Tuesday, December 24, 2013

हनुमान जी ने धरा पंचमुखी रूप

जब हनुमान जी ने धरा पंचमुखी रूप और बचाया श्रीराम-लक्ष्मण को.....

श्रीराम-रावण युद्ध के मध्य एक समय ऐसा आया जब रावण को अपनी सहायता के लिए अपने भाई अहिरावण का स्मरण करना पड़ा। वह तंत्र-मंत्र का प्रकांड पंडित एवं मां भवानी का अनन्य भक्त था। अपने भाई रावण के संकट को दूर करने का उसने एक सहज उपाय निकाल लिया। यदि श्रीराम एवं लक्ष्मण का ही अपहरण कर लिया जाए तो युद्ध तो स्वत: ही समाप्त हो जाएगा। उसने ऐसी माया रची कि सारी सेना प्रगाढ़ निद्रा में निमग्न हो गयी और वह श्री राम और लक्ष्मण का अपहरण करके उन्हें निद्रावस्था में ही पाताल-लोक ले गया।

जागने पर जब इस संकट का भान हुआ और विभीषण ने यह रहस्य खोला कि ऐसा दु:साहस केवल अहिरावण ही कर सकता है तो सदा की भांति सबकी आंखें संकट मोचन हनुमानजी पर ही जा टिकीं। हनुमान जी तत्काल पाताल लोक पहुंचे। द्वार पर रक्षक के रूप में मकरध्वज से युद्ध कर और उसे हराकर जब वह पातालपुरी के महल में पहुंचे तो श्रीराम एवं लक्ष्मण जी को बंधक-अवस्था में पाया।

वहां भिन्न-भिन्न दिशाओं में पांच दीपक जल रहे थे और मां भवानी के सम्मुख श्रीराम एवं लक्ष्मण की बलि देने की पूरी तैयारी थी। अहिरावण का अंत करना है तो इन पांच दीपकों को एक साथ एक ही समय में बुझाना होगा। यह रहस्य ज्ञात होते ही हनुमान जी ने पंचमुखी हनुमान का रूप धारण किया। उत्तर दिशा में वराह मुख, दक्षिण दिशा में नरसिम्ह मुख, पश्चिम में गरुड़ मुख, आकाश की ओर हयग्रीव मुख एवं पूर्व दिशा में हनुमान मुख। इन पांच मुखों को धारण कर उन्होंने एक साथ सारे दीपकों को बुझाकर अहिरावण का अंत किया और श्रीराम-लक्ष्मण को मुक्त किया।

सागर पार करते समय एक मछली ने उनके स्वेद की एक बूंद ग्रहण कर लेने से गर्भ धारण कर मकरध्वज को जन्म दिया था अत: मकरध्वज हनुमान जी का पुत्र है, ऐसा जानकर श्रीराम ने मकरध्वज को पातालपुरी का राज्य सौंपने का हनुमान जी को आदेश दिया। हनुमान जी ने उनकी आज्ञा का पालन किया और वापस उन दोनों को लेकर सागर तट पर युद्धस्थल पर लौट आये

श्रीमद भागवत पुराण में सापेक्षता का सिद्धांत (Theory of Relativity)

श्रीमद भागवत पुराण में सापेक्षता का सिद्धांत (Theory of Relativity) आइंस्टीन से हजारों वर्ष पूर्व ही लिख दिया गया था

आइंस्टीन के सापेक्षता के सिद्धांत को तो हम सभी जानते है । आइंस्टीन ने अपने सिद्धांत में दिक् व काल की सापेक्षता प्रतिपादित की। उसने कहा, विभिन्न ग्रहों पर समय की अवधारणा भिन्न-भिन्न होती है। काल का सम्बन्ध ग्रहों की गति से रहता है। इस प्रकार अलग-अलग ग्रहों पर समय का माप भिन्न रहता है। समय छोटा-बड़ा रहता है।

उदाहरण के लिए यदि दो जुडुवां भाइयों मे से एक को पृथ्वी पर ही रखा जाये तथा दुसरे को किसी अन्य गृह पर भेज दिया जाये और कुछ वर्षों पश्चात लाया जाये तो दोनों भाइयों की आयु में अंतर होगा।

आयु का अंतर इस बात पर निर्भर करेगा कि बालक को जिस गृह पर भेजा गया उस गृह की सूर्य से दुरी तथा गति , पृथ्वी की सूर्य से दुरी तथा गति से कितनी अधिक अथवा कम है ।

एक और उदाहरण के अनुसार चलती रेलगाड़ी में रखी घडी उसी रेल में बैठे व्यक्ति के लिए सामान रूप से चलती है क्योकि दोनों रेल के साथ एक ही गति से गतिमान है परन्तु वही घडी रेल से बाहर खड़े व्यक्ति के लिए धीमे चल रही होगी । कुछ सेकंडों को अंतर होगा । यदि रेल की गति और बढाई जाये तो समय का अंतर बढेगा और यदि रेल को प्रकाश की गति (299792.458 किमी प्रति सेकंड) से दोड़ाया जाये (जोकि संभव नही) तो रेल से बाहर खड़े व्यक्ति के लिए घडी पूर्णतया रुक जाएगी ।

इसकी जानकारी के संकेत हमारे ग्रंथों में मिलते हैं।

श्रीमद भागवत पुराण में कथा आती है कि रैवतक राजा की पुत्री रेवती बहुत लम्बी थी, अत: उसके अनुकूल वर नहीं मिलता था। इसके समाधान हेतु राजा योग बल से अपनी पुत्री को लेकर ब्राहृलोक गये। वे जब वहां पहुंचे तब वहां गंधर्वगान चल रहा था। अत: वे कुछ क्षण रुके।

जब गान पूरा हुआ तो ब्रह्मा ने राजा को देखा और पूछा कैसे आना हुआ? राजा ने कहा मेरी पुत्री के लिए किसी वर को आपने पैदा किया है या नहीं?

ब्रह्मा जोर से हंसे और कहा,- जितनी देर तुमने यहां गान सुना, उतने समय में पृथ्वी पर 27 चर्तुयुगी {1 चर्तुयुगी = 4 युग (सत्य,द्वापर,त्रेता,कलि ) = 1 महायुग } बीत चुकी हैं और 28 वां द्वापर समाप्त होने वाला है। तुम वहां जाओ और कृष्ण के भाई बलराम से इसका विवाह कर देना।
अब पृथ्वी लोक पर तुम्हे तुम्हारे सगे सम्बन्धी, तुम्हारा राजपाट तथा वैसी भोगोलिक स्थतियां भी नही मिलेंगी जो तुम छोड़ कर आये हो |

साथ ही उन्होंने कहा कि यह अच्छा हुआ कि रेवती को तुम अपने साथ लेकर आये। इस कारण इसकी आयु नहीं बढ़ी। अन्यथा लौटने के पश्चात तुम इसे भी जीवित नही पाते |

अब यदि एक घड़ी भी देर कि तो सीधे कलयुग (द्वापर के पश्चात कलयुग ) में जा गिरोगे |

इससे यह भी स्पष्ट है की निश्चय ही ब्रह्मलोक कदाचित हमारी आकाशगंगा से भी कहीं अधिक दूर है

यह कथा पृथ्वी से ब्राहृलोक तक विशिष्ट गति से जाने पर समय के अंतर को बताती है। आधुनिक वैज्ञानिकों ने भी कहा कि यदि एक व्यक्ति प्रकाश की गति से कुछ कम गति से चलने वाले यान में बैठकर जाए तो उसके शरीर के अंदर परिवर्तन की प्रक्रिया प्राय: स्तब्ध हो जायेगी।

यदि एक दस वर्ष का व्यक्ति ऐसे यान में बैठकर देवयानी आकाशगंगा (Andromeida Galaz) की ओर जाकर वापस आये तो उसकी उमर में केवल 56 वर्ष बढ़ेंगे किन्तु उस अवधि में पृथ्वी पर 40 लाख वर्ष बीत गये होंगे।

काल के मापन की सूक्ष्मतम और महत्तम इकाई के वर्णन को पढ़कर दुनिया का प्रसिद्ध ब्राह्माण्ड विज्ञानी Carl Sagan अपनी पुस्तक Cosmos में लिखता है, -

"विश्व में एक मात्र हिन्दू धर्म ही ऐसा धर्म है, जो इस विश्वास को समर्पित है कि ब्राह्माण्ड सृजन और विनाश का चक्र सतत चल रहा है। तथा यही एक धर्म है जिसमें काल के सूक्ष्मतम नाप परमाणु से लेकर दीर्घतम माप ब्राह्म दिन और रात की गणना की गई, जो 8 अरब 64 करोड़ वर्ष तक बैठती है तथा जो आश्चर्यजनक रूप से हमारी आधुनिक गणनाओं से मेल खाती है।"


सांप-सीढ़ी का खेल भरत में 'मोक्ष पातं'




सांप-सीढ़ी का खेल भरत में 'मोक्ष पातं' के नाम से बच्चों को धर्म सिखाने के लिए खेलाया जाता था।
जहां सीढ़ी मोक्ष का रास्ता है और सांप पाप का रास्ता है।

इस खेल की अवधारणा 13वीं सदी में कवि संत 'ज्ञानदेव' ने दी थी।

मौलिक खेल में जिन खानों में सीढ़ी मिलती थी वो थे- 12वां खाना आस्था का था, 51वां खाना विश्वास का, 57वां खाना उदारता का, 76वां ज्ञान का और 78वां खाना वैराग्य का था। और जीन खानों में सांप मिलते थे वो इस प्रकार थे- 41 वां खाना अवमानना का, 44 वां खाना अहंकार का, 49 वां खाना अश्लीलता का, 52 वां खाना चोरी का, 58 वां खाना झूठ का, 62 वां खाना शराब पीने का, 69 वां खाना उधर लेने का, 73 वां खाना हत्या का , 84 वां खाना क्रोध का, 92 वां खाना लालच का, 95 वां खाना घमंड का ,99 वां खाना वासना का हुआ करता था। 100वें खाने में पहुचने पे मोक्ष मिल जाता था।

1892 में ये खेल अंग्रेज इंग्लैंड ले गए और सांप-सीढ़ी नाम से प्रचलित किया।

वैदिक वाङ्मय

तस्माद्यज्ञात् सर्वहुत ऋचः सामानि जज्ञिरे।
छन्दांसि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत।।
यजुर्वेद 31.7

परमात्मा ने सृष्टि की रचना की। उसके संविधान के लिए चार वेदों का प्रकाश किया। अग्नि ऋषि के हृदय में ऋग्वेद, वायु ऋषि के हृदय में यजुर्वेद, आदित्य ऋषि के हृदय में सामवेद और अङि्गरा ऋषि के हृदय में अथर्ववेद ज्ञान दिया। इन चारों ऋषियों से ब्रह्मा ने वेदों का ज्ञान प्राप्त किया। ब्रह्मा से इन्द्र ने और इन्द्र से भरद्वाज ने वेद विद्या ग्रहण की। भरद्वाज से वेद विद्या तपोमूर्ति ब्राह्मणों को मिली। ब्राह्मणों ने जग के कल्याण के लिए सामान्य लोगों में वेद विद्या का प्रचार किया।

वैदिक वाङ्मय को चार भागों में वर्गीकृत किया जाता है- संहिता, ब्राहमण, आरण्यक और उपनिषद्। तद्यथा- मन्त्रब्राह्मणयोर्वेदनामधेयम्। यहाँ पर ब्राह्मण से ब्राहमण सहित आरण्यक और उपनिषद् भी गृहित है।

आचार्य सायण ने वेद से अभिप्राय निकाला है-इष्टप्राप्त्यनिष्टपरिहारयोरलौकिकमुपायं यो ग्रन्थो वेदयति स वेदः।
अर्थात् इष्ट की प्राप्ति और अनिष्ट के परिहार का अलौकिक उपाय बताने वाला ग्रन्थ वेद है।

ऋषि दयानन्द के अनुसार-विदन्ति जानन्ति,विद्यन्ते भवन्ति, विन्दन्ति विन्दन्ते लभन्ते, विन्दते विचारयन्ति सर्वे मनुष्याः सर्वाः सत्यविद्या यैर्येषु वा तथा विद्वांसश्च भवन्ति ते वेदाः। तथ आदिसृष्टिमारभ्याद्यापर्यन्तं ब्रह्मादिभिः सर्वाः सत्यविद्याः श्रूयन्ते अनया सा श्रुतिः।
अर्थात् जिनके पढने से यथार्थ विद्या का विज्ञान होता है, जिनको पढ के विद्वान् होते है, जिनसे सब सुखों का लाभ होता है और जिनसे ठीक-2 सत्य-असत्य का विचार मनुष्यों को होता है, इससे ऋक् संहितादि का नाम वेद है।
वैसे ही सृष्टि के आरम्भ से आज पर्यन्त और ब्रह्मादि से लेकर हम लोग पर्यन्त जिससे सब सत्यविद्याओं को सुनते आते हैं इससे वेदों का श्रुति नाम पडा है।

ऐसा माना जाता है कि वेदों में सभी प्रकार का ज्ञान-विज्ञान है-सर्वज्ञानमयो हि सः- मनु।

जो वेद की निन्दा करता है उसे नास्तिक कहा जाता है- नास्तिको वेदनिन्दकः- मनुः।

वेदों का रचनाकालः--
मैक्समूलर ने ईसा से 800-600 वर्ष पूर्व माना है।
ऋषि दयानन्द ने वेदों की उत्पत्ति सृष्टि के आदि में माना है। तदनुसार 1,97,29,49,113 वर्ष हुए हैं।

ह्विटनी और केगी के अनुसार वेदों का समय 2000-1500 ई.पू. है।

लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के अनुसार 4000-2500 ई.पू. है।

प्रो. जैकोबी के अनुसार 4500-2500 ई.पू. है।

दीनानाथ शास्त्री के अनुसार आज से लगभग तीन लाख वर्ष पूर्व है।


<<<<<<<<<<<<<<<<<वैदिक-वाङ्मय>>>>>>>>>>>>>>>>>>


*******वेद******
ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद।

*****उपवेद******
आयुर्वेद, धनुर्वेद, गन्धर्ववेद और अर्थवेद।

******शाखाः*****

1. ऋग्वेदः---
ऋग्वेद की इक्कीस शाखाएँ हैं- एकविंशतिधा बाह्वृच्यम्। इनमें से उपलब्ध पाँच शाखाएँ---शाकल, बाष्कल, आश्वलायन, शांखायन और माण्डूकायन।

2. यजुर्वेदः---
यजुर्वेद की एक सौ एक शाखाएँ हैं-एकशतमध्वर्युशाखाः। इनमें छः शाखाएँ उपलब्ध हैं।
शुक्ल-.यजुर्वेदः---वाजसनेयी या माध्यन्दिनि और काण्व।
कृष्ण-यजुर्वेदः----तैत्तिरीय,मैत्रायणी, कठ और कपिष्ठल।

3. सामवेदः----
सामवेद की एक हजार शाखाएँ हैं-सहस्रवर्त्मा सामवेदः। कुछ प्रमुख शाखाएँ--- असुरायणीय, वासुरायणीय, वार्तान्तरेय, प्राञ्जल, राणायनीय, शाट्यायनीय, सात्यमुद्गल, खल्वल, महाखल्वल, लाङ्गल, कौथुम, गौतम और जैमिनीय। उपलब्ध शाखाएँ-- कौथुमीय, राणायनीय और जैमिनीय।

4. अथर्ववेदः---
अथर्ववेद की नौ शाखाएँ हैं-नवधाथर्वणो वेदः--- पैप्लाद, शौनक, मौद, स्तौद, जाजल, जलद, ब्रह्मवेद, देवदर्श और चारणवैद्य। उपलब्ध शाखाएँ-- पैप्लाद और शौनक।

********ब्राह्मण*********

1.ऋग्वेदः----
ऐतरेय और शाङ्खायन।

2.यजुर्वेदः-----
शुक्ल-यजुर्वेदः--शतपथ।
कृष्ण-यजुर्वेदः--तैत्तिरीय, मैत्रायणी, कठ और कपिष्ठल।

3.सामवेदः---
प्रौढ, षड्विंश, सामविधान, आर्षेय, देवताध्याय, उपनिष्द, संहितोपनिषद्, वंश और जैमिनीय।

