जो उलझा रहा है, वह धर्म नहीं हो सकता या हम धर्म की परिभाषा नहीं जानते । धर्म सुलझाता है, तब, जब हम सुलझना चाहते हैं । यह प्रश्न तो हमारा स्वयं से होना चाहिये कि क्या हम वास्तव में धर्म को जानना चाहते हैं या आत्म-प्रशंसा के लिये धर्म-धर्म का नाटक कर रहे हैं । वस्तुस्थिति तो यह है कि धर्म हमसे दूर नहीं हो रहा, हम धर्म से दूर हो रहे हैं क्योंकि धर्म के साथ चलते हुए हमें अपनी कुत्सित भावनाओं और स्वार्थ की पूर्ति संभव नहीं दिखती अत: "सब यही कर रहे हैं, केवल हमने ही तो धर्म का ठेका नहीं ले रखा है" यह सोचकर हम स्वयं अपने धर्म का परित्याग करते हैं । दास का अनुभव है कि आज जितने सत्संग-कथा-प्रवचन स्थान-स्थान पर हो रहे हैं, उतने कभी भी नहीं हुए। आखिर क्या कारण है कि भगवद-कृपा से इतने कथा-सत्संग-प्रवचनों की उपलब्धता के बाद भी दिन-ब-दिन पाप बढ़ता ही जा रहा है। हर स्थान पर कथा-प्रवचनों में भारी भीड़ के बाद भी मनुष्य-मात्र के आचरण में कोई विशेष बदलाव नहीं दिखायी दे रहा है; बहुत बड़ी संख्या में लोग ठाकुरजी की मंगला आरति के दर्शन करते हैं; बहुत से श्रीहरि के दर्शन के बिना खाते-पीते नहीं। बहुतों ने दर्शन का नियम ले रखा है, बहुतों ने साप्ताहिक दर्शन एवं परिक्रमा का; बहुत से लोग मिलकर कथा का आयोजन करवाते हैं अन्य भंडारों का आयोजन करते हुए स्वयं को गौरवशाली अनुभव करते हैं। श्रीमदभागवत प्रवक्ता बार-बार कहते हैं कि यह कथा मोक्षदायिनी है हमने कथाओं, सत्संग-प्रवचनों में जो भी सुना, उस समय तन्मय होकर सुना, बड़ा आनन्द आया। ह्रदय बार-बार कहता है कि सब सत्य ही तो कहा जा रहा है, प्रभु के प्रति सुप्त प्रेम अनायास छलकने लगता है। मन-मयूर आहलादित होकर नृत्य करने लगता है, अश्रुपात होने लगता है, पाँव स्वयं ही थिरकने लगते हैं परन्तु कथा -प्रवचन से लौटते हुए यह मस्ती शनै: शनै: उतरने लगती है। कुछ देर बाद ही संसार हमारे ऊपर हावी होने लगता है और कुछ ही देर में हमें पूर्णरुप से अपनी गिरफ़्त में ले लेता है। हम मानो एक बड़े ही मीठे स्वपन से मुक्त होकर "जाग्रत अवस्था" में आ जाते हैं। कटु सत्य तो यह है कि हम धार्मिक हैं ही नहीं। कथा-प्रवचनों को हम एक आनन्द के साधन के रुप में ले रहे हैं जिस प्रकार हम सिनेमा देखते है और अच्छे अभिनय, और पटकथा की प्रशंसा करते हैं, फ़िल्म के कई "डायलाँग्स" को हम रट लेते हैं, और अपनी प्रसन्नता के लिये, दूसरों पर शेखी बघारने के लिये, दोहराते हैं; लेकिन उस कथा की किसी भी अच्छी बात या डायलाँग को किसी भी रुप में अपनाते नहीं; ठीक यही हम कर रहे हैं। कथा तारेगी कब ? जब प्रथम तो वह वक्ता के आचरण में उतरेगी। यदि वक्ता पर भगवद-कृपा है और वह प्रभु-कृपा से प्रभु की लीलाओं के मर्म को समझ गया है तो नि:सन्देह ऐसे वक्ता की कथा का प्रभाव जन-मानस पर पड़ेगा ही। खेद की बात है कि कुछ वक्ताओं ने इसे भी एक "ऐन्टरटेन्मेंन्ट पैकेज" बना दिया है जिसमें कथा का सार कम और सभी रसों का थोड़ा-थोड़ा समावेश करके एक "हिट फ़ार्मूला" बना दिया है जिससे किसका "कल्याण" हो रहा है, वह ही जानें। उससे भी अधिक दोषी हम