर्णता को

0 ......... सूचित करता है वह शून्य की अवस्था को जो विश्व की अनुपस्थिति मेंउत्पन्न हुई होती

8 ......... सूचित करता है उस विश्व की अनंतता को जिसका अविर्भाव उस शून्य में ब्रह्म की अनंत अभिव्यक्तियों से हुआ है .
अतः ब्रह्म, शून्यता और अनंत विश्व के संयोग को ही 108 द्वारा सूचित किया गया है .

इस तरह हम कह सकते हैं कि.....जिस प्रकार ब्रह्म की शाब्दिक अभिव्यंजना
प्रणव ( अ + उ + म् ) है...... और, नादीय अभिव्यंजना ॐ की ध्वनि है.....
ठीक उसी उसी प्रकार ब्रह्म की""गाणितिक अभिव्यंजना 108 "" है।

जय क्षात्र सनातन धर्म की।
हमारे हिन्दू धर्म के किसी भी शुभ कार्य, पूजा , अथवा अध्यात्मिक व्यक्ति के नाम के पूर्व ""श्री श्री 108 "" लगाया जाता है...!

लेकिन क्या सच में आप जानते हैं कि.... हमारे हिन्दू धर्म तथा ब्रह्माण्ड में 108 अंक का क्या महत्व है....?????

दरअसल.... वेदान्त में एक""मात्रक विहीन सार्वभौमिक ध्रुवांक 108 "" का उल्लेख मिलता है.... जिसका अविष्कार हजारों वर्षों पूर्व हमारे
... ऋषि-मुनियों (वैज्ञानिकों) ने किया थाl

आपको समझाने में सुविधा के लिए मैं मान लेता हूँ कि............ 108 = ॐ (जो पूर्णता का द्योतक है).
अब आप देखें .........प्रकृती ­ में 108 की विविध अभिव्यंजना किस प्रकार की है।

1. सूर्य और पृथ्वी के बीच की दूरी/सूर्य का व्यास = 108 = 1 ॐ
150,000,000 km/1,391,000 km = 108 (पृथ्वी और सूर्य के बीच 108 सूर्य सजाये जा सकते हैं)

2. सूर्य का व्यास/ पृथ्वी का व्यास = 108 = 1 ॐ
1,391,000 km/12,742 km = 108 = 1 ॐ
सूर्य के व्यास पर 108 पृथ्वियां सजाई सा सकती हैं .

3. पृथ्वी और चन्द्र के बीच की दूरी/चन्द्र का व्यास = 108 = 1 ॐ
384403 km/3474.20 km = 108 = 1 ॐ
पृथ्वी और चन्द्र के बीच 108 चन्द्रमा आ सकते हैं .

4. मनुष्य की उम्र 108 वर्षों (1ॐ वर्ष) में पूर्णता प्राप्त करती है .
क्योंकि... वैदिक ज्योतिष के अनुसार.... मनुष्य को अपने जीवन काल में
विभिन्न ग्रहों की 108 वर्षों की अष्टोत्तरी महादशा से गुजरना पड़ता है .

5. एक शांत, स्वस्थ और प्रसन्न वयस्क व्यक्ति 200 ॐ श्वास लेकर एक दिन पूरा करता है .
1 मिनट में 15 श्वास >> 12 घंटों में 10800 श्वास >> दिनभर में 100 ॐ श्वास, वैसे ही रातभरमें 100 ॐ श्वास

6. एक शांत, स्वस्थ और प्रसन्न वयस्क व्यक्ति एक मुहुर्त में 4 ॐ ह्रदय की धड़कन पूरी करता है .
1 मिनट में 72 धड़कन >> 6 मिनटमें 432 धडकनें >> 1 मुहूर्त में 4 ॐ धडकनें ( 6 मिनट = 1 मुहूर्त)

7. सभी 9 ग्रह (वैदिक ज्योतिष में परिभाषित) भचक्र एक चक्र पूरा करते समय 12 राशियों से होकर गुजरते हैं और 12 x 9 = 108 = 1 ॐ

8. सभी 9 ग्रह भचक्र का एक चक्कर पूरा करते समय 27 नक्षत्रों को पार करते
हैं... और, प्रत्येक नक्षत्र के चार चरणहोते हैं और 27 x 4 = 108 = 1 ॐ