4.अथर्ववेदः---
गोपथ।


*********आरण्यक********

1.ऋग्वेदः---
ऐतरेय और शाङ्खायन।

2.यजुर्वेदः----
शुक्ल-यजुर्वेदः--बृहदारण्यक।
कृष्ण-यजुर्वेदः--तैत्तिरीय और मैत्रायणी।

3.सामवेदः---
छान्दोग्य।

***********उपनिषद्**********

प्रमुख उपनिषद् ग्यारह हैं---ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, माण्डूक्य, ऐतरेय, तैत्तिरीय, छान्दोग्य, बृहदारण्यक और श्वेताश्वतर।

1.ऋग्वेदः----
ऐतरेय।

2.यजुर्वेदः----
शुक्ल-यजुर्वेदः--ईश और बृहदारण्यक।
कृष्ण-यजुर्वेदः--कठ, तैत्तिरीय और श्वेताश्वतर।

3.सामवेदः----
केन और छान्दोग्य।

4.अथर्ववेदः-----
प्रश्न, मुण्डक और माण्डूक्य।


**************वेदाङ्ग************

कुल वेदाङ्ग छः हैं--- शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष्।

1.शिक्षा----
पाणिनीया
ऋक्लक्षण
याज्ञवल्क्य
वाशिष्ठी
माण्डव्य
भरद्वाज
अवसान निर्णय
नारदीय
माण्डूकी
शौनकीया प्रातिशाख्या
अथर्ववेद प्रा.
पुष्यसूत्र प्रा.
वाजसनेयी प्रा.
तैत्तिरीय प्रा.
माध्यन्दिनि शिक्षा।


2.कल्पः----

कल्प चार हैं--- श्रौत-सूत्र, गृह्य-सूत्र, धर्म-सूत्र और शुल्ब-सूत्र।

(क)श्रौत-सूत्रः----
आशवलायन
कौषीतकि
कात्यायन
बोधायन
आपस्तम्ब
भारद्वाज
कठ
जैमिनीय
खादिर
द्राह्यायण
लाट्यायन
वाधूल
वैतान।

(ख)गृह्य-सूत्रः---
आश्वलायन
शाङ्खायन
शाम्बव्य
कात्यायन
कठ
आपस्तम्ब
बोधायन
वैखानस
भारद्वाज
वाधूल
जैमिनीय
गोभिल
गौतम
कौशिक।

(ग)धर्म-सूत्रः----
वशिष्ठ
हारीत
शङ्ख
विष्णु
आपस्तम्ब
बोधायन
हिरण्यकेशी
वैखानस
गौतम।

(घ)शुल्ब-सूत्रः-----
कात्यायन
मानव
बोधायन
आपस्तम्ब
मैत्रायणी
वाराह
वाधूल।


3.व्याकरणम्----

इन्द्र
चन्द्र
काशकृत्स्न
आपिशलि
पाणिनि
अमर
जैनेन्द्र।

4.निरुक्तम्----

आचार्य यास्क


5.छन्दः------

छन्दःसूत्रः--आचार्य पिङ्गल


6.ज्योतिष्------

आर्च ज्योतिष्
याजुष् ज्योतिष्।


******************उपाङ्ग********************

इन्हें शास्त्र और दर्शन भी कहा जाता है। ये कुल छः हैं---
1.न्याय--गोतम

2.वैशेषिक--कणाद

3.साङ्ख्य--कपिल

4.योग--पतञ्जलि

5.पूर्व-मीमांसा--जैमिनि

6.उत्तर-मीमांसा(ब्रह्मसूत्र)--व्यास।

Saturday, December 21, 2013

चिकित्सा में पंचगव्य क्यों महत्वपूर्ण है?

चिकित्सा में पंचगव्य क्यों महत्वपूर्ण है?
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गाय के दूध, घृत, दधी, गोमूत्र और गोबर के रस को मिलाकर पंचगव्य तैयार होता है। पंचगव्य के प्रत्येक घटक द्रव्य महत्वपूर्ण गुणों से संपन्न हैं। इनमें गाय के दूध के समान पौष्टिक और संतुलित आहार कोई नहीं है। इसे अमृत माना जाता है। यह विपाक में मधुर, शीतल, वातपित्त शामक, रक्तविकार नाशक और सेवन हेतु सर्वथा उपयुक्त है। गाय का दही भी समान रूप से जीवनीय गुणों से भरपूर है। गाय के दही से बना छाछ पचने में आसान और पित्त का नाश करने वाला होता है। गाय का घी विशेष रूप से नेत्रों के लिए उपयोगी और बुद्धि-बल दायक होता है। इसका सेवन कांतिवर्धक माना जाता है। गोमूत्र प्लीहा रोगों के निवारण में परम उपयोगी है। रासायनिक दृष्टि से देखने पर इसमें पोटेशियम, मैग्रेशियम, कैलशियम, यूरिया, अमोनिया, क्लोराइड, क्रियेटिनिन जल एवं फास्फेट आदि द्रव्य पाये जाते हैं। गोमूत्र कफ नाशक, शूल गुला, उदर रोग, नेत्र रोग, मूत्राशय के रोग, कष्ठ, कास, श्वास रोग नाशक, शोथ, यकृत रोगों में राम-बाण का काम करता है। चिकित्सा में इसका अन्त: बाह्य एवं वस्ति प्रयोग के रूप में उपयोग किया जाता है। यह अनेक पुराने एवं असाध्य रोगों में परम उपयोगी है। गोबर का उपयोग वैदिक काल से आज तक पवित्रीकरण हेतु भारतीय संस्कृति में किया जाता रहा है। यह दुर्गंधनाशक, पोषक, शोधक, बल वर्धक गुणों से युक्त है। विभिन्न वनस्पतियां, जो गाय चरती है उनके गुणों के प्रभावित गोमय पवित्र और रोग-शोक नाशक है। अपनी इन्हीं औषधीय गुणों की खान के कारण पंचगव्य चिकित्सा में उपयोगी साबित हो रहा है।

Friday, December 13, 2013

गौ- घृत से अद्भुत लाभ

गौ- घृत से अद्भुत लाभ-

हम अगर गोरस का बखान करते करते मर जाए तो भी कुछ अंग्रेजी सभ्यता वाले हमारी बात नहीं मानेगे क्योकि वे लोग तो हम लोगो को पिछड़ा, साम्प्रदायिक और गँवार जो समझते है|

उनके लिए तो वही सही है जो पश्चिम कहे तो हम उन्ही के वैज्ञानिक शिरोविच की गोरस पर खोज लाये हैं जो रुसी वैज्ञानिक है|

गाय का घी और चावल की आहुती डालने से महत्वपूर्ण गैसे जैसे – एथिलीन ऑक्साइड,प्रोपिलीन ऑक्साइड,फॉर्मल्डीहाइड आदि उत्पन्न होती हैं । इथिलीन ऑक्साइड गैस आजकल सबसे अधिक प्रयुक्त होनेवाली जीवाणुरोधक गैस है,जो शल्य-चिकित्सा (ऑपरेशन थियेटर) से लेकर जीवनरक्षक औषधियाँ बनाने तक में उपयोगी हैं । वैज्ञानिक प्रोपिलीन ऑक्साइड गैस को कृत्रिम वर्षो का आधार मानते है ।

आयुर्वेद विशेषज्ञो के अनुसार अनिद्रा का रोगी शाम को दोनों नथुनो में गाय के घी की दो – दो बूंद डाले और रात को नाभि और पैर के तलुओ में गौघृत लगाकर लेट जाय तो उसे प्रगाढ़ निद्रा आ जायेगी ।

गौघृत में मानव शरीर में पहुंचे रेडियोधर्मी विकिरणों का दुष्प्रभाव नष्ट करने की असीम क्षमता हैं । अग्नि में गाय का घी कि आहुति देने से उसका धुआँ जहाँ तक फैलता है,वहाँ तक का सारा वातावरण प्रदूषण और आण्विक विकरणों से मुक्त हो जाता हैं ।

सबसे आश्चर्यजनक बात तो यह है कि एक चम्मच गौघृत को अग्नि में डालने से एक टन प्राणवायु (ऑक्सीजन) बनती हैं जो अन्य किसी भी उपाय से संभव नहीं हैं |

देसी गाय के घी को रसायन कहा गया है। जो जवानी को कायम रखते हुए, बुढ़ापे को दूर रखता है। काली गाय का घी खाने से बूढ़ा व्यक्ति भी जवान जैसा हो जाता है।गाय के घी में स्वर्ण छार पाए जाते हैं जिसमे अदभुत औषधीय गुण होते है, जो की गाय के घी के इलावा अन्य घी में नहीं मिलते । गाय के घी से बेहतर कोई दूसरी चीज नहीं है।

गाय के घी में वैक्सीन एसिड, ब्यूट्रिक एसिड, बीटा-कैरोटीन जैसे माइक्रोन्यूट्रींस मौजूद होते हैं। जिस के सेवन करने से कैंसर जैसी गंभीर बीमारी से बचा जा सकता है। गाय के घी से उत्पन्न शरीर के माइक्रोन्यूट्रींस में कैंसर युक्त तत्वों से लड़ने की क्षमता होती है।

यदि आप गाय के 10 ग्राम घी से हवन अनुष्ठान (यज्ञ,) करते हैं तो इसके परिणाम स्वरूप वातावरण में लगभग 1 टन ताजा ऑक्सीजन का उत्पादन कर सकते हैं। यही कारण है कि मंदिरों में गाय के घी का दीपक जलाने कि तथा , धार्मिक समारोह में यज्ञ करने कि प्रथा प्रचलित है। इससे वातावरण में फैले परमाणु विकिरणों को हटाने की अदभुत क्षमता होती है।

गोघृत के अन्य महत्वपूर्ण उपयोग :–

1.गाय का घी नाक में डालने से पागलपन दूर होता है।
2.गाय का घी नाक में डालने से एलर्जी खत्म हो जाती है।
3.गाय का घी नाक में डालने से लकवा का रोग में भी उपचार होता है।
4--20-25 ग्राम घी व मिश्री खिलाने से शराब, भांग व गांझे का नशा कम हो जाता है।
5.गाय का घी नाक में डालने से कान का पर्दा बिना ओपरेशन के ही ठीक हो जाता है।
6.नाक में घी डालने से नाक की खुश्की दूर होती है और दिमाग तारो ताजा हो जाता है।
7.गाय का घी नाक में डालने से कोमा से बहार निकल कर चेतना वापस लोट आती है।
8.गाय का घी नाक में डालने से बाल झडना समाप्त होकर नए बाल भी आने लगते है।
9.गाय के घी को नाक में डालने से मानसिक शांति मिलती है, याददाश्त तेज होती है।
10.हाथ पाव मे जलन होने पर गाय के घी को तलवो में मालिश करें जलन ढीक होता है।
11.हिचकी के न रुकने पर खाली गाय का आधा चम्मच घी खाए, हिचकी स्वयं रुक जाएगी।
12.गाय के घी का नियमित सेवन करने से एसिडिटी व कब्ज की शिकायत कम हो जाती है।
13.गाय के घी से बल और वीर्य बढ़ता है और शारीरिक व मानसिक ताकत में भी इजाफा होता है
14.गाय के पुराने घी से बच्चों को छाती और पीठ पर मालिश करने से कफ की शिकायत दूर हो जाती है।
15.अगर अधिक कमजोरी लगे, तो एक गिलास दूध में एक चम्मच गाय का घी और मिश्री डालकर पी लें।
16.हथेली और पांव के तलवो में जलन होने पर गाय के घी की मालिश करने से जलन में आराम आयेगा।
17.गाय का घी न सिर्फ कैंसर को पैदा होने से रोकता है और इस बीमारी के फैलने को भी आश्चर्यजनक ढंग से रोकता है।
18.जिस व्यक्ति को हार्ट अटैक की तकलीफ है और चिकनाइ खाने की मनाही है तो गाय का घी खाएं, हर्दय मज़बूत होता है।
19.देसी गाय के घी में कैंसर से लड़ने की अचूक क्षमता होती है। इसके सेवन से स्तन तथा आंत के खतरनाक कैंसर से बचा जा सकता है।
20.संभोग के बाद कमजोरी आने पर एक गिलास गर्म दूध में एक चम्मच देसी गाय का घी मिलाकर पी लें। इससे थकान बिल्कुल कम हो जाएगी।
21.फफोलो पर गाय का देसी घी लगाने से आराम मिलता है।गाय के घी की झाती पर मालिस करने से बच्चो के बलगम को बहार निकालने मे सहायक होता है।
22.सांप के काटने पर 100 -150 ग्राम घी पिलायें उपर से जितना गुनगुना पानी पिला सके पिलायें जिससे उलटी और दस्त तो लगेंगे ही लेकिन सांप का विष कम हो जायेगा।
23.दो बूंद देसी गाय का घी नाक में सुबह शाम डालने से माइग्रेन दर्द ढीक होता है। सिर दर्द होने पर शरीर में गर्मी लगती हो, तो गाय के घी की पैरों के तलवे पर मालिश करे, सर दर्द ठीक हो जायेगा।
24.यह स्मरण रहे कि गाय के घी के सेवन से कॉलेस्ट्रॉल नहीं बढ़ता है। वजन भी नही बढ़ता, बल्कि वजन को संतुलित करता है । यानी के कमजोर व्यक्ति का वजन बढ़ता है, मोटे व्यक्ति का मोटापा (वजन) कम होता है।
25.एक चम्मच गाय का शुद्ध घी में एक चम्मच बूरा और 1/4 चम्मच पिसी काली मिर्च इन तीनों को मिलाकर सुबह खाली पेट और रात को सोते समय चाट कर ऊपर से गर्म मीठा दूध पीने से आँखों की ज्योति बढ़ती है।
26.गाय के घी को ठन्डे जल में फेंट ले और फिर घी को पानी से अलग कर ले यह प्रक्रिया लगभग सौ बार करे और इसमें थोड़ा सा कपूर डालकर मिला दें। इस विधि द्वारा प्राप्त घी एक असर कारक औषधि में परिवर्तित हो जाता है जिसे जिसे त्वचा सम्बन्धी हर चर्म रोगों में चमत्कारिक मलहम कि तरह से इस्तेमाल कर सकते है। यह सौराइशिस के लिए भी कारगर है।

27.गाय का घी एक अच्छा(LDL)कोलेस्ट्रॉल है। उच्च कोलेस्ट्रॉल के रोगियों को गाय का घी ही खाना चाहिए। यह एक बहुत अच्छा टॉनिक भी है। अगर आप गाय के घी की कुछ बूँदें दिन में तीन बार,नाक में प्रयोग करेंगे तो यह त्रिदोष (वात पित्त और कफ) को संतुलित करता है।

28.घी, छिलका सहित पिसा हुआ काला चना और पिसी शक्कर (बूरा) तीनों को समान मात्रा में मिलाकर लड्डू बाँध लें। प्रातः खाली पेट एक लड्डू खूब चबा-चबाकर खाते हुए एक गिलास मीठा कुनकुना दूध घूँट-घूँट करके पीने से स्त्रियों के प्रदर रोग में आराम होता है, पुरुषों का शरीर मोटा ताजा यानी सुडौल और बलवान बनता है ।

इन्ही विशेषताओं का अनुभव करके हमारे ऋषियों ने समवेत स्वर में उद्घोष किया --" गावो विश्वस्य मातरः "-गायें सबकी मातायें हैं । 

