यज्ञोपवीत कितना वैज्ञानिक
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हिंदू धर्म के सोलह संस्कारों में से एक है यज्ञोपवीत। यज्ञ और उपवीत शब्दों से मिलकर बना है-यज्ञोपवीत। यज्धातु से यज्ञ बना है। शास्त्रों में जहां यज्धातु को देवताओं की पूजा, दान आदि से संबंधित बताया गया है, वहीं उपवीत का अर्थ समीप या नजदीक होना होता है। इस प्रकार यज्ञोपवीत का अर्थ हुआ-यज्ञ के समीप यानी ऐसी वस्तु, जिसे धारण करने पर हम देवताओं के समीप हो जाते हैं।कर्तव्य के आधार पर चुनाव :शास्त्रों के अनुसार, छह प्रकार के यज्ञोपवीत ऐसे हैं, जिन्हें धारण किया जा सकता है-कपास से तैयार. रेशम-धागा . सन से बना हुआ . स्वर्ण के धागों से मढा हुआ . चांदी के तार से पिरोया गया . कुश और घास से तैयार यज्ञोपवीत।कर्तव्य के आधार पर माता-पिता इनका चुनाव करते हैं। जो माता-पिता अपनी संतान को पठन-पाठन [ब्राह्मण] से जोडना चाहते हैं, उनके लिए शास्त्रों में सूत और रेशम का यज्ञोपवीत धारण करने का विधान है। यदि व्यक्ति देश-समाज के रक्षा कार्यो [क्षत्रिय] से जुडा हो, तो उसे सोने से तैयार जनेऊ धारण करना चाहिए।व्यापार [वैश्य] करने वालों के लिए चांदी या सूत से तैयार उपनयनका विधान है। रंगों का महत्व :अब प्रश्न उठता है कि हम किस रंग का जनेऊ धारण करें? पढने-पढाने वालों को सफेद रंग का, रक्षा संबंधी कार्यो से जुडे व्यक्ति को लाल रंग का और व्यापार से जुडे लोगों के लिए चांदी की जनेऊ धारण करने का प्रावधान है।वैज्ञानिक आधार :यज्ञोपवीत धारण करने के वैज्ञानिक आधार भी हैं। आयुर्वेद के अनुसार, यज्ञोपवीत धारण करने से इंसान की उम्र लंबी, बुद्धि तेज, और मन स्थिर होता है। जनेऊ धारण करने से व्यक्ति बलवान, यशस्वी, वीर और पराक्रमी होता है। आयुर्वेद में यह भी कहा गया है कि यज्ञोपवीत धारण करने से न तो हृदयरोग होता है और न ही गले और मुख का रोग सताता है। मान्यता है कि सन से तैयार यज्ञोपवीत पित्त रोगों से बचाव करने में सक्षम है। जो व्यक्ति स्वर्ण के तारों से तैयार यज्ञोपवीत धारण करते हैं, उन्हें आंखों की बीमारियों से छुटकारा मिल जाता है। इससे बुद्धि और स्मरण शक्ति बढ जाती है और बुढापा भी देर से आता है। रेशम का जनेऊ पहनने से वाणी पर नियंत्रण रहता है। मान्यता है कि चांदी के तार से तैयार यज्ञोपवीत धारण करने से शरीर पुष्ट होता है। आयु में भी वृद्धि होती है। ध्यान रखें कि जनेऊ शरीर पर बायें कंधे से हृदय को छूता हुआ कमर तक होना चाहिए ।.यज्ञोपवीत धारण करने से आयु वृद्धि, उत्तम विचार और धर्म मार्ग पर चलने वाली श्रेष्ठ संतान प्राप्त होती है। यही नहीं यज्ञोपवीत बल और तेज दोनों ही प्रदान करती है।इंसान का जन्म तो अपनी माता की कोख से होता है, लेकिन उसके प्राकृत जीवन को अधिक शुद्ध, संवेदनशील और विश्व कल्याण में लगाने के लिएजिस संस्कार की सबसे ज्यादा जरूरत है, वह है यज्ञोपवीत संस्कार। वेदों में यज्ञोपवीत शब्द "यज्ञ" और "उपवीत" इन दो पदों से मिलकर बना है। इसका अर्थ है "यज्ञ द्वारा पवित्र किया गया सूत्र"। यज्ञोपवीत संस्कार को व्रतबंध, उपनयन और लोकभाषा में "जनेऊ" भी कहा जाता है। शास्त्रों में यज्ञोपवीत संस्कार को द्विज मात्र का पुनर्जन्म ही माना गया है, जिसके कारण वह "द्विज" कहलाता है। इसी कारण ब्रह्मपुराण में कहा गया है कि जन्म से व्यक्ति की ब्राह्मण आदि कई जातियां होती हंै लेकिन यज्ञोपवीत संस्कार के बाद ही वह द्विज कहलाने लगता है।