9. एक सौर दिन 200 ॐ विपल समय में पूरा होता है. (1 विपल = 2.5 सेकेण्ड)
1 सौर दिन (24 घंटे) = 1 अहोरात्र = 60 घटी = 3600 पल = 21600 विपल = 200 x 108 = 200 ॐ विपल
@@@@ उसी तरह ..... 108 का आध्यात्मिक अर्थ भी काफी गूढ़ है..... और,

1 ..... सूचित करता है ब्रह्म की अद्वितीयता/ ­एकत्व/पूर्णता को

0 ......... सूचित करता है वह शून्य की अवस्था को जो विश्व की अनुपस्थिति मेंउत्पन्न हुई होती

8 ......... सूचित करता है उस विश्व की अनंतता को जिसका अविर्भाव उस शून्य में ब्रह्म की अनंत अभिव्यक्तियों से हुआ है .
अतः ब्रह्म, शून्यता और अनंत विश्व के संयोग को ही 108 द्वारा सूचित किया गया है .

इस तरह हम कह सकते हैं कि.....जिस प्रकार ब्रह्म की शाब्दिक अभिव्यंजना
प्रणव ( अ + उ + म् ) है...... और, नादीय अभिव्यंजना ॐ की ध्वनि है.....
ठीक उसी उसी प्रकार ब्रह्म की""गाणितिक अभिव्यंजना 108 "" है।