Thursday, December 12, 2013

यज्ञोपवीत कितना वैज्ञानिक

यज्ञोपवीत कितना वैज्ञानिक
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हिंदू धर्म के सोलह संस्कारों में से एक है यज्ञोपवीत। यज्ञ और उपवीत शब्दों से मिलकर बना है-यज्ञोपवीत। यज्धातु से यज्ञ बना है। शास्त्रों में जहां यज्धातु को देवताओं की पूजा, दान आदि से संबंधित बताया गया है, वहीं उपवीत का अर्थ समीप या नजदीक होना होता है। इस प्रकार यज्ञोपवीत का अर्थ हुआ-यज्ञ के समीप यानी ऐसी वस्तु, जिसे धारण करने पर हम देवताओं के समीप हो जाते हैं।कर्तव्य के आधार पर चुनाव :शास्त्रों के अनुसार, छह प्रकार के यज्ञोपवीत ऐसे हैं, जिन्हें धारण किया जा सकता है-कपास से तैयार. रेशम-धागा . सन से बना हुआ . स्वर्ण के धागों से मढा हुआ . चांदी के तार से पिरोया गया . कुश और घास से तैयार यज्ञोपवीत।कर्तव्य के आधार पर माता-पिता इनका चुनाव करते हैं। जो माता-पिता अपनी संतान को पठन-पाठन [ब्राह्मण] से जोडना चाहते हैं, उनके लिए शास्त्रों में सूत और रेशम का यज्ञोपवीत धारण करने का विधान है। यदि व्यक्ति देश-समाज के रक्षा कार्यो [क्षत्रिय] से जुडा हो, तो उसे सोने से तैयार जनेऊ धारण करना चाहिए।व्यापार [वैश्य] करने वालों के लिए चांदी या सूत से तैयार उपनयनका विधान है। रंगों का महत्व :अब प्रश्न उठता है कि हम किस रंग का जनेऊ धारण करें? पढने-पढाने वालों को सफेद रंग का, रक्षा संबंधी कार्यो से जुडे व्यक्ति को लाल रंग का और व्यापार से जुडे लोगों के लिए चांदी की जनेऊ धारण करने का प्रावधान है।वैज्ञानिक आधार :यज्ञोपवीत धारण करने के वैज्ञानिक आधार भी हैं। आयुर्वेद के अनुसार, यज्ञोपवीत धारण करने से इंसान की उम्र लंबी, बुद्धि तेज, और मन स्थिर होता है। जनेऊ धारण करने से व्यक्ति बलवान, यशस्वी, वीर और पराक्रमी होता है। आयुर्वेद में यह भी कहा गया है कि यज्ञोपवीत धारण करने से न तो हृदयरोग होता है और न ही गले और मुख का रोग सताता है। मान्यता है कि सन से तैयार यज्ञोपवीत पित्त रोगों से बचाव करने में सक्षम है। जो व्यक्ति स्वर्ण के तारों से तैयार यज्ञोपवीत धारण करते हैं, उन्हें आंखों की बीमारियों से छुटकारा मिल जाता है। इससे बुद्धि और स्मरण शक्ति बढ जाती है और बुढापा भी देर से आता है। रेशम का जनेऊ पहनने से वाणी पर नियंत्रण रहता है। मान्यता है कि चांदी के तार से तैयार यज्ञोपवीत धारण करने से शरीर पुष्ट होता है। आयु में भी वृद्धि होती है। ध्यान रखें कि जनेऊ शरीर पर बायें कंधे से हृदय को छूता हुआ कमर तक होना चाहिए ।.यज्ञोपवीत धारण करने से आयु वृद्धि, उत्तम विचार और धर्म मार्ग पर चलने वाली श्रेष्ठ संतान प्राप्त होती है। यही नहीं यज्ञोपवीत बल और तेज दोनों ही प्रदान करती है।इंसान का जन्म तो अपनी माता की कोख से होता है, लेकिन उसके प्राकृत जीवन को अधिक शुद्ध, संवेदनशील और विश्व कल्याण में लगाने के लिएजिस संस्कार की सबसे ज्यादा जरूरत है, वह है यज्ञोपवीत संस्कार। वेदों में यज्ञोपवीत शब्द "यज्ञ" और "उपवीत" इन दो पदों से मिलकर बना है। इसका अर्थ है "यज्ञ द्वारा पवित्र किया गया सूत्र"। यज्ञोपवीत संस्कार को व्रतबंध, उपनयन और लोकभाषा में "जनेऊ" भी कहा जाता है। शास्त्रों में यज्ञोपवीत संस्कार को द्विज मात्र का पुनर्जन्म ही माना गया है, जिसके कारण वह "द्विज" कहलाता है। इसी कारण ब्रह्मपुराण में कहा गया है कि जन्म से व्यक्ति की ब्राह्मण आदि कई जातियां होती हंै लेकिन यज्ञोपवीत संस्कार के बाद ही वह द्विज कहलाने लगता है।यज्ञोपवीत है जरूरीब्रह्मोपनिषद् में यज्ञोपवीत को श्रेष्ठ औरपरम पवित्र कहा गया है। यह सृष्टि के आरंभ में भगवान प्रजापति के साथ उत्पन्न हुई थी। यज्ञोपवीत धारण करने से आयु वृद्धि, उत्तम विचार और धर्म मार्ग पर चलने वाली श्रेष्ठ संतान प्राप्त होती है। यज्ञोपवीत बल और तेजदोनों ही प्रदान करती है। शंखस्मृति में यज्ञोपवीत पहनने की आयु का निर्घारण भी कियागया है, "गर्भाष्टमेùब्द­े कर्तव्यं ब्राह्मणस्योपना­यपम्" यानी आठवें वर्ष में ब्राह्मण, क्षत्रिय का दसवें और वैश्य का बारहवें वर्ष में उपनयन संस्कार कर ही देना चाहिए। कहीं-कहीं शास्त्रों में ब्राह्मण के लिए सोलह, क्षत्रिय के लिए बीस और वैश्य केलिए चौबीस वर्ष की आयु तक भी यज्ञोपवीत करने का विधान प्राप्त होता है। इस आयु तक यज्ञोपवीत संस्कार न करने पर वह व्यक्ति व्रात्य दोष के कारण सब धर्म-कर्म से रहित औरयहां तक पतित हो जाता है कि उसके द्वारा कियागया धार्मिक कृत्य सफल हो ही नहीं पाता।संपूर्ण फल के लिए यज्ञोपवीतयज्ञोपवीत सारे वैदिक और पौराणिक कृत्यों में अत्यंत आवश्यक है। कई लोग कहते हैं कि उन्हें पूजा-अनुष्ठान का पूरा फल प्राप्त नहीं हो रहा है, इसका प्रमुख कारण यही है कि वे लोग बिना यज्ञोपवीत धारण किए ही सारे जप-अनुष्ठान संपन्न कर लेते हैं। यज्ञोपवीत स्वयं की शोभा के लिए या खंूटी पर टांग देने के लिए नहीं होती, बल्कि यह तो शास्त्रों का परमादेश है। एक बार यज्ञोपवीत संस्कार हो जाने के बाद जो व्यक्ति अज्ञानतावश यज्ञोपवीत नहीं पहनता, वह महापाप का भागी होता है। सूर्योपासना और माता गायत्री की उपासना में तो यज्ञोपवीत जरूरी ही है। पितृ-तर्पण और श्राद्ध, तीर्थ पूजन आदि में यज्ञोपवीत न हो तो सारा कर्म ही निष्फल हो जाता है।धर्म की निशानी है यज्ञोपवीतवाल्मीकि रामायण में स्पष्ट उल्लेख है कि मर्यादा पुरूषोतम भगवान श्रीराम स्वयं धर्मके प्रतीक के रूप में यज्ञोपवीत धारण करते हैं। श्रीराम को माता-पिता और गुरू वशिष्ठ यज्ञोपवीत धारण करवाते हैं। श्रीकृष्ण का यज्ञोपवीत संस्कार महर्षि संदीपनी के आश्रममें संपन्न होता है। इसी कारण हम जब भी किसी शुभ कार्य में देवपूजन करते हैं, तो देवताओं को यज्ञोपवीत अनिवार्य रूप से चढ़ाते ही हैं। अब हम देवताओं को तो जनेऊ चढ़ाएं और स्वयं पहने ही नहीं तो भला कैसे हमें पूजन कासंपूर्ण फल प्राप्त हो सकता है? लिहाजा यह जरूरी है कि जोव्यक्ति किसी भी तरह का धर्म-अनुष्ठान करना चाहता है, उसे सबसे पहले धर्म के क्षेत्र में प्रवेश करने के लिए यज्ञोपवीत जरूर ही धारण करनी चाहिए।

Friday, November 22, 2013

श्राद्ध -तर्पण विषयक शंका -समाधान

श्राद्ध -तर्पण विषयक शंका -समाधान ------------>

प्रश्न – मेरे मन में सदा ये संशय रहता है की मनुष्यों द्वारा पितरों का जो तर्पण किया जाता है, उसमें जल तो जल में ही चला जाता है; फिर हमारे पूर्वज उस से तृप्त कैसे होते हैं ? इसी प्रकार पिंड आदि का सब दान भी यहीं देखा जाता है | अतः हम यह कैसे कह सकते हैं की यह पितर आदि के उपभोग में आता है ? 
”उत्तर- पितरों और देवताओं की योनि ही ऐसी होती है की वे दूर की कही हुई बातें सुन लेते हैं, दूर की पूजा भी ग्रहण कर लेते हैं और दूर की स्तुति से भी संतुष्ट होते हैं | इसके सिवा ये भूत, भविष्य और वर्तमान सब कुछ जानते और सर्वत्र पहुचते हैं | पांच तन्मात्राएँ, मन, बुद्धि, अहंकार और प्रकृति – इन नौ तत्वों का बना हुआ उनका शरीर होता है | इसके भीतर दसवें तत्व के रूप में साक्षात् भगवान् पुरुषोत्तम निवास करते हैं | इसलिए देवता और पितर गंध तथा रस तत्व से तृप्त होते हैं | शब्द तत्व से रहते हैं तथा स्पर्श तत्व को ग्रहण करते हैं और किसी को पवित्र देख कर उनके मन में बड़ा संतोष होता है | जैसे पशुओं का भोजन तृण और मनुष्यों का भोजन अन्न कहलाता है, वैसे ही देवयोनियों का भोजन अन्न का सार तत्व है | सम्पूर्ण देवताओं की शक्तियां अचिन्त्य एवं ज्ञानगम्य हैं | अतः वे अन्न और जल का सार तत्व ही ग्रहण करते हैं, शेष जो स्थूल वस्तु है, वह यहीं स्थित देखी जाती है |

प्रश्न – श्राद्ध का अन्न तो पितरों को दिया जाता है, परन्तु वे अपने कर्म के अधीन होते हैं | यदि वे स्वर्ग अथवा नर्क में हों, तो श्राद्ध का उपभोग कैसे कर सकते हैं ? और वैसी दशा में वरदान देने में भी कैसे समर्थ हो सकते हैं ? 
उत्तर- यह सत्य है की पितर अपने अपने कर्मों के अधीन होते हैं, परन्तु देवता, असुर और यक्ष आदि के तीन अमूर्त तथा चार वर्णों के चार मूर्त – ये सात प्रकार के पितर माने गए हैं | ये नित्य पितर हैं, ये कर्मों के अधीन नहीं, ये सबको सब कुछ देने में समर्थ हैं | वे सातों पितर भी सब वरदान आदि देते हैं | उनके अधीन अत्यंत प्रबल इकतीस गण होते हैं | इस लोक में किया हुआ श्राद्ध उन्ही मानव पितरों को तृप्त करता है | वे तृप्त होकर श्राद्धकर्ता के पूर्वजों को जहाँ कहीं भी उनकी स्थिति हो, जाकर तृप्त करते हैं | इस प्रकार अपने पितरों के पास श्राद्ध में दी हुई वस्तु पहुचती है और वे श्राद्ध ग्रहण करने वाले नित्य पितर ही श्राद्ध कर्ताओं को श्रेष्ठ वरदान देते हैं |

प्रश्न – जैसे भूत आदि को उन्हीं के नाम से ‘इदं भूतादिभ्यः” कह कर कोई वस्तु दी जाती है, उसी प्रकार देवता आदि को संक्षेप में क्यों नहीं दिया जाता है ? मंत्र आदि के प्रयोग द्वारा विस्तार क्यों किया जाता है ?

उत्तर- सदा सबके लिए उचित प्रतिष्ठा करनी चाहिए | उचित प्रतिष्ठा के बिना दी हुई कोई वास्तु देवता आदि ग्रहण नहीं करते | घर के दरवाजे पर बैठा हुआ कुत्ता, जिस प्रकार ग्रास (फेंका हुआ टुकड़ा) ग्रहण करता है, क्या कोई श्रेष्ठ पुरुष भी उसी प्रकार ग्रहण करता है ? इसी प्रकार भूत आदि की भाँती देवता कभी अपना भाग ग्रहण नहीं करते | वे पवित्र भोगों का सेवन करने वाले तथा निर्मल हैं | अतः अश्रद्धालु पुरुष के द्वारा बिना मन्त्र के दिया हुआ जो कोई भी हव्य भाग होता है, उसे वे स्वीकार नहीं करते | यहाँ मन्त्रों के विषय में श्रुति भी इस प्रकार कहती है -” सब मन्त्र ही देवता हैं, विद्वान पुरुष जो जो कार्य मन्त्र के साथ करता है, उसे वह देवताओं के द्वारा ही संपन्न करता है | मंत्रोच्चारणपूर्वक जो कुछ देता है, वह देवताओं द्वारा ही देता है | मन्त्रपूर्वक जो कुछ ग्रहण करता है, वह देवताओं द्वारा ही ग्रहण करता है | इसलिए मंत्रोच्चारण किये बिना मिला हुआ प्रतिग्रह न स्वीकार करे | बिना मन्त्र के जो कुछ किया जाता है , वह प्रतिष्ठित नहीं होता | “इस कारण पौराणिक और वैदिक मन्त्रों द्वारा ही सदा दान करना चाहिए |

प्रश्न – कुश, तिल, अक्षत और जल – इन सब को हाथ में लेकर क्यों दान दिया जाता है? मैं इस कारण को जानना चाहता हूँ |

उत्तर- प्राचीन काल में मनुष्यों ने बहुत से दान किये, और उन सबको असुरों ने बलपूर्वक भीतर प्रवेश करके ग्रहण कर लिया | तब देवताओं और पितरों ने ब्रह्मा जी से कहा – स्वामिन ! हमारे देखते देखते दैत्यलोग सब दान ग्रहण कर लेते हैं | अतः आप उनसे हमारी रक्षा करें, नहीं तो हम नष्ट हो जायेंगे | ” तब ब्रह्मा जी ने सोच विचार कर दान की रक्षा के लिए एक उपाय निकल | पितरों को तिल के रूप में दान दिया जाए, देवताओं को अक्षत के साथ दिया जाए तथा जल और कुश का सम्बन्ध सर्वत्र रहे | ऐसा करने पर दैत्य उस दान को ग्रहण नहीं कर सकते | इन सबके बिना जो दान किया जाता है, उस पर दैत्य लोग बलपूर्वक अधिकार कर लेते हैं और देवता तथा पितर दुखपूर्वक उच्ह्वास लेते हुए लौट जाते हैं | वैसे दान से दाता को कोई फल नहीं मिलता | इसलिए सभी युगों में इसी प्रकार (तिल, अक्षत, कुश और जल के साथ) दान दिया जाता है |

Monday, November 18, 2013

अर्जुन का घमंड

अर्जुन का घमंड

एक दिन श्रीकृष्ण अर्जुन को अपने साथ घुमाने ले गए। रास्ते में उनकी भेंट एक निर्धन ब्राह्मण से हुई। उसका व्यवहार थोड़ा विचित्र था। वह सूखी घास खा रहा था और उसकी कमर से तलवार लटक रही थी।

अर्जुन ने उससे पूछा - आप तो अहिंसा के पुजारी हैं। जीव हिंसा के भय से सूखी घास खाकर अपना गुजारा करते हैं। लेकिन फिर हिंसा का यह उपकरण तलवार क्यों आपके साथ है?

ब्राह्मण ने जवाब दिया - मैं कुछ लोगों को दंडित करना चाहता हूं। आपके शत्रु कौन हैं? अर्जुन ने जिज्ञासा जाहिर की।

ब्राह्मण ने कहा - मैं चार लोगों को खोज रहा हूं, ताकि उनसे अपना हिसाब चुकता कर सकूं। सबसे पहले तो मुझे नारद की तलाश है। नारद मेरे प्रभु को आराम नहीं करने देते, सदा भजन-कीर्तन कर उन्हें जागृत रखते हैं। फिर मैं द्रौपदी पर भी बहुत क्रोधित हूं। उसने मेरे प्रभु को ठीक उसी समय पुकारा, जब वह भोजन करने बैठे थे। उन्हें तत्काल खाना छोड़ पांडवों को दुर्वासा ऋषि के शाप से बचाने जाना पड़ा। उसकी धृष्टता तो देखिए। उसने मेरे भगवान को जूठा खाना खिलाया।

आपका तीसरा शत्रु कौन है? - अर्जुन ने पूछा। वह है हृदयहीन प्रह्लाद। उस निर्दयी ने मेरे प्रभु को गरम तेल के कड़ाह में प्रविष्ट कराया, हाथी के पैरों तले कुचलवाया और अंत में खंभे से प्रकट होने के लिए विवश किया। और चौथा शत्रु है अर्जुन। उसकी दुष्टता देखिए। उसने मेरे भगवान को अपना सारथी बना डाला। उसे भगवान की असुविधा का तनिक भी ध्यान नहीं रहा। कितना कष्ट हुआ होगा मेरे प्रभु को। - यह कहते ही ब्राह्मण की आंखों में आंसू आ गए।

यह देख अर्जुन का घमंड चूर-चूर हो गया। उसने श्रीकृष्ण से क्षमा मांगते हुए कहा - मान गया प्रभु, इस संसार में न जाने आपके कितने तरह के भक्त हैं। मैं तो कुछ भी नहीं हूं।

Friday, November 8, 2013

भारतीय गाय इस धरती पर सभी गायो मे सर्वश्रेष्ठ क्यूँ है ?