हैं। हम भी तो कहाँ किसी भी अच्छी बात को अपने आचरण में उतार रहे हैं। परिजनों में हम शेखी बघारते हैं कि - " अरे ! तुम कथा में नहीं गये ? बड़ी अच्छी कथा हो रही है, महाराजश्री ऐसा वर्णन करते हैं कि आत्मा प्रसन्न हो जाती है। अरे भाई ! कभी तो मिला करो। नहीं-नहीं, कल नहीं मिल पाऊँगा, उस समय तो मैं कथा सुनने जाता हूँ।" हम उन्हें जताना चाहते हैं कि हममें और तुममें क्या अन्तर है ? हम कहाँ और तुम कहाँ ? अब हम धार्मिक होने के कारण मन्दिर नहीं जाते, दान नहीं करते, सहायता नहीं करते वरन अधिकाशत: हम यह सब "डर" के कारण करते हैं। शहरों में तो अधिकांशत: ऐसे आयोजन वैभव का प्रदर्शन बन गये हैं; लाखों रुपयों का खर्च, "स्टेट्स सिम्बल" बन गया है। पहिले जिस प्रकार विवाह समारोहों में वैभव का प्रदर्शन होता है अब उससे कहीं अधिक ऐसे आयोजनों में दिखायी देता है और धर्म की मूल भावना ही जब गौड़ हो जाये तो हमारा कल्याण कैसे संभव है ? भागते-दौड़ते हम सोमवार को कहीं हाजिरी लगाते हैं, मंगल को कहीं और, बृहस्पतिवार को कहीं, और शनिवार को कहीं। हमें डर है कि हमारे द्वारा जाने या अनजाने में नित्य ही अपराधों की मात्रा बढ़ती जा रही है, यह ऐसा युग है कि दौड़ में यदि आपने किसी को धक्का नहीं दिया तो वह आपको दे देगा, क्या सही, क्या गलत, क्या नैतिक, क्या अनैतिक; बस, किसी प्रकार आगे निकलना है। लक्ष्य पर पहुँचकर सोचेंगे, अभी तो सब जायज है और यह सब करते हुए जब हमारी आत्मा, हमें कचोटती है तो हम स्वयं ही स्वयं को कुतर्कों की "ऐनस्थिसिया" देकर सुला देते हैं। पर आत्मा कुछ समय बाद पुन: जाग्रत होकर प्रश्न करती है और हमारे पास उत्तर नहीं होता। अपने अन्तर में झाँकने से जब हम घबराने लगते है तब हम भागते हैं किसी संत के पास, मन्दिर में दर्शन करने, कुछ दान-पुण्य करने। हमारा अपराध-बोध हमें दौड़ाता है। विडंबना यह भी है कि ऐसा करने के बाद जब हम वापस अपनी दुनिया में आते हैं तब स्वय़ं पर गर्व अनुभव करते हैं कि हम कितने धार्मिक हैं, हमारे विचार कितने पवित्र हैं: हमारे जैसा तो हमारे आस-पास कोई दिखायी भी नहीं देता ? हम अपनी आत्मा से कहते हैं कि लो कर ली तेरे मन की, अब प्रसन्न ! यदि "अनजाने में" हमसे कुछ गलत भी हो गया हो, किसी का ह्रदय दु:खा हो तो अब तो दान-पुण्य के द्वारा हमने अपना "प्रायश्चित" कर लिया। स्वयं ही स्वयं को दिलासा देकर हम पुन: उन्हीं कर्मों में प्रवृत्त हो जाते हैं क्योंकि अब तो हम पवित्र हो ही चुके हैं।
पुनश्च, इसे आत्म-प्रलाप ही समझें। यदि मुझ पतित के इन कठोर शब्दों से किसी भी भक्त ह्रदय को वेदना पहुँचे तो अपना ही नादान, दुष्ट, नालायक बालक समझकर क्षमा करने की कृपा कीजियेगा। जो विक्षिप्त के प्रकार का व्यवहार करता हो और जिसे अपना कल्याण ही समझ न आ रहा हो, उसकी बातों को ह्रदय से मत लगाइयेगा।