जय क्षात्र सनातन धर्म की।

Wednesday, February 6, 2013

हिंदुत्व कभी क्रूर नहीं रहा


हिंदुत्व कभी क्रूर नहीं रहा

हिंदुत्व कभी कट्टरपंथी और क्रूर नहीं रहा है और इसका साक्षी हजारों साल पुराना इतिहास
है और वर्तमान समय भी।
यदि हिंदुत्व क्रूर या कट्टर होता तो विभिन्नं संस्कृतियाँ यहाँ ना तोपनप सकती थी और
ना पोषित हो सकती थी।हमारे वेद, जो प्राचीन ग्रन्थ हैं उनसे विश्व बंधुत्व का सन्देश निकला।
यह वेदों की सोच है जो यह मानती है कि सम्पूर्ण विश्व का कल्याण हो।
हिंदुत्व ने आज तक किसी देश को क्षति नहीं पहुंचाई ,विश्व के किसी भी देश को ना लूटा
और ना ही आक्रमण किया।रामायण काल में श्री राम ने लोक व्यवस्था को मजबूती दी,
आततायी चाहे भारत का रहा हो या भारत के बाहर का उसे खत्म किया।श्री राम ने बाली के
अधार्मिक शासन को खत्म किया और सुशासन की स्थापना के लिए उन्ही लोगो को शासन
की बागडोर सौंप दी जो उसके उत्तराधिकारी थे,उन्होंने उस शासन को अपने अधीन नहीं किया।
रावण के आतंक को खत्म किया ,वहां सुशासन की स्थापना की मगर उस देश को स्वतंत्र
रखा। क्या श्री राम जीते हुए देश पर अपना शासन नहीं रख सकते थे ? हिंदुत्व की सोच क्रूरता
की नहीं थी ,राम ने उस समय ना तो लंका को लूटा ना ही अपना प्रभुत्व जमाया।क्या इसे
इतिहास विश्व बंधुत्व के सन्देश से परे देखता है ?
स्वामी विवेकानंद ने कहा था -"गर्व से कहो हम हिन्दू हैं" क्यों कहा होगा उस वेद वेदान्त के
मर्मज्ञ ने ऐसा ?क्यों शिकागो सम्मलेन में हिन्दू धर्म को श्रेष्ठआँका गया ?क्या कट्टरवाद के
कारण ? नहीं ,हिंदुत्व के मानव धर्म के कारण ऐसा संभव हुआ था।
महात्मा गांधी ने कहा -मुझे अपने हिन्दू होने पर गर्व है। क्या गांधी को फासिस्ट मान लिया
जाए ,शायद नहीं ,क्योंकि गांधी के हिंदुत्व में भाईचारा झलकता था।
आरएसएस या विहिप जब यह उदघोष करती है कि हमें हिन्दुत्व पर गर्व है तो आज उन्हें
तथाकथित सभ्य लोग कट्टरपंथी कह देतेहैं,क्यों ?क्या अपने धर्म पर गर्व करना कट्टरपंथ
या अन्य धर्मों पर क्रूरता करना है?यह हिंदुत्व ही है जो इतना विशाल ह्रदय लेकर चलता है,
जिस तरह विभिन्न दिशाओं से बहने वाली नदियाँ समुद्र में आकर समा जाती है और एक रस
हो जाती है उसी तरह हिंदुत्व के कारण भारत में सभी धर्म पोषित हो रहे हैं।
हिंदुत्व को देश की स्वतंत्रता के बाद सबसे ज्यादा कट्टरपंथी मान्यता वाला शब्द माना गया
तो उसके पीछे दुसरे धर्मों के लोगों से ज्यादा हम खुद जिम्मेदार हैं,क्योंकि हमारे में निम्न कोटि
की सोच के लोग पनप गए हैं जो अपना घर जला कर खुद तमाशा दिखा रहे हैं।सत्ता का नशा
भी निम्न कोटि की सोच के लोगों को लग गया है ,दूसरों के सामने खुद को गाली और खुद को
तमाचा मार के भी लोग सत्ता पाना चाहते हैं ,और इसी दिवालियापन के कारण विश्व भ्रम में
पड़ गया है। आज एक हिन्दू दुसरे हिन्दू को सार्वजनिक रूप से साम्प्रदायिक कह देता है और
उसका समर्थन भी सत्ता लोभी दूसरा हिन्दू कर देता है।आज सत्ता को टिकाये रखने के लिए या
फिर से सत्ता पाने के लिए एक हिन्दू दुसरे हिन्दू को ही आतंकी बता देता है,तथाकथित सभ्य
हिन्दू भगवा में आतंक देखने की बात फैलाते हैं जब की वो जानते हैं कि वो सच नहीं झूठ कह
रहे हैं,फिर भी इसलिए कह रहे हैं ताकिसत्ता का सुख भोग सकें।सिर्फ सत्ता पाने के लिए हिंदुत्व
को संकीर्ण बताने वाले लोग ना तो खुद का भला कर पायेंगे और ना ही सभी धर्मों का।
एक हिन्दू खुद को सभी धर्मों को समान भाव से देखने वाला मानता है और दुसरे हिन्दू
को देख कर यह कहता है कि यह फासिस्ट है तो दुनियाँ किसे सही और किसे गलत मानेगी ?
क्या दुसरे मजहब के लोग फिर ये धारणा नहीं बना लेंगे कि हिंदुत्व कट्टरवाद का पोषक है।
राजनीती के कुछ सिद्धांत होते हैंमगर मजहबों में वैमनस्य फैलाना और सत्ता की
रोटी सेकना अधम नीति है।सभी धर्मों के लोगों को अपने धर्म पर गर्व होना चाहिए।किसी
धर्मावलम्बी को अपने धर्म पर गर्व तभी होता है जब उस धर्म में गर्व करनेयोग्य महान गुण
हो।
हमें अपने "हिंदुत्व पर गर्व है क्योंकि हमारा हिंदुत्व विश्व बंधुत्व की प्रेरणा देता है।"