भारतीय गाय इस धरती पर सभी गायो मे सर्वश्रेष्ठ क्यूँ है ?

यह जानकार आपको शायद झटका लगेगा की हमने अपनी देशी गायों को गली-गली आवारा घूमने के लिए छोड़ दिया है । क्यूंकी वे दूध कम देती हैं । इसलिए उनका आर्थिक मोल कम है , लेकिन ब्राज़ील हमारी इन देशी गायो की नस्ल का सबसे बड़ा निर्यातक बन गया है । जबकि भारत अमेरिका और यूरोप से घरेलू दुग्ध उत्पादन बढ़ाने के लिए विदेशी प्रजाती की गायों का आयात करता है । वास्तव मे 3 महत्वपूर्ण भारतीय प्रजाती गिर, कंकरेज , व ओंगल की गाय जर्सी गाय से भी अधिक दूध देती हैं ।

यंहा तक की भारतीय प्रजाती की गाये होलेस्टेन फ्राइजीयन जैसी विदेशी प्रजाती की गाय से
भी ज्यादा दूध देती है । और भारत विदेशी प्रजाती की गाय का आयात करता है जिनकी रोगो से लड़ने की क्षमता ( वर्ण संकर जाती के कारण ) भी बहुत कम होती है ।
हाल ही मे ब्राज़ील मे दुग्ध उत्पादन की प्रतियोगिता हुई थी जिसमे भारतीय प्रजाती की गिर ने गाय एक दिन मे 48 लीटर दूध दिया । तीन दिन तक चली इस प्रतियोगिता मे
दूसरा स्थान भी भारतीय प्राजाती की गाय गिर को ही प्राप्त हुआ । इस गाय ने एक दिन मे 45 लीटर दूध दिया । तीसरा स्थान भी आंध्रप्रदेश के ओंगल नस्ल की गाय ( जिसे ब्राज़ील मे नेरोल कहा जाता है ) को मिला उसने भी एक दिन मे 45 लीटर दूध दिया ।
केवल ज्यादा दुग्ध उत्पादन की ही बात क्यूँ करे ? भारतीय नस्ल की गाय स्थानीय महोल मे अच्छी तरह ढली हुई हैं वे भीषण गर्मी भी सह सकती हैं । उन्हे कम पानी चाहिए , वे दूर तक चल सकती हैं । वे अनेक संक्रामक रोगो का मुक़ाबला कर सकती हैं । अगर उन्हे
सही खुराक और सही परिवेश मिले तो वे उच्च उत्पादक भी बन सकती हैं । हमारी देशी गयो मे ओमेगा -6 फेटी एसीड्स होता है जो केंसर नियंत्रण मे सहायक होता है ।

विडम्बना देखिए ओमेगा -6 के लिए एक बड़ा उद्योग विकसित हो गया है जो इसे केपसूल की शक्ल मे बेच रहा है । , जबकि यह तत्व हमारी गायो के दूध मे स्वाभाविक ( हमारे पूर्वज ऋषियों द्वारा विकसित कहना ज्यादा सही होगा ) रूप से विद्यमान है । आयातित गायो मे इस तत्व का नामोनिशान भी नही होता ।

न्यूजीलेंड के वेज्ञानिकों ने पाया है की पश्चिमी नस्ल की गायो के दूध मे ' बेटा केसो मार्फीन ' नामक मिश्रण होता है । जिसकी वजह से अल्जाइमर ( स्मृती लोप ) और पार्किसन जैसे रोग होते हैं ।

इतना ही नही भारतीय नस्ल की गायो का गोबर भी आयातित गयो की तुलना मे श्रेष्ठ है । जो एसा पंचागभ्य तैयार करने के अनुकूल है जो रासायनिक खादों से भी बेहतर विकल्प है ।
पिछली सदी के अंत मे ब्राज़ील ने भारतीय पशुधन का आयात किया था । ब्राज़ील गई गायो मे गुजरात की गिर और कंकरेज नस्ल तथा आन्ध्रप्रदेश की ओंगल नस्ल की गाय शामिल थी । इन गायों को मांस के लिए ब्राज़ील ले जाया गया था । लेकिन जब वे ब्राज़ील पहुची तो वंहा के लोगो को एहसास हुआ की इन गायों मे कुछ खास है ।

अगर भारत मे विदेशी जहरीली वर्ण संकर नस्ल की गायों के बजाय भारतीय नस्ल की गायो पर ध्यान दिया होता तो हमारी गायें न केवल आर्थिक रूप से व्यावहारिक होती बल्कि हमारे यंहा की खेती और फसल की दशा भी व्यावहारिक व लाभदायक होती । मरुभूमि के अत्यंत कठिन माहोल मे रहने वाली थारपारकर जैसी नस्ल की गाये उपेक्षित न होती । आज दुग्ध उत्पादन ही नही प्रत्येक क्षेत्र मे आत्म निर्भरता प्राप्त करने के लिए विदेशी नस्ल ( मलेच्च्यो- मुसालेबीमान व किसाई ) और उनके सहायक चापलूस हन्दुओ से ज्यादा विनाशकारी और कुछ नही हो सकता ।

इससे यह स्पष्ट हो जाता है की भारतीय सारकर हर क्षेत्र मे पूर्व निर्धारित षड्यंत्र के तहत
गलत नीती अपनाकर चल रही है ।

गोवर्धन पूजा

गोवर्धन पूजा के पावन अवसर पर समस्त देशवासियों को हार्दिक शुभकामनायें....


आज कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा के दिन पर्वतराज गोवर्धन की पूजा की जाती है। इसे अन्नकूट के नाम से भी जानते हैं।

इस त्यौहार का भारतीय लोकजीवनमें काफी महत्व है।इस पर्व में प्रकृति के साथ मानव का सीधा सम्बन्ध दिखाई देता है।इस पर्व की अपनी मान्यता और लोककथा है।

गोवर्धन पूजा में गोधन यानी गायों की पूजा की जाती है ।शास्त्रों में बताया गया है कि गाय उसी प्रकार पवित्र होती जैसे
नदियों में गंगा।

गाय को देवी लक्ष्मी का स्वरूप भी कहा गया है ।देवीलक्ष्मी जिस प्रकार सुख समृद्धि प्रदान करती हैं उसी प्रकार गौ माता भी अपने दूध से स्वास्थ्य रूपी धन प्रदान करती हैं।

इनका बछड़ा खेतों में अनाज उगाता है। इस तरह गौ सम्पूर्ण मानव जाती के लिए पूजनीय और आदरणीय है।

गौ के प्रति श्रद्धा प्रकट करने के लिए ही कार्तिक शुक्ल पक्ष प्रतिपदा के दिन गोर्वधन की पूजा की जाती है और इसके प्रतीक के रूप में गाय की ।

गोवर्धन पूजा के सम्बन्ध में एक लोक गाथा प्रचलित है।

कथा यह है कि देवराज इन्द्र को अभिमान हो गया था।इन्द्र का अभिमान चूर करने हेतु भगवान श्री कृष्ण जो स्वयं लीलाधारी श्री हरि विष्णु के अवतार है उन्होंने एक लीला रची।

प्रभु की इस लीला में यूं हुआ कि एक दिन उन्होंने देखा के सभी बृजवासी उत्तम पकवान बना रहे हैं और किसी पूजा की तैयारी में जुटे।

श्री कृष्ण ने बड़े भोलेपन से मईया यशोदा से प्रश्न किया "मईया ये आप लोग
किनकी पूजा की तैयारी कर रहे हैं" ।

"भगवान् श्रीकृष्ण" की बातें सुनकर मैया बोली लल्ला हम देवराज इन्द्र की पूजा के लिए अन्नकूट की तैयारी कर रहे हैं ।

मैया के ऐसा कहने पर श्रीकृष्ण बोले मैया हम इन्द्र की पूजा क्यों करते हैं ?

मैईया ने कहा वह वर्षा करते हैं जिससे अन्न की पैदावार होती है उनसे हमारी गायों को चारा मिलता है।

भगवानश्री कृष्ण बोले हमें तो गोर्वधन पर्वत की पूजा करनी चाहिए क्योंकि हमारी गाये वहीं चरती हैं, इस दृष्टि से गोर्वधन पर्वत ही पूजनीय है और इन्द्र तो कभी दर्शन भी नहीं देते व पूजा न करने पर क्रोधित भी होते हैं अत: ऐसे अहंकारी की पूजा नहीं करनी चाहिए।

लीलाधारी की लीला और माया से सभी ने इन्द्र के बदले गोवर्घन पर्वत की पूजा की।

देवराजइन्द्र ने इसे अपना अपमान समझा और मूसलाधार वर्षा शुरू कर दी। प्रलय के समान वर्षा देखकर सभी बृजवासी भगवान कृष्ण को कोसने लगे कि, सब इनका कहा मानने से हुआ है।

तब मुरलीधर ने मुरली कमर में डाली और अपनी कनिष्ठा उंगली पर पूरा गोवर्घन पर्वत उठा लिया और सभी बृजवासियों को उसमें अपने गाय और बछडे समेत शरण लेने के लिए बुलाया।

इन्द्र कृष्ण की यह लीला देखकर और क्रोधित हुए फलत: वर्षा और तेज हो गयी।

इन्द्र का मान मर्दन के लिए तब श्री कृष्ण ने सुदर्शन चक्र से कहा कि आप पर्वत के ऊपर रहकर वर्षा की गति को नियत्रित करें और शेषनाग से कहा आप मेड़ बनाकर पानी को पर्वत की ओर आने से रोकें।

इन्द्र लगातार सात दिन तक मूसलाधार वर्षा करते रहे तब उन्हे एहसास हुआ कि उनका मुकाबला करने वाला कोई आम मनुष्य नहीं हो सकता अत: वे ब्रह्मा जी के पास पहुंचे और सब वृतान्त कह सुनाया।

ब्रह्मा जी ने इन्द्र से कहा कि आप जिस कृष्ण की बात कर रहे हैं वह भगवान विष्णु के साक्षात अंश हैं और पूर्ण पुरूषोत्तम नारायण हैं ।

ब्रह्मा जी के मुंख से यह सुनकर इन्द्र अत्यंत लज्जित हुए और श्री कृष्ण से कहा कि प्रभु मैं आपको पहचान न सका इसलिए अहंकारवश भूल कर बैठा।
आप दयालु हैं और कृपालु भी इसलिए मेरी भूल क्षमा करें।

इसके पश्चात देवराजइन्द्र ने मुरलीधर की पूजा कर उन्हें भोग लगाया ।इस पौराणिक घटना के बाद से ही गोवर्घन पूजा की जाने लगी।
बृजवासी इस दिन गोवर्घन पर्वत की पूजा करते हैं।

गाय बैल को इस दिन स्नान कराकर उन्हें रंग लगाया जाता है व उनके गले में नई रस्सी डाली जाती है।गाय और बैलों को गुड़ और चावल मिलाकर खिलाया जाता है।