यज्ञोपवीत है जरूरीब्रह्मोपनिषद् में यज्ञोपवीत को श्रेष्ठ औरपरम पवित्र कहा गया है। यह सृष्टि के आरंभ में भगवान प्रजापति के साथ उत्पन्न हुई थी। यज्ञोपवीत धारण करने से आयु वृद्धि, उत्तम विचार और धर्म मार्ग पर चलने वाली श्रेष्ठ संतान प्राप्त होती है। यज्ञोपवीत बल और तेजदोनों ही प्रदान करती है। शंखस्मृति में यज्ञोपवीत पहनने की आयु का निर्घारण भी कियागया है, "गर्भाष्टमेùब्दे कर्तव्यं ब्राह्मणस्योपनायपम्" यानी आठवें वर्ष में ब्राह्मण, क्षत्रिय का दसवें और वैश्य का बारहवें वर्ष में उपनयन संस्कार कर ही देना चाहिए। कहीं-कहीं शास्त्रों में ब्राह्मण के लिए सोलह, क्षत्रिय के लिए बीस और वैश्य केलिए चौबीस वर्ष की आयु तक भी यज्ञोपवीत करने का विधान प्राप्त होता है। इस आयु तक यज्ञोपवीत संस्कार न करने पर वह व्यक्ति व्रात्य दोष के कारण सब धर्म-कर्म से रहित औरयहां तक पतित हो जाता है कि उसके द्वारा कियागया धार्मिक कृत्य सफल हो ही नहीं पाता।संपूर्ण फल के लिए यज्ञोपवीतयज्ञोपवीत सारे वैदिक और पौराणिक कृत्यों में अत्यंत आवश्यक है। कई लोग कहते हैं कि उन्हें पूजा-अनुष्ठान का पूरा फल प्राप्त नहीं हो रहा है, इसका प्रमुख कारण यही है कि वे लोग बिना यज्ञोपवीत धारण किए ही सारे जप-अनुष्ठान संपन्न कर लेते हैं। यज्ञोपवीत स्वयं की शोभा के लिए या खंूटी पर टांग देने के लिए नहीं होती, बल्कि यह तो शास्त्रों का परमादेश है। एक बार यज्ञोपवीत संस्कार हो जाने के बाद जो व्यक्ति अज्ञानतावश यज्ञोपवीत नहीं पहनता, वह महापाप का भागी होता है। सूर्योपासना और माता गायत्री की उपासना में तो यज्ञोपवीत जरूरी ही है। पितृ-तर्पण और श्राद्ध, तीर्थ पूजन आदि में यज्ञोपवीत न हो तो सारा कर्म ही निष्फल हो जाता है।धर्म की निशानी है यज्ञोपवीतवाल्मीकि रामायण में स्पष्ट उल्लेख है कि मर्यादा पुरूषोतम भगवान श्रीराम स्वयं धर्मके प्रतीक के रूप में यज्ञोपवीत धारण करते हैं। श्रीराम को माता-पिता और गुरू वशिष्ठ यज्ञोपवीत धारण करवाते हैं। श्रीकृष्ण का यज्ञोपवीत संस्कार महर्षि संदीपनी के आश्रममें संपन्न होता है। इसी कारण हम जब भी किसी शुभ कार्य में देवपूजन करते हैं, तो देवताओं को यज्ञोपवीत अनिवार्य रूप से चढ़ाते ही हैं। अब हम देवताओं को तो जनेऊ चढ़ाएं और स्वयं पहने ही नहीं तो भला कैसे हमें पूजन कासंपूर्ण फल प्राप्त हो सकता है? लिहाजा यह जरूरी है कि जोव्यक्ति किसी भी तरह का धर्म-अनुष्ठान करना चाहता है, उसे सबसे पहले धर्म के क्षेत्र में प्रवेश करने के लिए यज्ञोपवीत जरूर ही धारण करनी चाहिए।
यज्ञोपवीत संस्कार
ReplyDeleteयज्ञोपवीत संस्कार को उपनयन संस्कार के नाम से भी जाना जाता है। यह संस्कार सोलहों संस्कारों में सबसे विशेष महत्व का है। माता पिता बालक के इस संस्कार के प्रति काफी जागरूक रहते हैं. इस संस्कार के बाद बालक में विद्या बुद्धि के क्षेत्र मे विशेष परिवर्तन दीखता है।