हिंदुत्व कभी क्रूर नहीं रहा
हिंदुत्व कभी कट्टरपंथी और क्रूर नहीं रहा है और इसका साक्षी हजारों साल पुराना इतिहास
है और वर्तमान समय भी।
यदि हिंदुत्व क्रूर या कट्टर होता तो विभिन्नं संस्कृतियाँ यहाँ ना तोपनप सकती थी और
ना पोषित हो सकती थी।हमारे वेद, जो प्राचीन ग्रन्थ हैं उनसे विश्व बंधुत्व का सन्देश निकला।
यह वेदों की सोच है जो यह मानती है कि सम्पूर्ण विश्व का कल्याण हो।
हिंदुत्व ने आज तक किसी देश को क्षति नहीं पहुंचाई ,विश्व के किसी भी देश को ना लूटा
और ना ही आक्रमण किया।रामायण काल में श्री राम ने लोक व्यवस्था को मजबूती दी,
आततायी चाहे भारत का रहा हो या भारत के बाहर का उसे खत्म किया।श्री राम ने बाली के
अधार्मिक शासन को खत्म किया और सुशासन की स्थापना के लिए उन्ही लोगो को शासन
की बागडोर सौंप दी जो उसके उत्तराधिकारी थे,उन्होंने उस शासन को अपने अधीन नहीं किया।
रावण के आतंक को खत्म किया ,वहां सुशासन की स्थापना की मगर उस देश को स्वतंत्र
रखा। क्या श्री राम जीते हुए देश पर अपना शासन नहीं रख सकते थे ? हिंदुत्व की सोच क्रूरता
की नहीं थी ,राम ने उस समय ना तो लंका को लूटा ना ही अपना प्रभुत्व जमाया।क्या इसे
इतिहास विश्व बंधुत्व के सन्देश से परे देखता है ?
स्वामी विवेकानंद ने कहा था -"गर्व से कहो हम हिन्दू हैं" क्यों कहा होगा उस वेद वेदान्त के
मर्मज्ञ ने ऐसा ?क्यों शिकागो सम्मलेन में हिन्दू धर्म को श्रेष्ठआँका गया ?क्या कट्टरवाद के
कारण ? नहीं ,हिंदुत्व के मानव धर्म के कारण ऐसा संभव हुआ था।
महात्मा गांधी ने कहा -मुझे अपने हिन्दू होने पर गर्व है। क्या गांधी को फासिस्ट मान लिया
जाए ,शायद नहीं ,क्योंकि गांधी के हिंदुत्व में भाईचारा झलकता था।
आरएसएस या विहिप जब यह उदघोष करती है कि हमें हिन्दुत्व पर गर्व है तो आज उन्हें
तथाकथित सभ्य लोग कट्टरपंथी कह देतेहैं,क्यों ?क्या अपने धर्म पर गर्व करना कट्टरपंथ
या अन्य धर्मों पर क्रूरता करना है?यह हिंदुत्व ही है जो इतना विशाल ह्रदय लेकर चलता है,
जिस तरह विभिन्न दिशाओं से बहने वाली नदियाँ समुद्र में आकर समा जाती है और एक रस
हो जाती है उसी तरह हिंदुत्व के कारण भारत में सभी धर्म पोषित हो रहे हैं।
हिंदुत्व को देश की स्वतंत्रता के बाद सबसे ज्यादा कट्टरपंथी मान्यता वाला शब्द माना गया
तो उसके पीछे दुसरे धर्मों के लोगों से ज्यादा हम खुद जिम्मेदार हैं,क्योंकि हमारे में निम्न कोटि
की सोच के लोग पनप गए हैं जो अपना घर जला कर खुद तमाशा दिखा रहे हैं।सत्ता का नशा
भी निम्न कोटि की सोच के लोगों को लग गया है ,दूसरों के सामने खुद को गाली और खुद को
तमाचा मार के भी लोग सत्ता पाना चाहते हैं ,और इसी दिवालियापन के कारण विश्व भ्रम में
पड़ गया है। आज एक हिन्दू दुसरे हिन्दू को सार्वजनिक रूप से साम्प्रदायिक कह देता है और
उसका समर्थन भी सत्ता लोभी दूसरा हिन्दू कर देता है।आज सत्ता को टिकाये रखने के लिए या
फिर से सत्ता पाने के लिए एक हिन्दू दुसरे हिन्दू को ही आतंकी बता देता है,तथाकथित सभ्य
हिन्दू भगवा में आतंक देखने की बात फैलाते हैं जब की वो जानते हैं कि वो सच नहीं झूठ कह
रहे हैं,फिर भी इसलिए कह रहे हैं ताकिसत्ता का सुख भोग सकें।सिर्फ सत्ता पाने के लिए हिंदुत्व
को संकीर्ण बताने वाले लोग ना तो खुद का भला कर पायेंगे और ना ही सभी धर्मों का।
एक हिन्दू खुद को सभी धर्मों को समान भाव से देखने वाला मानता है और दुसरे हिन्दू
को देख कर यह कहता है कि यह फासिस्ट है तो दुनियाँ किसे सही और किसे गलत मानेगी ?
क्या दुसरे मजहब के लोग फिर ये धारणा नहीं बना लेंगे कि हिंदुत्व कट्टरवाद का पोषक है।
राजनीती के कुछ सिद्धांत होते हैंमगर मजहबों में वैमनस्य फैलाना और सत्ता की
रोटी सेकना अधम नीति है।सभी धर्मों के लोगों को अपने धर्म पर गर्व होना चाहिए।किसी
धर्मावलम्बी को अपने धर्म पर गर्व तभी होता है जब उस धर्म में गर्व करनेयोग्य महान गुण
हो।
हमें अपने "हिंदुत्व पर गर्व है क्योंकि हमारा हिंदुत्व विश्व बंधुत्व की प्रेरणा देता है।"