जय जय गोवर्धन गिरधारी।
श्रीकृष्ण गोविँद हरे मुरारी।।

देसी गाय के दूध का महत्व

देसी गाय के दूध का महत्व

 आधुनिक विज्ञानका यह मानना है कि सृष्टिके आदि कालमें, भूमध्य रेखा के दोनो ओर प्रथम एक गर्म भूखंड उत्पन्न हुआ था इसे भारतीय परम्परामे जम्बुद्वीपका नाम दिया जाता है |  सभी स्तनधारी भूमि पर पैरों से चलनेवाले प्राणी दोपाए, चौपाए जिन्हें वैज्ञानिक भाषामें अनग्युलेट मेमलके (ungulate mammal) नामसे जाना जाता है, वे इसी जम्बू द्वीपपर उत्पन्न हुये थे | इस प्रकार सृष्टिमें सबसे प्रथम मनुष्य और गौका इसी जम्बुद्वीप भूखंडपर उत्पन्न होना माना जाता है |  इस प्रकार यह भी सिद्ध होता है कि भारतीय गाय ही विश्वकी मूल गाय है इसी मूल भारतीय गायका लगभग ८००० वर्ष पूर्व, भारत जैसे गर्म क्षेत्रोंसे यूरोपके ठंडे क्षेत्रोंके लिए पलायन हुआ, ऐसा माना जाता है |  जीव विज्ञानके अनुसार भारतीय गायोंके २०९ तत्व के डीएनए में ६७ पद पर स्थित एमिनो एसिड प्रोलीन (Proline) पाया जाता है इन गौओंके ठंडे यूरोपीय देशोंको पलायनमें भारतीय गायके डीएनएमें प्रोलीन Proline एमीनोएसिड हिस्टीडीनके (Histidine) साथ उत्परिवर्तित हो गया | इस प्रक्रियाको वैज्ञानिक भाषामें म्युटेशन ( Mutation ) कहते हैं |  1. मूल गायके दूधमें पोरलीन(Proline) अपने स्थान ६७ पर अत्यधिक दृढतासे आग्रहपूर्वक अपने पडोसी स्थान ६६ पर स्थित अमीनोएसिड आइसोल्यूसीनसे (Isoleucine) जुडा रहता है; परन्तु जब प्रोलीनके स्थानपर हिस्टिडीन आ जाता है तब इस हिस्टिडीनमें अपने पडोसी स्थान 66 पर स्थित आइसोल्युसीनसे जुडे रहनेकी प्रबल इच्छा नही पाई जाती |  इस स्थितिमें यह एमिनो एसिड Histidine, मानव शरीरकी पाचन क्रियामें सरलतासे टूट कर पसर जाता है |  इस प्रक्रियासे एक 7 एमीनोएसिडका छोटा प्रोटीन स्वच्छ्न्द रूपसे मानव शरीरमें अपना भिन्न अस्तित्व बना लेता है | इस 7 एमीनोएसिडके प्रोटीनको बीसीएम 7 BCM7 (बीटा Caso Morphine7) नाम दिया जाता है |  2. BCM7 एक Opioid (narcotic) अफीम परिवारका मादक तत्व है जो अत्यधिक शक्तिशाली Oxidant ऑक्सीकरण तत्त्वके रूपमें मानव स्वास्थ्यपर अपनी श्रेणीके दूसरे अफीम जैसे ही मादक तत्वों जैसा दूरगामी दुष्प्रभाव छोडता है |   जिस दूधमें यह विषैला मादक तत्व बीसीएम 7 पाया जाता है, उस दूधको वैज्ञानिकोंने ए1 दूधका नाम दिया है |   यह दूध उन विदेशी गौओंमें पाया गया है जिनके डीएनएमें ६७ स्थानपर प्रोलीन न हो कर हिस्टिडीन होता है |  आरम्भमें जब दूधको बीसीएम7 के कारण बडे स्तरपर जानलेवा रोगोंका कारण पाया गया तब न्यूज़ीलेंडके सारे डेरी उद्योगके दूधका परीक्षण आरम्भ हुआ |  सारे डेरी दूधपर किए जानेवाले प्रथम अनुसंधानमे जो दूध मिला वह बीसीएम7 से दूषित पाया गया | इसलिए यह सारा दूध ए1 कहलाया |  तदोपरांत ऐसे दूधकी आविष्कार आरम्भ हुई जिसमें यह बीसीएम7 विषैला तत्व न हो |  इस दूसरे अनुसंधान अभियानमें जो बीसीएम7 रहित दूध पाया गया उसे ए2 नाम दिया गया |  सुखद बात यह है कि विश्वकी मूल गायकी प्रजातिके दूधमें, यह विष तत्व बीसीएम7 नहीं मिला, इसलिए देसी गायका दूध ए2 प्रकारका दूध संबोधित किया जाता है | देसी गायके दूधमें यह स्वास्थ्य नाशक मादक विष तत्व बीसीएम7 नही होता |   आधुनिक वैज्ञानिक अनुसंधानसे अमेरिकामें यह भी पाया गया कि ठीकसे पोषित देसी गायके दूध और दूधके बने पदार्थ मानव शरीरमें कोई भी रोग उत्पन्न नहीं होने देते |  भारतीय परम्परामें इसलिए देसी गायके दूधको अमृत कहा जाता है |   आज यदि भारतवर्षका डेरी उद्योग हमारी देसी गायके ए2 दूधकी उत्पादकताका महत्व समझ लें तो भारत सारे विश्व डेरी दूध व्यापारमें सबसे बडा दूध निर्यातक देश बन सकता है |  देसी गायकी पहचान आज के वैज्ञानिक युग में, यह भी महत्त्वका विषय है कि देसी गायकी पहचान प्रामाणिक रूपसे हो सके |   साधारण बोल चालमे जिन गौओं में कुकुभ, गल कम्बल छोटा होता है उन्हे य देसी नहीं माना जाता और सबको जर्सी कह दिया जाता है |  प्रामाणिक रूपसे यह जाननेके लिए कि कौन सी गाय मूल देसी गायकी प्रजातिकी हैं, गौका डीएनए जांचा जाता है | इस परीक्षणके लिए गायकी पूंछके बालके एक टुकडेसे ही यह सुनिश्चित हो जाता है कि वह गाय देसी गाय मानी जा सकती है या नहीं |   यह अत्याधुनिक विज्ञानके अनुसन्धान का विषय है | पाठकोंकी जानकारीके लिए भारत सरकारसे इस अनुसंधानके लिए आर्थिक सहयोगके प्रोत्साहनसे भारतवर्षके वैज्ञानिक इस विषयपर अनुसंधान कर रहे हैं और निकट भविष्यमें वैज्ञानिक रूपसे देसी गायकी पहचान सम्भव हो सकेगी |   इस महत्वपूर्ण अनुसंधानका कार्य दिल्ली स्थित महाऋषि दयानंद गोसम्वर्द्धन केंद्रकी पहल और भागीदारीपर और कुछ भारतीय वैज्ञानिकोंके निजी उत्साहसे आरम्भ हो सका है |  ए1 दूधका मानव स्वास्थ्यपर दुष्प्रभाव जन्मके समय बालकके शरीरमें blood brain barrier नही होता | माताके स्तन पान करानेके बाद तीन चार वर्षकी आयु तक शरीरमें यह ब्लडब्रेन बैरियर स्थापित हो जाता है |  इसलिए जन्मोपरांत माताके पोषन और स्तनपान द्वारा शिषुको मिलनेवाले पोषणका, बचपनमें ही नही, बडे हो जानेपर भविष्यमें भी मस्तिष्कके रोग और शरीरकी रोग निरोधक क्षमता ,स्वास्थ्य, और व्यक्तित्वके निर्माणमें अत्यधिक महत्व बताया जाता है |  बाल्य कालके रोग (Pediatric disease) आजकल भारत वर्षमें ही नहीं सारे विश्वमें, जन्मोपरान्त बच्चोंमें जो Autism (बोध अक्षमता ) और Diabetes type1 (मधुमेह) जैसे रोग बढ रहे हैं उनका स्पष्ट कारण ए1 दूध का बीसीएम7 पाया गया है |  वयस्क समाजके रोग (Adult disease) मानव शरीरके सभी metabolic degenerative disease शरीरके स्वजन्य रोग जैसे उच्च रक्त चाप (high blood pressure) हृदय रोग (Ischemic Heart Disease) तथा मधुमेहका (Diabetes) प्रत्यक्ष सम्बंध बीसीएम 7 वाले ए1 दूध से स्थापित हो चुका है |  यही नहीं बुढापेके मानसिक रोग भी बचपनमें ए1 दूधका प्रभावके रूपमें भी देखे जा रहे हैं |  सम्पूर्ण विश्वमें डेयरी उद्योग आज चुपचाप अपने पशुओंकी प्रजनन नीतियोंमें ” अच्छा दूध अर्थात् BCM7 मुक्त ए2 दूध “ के उत्पादनके आधारपर परिवर्तन ला रहा हैं |   वैज्ञानिक शोध इस विषयपर भी किया जा रहा है कि किस प्रकार अधिक ए2 दूध देनेवाली गौओंकी प्रजातियां विकसित की जा सकें |  डेरी उद्योगकी भूमिका मुख्य रूपसे यह हानिकारक ए1 दूध होल्स्टिन फ्रीज़ियन प्रजातिकी गायमें ही मिलता है, यह भैंस जैसी दीखनेवाली, अधिक दूध देनेके य कारण सारे डेरी उद्योगकी पसन्दीदा गाय है |  होल्स्टीन, फ्रीज़ियन दूधके ही कारण लगभग सारे विश्वमें डेरीका दूध ए1 पाया गया | विश्वके सारे डेरी उद्योग और राजनेताओंकी आज यही कठिनाई है कि अपने सारे ए1 दूध को एक दम कैसे अच्छे ए2 दूधमें कैसे परिवर्तित करें |  आज विश्वका सारा डेरी उद्योग भविष्यमें केवल ए2 दूधके उत्पादनके लिए अपनी गौओंकी प्रजातिमे नस्ल सुधारके नये कार्यक्रम चला रहा है |  विश्व बाज़ारमे भारतीय नस्लके गीर वृषभोंकी इसलिए अत्यधिक मांग भी हो गयी है | साहीवाल नस्लके अच्छे वृषभकी भी बहुत मांग बढ गयी है |  सबसे पहले यह अनुसंधान न्यूज़ीलेंडके वैज्ञानिकोंने किया था; परन्तु वहांके डेरी उद्योग और सरकारी तंत्रकी मिलीभगतसे यह वैज्ञानिक अनुसंधान छुपानेके प्रयत्नोंसे उद्विग्न होनेपर, वर्ष २००७ में Devil in the Milk-illness, health and politics A1 and A2 Milk” नामकी पुस्तक कीथ वुड्फोर्ड द्वारा न्यूज़ीलेंडमें प्रकाशित हुई |   ऊपर उल्लेखित पुस्तकमें विस्तारसे लगभग तीस वर्षोंके विश्व भरके आधुनिक चिकित्सा विज्ञान और रोगोंके अनुसंधानके आंकडोंके आधारपर यह सिद्ध किया जा सका है कि बीसीएम7 युक्त ए1 दूध मानव समाजके लिए विषतुल्य है |  इन पंक्तियोंके लेखकने भारतवर्षमें २००७ में ही इस पुस्तकको न्युज़ीलेंडसे मंगा कर भारत सरकार और डेरी उद्योगके शीर्षस्थ अधिकारियोंका इस विषयपर ध्यान आकर्षित कर, देसी गायके महत्वकी ओर वैज्ञानिक आधारपर प्रचार और ध्यानाकर्षणका एक अभियान चला रखा है; परन्तु अभी भारत सरकारने इस विषयको गम्भीरतासे नही लिया है |  डेरी उद्योग और भारत सरकारके गोपशु पालन विभागके अधिकारी व्यक्तिगत स्तरपर तो इस विषयको समझने लगे हैं; परंतु भारतवर्षकी और डेरी उद्योगकी नीतियोंमें परिवर्तित करनेके लिए जिस नेतृत्वकी आवश्यकता होती है उसके लिए तथ्योंके अतिरिक्त सशक्त जनजागरण भी आवश्यक होता है इसके लिए जन साधारणको इन तथ्योंके बारेमे अवगत कराना भारत वर्षके हर देश प्रेमी गोभक्तका दायित्व बन जाता है |  विश्व मंगल गो ग्रामयात्रा इसी जन चेतना जागृतिका शुभारम्भ है | देसी गायसे विश्वोद्धार भारत वर्षमें यह विषय डेरी उद्योगके गले सरलतासे नही उतर रहा,हमारा सम्पूर्ण डेरी उद्योग तो प्रत्येक प्रकारके दूधको एक जैसा ही समझता आया है |  उनके लिए देसी गायके ए2 दूध और विदेशी ए1 दूध देनेवाली गायके दूधमें कोई अंतर नही होता था |  गाय और भैंसके दूधमें भी कोई अंतर नहीं माना जात,सारा ध्यान अधिक मात्रामें दूध और वसा देनेवाले पशुपर ही होता है | किस दूधमें क्या स्वास्थ्य नाशक तत्व हैं, इस विषयपर डेरी उद्योग कभी सचेत नहीं रहा है | सरकारकी स्वास्थ्य संबन्धित नीतियां भी इस विषयपर केंद्रित नहीं हैं |  भारतमें किए गए NBAGR (राष्ट्रीय पशु आनुवंशिक संसाधन ब्यूरो) द्वारा एक प्रारंभिक अध्ययनके अनुसार यह अनुमान है कि भारत वर्ष में ए1 दूध देने वाली गौओंकी संख्या पंद्रह प्रतिशतसे अधिक नहीं है |   भरत्वर्षमें देसी गायोंके संसर्गकी संकर नस्ल ज्यादातर डेयरी क्षेत्रके साथ ही हैं |  आज सम्पूर्ण विश्वमें यह चेतना आ गई है कि बाल्यावस्थामें बच्चोंको केवल ए2 दूध ही देना चाहिये | विश्व बाज़ारमें न्युज़ीलेंड, ओस्ट्रेलिया, कोरिआ,जापान और अब अमेरिका मे प्रमाणित ए2 दूधके मूल्य साधारण ए1 डेरी दूधके यदामसे कही अधिक हैं |   ए2 से देने वाली गाय विश्वमें सबसे अधिक भारतवर्षमें पाई जाती हैं |  यदि हमारी देसी गोपालनकी नीतियोंको समाज और शासनका प्रोत्साहन मिलता है तो सम्पूर्ण विश्व के लिए ए2 दूध आधारित बालाहारका निर्यात भारतवर्षसे किया जा सकता है | यह एक बडे आर्थिक महत्वका विषय है 

Saturday, November 2, 2013

कुलदेवी कृपा प्राप्ति साधना


कुलदेवी कृपा प्राप्ति साधना

कुलदेवी सदैव हमारी कुल कि रक्षा करती है,हम पर चाहे किसी भी प्रकार कि कोई भी बाधाये आने वाली हो तो सर्वप्रथम हमारी सबसे ज्यादा चिंता उन्हेही ही होती है.कुलदेवी कि कृपा से कई जीवन के येसे कार्य है जिनमे पूर्ण सफलता मिलती है.
कई लोग येसे है जिन्हें अपनी कुलदेवी पता ही नहीं और कुछ येसे भी है जिन्हें कुलदेवी पता है परन्तु उनकी पूजा या फिर साधना पता नहीं है.तो येसे समय यह साधना बड़ी ही उपयुक्त है.यह साधना पूर्णतः फलदायी है और गोपनीय है.यह दुर्लभ विधान मेरी प्यारी गुरुभाई/बहन कि लिए आज सदगुरुजी कि कृपा से हम सभी के लिये.
इस साधना के माध्यम से घर मे क्लेश चल रही हो,कोई चिंता हो,या बीमारी हो,धन कि कमी,धन का सही तरह से इस्तेमाल न हो,या देवी/देवतओं कि कोई नाराजी हो तो इन सभी समस्या ओ के लिये कुलदेवी साधना सर्वश्रेष्ट साधना है.
सामग्री :-
३ पानी वाले नारियल,लाल वस्त्र ,९ सुपारिया ,८ या १६ शृंगार कि वस्तुये ,खाने कि ९ पत्ते ,३ घी कि दीपक,कुंकुम ,हल्दी ,सिंदूर ,मौली ,तिन प्रकार कि मिठाई .
साधना विधि :-
सर्वप्रथम नारियल कि कुछ जटाये निकाले और कुछ बाकि रखे फिर एक नारियल को पूर्ण सिंदूर से रंग दे दूसरे को हल्दी और तीसरे नारियल को कुंकुम से,फिर ३ नारियल को मौली बांधे .
किसी बाजोट पर लाल वस्त्र बिछाये ,उस पर ३ नारियल को स्थापित कीजिये,हर नारियल के सामने ३ पत्ते रखे,पत्तों पर १-१ coin रखे और coin कि ऊपर सुपारिया स्थापित कीजिये.फिर गुरुपूजन और गणपति पूजन संपन्न कीजिये.
अब ज्यो पूजा स्थापित कि है उन सबकी चावल,कुंकुम,हल्दी,सिंदूर,जल ,पुष्प,धुप और दीप से पूजा कीजिये.जहा सिन्दूर वाला नारियल है वह सिर्फ सिंदूर ही चढ़े बाकि हल्दी कुंकुम नहीं इस प्रकार से पूजा करनी है,और चावल भी ३ रंगों मे ही रंगाने है,अब ३ दीपक स्थापित कर दीजिये.और कोई भी मिठाई किसी भी नारियल के पास चढादे .साधना समाप्ति के बाद प्रसाद परिवार मे ही बाटना है.शृंगार पूजा मे कुलदेवी कि उपस्थिति कि भावना करते हुये चढादे और माँ को स्वीकार करनेकी विनती कीजिये.


और लाल मूंगे कि माला से ३ दिन तक ११ मालाये मंत्र जाप रोज करनी है.यह साधना शुक्ल पक्ष कि १२,१३,१४ तिथि को करनी है.३ दिन बाद सारी सामग्री जल मे परिवार के कल्याण कि प्रार्थना करते हुये प्रवाहित कर दे.


मंत्र :-
|| ओम ह्रीं श्रीं कुलेश्वरी प्रसीद - प्रसीद ऐम् नम : ||


साधना समाप्ति के बाद सहपरिवार आरती करे तो कुलेश्वरी कि कृपा और बढती है.

रावण के जन्म की कथा

रावण के जन्म की कथा


ब्रह्मा जी के पुलस्त्य नामक पुत्र हुये थे जो उन्हीं के समान तेजस्वी और गुणवान थे। एक बार वे महगिरि पर तपस्या करने गये। वह स्थान अत्यन्त रमणीक था। इसलिये ऋषियों, नागों, राजर्षियों आदि की कन्याएँ वहाँ क्रीड़ा करने आ जाती थी। इससे उनकी तपस्या में विघ्न पड़ता था। उन्होंने उन्हें वहाँ आने से मना किया। जब वे नहीं मानीं तो उन्होंने शाप दे दिया कि कल से जो लड़की यहाँ मुझे दिखाई देगी, वह गर्भवती हो जायेगी। शैष सब कन्याओं ने तो वहाँ आना बन्द कर दिया, परन्तु राजर्षि तृणबिन्दु की कन्या शाप की बात से अनजान होने के कारण उस आश्रम में आ गई और महर्षि के द‍ृष्टि पड़ते ही गर्भवती हो गई। जब तृणबिन्दु को यह बात मालूम हुई तो उन्होंने अपने कन्या को पत्‍नी के रूप में महर्षि को अर्पित कर दिया। इस प्रकार विश्रवा का जन्म हुआ जो अपने पिता के समान वेद्‍‍विद और धर्मात्मा हुआ। महामुनि भरद्वाज ने अपनी कन्या का विवाह विश्रवा से कर दिया। उनके वैश्रवण नामक पुत्र हुआ। वह भी धर्मात्मा और विद्वान था। उसने भारी तपस्या करके ब्रह्मा जी को प्रसन्न किया और यम्, इन्द्र तथा वरुण के सद‍ृश लोकपाल का पद पाया। फिर उसने त्रिकूट पर्वत पर बसी लंका को अपना निवास स्थान बनाया और राक्षसों पर राज्य करने लगा।"

श्रीराम ने आश्‍चर्य से पूछा, "तो क्या कुबेर और रावण से भी पहले लंका में माँसभक्षी राक्षस रहते थे? फिर उनका पूर्वज कौन था? यह सुनने के लिये मुझे कौतूहल हो रहा है?" तब अगस्त्य जी बोले, "पूर्वकाल में ब्रह्मा जी ने अनेक जल जन्तु बनाये और उनसे समुद्र के जल की रक्षा करने के लिये कहा। तब उन जन्तुओं में से कुछ बोले कि हम इसका रक्षण (रक्षा) करेंगे और कुछ ने कहा कि हम इसका यक्षण (पूजा) करेंगे। इस पर ब्रह्माजी ने कहा कि जो रक्षण करेगा वह राक्षस कहलायेगा और जो यक्षण करेगा वह यक्ष कहलायेगा। इस प्रकार वे दो जातियों में बँट गये। राक्षसों में हेति और प्रहेति दो भाई थे। प्रहेति तपस्या करने चला गया, परन्तु हेति ने भया से विवाह किया जिससे उसके विद्युत्केश नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। विद्युत्केश के सुकेश नामक पराक्रमी पुत्र हुआ। सुकेश के माल्यवान, सुमाली और माली नामक तीन पुत्र हुये। तीनों ने ब्रह्मा जी की तपस्या करके यह वरदान प्राप्त कर लिये कि हम लोगों का प्रेम अटूट हो और हमें कोई पराजित न कर सके। वर पाकर वे निर्भय हो गये और सुरों, असुरों को सताने लगे। उन्होंने विश्‍वकर्मा से एक अत्यन्त सुन्दर नगर बनाने के लिये कहा। इस पर विश्‍वकर्मा ने उन्हें लंकापुरी का पता बताकर भेज दिया। वहाँ वे बड़े आनन्द के साथ रहने लगे। माल्यवान के वज्रमुष्टि, विरूपाक्ष, दुर्मुख, सुप्तघ्न, यज्ञकोप, मत्त और उन्मत्त नामक सात पुत्र हुये। सुमाली के प्रहस्त्र, अकम्पन्न, विकट, कालिकामुख, धूम्राक्ष, दण्ड, सुपार्श्‍व, संह्नादि, प्रधस एवं भारकर्ण नाम के दस पुत्र हुये। माली के अनल, अनिल, हर और सम्पाती नामक चार पुत्र हुये। ये सब बलवान और दुष्ट प्रकृति होने के कारण ऋषि-मुनियों को कष्ट दिया करते थे। उनके कष्टों से दुःखी होकर ऋषि-मुनिगण जब भगवान विष्णु की शरण में गये तो उन्होंने आश्‍वासन दिया कि हे ऋषियों! मैं इन दुष्टों का अवश्य ही नाश करूँगा।

"जब राक्षसों को विष्णु के इस आश्‍वासन की सूचना मिली तो वे सब मन्त्रणा करके संगठित हो माली के सेनापतित्व में इन्द्रलोक पर आक्रमण करने के लिये चल पड़े। समाचार पाकर भगवान विष्णु ने अपने अस्त्र-शस्त्र संभाले और राक्षसों का संहार करने लगे। सेनापति माली सहित बहुत से राक्षस मारे गये और शेष लंका की ओर भाग गये। जब भागते हुये राक्षसों का भी नारायण संहार करने लगे तो माल्यवान क्रुद्ध होकर युद्धभूमि में लौट पड़ा। भगवान विष्णु के हाथों अन्त में वह भी काल का ग्रास बना। शेष बचे हुये राक्षस सुमाली के नेतृत्व में लंका को त्यागकर पाताल में जा बसे और लंका पर कुबेर का राज्य स्थापित हुआ। अब मैं तुम्हें रावण के जन्म की कथा सुनाता हूँ। राक्षसों के विनाश से दुःखी होकर सुमाली ने अपनी पुत्री कैकसी से कहा कि पुत्री! राक्षस वंश के कल्याण के लिये मैं चाहता हूँ कि तुम परम पराक्रमी महर्षि विश्रवा के पास जाकर उनसे पुत्र प्राप्त करो। वही पुत्र हम राक्षसों की देवताओं से रक्षा कर सकता है।" अगस्त्य मुनि ने कहना जारी रखा, "पिता की आज्ञा पाकर कैकसी विश्रवा के पास गई। उस समय भयंकर आँधी चल रही थी। आकाश में मेघ गरज रहे थे। कैकसी का अभिप्राय जानकर विश्रवा ने कहा कि भद्रे! तुम इस कुबेला में आई हो। मैं तुम्हारी इच्छा तो पूरी कर दूँगा परन्तु इससे तुम्हारी सन्तान दुष्ट स्वभाव वाली और क्रूरकर्मा होगी। मुनि की बात सुनकर कैकसी उनके चरणों में गिर पड़ी और बोली कि भगवन्! आप ब्रह्मवादी महात्मा हैं। आपसे मैं ऐसी दुराचारी सन्तान पाने की आशा नहीं करती। अतः आप मुझ पर कृपा करें। कैकसी के वचन सुनकर मुनि विश्रवा ने कहा कि अच्छा तो तुम्हारा सबसे छोटा पुत्र सदाचारी और धर्मात्मा होगा।

"इस प्रकार कैकसी के दस मुख वाले पुत्र का जन्म हुआ जिसका नाम दशग्रीव रखा गया। उसके पश्‍चात् कुम्भकर्ण, शूर्पणखा और विभीषण के जन्म हुये। दशग्रीव और कुम्भकर्ण अत्यन्त दुष्ट थे, किन्तु विभीषण धर्मात्मा प्रकृति का था। अपने भाई वैश्रवण से भी अधिक पराक्रमी और शक्‍तिशाली बनने के लिये दशग्रीव ने अपने भाइयों सहित ब्रह्माजी की तपस्या की। ब्रह्मा के प्रसन्न होने पर दशग्रीव ने माँगा कि मैं गरुड़, नाग, यक्ष, दैत्य, दानव, राक्षस तथा देवताओं के लिये अवध्य हो जाऊँ। ब्रह्मा जी ने 'तथास्तु' कहकर उसकी इच्छा पूरी कर दी। विभीषण ने धर्म में अविचल मति का और कुम्भकर्ण ने वर्षों तक सोते रहने का वरदान पाया। "फिर दशग्रीव ने लंका के राजा कुबेर को विवश किया कि वह लंका छोड़कर अपना राज्य उसे सौंप दे। अपने पिता विश्रवा के समझाने पर कुबेर ने लंका का परित्याग कर दिया और रावण अपनी सेना, भाइयों तथा सेवकों के साथ लंका में रहने लगा। लंका में जम जाने के बाद अपने बहन शूर्पणखा का विवाह कालका के पुत्र दानवराज विद्युविह्वा के साथ कर दिया। उसने स्वयं दिति के पुत्र मय की कन्या मन्दोदरी से विवाह किया जो हेमा नामक अप्सरा के गर्भ से उत्पन्न हुई थी। विरोचनकुमार बलि की पुत्री वज्रज्वला से कुम्भकर्ण का और गन्धर्वराज महात्मा शैलूष की कन्या सरमा से विभीषण का विवाह हुआ। कुछ समय पश्‍चात् मन्दोदरी ने मेघनाद को जन्म दिया जो इन्द्र को परास्त कर संसार में इन्द्रजित के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

"सत्ता के मद में रावण उच्छृंखल हो देवताओं, ऋषियों, यक्षों और गन्धर्वों को नाना प्रकार से कष्ट देने लगा। एक बार उसने कुबेर पर चढ़ाई करके उसे युद्ध में पराजित कर दिया और अपनी विजय की स्मृति के रूप में कुबेर के पुष्पक विमान पर अधिकार कर लिया। उस विमान का वेग मन के समान तीव्र था। वह अपने ऊपर बैठे हुये लोगों की इच्छानुसार छोटा या बड़ा रूप धारण कर सकता था। विमान में मणि और सोने की सीढ़ियाँ बनी हुई थीं और तपाये हुये सोने के आसन बने हुये थे। उस विमान पर बैठकर जब वह 'शरवण' नाम से प्रसिद्ध सरकण्डों के विशाल वन से होकर जा रहा था तो भगवान शंकर के पार्षद नन्दीश्‍वर ने उसे रोकते हुये कहा कि दशग्रीव! इस वन में स्थित पर्वत पर भगवान शंकर क्रीड़ा करते हैं, इसलिये यहाँ सभी सुर, असुर, यक्ष आदि का आना निषिद्ध कर दिया गया है। नन्दीश्‍वर के वचनों से क्रुद्ध होकर रावण विमान से उतरकर भगवान शंकर की ओर चला। उसे रोकने के लिये उससे थोड़ी दूर पर हाथ में शूल लिये नन्दी दूसरे शिव की भाँति खड़े हो गये। उनका मुख वानर जैसा था। उसे देखकर रावण ठहाका मारकर हँस पड़ा। इससे कुपित हो नन्दी बोले कि दशानन! तुमने मेरे वानर रूप की अवहेलना की है, इसलिये तुम्हारे कुल का नाश करने के लिये मेरे ही समान पराक्रमी रूप और तेज से सम्पन्न वानर उत्पन्न होंगे। रावण ने इस ओर तनिक भी ध्यान नहीं दिया और बोला कि जिस पर्वत ने मेरे विमान की यात्रा में बाधा डाली है, आज मैं उसी को उखाड़ फेंकूँगा। यह कहकर उसने पर्वत के निचले भाग में हाथ डालकर उसे उठाने का प्रयत्न किया। जब पर्वत हिलने लगा तो भगवान शंकर ने उस पर्वत को अपने पैर के अँगूठे से दबा दिया। इससे रावण का हाथ बुरी तरह से दब गया और वह पीड़ा से चिल्लाने लगा। जब वह किसी प्रकार से हाथ न निकाल सका तो रोत-रोते भगवान शंकर की स्तुति और क्षमा प्रार्थना करने लगा। इस पर भगवान शंकर ने उसे क्षमा कर दिया और उसके प्रार्थान करने पर उसे एक चन्द्रहास नामक खड्ग भी दिया।"

अगस्त्य मुनि ने आगे कहा, "एक दिन हिमालय प्रदेश में भ्रमण करते हुये रावण ने अमित तेजस्वी ब्रह्मर्षि कुशध्वज की कन्या वेदवती को तपस्या करते देखा। उस देखकर वह मुग्ध हो गया और उसके पास आकर उसका परिचय तथा अविवाहित रहने का कारण पूछा। वेदवती ने अपने परिचय देने के पश्चात् बताया कि मेरे पिता विष्णु से मेरे विवाह करना चाहते थे। इससे क्रुद्ध होकर मेरी कामना करने वाले दैत्यराज शम्भु ने सोते में उनका वध कर दिया। उनके मरने पर मेरी माता भी दुःखी होकर चिता में प्रविष्ट हो गई। तब से मैं अपने पिता के इच्छा पूरी करने के लिये भगवान विष्णु की तपस्या कर रही हूँ। उन्हीं को मैंने अपना पति मान लिया है। "पहले रावण ने वेदवती को बातों में फुसलाना चाहा, फिर उसने जबरदस्ती करने के लिये उसके केश पकड़ लिये। वेदवती ने एक ही झटके में पकड़े हुये केश काट डाले। फिर यह कहती हुई अग्नि में प्रविष्ट हो गई कि दुष्ट! तूने मेरा अपमान किया है। इस समय तो मैं यह शरीर त्याग रही हूँ, परन्तु मेरा विनाश करने के लिये फिर जन्म लूँगी। अगले जन्म में मैं अयोनिजा कन्या के रूप में जन्म लेकर किसी धर्मात्मा की पुत्री बनूँगी। अगले जन्म में वह कन्या कमल के रूप में उत्पन्न हुई। उस सुन्दर कान्ति वाली कमल कन्या को एक दिन रावण अपने महलों में ले गया। उसे देखकर ज्योतिषियों ने कहा कि राजन्! यदि यह कमल कन्या आपके घर में रही तो आपके और आपके कुल के विनाश का कारण बनेगी। यह सुनकर रावण ने उसे समुद्र में फेंक दिया। वहाँ से वह भूमि को प्राप्त होकर राजा जनक के यज्ञमण्डप के मध्यवर्ती भूभाग में जा पहुँची। वहाँ राजा द्वारा हल से जोती जाने वाली भूमि से वह कन्या फिर प्राप्त हुई। वही वेदवती सीता के रूप में आपकी पत्‍नी बनी और आप स्वयं सनातन विष्णु हैं। इस प्रकार आपके महान शत्रु रावण को वेदवती ने पहले ही अपने शाप से मार डाला था. आप तो उसे मारने में केवल निमित्तमात्र थे।

"अनेक राजा महाराजाओं को पराजित करता हुआ दशग्रीव इक्ष्वाकु वंश के राजा अनरण्य के पास पहुँचा जो अयोध्या पर राज्य करते थे। उसने उन्हें भी द्वन्द युद्ध करने अथवा पराजय स्वीकार करने के लिये ललकारा। दोनों में भीषण युद्ध हुआ किन्तु ब्रह्माजी के वरदान के कारण रावण उनसे पराजित न हो सका। जब अनरण्य का शरीर बुरी तरह से क्षत-विक्षत हो गया तो रावण इक्ष्वाकु वंश का अपमान और उपहास करने लगा। इससे कुपित होकर अनरण्य ने उसे शाप दिया कि तूने अपने व्यंगपूर्ण शब्दों से इक्ष्वाकु वंश का अपमान किया है, इसलिये मैं तुझे शाप देता हूँ कि महात्मा इक्ष्वाकु के इसी वंश में दशरथनन्दन राम का जन्म होगा जो तेरा वध करेंगे। यह कहकर राजा स्वर्ग सिधार गये। "रावण की उद्दण्डता में कमी नहीं आई। राक्षस या मनुष्य जिसको भी वह शक्‍तिशाली पाता, उसी के साथ जाकर युद्ध करने करने लगता। एक बार उसने सुना कि किष्किन्धापुरी का राजा बालि बड़ा बलवान और पराक्रमी है तो वह उसके पास युद्ध करने के लिये जा पहुँचा। बालि की पत्‍नी तारा, तारा के पिता सुषेण, युवराज अंगद और उसके भाई सुग्रीव ने उसे समझाया कि इस समय बालि नगर से बाहर सन्ध्योपासना के लिये गये हुये हैं। वे ही आपसे युद्ध कर सकते हैं। और कोई वानर इतना पराक्रमी नहीं है जो आपके साथ युद्ध कर सके। इसलिये आप थोड़ी देर उनकी प्रतीक्षा करें। फिर सुग्रीव ने कहा कि राक्षसराज! सामने जो शंख जैसे हड्डियों के ढेर लगे हैं वे बालि के साथ युद्ध की इच्छा से आये आप जैसे वीरों के ही हैं। बालि ने इन सबका अन्त किया है। यदि आप अमृत पीकर आये होंगे तो भी जिस क्षण बालि से टक्कर लेंगे, वह क्षण आपके जीवन का अन्तिम क्षण होगा। यदि आपको मरने की बहुत जल्दी हो तो आप दक्षिण सागर के तट पर चले जाइये। वहीं आपको बालि के दर्शन हो जायेंगे।

"सुग्रीव के वचन सुनकर रावण विमान पर सवार हो तत्काल दक्षिण सागर में उस स्थान पर जा पहुँचा जहां बालि सन्ध्या कर रहा था। उसने सोचा कि मैं चुपचाप बालि पर आक्रमण कर दूँगा। बालि ने रावण को आते देख लिया परन्तु वह तनिक भी विचलित नहीं हुआ और वैदिक मन्त्रों का उच्चारण करता रहा। ज्योंही उसे पकड़ने के लिये रावण ने पीछे से हाथ बढ़ाया, सतर्क बालि ने उसे पकड़कर अपनी काँख में दबा लिया और आकाश में उड़ चला। रावण बार-बार बालि को अपने नखों से कचोटता रहा किन्तु बालि ने उसकी कोई चिन्ता नहीं की। तब उसे छुड़ाने के लिये रावण के मंत्री और अनुचर उसके पीछे शोर मचाते हुये दौड़े परन्तु वे बालि के पास तक न पहुँच सके। इस प्रकार बालि रावण को लेकर पश्‍चिमी सागर के तट पर पहुँचा। वहाँ उसने सन्ध्योपासना पूरी की। फिर वह दशानन को लिये हुये किष्किन्धापुरी लौटा। अपने उपवन में एक आसन पर बैठकर उसने रावण को अपनी काँख से निकालकर पूछा कि अब कहिये आप कौन हैं और किसलिये आये हैं? "रावण ने उत्तर दिया कि मैं लंका का राजा रावण हूँ। आपके साथ युद्ध करने के लिये आया था। वह युद्ध मुझे मिल गया। मैंने आपका अद्‍भुत बल देख लिया। अब मैं अग्नि की साक्षी देकर आपसे मित्रता करना चाहता हूँ। फिर दोनों ने अग्नि की साक्षी देकर एक दूसरे से मित्रता स्थापित की।"