Monday, February 4, 2013

हम नमस्ते क्यों करते है ? हम बड़ों के पैर क्यों छूते है ?

हम नमस्ते क्यों करते है ? 

शास्त्रों में पाँच प्रकार के अभिवादन बतलाये गए है जिन में से एक है "नमस्कारम"।
नमस्कार को कई प्रकार से देखा और समझा जा सकता है। संस्कृत में इसे विच्छेद करे तो हम पाएंगे की नमस्ते दो शब्दों से बना है नमः + ते।
नमः का मतलब होता है मैं (मेरा अंहकार) झुक गया। नम का एक और अर्थ हो सकता है जो है न + में यानी की मेरा नही। आध्यात्म की दृष्टी से इसमें मनुष्य दुसरे मनुष्य के सामने अपने अंहकार को कम कर रहा है। नमस्ते करते समय में दोनों हाथो को जोड़ कर एक कर दिया जाता है जिसका अर्थ है की इस अभिवादन के बाद दोनों व्यक्ति के दिमाग मिल गए या एक दिशा में हो गये।

हम बड़ों के पैर क्यों छूते है ?

भारत में बड़े बुजुर्गो के पाँव छूकर आशीर्वाद प्राप्त किया जाता है। ये दरअसल बुजुर्ग, सम्मानित व्यक्ति के द्वारा किए हुए उपकार के प्रतिस्वरुप अपने समर्पण की अभिव्यक्ति होती है। अच्छे भावः से किया हुआ सम्मान के बदले बड़े लोग आशीर्वाद देते है जो एक सकारात्मक ऊर्जा होती है।

आदर के निम्न प्रकार है :
* प्रत्युथान : किसी के स्वागत में उठ कर खड़े होना
* नमस्कार : हाथ जोड़ कर सत्कार करना
* उपसंग्रहण : बड़े, बुजुर्ग, शिक्षक के पाँव छूना
* साष्टांग : पाँव, घुटने, पेट, सर और हाथ के बल जमीन पर पुरे लेट कर सम्मान करना
* प्रत्याभिवादन : अभिनन्दन का अभिनन्दन से जवाब देना

किसे किसके सामने किस विधि से सत्कार करना है ये शास्त्रों में विदित है। उदाहरण के तौर पर राजा केवल ऋषि मुनि या गुरु के सामने नतमस्तक होते थे।

Friday, February 1, 2013

ऐसे बनते हैं नागा साधु

ऐसे बनते हैं नागा  साधु
-------------

दुनिया के सबसे बड़े धार्मिक मेले-महाकुंभ के कई अलग-अलग रंगों में एक रंग हैं- नागा साधु जो हमेशा की तरह श्रद्धालुओं के कौतूहल का केंद्रबने हुए हैं।