Tuesday, October 29, 2013

लाक्षागृह का रहस्योद्घाटन भाग

लाक्षागृह का रहस्योद्घाटन भाग 3------------------------ ----------------------------------------------------------------- 
महाभारत ग्रंथ के अध्याय 148 के श्लोक 5,6 को कोट किया है जिनके अनुसार भागीरथी के तट पर ही शहर वारणावत स्तिथ था जहां लाक्षागृह बनाया गया था। 
------ महाभारत--अध्याय148 - श्लोक-11,12,13,14 का अनुवाद-- माता सहित पांडवों को दुखी देखकर नाविक ने उन सबको नाव पर चढ़ाया और गंगा मार्ग से प्रस्थान करने लगे ॥11॥ विदुर के भेजे हुये नाविक उन शूरवीर पांडवों नदी के पार उतार दिया॥12॥ जब वे गंगा जी दूसरे तट पर पहुँच गए तो 'सबके लिए जय हो' ऐसा आशीर्वाद सुनकर वो नाविक जैसे आया था, वैसे ही लौट गया॥13॥ पांडव भी विदुर जी को उनके संदेश का उत्तर देकर खुद को छुपाते तेजी से वहाँ से चले गए॥14॥ इससे सिद्ध होता है की लाक्षागृह भागीरथी के तट पर था ना कि यमुना, कृष्णा या हिंडन नदी के तट पर, ये दोनों नदियां भागिरथी की सहायक नदियां भी नही हैं, जैसे कि पुराणो मे अलकनंदा, मंदाकिनी आदि को बताया गया है। मेरठ मे कृष्णा और हिंडन नदी बहती है। लाखामंडल नौगाव मे यमुना है भागीरथी नही। यमुना गंगा की बड़ी बहिन है और भागीरथी के अवतरण से पहले से धरती पर थी। वो भी भागीरथी की सहायक नदी नही है। यमुना का गंगा की तरह अलग से श्रेष्ठ स्थान है। इस कारण लाखामंडल और वरनावा (मेरठ) लाक्षागृह के दावे महाभारत के श्लोक ही खंडित कर देते हैं। लाक्षागृह का असली प्रमाण तो माहाभारत के श्लोक ही हैं कोई और नही।

. महाभारत---अध्याय148 - श्लोक-11,12,13,14, अथ तान व्यथितान दृष्ट्वा सहमात्रा नरौत्तमान। नावमारोप्य गंगायाम् प्रस्थितान्ब्रवीत पुनः ॥11॥ ईत्युक्ता स तु तान्वीरान पुमान विदूरचोदित:। तारयामास राजेंद्र: गंगाम् नाव: नरर्षभान ॥13॥ तारयित्वा ततो गंगाम् पारं परापतांश्च सर्वस: । जायाशिष: प्रयुज्याथ यथागतमगाद्धि स: ॥14॥ पांडवाश्च महात्मान: प्रतिसंदिश्य वै कवे: । गंगामुत्तीर्य वेगेन जग्मूर्गूढमल अलक्षित: ॥1

Monday, September 30, 2013

...मिस्र के पिरामिड श्री चक्र की अधिरचना...

...मिस्र के पिरामिड श्री चक्र की अधिरचना...


क्या आप जानते हैं कि मिस्र के विश्व प्रसिद्ध.एवं, दुनिया के महानतम आश्चर्यों में शुमार पिरामिड कोई नई वास्तु संरचना नहीं है बल्कि, पिरामिडों को हमारी पारंपरिक मंदिरों को नक़ल कर बनाई गई है!
अगर इसे ज्यादा सभ्य और आधुनिक भाषा में बोल जाए तो मिस्र के पिरामिड हमारे पारंपरिक मंदिरों से प्रेरित होकर बनाए गए हैं!
दरअसल हमारी पारंपरिक वास्तुकला बहुत ही सीधी और सरल है और, जो समय की कसौटी पर बिल्कुल खरे उतरते हैं!
हमारी संरचनाओं में बीम और छत और अहाते का कुछ इस प्रकार प्रयोग किया गया है ताकि, वहां धार्मिक एवं आध्यात्मिक कार्य सुचारू रूप से किए जा सकें!
ध्यान दें कि मंदिरों में शिखर मंदिर की सबसे उत्कृष्ट तत्व रहता है और, प्रवेश द्वार आमतौर पर मामूली होता है तथा मंदिर परिसर मंदिरों के गर्भ गृह के ही आस पास बनाया जाता है जो कार्डिनल दिशाओं के लिए उन्मुख होता है जो हमारे ब्रह्माण्ड के विद्युत् चुम्बकीय तरंगों को नियंत्रित करते हैं!
असल में हमारे मंदिर हमारे धार्मिक ग्रंथों में उल्लेखित श्री चक्र को आधार मानकर बनाए जाते हैं और, आश्चर्यजनक रूप से मिस्र के पिरामिड भी हमारे इसी श्री चक्र अथवा मेरु चक्र को आधार मानकर बनाए गए हैं!
यह किसी को बताने की आवश्यकता नहीं है कि मंदिर का स्थापत्य कला कुछ इस तरह का होता है कि वहां प्रवेश करने पर मनुष्य को मानसिक शांति और शारीरिक सांत्वना महसूस होता है!
गर्भगृह को मंदिर का केंद्र या अधिरचना को नाभि कहा जा सकता है और, गर्भगृह की बिंदु से ही ऊपर जाती हुई संरचना अंत में शिखर का रूप ले लेती है!
ठीक ऐसा ही घुमावदार रूप पिरामिड के रूप में आधुनिक समय में पहचान की गई है और, पिरामिड के भी शिखर भी.गर्भगृह की अधिरचना को संदर्भित करता है !
उसे भी अधिक मंदिरों की ही तरह पिरामिड का भी मुख्य कक्ष गर्भगृह ही होता है जिसके चारों तरफ परिसर बनाए गए है तथा , गर्भगृह के बाहर ये परिसर एक वर्ग परिपत्र , हेक्सागोनल ( 6 पक्षों) या अष्टकोणीय ( 8 पक्षों) हो सकता है!
हमारे मंदिरों की ही तरह पिरामिड की भी अधिरचना एक ही मंजिल होती है जिसमे एक ही शिखर होता है!
इस शिखर के माध्यम से तैयार आकाशीय बिजली ( विद्युत् चुम्बकीय तरंग ) हमें दैवीय प्रभा और आध्यात्मिक शक्ति देता है तथा, अलग गर्भगृह के लिए एक छत होने से शिखर भी गर्भगृह और केंद्रीय देवत्व के प्रमुख देवता के महत्वपूर्णता एवं दिव्य पवित्रता का प्रतीक है !
शिखर के अंतिम छोर को कलश या स्तूप के रूप में जाना जाता है!
मंदिर एवं पिरामिड अधिरचना दोनों में ही आश्चर्यजनक रूप से प्रत्येक मंजिला की ऊंचाई के एक चौथाई या एक तिहाई के समानांतर श्रेणी में घटता जाता है !
असल में पिरामिड ( PYRAMID ) शब्द ग्रीक शब्द Pyra से बना है जिसका अर्थ अग्नि, प्रकाश , दिखाई होता है
और, शब्द MIDOS का अर्थ केंद्र होता है!
इस तरह पिरामिड का शाब्दिक अर्थ" केंद्र में आग अथवा प्रकाश " होता है और, यह शब्द बहुत हद तक मंदिर होने का आभास देता है!
मिस्र के पिरामिड लगभग 4000 साल पहले बनाए गए थे तथा, चित्र में प्रदर्शित गीजा के पिरामिड के आधार की चार भुजाओं की लंबाई 755.5 फीट की तथा , औसत माप में आश्चर्यजनक रूप से बराबर हैं .
पिरामिड के द्वार उत्तर में है तथा, इसके मध्य में गर्भगृह सी संरचना है जिसमे राजा को दफ़न किया जाता था एवं उसके चारो और कक्ष बने होते हैं!
पिरामिड के प्रत्येक पक्ष के शीर्ष करने के लिए 51 डिग्री 51 मिनट का एक कोण पर बढ़ जाता है तथा, पक्षों के प्रत्येक सही उत्तर , दक्षिण , पूर्व और पश्चिम के साथ लगभग ठीक से जुड़ रहे हैं
हमारे हिन्दू मंदिरों की ही तरह पिरामिड में भी संरचना के कारण उसके गर्भगृह में कॉस्मिक ऊर्जा आकर्षित किया गया है जिसे फ़राओ के शव को संरक्षित करने के लिए उपयोग किया गया है!
यहाँ तक कि आज भी हमारे भारत के गांवों में पिरामिड के आकार की झोपड़ियां बनाई जाती है जिसका प्रयोग खाद्य पदार्थों को लम्बे समय तक ताजा रखने के लिए किया जाता है!
और, यह काफी दिलचस्प है कि हमारे मंदिरों के गर्भगृह में भी खाद्य पदार्थ एक लंबे समय के लिए ताजा बने रहते हैं.
क्योंकि इन संरचनाओं के आकार ब्रह्मांड से ऊर्जा के प्रवाह को प्रभावित करती है और, यह ऊर्जा हमारे जीवन की समग्र गुणवत्ता को बढ़ाने में मदद करता है .
असल में , इन सबका रहस्य हमारे धर्मग्रंथों में वर्णित श्री चक्र में छुपा है
ध्यान रखें कि हमारा शरीर सिर्फ एक जैव रासायनिक इकाई ही नहीं है बल्कि, यह ब्रह्मांड के साथ जैव ऊर्जा एक्सचेंजों बनाए रखना सुरक्षा तथा जीवन से लिपटे जैव रासायनिक एवं विद्युत चुंबकीय ऊर्जा क्षेत्र की एक उत्पाद है और यह श्री चक्र जैव ऊर्जा के समुचित प्रवाह को सुनिश्चित करता है!
खैर
इन सभी सबूतों से तो ऐसा ही प्रतीत होता है कि संभवतःउस समय मिस्र पर भी हमारे सनातन धर्म का प्रभाव रहा होगा या फिर , मिस्र से अथवा अन्य देशों के लोगों से अपनी वास्तुकला और निर्माण सुविधाओं के बारे में जानने के लिए किसी ने भारत की यात्रा की होगी और, फिर उसने लौट कर अपने देश में पिरामिडों का निर्माण किया होगा
कारण चाहे जो भी रहा हो परन्तु यह निर्विवाद रूप से स्थापित सत्य है कि मिस्र के बहुचर्चित एवं विश्वप्रसिद्ध पिरामिड कोई नई संरचना नहीं है बल्कि, यह हमारे श्री चक्र के आधार बनाकर एवं मंदिरों की नक़ल कर बनाए गए हैं!
इसीलिए हिन्दुओ पहचानो आपने आपको साथ ही , पहचानो अपने प्रभुत्व को!
हमें गर्व होना चाहिए कि हम महान हिन्दू सनातन का एक अंग हैं
जय महाकाल!
नोट: कोई मुस्लिमों की तरह बेवकूफी करते हुए यह ना लिखे कि हम हिन्दुओं ने पिरामिड कि नक़ल कर श्री चक्र और मंदिर बनाए हैं क्योंकि, अब यह वैज्ञानिक रूप से भी स्थापित हो चुका है कि. हिन्दू सनातन धर्म एवं हमारे धर्म ग्रन्थ लाखों वर्ष पुराने हैं जबकि ये पिरामिड महज कुछेक हजार साल पुराने हैं! 

Sunday, September 29, 2013

क्या प्राचीन मिस्त्र के देवता अमुन, स्वयं श्री हरि विष्णु थे ?

क्या प्राचीन मिस्त्र के देवता अमुन, स्वयं श्री हरि विष्णु थे ?

The ancient Egyptian god Amun, were self-Sri Hari Vishnu?
क्या आप जानते हैं कि..... मिस्र के बहुचर्चित पिरामिड ही सिर्फ हमारे हिन्दू मंदिरों की नक़ल नहीं है बल्कि...... हमारे भगवान श्रीकृष्ण को मिस्र में भी पूजा जाता है ..एवं ...जगन्नाथ यात्रा की ही तरह ... मिस्र में भी जगन्नाथ यात्रा निकाली जाती है...!
यह सुनने में थोडा अटपटा जरुर लगता है.... लेकिन, ये पूर्णतः सत्य है....!
दरअसल.... भगवान् श्रीकृष्ण को मिस्र में.... ""अमन देव "" कह कर पुकारा जाता है....!
मिस्र के अमन देव को हमेशा को ही नील नदी के ऊपर चित्रित किया जाता है..... एवं , उन्हें नील त्वचाधारी के रूप में बताया जाता है...!
सिर्फ इतना ही नहीं..... भगवान अमन देव के सर की पगड़ी के ऊपर.... मोर के दो पंख लगे होने अनिवार्य हैं.....!

और.... मिस्र में ऐसी मान्यता है कि.... इन्ही अमन देव ने...... सृष्टि की रचना की है....!
अब... हिन्दू धर्म के बारे में थोड़ी सी भी जानकारी रखने वाला बच्चा भी..... यह बता देगा कि..... उपरोक्त वर्णन भगवान श्रीकृष्ण का है ...... और, हमारे ... पद्म पुराण.. विष्णु पुराण से लेकर श्रीमदभागवत गीता और महाभारत तक में ... उपरोक्त वर्णन देखा जा सकता है...!
सभी पुराणों एवं धार्मिक ग्रन्थ में भगवान श्रीकृष्ण को भगवान विष्णु का अवतार बताया गया है...... एवं... भगवान श्रीकृष्ण को नील त्वचा धारी .... मोर पंख युक्त ....क्षीर सागर के ऊपर चित्रित किया जाता है....!
सिर्फ इतना ही नहीं..... हमारी जगन्नाथ यात्रा की हूबहू नकल ... हमें अमन देव की यात्रा में मिलता है....!
जिस तरह ..... हमारे जगन्नाथ यात्रा में.... पहले भगवान श्रीकृष्ण , सुभद्रा एवं बलराम की प्रतिमा को नहलाकर कर .... एवं , नए वस्त्रों एवं आभूषणों से सुसज्जित कर .... ढोल-नगाड़े तथा बेहद धूम-धाम से यात्रा निकाली जाती है .....
ठीक उसी प्रकार..... मिस्र में भी.... अमन देव, मूठ एवं खोंसू ...... के त्रैय प्रतिमा को नहलाकर .... नए वस्त्रों एवं आभूषणों से सुसज्जित कर .... बेहद धूम-धाम एवं .. उल्लास के साथ .... ये यात्रा निकाली जाती है....!
और तो और.... भारत में हम हिन्दुओं की ये रथयात्रा .... मानसून से प्रारंभ के कुछ समय बाद ..... पुरी के जगन्नाथ मंदिर और गुंडीका मंदिर को जोडती है... जिसकी दूरी लगभग 2 किलोमीटर है....!
तथा... आश्चर्यजनक रूप से ... मिस्र में भी ये रथयात्रा जुलाई के महीने में ही...... कर्णक मंदिर और लक्सर मंदिर को जोडती है..... जिनके बीच की दूरी लगभग 2 मील है....!
हमारे रथयात्रा के ही समान.. अमन देव की भी रथयात्रा में..... भव्य एवं बेहद सुसज्जित रथों का प्रयोग किया जाता है...... जिन्हें खींचने के लिए .... किसी मशीन अथवा जानवर का प्रयोग नहीं किया जाता है ..... बल्कि, भक्त स्वयं उन्हें अपने हाथों से खींचते हैं....!
इसीलिए... किसी को इस बात पर रत्ती भर भी संदेह नहीं होना चाहिए कि........ मिस्र का अमन देव यात्रा ... और, नहीं बल्कि.... हमारी जगन्नाथ यात्रा ही है...... परन्तु.... जगह, भाषा एवं सामाजिक तानाबाना के परिवर्तन के कारण..... उसे .... जगन्नाथ यात्रा की जगह अमन देव की यात्रा कहा जाने लगा.....!
दरअसल हुआ ये कि....
आज से लगभग 3000 ईसा पूर्व में हमारे हिंदुस्तान और मिस्र के पहले फिरौन के साथ व्यापक व्यापार संबंध थे..... तथा, भारत से मिस्र में ..... मलमल कपास, मसाले, सोने और हाथी दांत.... वगैरह बहुतायत में निर्यात किए जाते थे....!
इसीलिए.... भारतीय व्यापारियों का व्यापार के सिलसिले में ..... मिस्र में हमेशा आते-जाते रहने से.... वहां से सामाजिक और धार्मिक प्रणालियों पर हमारे हिंदुस्तान का बेहद गहरा प्रभाव पड़ा...... और, मिस्र के लोक कला ..... भाषा... जगह के नाम ... एवं, धार्मिक परम्परा पर हिन्दू सनातन धर्म ने एक अमिट छाप छोड़ा....!
कदाचित .... यह भी संभव है कि...... मिस्र पर पहले हम हिन्दुओं का ही वर्चस्व रहा हो..... और, इन हजारों-लाखों सालों में.... मिटते-मिटते भी............ पिरामिड एवं रथयात्रा जैसे कुछ चीज..... हिन्दू सनातन धर्म के प्राचीन गौरव, महानता एवं व्यापकता की गवाही देने के लिए बचे रह गए हों....!
इसीलिए हिन्दुओ..... खुद पर लज्जित होकर अथवा मनहूस सेकुलरों के बहकावे में आकर ........ धर्मनिरपेक्ष ना बनें....
बल्कि.... अपने गौरवशाली इतिहास एवं उसकी व्यापकता को जानकर उस पर अभिमान करें....
और... मुँह झुका कर एवं शर्मिन्दिगी भरे स्वर में ... खुद को सेकुलर कहलाने की अपेक्षा....
गर्व से कहें ....... हम हिन्दू हैं....!
जय महाकाल...!!!
साभार : श्री कुमार सतीश
http://en.wikipedia.org/wiki/Thebes,_Egypt
http://en.wikipedia.org/wiki/Luxor_Temple
http://en.wikipedia.org/wiki/Opet_Festival
http://en.wikipedia.org/wiki/Karna

Wednesday, September 25, 2013

हमारी हर परंपरा में वैज्ञानिकता का दर्शन होता हैं अज्ञानता का नहीं.....

हमारी हर परंपरा में वैज्ञानिकता का दर्शन होता हैं अज्ञानता का नहीं.....
साभार: सनातन संस्कृति - कल और आज
पितृ पक्ष (श्राद्ध) में मुख्य व्यंजन "खीर" का वैज्ञानिक महत्व......
हम सब जानते है की मच्छर काटने से मलेरिया होता है वर्ष मे कम से कम 700-800 बार तो मच्छर काटते ही होंगे अर्थात 70 वर्ष की आयु तक पहुंचते-पहुंचतेलाख बार मच्छर काट लेते होंगे । लेकिन अधिकांश लोगो को जीवनभर में एक दो बार ही मलेरिया होता है सारांश यह है की मच्छर के काटने से मलेरिया होता है यह 1% ही सही है ।
खीर खाओ मलेरिया भगाओ::
लेकिन यहाँ ऐसे विज्ञापनो की कमी नहीं है जो कहते है की एक भी मच्छर ‘डेंजरस’ है, हिट लाओगे तो एक भी मच्छर नहीं बचेगा अब ऐसे विज्ञापनो के झांसे मे आकर के करोड़ो लोग इस मच्छर बाजार मे अप्रत्यक्ष रूप से शामिल हो जाते है । सभी जानते है बैक्टीरिया बिना उपयुक्त वातावरण के नहीं पनप सकते जैसे दूध मे दही डालने मात्र से दही नहीं बनाता, दूध हल्का गरम होना चाहिए, उसे ढककर गरम वातावरण मे रखना होता है । बार बार हिलाने से भी दही नहीं जमता ऐसे ही मलेरिया के बैक्टीरिया को जब पित्त का वातावरण मिलता है तभी वह 4 दिन में पूरे शरीर में फैलता है नहीं तो थोड़े समय में खत्म हो जाता है. सारे मच्छरमार प्रयासो के बाद भी मच्छर और रोगवाहक सूक्ष्म कीट नहीं काटेंगे यह हमारे हाथ में नहीं ; लेकिन पित्त को नियंत्रित रखना हमारे हाथ में तो है.
अब हमारी परम्पराओं का चमत्कार देखिये जिन्हे अल्पज्ञानी, दक़ियानूसी, और पिछड़ेपन की सोच करके, षड्यंत्र फैलाया जाता था ।
वर्षा ऋतु के बाद शरद ऋतु आती है आकाश में बादल धूल न होने से कडक धूप पड़ती है जिससे शरीर में पित्त कुपित होता है इसी समय गड्ढो मे जमा पानी के कारण बहुत बड़ी मात्र मे मच्छर पैदा होते है इससे मलेरिया होने का खतरा सबसे अधिक होता है ।
खीर खाने से पित्त का शमन होता है । शरद में ही पितृ पक्ष (श्राद्ध) आता है पितरों का मुख्य भोजन है खीर । इस दौरान 5-7 बार खीर खाना हो जाता है इसके बाद शरद पुर्णिमा को रातभर चाँदनी के नीचे चाँदी के पात्र में राखी खीर सुबह खाई जाती है (चाँदी का पात्र न हो तो चाँदी का चम्मच खीर मे डाल दे , लेकिन बर्तन मिट्टी या पीतल का हो, क्योंकि स्टील जहर और एल्यूमिनियम, प्लास्टिक, चीनी मिट्टी महा-जहर है) . यह खीर विशेष ठंडक पहुंचाती है । गाय के दूध की हो तो अतिउत्तम, विशेष गुणकारी (आयुर्वेद मे घी से अर्थात गौ घी और दूध गौ का) इससे मलेरिया होने की संभावना नहीं के बराबर हो जाती है
ध्यान रहे : इस ऋतु में बनाई खीर में केसर और मेंवों का प्रयोग न करे । ये गर्म प्रवृत्ति के होने से पित्त बढ़ा सकते है. सिर्फ इलायची डाले.........
 — with कुलदीप शर्मा and 4 others.

Sunday, September 8, 2013

रामायण की किन चौपाइयों से

*रामायण की किन चौपाइयों से दूर होती हैं घर या काम की कौन सी परेशानियां*
1. सिरदर्द या दिमाग की कोई भी परेशानी दूर करने के लिए-
हनुमान अंगद रन गाजे। हाँक सुनत रजनीचर भाजे।।
2. नौकरी पाने के लिए -
बिस्व भरण पोषन कर जोई। ताकर नाम भरत जस होई।।
3.धन-दौलत, सम्पत्ति पाने के लिए -
जे सकाम नर सुनहि जे गावहि।सुख संपत्ति नाना विधि पावहि।।
4. पुत्र पाने के लिए -
प्रेम मगन कौसल्या निसिदिन जात न जान।
सुत सनेह बस माता बालचरित कर गान।।
5. खोई वस्तु या व्यक्ति पाने के लिए -
गई बहोर गरीब नेवाजू। सरल सबल साहिब रघुराजू।।
6. पढ़ाई या परीक्षा में कामयाबी के लिए-
जेहि पर कृपा करहिं जनु जानी। कबि उर अजिर नचावहिं बानी॥
मोरि सुधारिहि सो सब भाँती। जासु कृपा नहिं कृपाँ अघाती॥
7. जहर उतारने के लिए -
नाम प्रभाउ जान सिव नीको। कालकूट फलु दीन्ह अमी को।।
8. नजर उतारने के लिए -
स्याम गौर सुंदर दोउ जोरी। निरखहिं छबि जननीं तृन तोरी।।
9. हनुमानजी की कृपा के लिए -
सुमिरि पवनसुत पावन नामू। अपनें बस करि राखे रामू।।
10. यज्ञोपवीत पहनने व उसकी पवित्रता के लिए -
जुगुति बेधि पुनि पोहिअहिं रामचरित बर ताग।
पहिरहिं सज्जन बिमल उर सोभा अति अनुराग।।
11. सफल व कुशल यात्रा के लिए -
प्रबिसि नगर कीजै सब काजा। ह्रदयँ राखि कोसलपुर राजा॥
12. शत्रुता मिटाने के लिए -
बयरु न कर काहू सन कोई। राम प्रताप विषमता खोई॥
13. सभी तरह के संकटनाश या भूत बाधा दूर करने के लिए -
प्रनवउँ पवन कुमार,खल बन पावक ग्यान घन।
जासु ह्रदयँ आगार, बसहिं राम सर चाप धर॥
14. बीमारियां व अशान्ति दूर करने के लिए -
दैहिक दैविक भौतिक तापा। राम राज काहूहिं नहि ब्यापा॥
15. अकाल मृत्यु भय व संकट दूर करने के लिए -
नाम पाहरु दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट।
लोचन निज पद जंत्रित जाहिं प्रान केहि.!!
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Tuesday, August 27, 2013

चतुर्दिश अस्त्र




आजकल अंग्रेजी स्कूलों एवं अंग्रेजी प्रभाव के कारण.... हमारे हिंदुस्तान में लोगों के दिमाग में यह बात ठूंस -ठूंस कर भर दी जाती है कि..... मिसाइल , हवाई जहाज , टेलीविजन इत्यादि आधुनिक पाश्चात्य आविष्कार हैं.... और, हमें ये सब ज्ञान पश्चिम के देशों से प्राप्त हुआ है....!

लेकिन.... हकीकत बिल्कुल इसके विपरीत है.... और, सच्चाई यह है कि..... हम हिन्दुस्थानियों ने पश्चिम के देशों से ये सब विज्ञान नहीं सीखा है..... बल्कि, पश्चिम के देशों ने .... हम हिन्दुओं के धार्मिक ग्रंथों से प्रेरणा लेकर.... अथवा, इसे बनाने की विधि चुरा कर ... इसे अविष्कार का नाम दे दिया है.... और, हम मूर्खों की तरह .... पश्चिमी देशों की वाह-वाही और उसकी नक़ल करने में लगे हुए हैं....!

उदाहरण के लिए..... युद्ध में प्रयोग किए जाने वाले मिसाइले ..... आज के ज़माने में बेहद आधुनितम तकनीक मानी जाती है......

परन्तु.... यह जानकर आपको आश्चर्य मिश्रित ख़ुशी होगी कि...... जिस ज़माने में पश्चिम के तथाकथित ""ज्ञानी लोगों"" के पूर्वज .... पहाड़ों की गुफा में रहकर .... और, कंद-मूल खा कर अपना जीवन बसर किया करते थे..... उस समय हमारे हिन्दुस्थान के युद्धों में मिसाइल जैसी आधुनिकतम तकनीकों का प्रयोग हुआ करता था...!

हम हिन्दुओं के विभिन्न ग्रंथों ..... खास कर रामायण और महाभारत में जगह-जगह पर बहुत सारे अस्त्र-शस्त्रों का वर्णन आता है ....

यहाँ सबसे पहले यह समझ लें कि..... अस्त्र मतलब .. जिसे हाथ में रख कर युद्ध किया जाए .... जैसे कि.... तलवार, बरछी , भला इत्यादि....!
वहीँ.... शस्त्र का मतलब वैसा अस्त्र होता है...... जिसे दूर से ही दुश्मनों पर प्रहार किया जा सके...... यथा ... तीर, पक्षेपात्र इत्यादि....!

इस तरह.... हमारे पुरातन धार्मिक ग्रंथों में ..... विभिन्न प्रकार के पक्षेपात्रों ( मिसाइल) का उल्लेख मिलता है..... जिसे अस्त्र कह कर संबोधित किया गया है.....

जैसे कि.....
इन्द्र अस्त्र , आग्नेय अस्त्र, वरुण अस्त्र, नाग अस्त्र , नाग पाश , वायु अस्त्र, सूर्य अस्त्र , चतुर्दिश अस्त्र, वज्र अस्त्र, मोहिनी अस्त्र , त्वाश्तर अस्त्र, सम्मोहन / प्रमोहना अस्त्र , पर्वता अस्त्र, ब्रह्मास्त्र, ब्रह्मसिर्षा अस्त्र , नारायणा अस्त्र, वैष्णवअस्त्र, पाशुपत अस्त्र ......ब्रह्मास्त्र .... इत्यादि....!

ये सभी ऐसे अस्त्र थे........ जो अचूक थे....!

इसमें से .....ब्रह्मास्त्र .... संभवतः..... परमाणु सुसज्जित मिसाइल को कहा जाता होगा.... जिसमे समुद्र तक को सुखा देने की क्षमता मौजूद थी...!

परन्तु.... ब्रह्मास्त्र के सिद्धांत को समझने के लिए हम एक Basic Weapon - चतुर्दिश अस्त्र का अध्ययन करते हैं जिसके आधार पर ही अन्य अस्त्रों का निर्माण किया जाता है।

चतुर्दिश अस्त्र ( एक साथ चारों दिशाओं में प्रहार कर सकने की क्षमता वाला अस्त्र ) के सम्बन्ध में हमारे धार्मिक ग्रंथों में इस प्रकार का उल्लेख है ....:

संरचना:

1.तीर (बाण) के अग्र सिरे पर ज्वलनशील रसायन लगा होता है....... और , एक सूत्र के द्वारा इसका सम्बन्ध तीर के पीछे के सिरे पर बंधे बारूद से होता है.

2.तीर की नोक से थोडा पीछे ....... चार छोटे तीर लगे होते हैं ..... और, उनके भी पश्च सिरे पर बारूद लगा होता है.

कार्य-प्रणाली:

1. जैसे ही तीर को धनुष से छोड़ा जाता है... वायु के साथ घर्षण के कारण........तीर के अग्र सिरे पर बंधा ज्वलनशील पदार्थ जलने लगता है.

2. उस से जुड़े सूत्र की सहायता से तीर के पश्च सिरे पर लगा बारूद जलने लगता है......... और , इस से तीर को अत्यधिक तीव्र वेग मिल जाता है.

3. और, तीसरे चरण में तीर की नोक पर लगे....... 4 छोटे तीरों पर लगा बारूद भी जल उठता है ....और, ये चारों तीर चार अलग अलग दिशाओं में तीव्र वेग से चल पड़ते हैं.

दिशा-ज्ञान की प्राचीन जडें (Ancient root of Navigation):

navigation का अविष्कार 6000 साल पहले सिन्धु नदी के पास हो गया था।

आपको यह जानकर और भी आश्चर्य होगा कि...... अंग्रेजी शब्द navigation, . हमारे संस्कृत से ही बना है.. और, ये शब्द सिर्फ हमारे संस्कृत का अंग्रेजी रूपांतरण है....!

: navi -नवी (new); gation -गतिओं (motions).

इसीलिए जागो हिन्दुओ...... और, पहचानो अपने आपको ....

हम हिन्दू प्रारंभ में भी ..... विश्वगुरु थे ... और, आज भी हम में विश्वगुरु बनने की क्षमता है....!

जय महाकाल...!!!


Tuesday, August 20, 2013

अफ्रीका में 6 हजार वर्ष पूर्व प्रचलित था हिंदू धर्म

अफ्रीका में 6 हजार वर्ष पूर्व प्रचलित था हिंदू धर्म




भगवान शिव कहां नहीं हैं? कहते हैं कण-कण में हैं शिव, कंकर-कंकर में हैं भगवान शंकर। कैलाश में शिव और काशी में भी शिव और अब अफ्रीका में शिव। साउथ अफ्रीका में भी शिव की मूर्ति का पाया जाना इस बात का सबूत है कि आज से 6 हजार वर्ष पूर्व अफ्रीकी लोग भी हिंदू धर्म का पालन करते थे।

साउथ अफ्रीका के सुद्वारा नामक एक गुफा में पुरातत्वविदों को महादेव की 6 हजार वर्ष पुरानी शिवलिंग की मूर्ति मिली जिसे कठोर ग्रेनाइट पत्थर से बनाया गया है। इस शिवलिंग को खोजने वाले पुरातत्ववेत्ता हैरान हैं कि यह शिवलिंग यहां अभी तक सुरक्षित कैसे रहा।हाल ही में दुनिया की सबसे ऊंची शिवशक्ति की प्रतिमा का अनावरण दक्षिण अफ्रीका में किया गया। इस प्रतिमा में भगवान शिव और उनकी शक्ति अर्धांगिनी पार्वती भी हैं। बेनोनी शहर के एकटोनविले में यह प्रतिमा स्थापित की गई। हिन्दुओं के आराध्य शिव की प्रतिमा में आधी आकृति शिव और आधी आकृति मां शक्ति की है।

10 कलाकारों ने 10 महीने की कड़ी मेहनत के बाद इस प्रतिमा को तैयार किया है। ये कलाकार भारत से आए थे। इस 20 मीटर ऊंची प्रतिमा को बनाने में 90 टन के करीब स्टील का इस्तेमाल हुआ है।