इनका जीवन आम लोगों के लिए एक रहस्य की तरह होताहै। नागा साधु बनाने की प्रक्रिया महाकुंभ के दौरान ही होती है। नागा साधु बनने के लिए इतनी परीक्षाओं से गुजरना पड़ता है कि शायद बिनासंन्यास और दृढ़ निश्चय के कोई व्यक्ति इस पर पार ही नहीं पा सकता। सनातन परंपरा की रक्षा और उसे आगे बढ़ाने के उद्देश्य से विभिन्न संन्यासी अखाड़ों में हर महाकुंभ के दौरान नागा साधु बनाए जाते हैं। माया मोह त्यागकर वैराग्य धारण की इच्छा लिए विभिन्न अखाड़ों कीशरण में आने वाले व्यक्तियों को परम्परानुसार आजकल प्रयाग महाकुंभमें नागा साधु बनाया जा रहा है। अखाड़ों के मुताबिक इस बार प्रयागमहाकुंभ में पांच हजार से ज्यादा नागा साधु बनाए जाएंगे। आमतौर पर नागा साधु सभी संन्यासी अखाड़ों में बनाए जाते हैं लेकिन जूना अखाड़ा सबसे ज्यादा नागा साधु बनाता है। सभी तेरह अखाड़ों में जूना अखाड़ासबसे बड़ा अखाड़ा भी माना जाता है। जूना अखाड़े के महंत नारायणगिरि महाराज के मुताबिक नागाओं को सेना की तरह तैयार किया जाता है। नागा को आम दुनिया से अलग और विशेष बनना होता है। इस प्रक्रिया में काफी समय लगता है। जब भी कोई व्यक्ति साधु बनने के लिए किसी अखाड़े में जाता है तो उसे कभी सीधे-सीधे अखाड़े में शामिल नहीं किया जाता। अखाड़ा अपने स्तर पर ये तहकीकात करता है कि वह साधु क्यों बनना चाहता है। नागा बनने आए व्यक्ति की पूरी पृष्ठभूमि देखी जाती है। अगर अखाड़े को ये लगता है कि वह साधु बनने के लिए सही व्यक्ति है तो उसे अखाड़े में प्रवेश की अनुमति मिलती है। प्रवेश की अनुमति के बाद पहले तीन साल गुरुओं की सेवा करने के साथ धर्म कर्म और अखाड़ों के नियमों को समझना होता है। इसी अवधि में ब्रह्मचर्यकी परीक्षा ली जाती है। अगर अखाड़ा और उस व्यक्ति का गुरु यह निश्चित कर ले कि वह दीक्षा देने लायक हो चुका है तो फिर उसे अगली प्रक्रिया में ले जाया जाता है। उन्होंने कहा कि अगली प्रक्रिया कुंभ मेले के दौरान शुरू होती है। जब ब्रह्मचारी से उसे महापुरुष बनाया जाता है। इस दौरान उनका मुंडन कराने के साथ उसे 108 बार गंगा में डुबकी लगवाई जाती है। उसके पांच गुरु बनाए जाते हैं। भस्म, भगवा, रूद्राक्ष आदि चीजें दी जाती हैं। महापुरुष के बाद उसे अवधूत बनाया जाता है। अखाड़ों के आचार्य द्वारा अवधूत का जनेऊ संस्कार कराने के साथ संन्यासी जीवन की शपथ दिलाई जाती हैं। इस दौरान उसके परिवार के साथ उसका भी पिंडदान कराया जाता है। इसके पश्चात दंडी संस्कार कराया जाता है और रातभर उसे ओम नम: शिवाय का जाप करना होता है। जूना अखाड़े के एक और महंत नरेंद्र महाराज कहते हैं कि जाप के बाद भोर में अखाड़े के महामंडलेश्वर उससे विजया हवन कराते हैं। उसके पश्चात सभी को फिर से गंगा में 108 डुबकियां लगवाई जाती हैं। स्नानके बाद अखाड़े के ध्वज के नीचे उससे दंडी त्याग कराया जाता है। इस प्रक्रिया के बाद वह नागा साधु बन जाता है। 

चूंकि नागा साधु की प्रक्रिया प्रयाग (इलाहाबाद), हरिद्वार, नासिक और उज्जैन में कुम्भ के दौरान हीहोती है। प्रयाग के महाकुंभ में दीक्षा लेने वालों को नागा, उज्जैन मेंदीक्षा लेने वालों को खूनी नागा कहा जाता है। हरिद्वार में दीक्षा लेनेवालों को बर्फानी व नासिक वालों को खिचड़िया नागा के नाम से जाना जाता है। इन्हें अलग-अलग नाम से केवल इसलिए जाना जाता है,जिससे उनकी यह पहचान हो सके कि किसने कहां दीक्षा ली है।

संगम तट पर महिला नागा साधुओं की अलग ही है दुनिया
-----------------------------

इलाहाबाद। अब तक आपने नागा साधुओं के बारे में ही सुना होगा याफिर उन्हें कुंभ में देखा होगा लेकिन उत्तर प्रदेश में प्रयागनगरीइलाहाबाद में संगम तट पर लगे दुनिया के सबसे बड़े धार्मिक मेले मेंपहली बार महिला नागा साधुओं की उपस्थिति लोगों के कौतूहल काविषय बनी हुई है। ये महिला साधु पुरुष नागाओं की तरह नग्न रहने केबजाए अपने तन पर एक गेरूआ वस्त्र लपेटे रहती हैं।नागा साधुओं के अखाड़ों में महिला संन्यासियों को एक अलग पहचानऔर खास महत्व दिया गया है, जिससे इस बात का अहसास होता है किपुरुषों की बहुलता वाले इस धार्मिक आयोजन में अब महिलाओं को भीखासा महत्व दिए जाने की नई परंपरा शुरू हो रही है। इन महिलासंन्यासियों की अलग दुनिया है और उनकी अपनी नेता भी और साथ हीअपने संसाधन भी। उनके शिविर में शौचालयों की पर्याप्त व्यवस्था कीगयी है और शिविर के बाहर चौबिसों घंटे पुलिसकर्मियों की तैनाती रहतीहै।महिलाओं के अखाड़े की नेता दिब्या गिरी हैं और वह बड़ी ही साफगोई सेकहती हैं कि यह महिलाओं की एक अलग पहचान है। गिरी साल 2004 में विधिवत तौर पर साधु बनी थीं। उन्होंने नई दिल्ली के एक प्रतिष्ठितसंस्थान से मेडिकल टेक्निशियन की पढ़ाई पूरी की है। गिरी कहती हैं किउनका ईष्टदेव भगवान दत्तात्रेय की मां अनूसुइया हैं और उन्हीं को ईष्टमानकर आराधना की जाती हैं।ऐसा नहीं है कि महाकुंभ की इस नगरी में बसे महिलाओं के अखाड़े मेंसिर्फ देशी महिलाएं ही हैं। इसमें कुछ विदेशी महिलाएं भी महिला नागासाधुओं की संगति में शामिल हुई हैं। अखाड़े से जुड़ी एक महिलासंन्यासी बताती हैं कि नागा महिला संन्यासियों का अलग शिविर तोबनाया गया है लेकिन अभी भी काफी कुछ नियंत्रण पुरुषों के हाथ में हीहोता है। शिविर के छोटे से बड़े फैसले वहीं लेते हैं। इसको बदलने कीजरूरत है।जूना के संन्यासिन अखाड़े में अधिकांश महिला साधु नेपाल से आयी हैं।इसकी खास वजह के बारे में यह महिला साधु बताती हैं कि नेपाल मेंउंची जाति की महिलाओं को दोबारा शादी समाज स्वीकार नहीं करता हैऔर ऐसे में यह महिलाएं घर लौटने की बजाए साधु बन जाती हैं।यह महिला साधु शिविर के बारे में बताती हैं कि महिलाओं के नग्न रहनेपर सख्त मनाही है और खासतौर से शाही स्नान के दिन तो बिल्कुलनहीं और इसी के चलते ज्यादातर महिलाएं केवल एक गेरुआ कपड़ा हीलपेटे रहती हैं। वह कहती हैं कि महिला नागा साधुओं को नग्न रहने कीइजाजत कैसे दी जा सकती है। महिलाओं का नग्न रहना भारतीयसंस्कृति का खुला उल्लंघन होगा।


कल्पवास
-----

कल्पवास पौष पूर्णिमा से शुरू होकर माघ पूर्णिमा तक चलता है। यानी 25 फरवरी तक कल्पवासी संगम किनारे ही रहेंगे। कल्पवास के दौरान यहां एक महीना बिताने वाले भक्त दिन में तीन बार स्नान करते हैं, और एक ही बार भोजन करते हैं। कल्पवास में उन्हे काम, क्रोध, मोह, माया से दूर रहने का संकल्प लेना होता है। माना जाता है कि कल्पवास करने वाले शख्स को ब्रह्मा की तपस्या करने के बराबर फल मिलता है। श्रद्धालुओं में गंगा स्नान को लेकर खासा उत्साह रहता है। ज्यादातर श्रद्धालु एक महीने तक यहां कल्पवास नहीं कर सकते। ऐसे में अगले तीन दिन वो संगम किनारे रहकर पुण्य हासिल लेने की कोशिश करते हैं।