हे प्रभु ! हे नाथ ! हे करुणा सागर ! हे जीवनधन ! हे प्रियतम ! हे प्राणनाथ ! मुझ अधम शिरोमणि की एकमात्र आशा ! तुम्हीं अपने कर-कमलों से मुझ पतित को इस पंक से उबारो तो ही उबर सकता हूँ। जिस प्रकार शूकर को पंक में, वैकुण्ठ से भी बढ़कर सुख प्रतीत होता है, हे मोहन ! मुझे भी सांसारिक भोगों ने ऐसे ही मोह लिया है। संतजनों के वचन क्षणिक आनन्द के पश्चात एक कर्ण में प्रवेश कर दूसरे से निकल जाते हैं, भीतर कुछ भी नहीं जा रहा और ढ़ोंग मैं ऐसा करता हूँ मानो कितना विनयी, सरल और पवित्र आचरण वाला तुम्हारा प्रिय भक्त हूँ। हे दीनबंधु ! हे अशरणशरण ! संतों के सम्मुख जब मैं, भक्त होने का नाटक करता हूँ और उस समय जो दो-चार बार तुम्हारा नाम लेता हूँ, चूँकि मुझ पतित से तुम्हें अधिक आशा भी नहीं है अत: तुम इतने से ही मुझ अधम पर प्रसन्न होकर मुसकराते हुए मेरी ओर इंगित कर किसी अपने प्रिय संत को/ भक्त को मेरे कल्याण का भार सौंप देते हो। तुम्हारी कृपा से इतना तो विश्वास हो ही गया है कि तुम मुझे छोड़ोगे नहीं परन्तु नाथ ! यदि ऐसा हो जाये कि मैं आपको नहीं छोडू तो अत्युत्तम होगा। यह होगा भी तभी जब आप करवाओगे। मेरी क्षमता भी नहीं, बुद्धि भी नहीं, अपने कल्याण का मार्ग भी तो नहीं जानता और आप जना भी दो तो भोगों में प्रबल आसक्ति के कारण मैं चलने वाला भी तो नहीं। आज चेतना कुछ जाग्रत सी प्रतीत होती है अत: आपसे आज ही यह प्रार्थना है कि प्रभु ! इतनी दया बनाये रखना कि यह दुष्ट, आपकी चरण-धूलि से पवित्र हो जाये और इसका एकमात्र अवलम्बन आपके चरण-कमल बने रहे, उनसे विलग न होने पावे। सब आप पर ही छोड़ता हूँ, मेरे बस में तो वैसे भी कुछ है ही नहीं। हे पतितपावन ! मुझ पतित को आप निश्चय ही अपने नाम की लाज रखते हुए स्वीकारेंगे क्योंकि राम से बड़ा राम का नाम.......। दीनबंधु ! दीन तुम्हें छोड़कर किसके पास जाये ? हे अशरणशरण ! तुम्हीं शरण न दोगे तो कौन देगा ?
जय जय श्री राधे !
पुनश्च, इसे आत्म-प्रलाप ही समझें। यदि मुझ पतित के इन कठोर शब्दों से किसी भी भक्त ह्रदय को वेदना पहुँचे तो अपना ही नादान, दुष्ट, नालायक बालक समझकर क्षमा करने की कृपा कीजियेगा। जो विक्षिप्त के प्रकार का व्यवहार करता हो और जिसे अपना कल्याण ही समझ न आ रहा हो, उसकी बातों को ह्रदय से मत लगाइयेगा।
हे प्रभु ! हे नाथ ! हे करुणा सागर ! हे जीवनधन ! हे प्रियतम ! हे प्राणनाथ ! मुझ अधम शिरोमणि की एकमात्र आशा ! तुम्हीं अपने कर-कमलों से मुझ पतित को इस पंक से उबारो तो ही उबर सकता हूँ। जिस प्रकार शूकर को पंक में, वैकुण्ठ से भी बढ़कर सुख प्रतीत होता है, हे मोहन ! मुझे भी सांसारिक भोगों ने ऐसे ही मोह लिया है। संतजनों के वचन क्षणिक आनन्द के पश्चात एक कर्ण में प्रवेश कर दूसरे से निकल जाते हैं, भीतर कुछ भी नहीं जा रहा और ढ़ोंग मैं ऐसा करता हूँ मानो कितना विनयी, सरल और पवित्र आचरण वाला तुम्हारा प्रिय भक्त हूँ। हे दीनबंधु ! हे अशरणशरण ! संतों के सम्मुख जब मैं, भक्त होने का नाटक करता हूँ और उस समय जो दो-चार बार तुम्हारा नाम लेता हूँ, चूँकि मुझ पतित से तुम्हें अधिक आशा भी नहीं है अत: तुम इतने से ही मुझ अधम पर प्रसन्न होकर मुसकराते हुए मेरी ओर इंगित कर किसी अपने प्रिय संत को/ भक्त को मेरे कल्याण का भार सौंप देते हो। तुम्हारी कृपा से इतना तो विश्वास हो ही गया है कि तुम मुझे छोड़ोगे नहीं परन्तु नाथ ! यदि ऐसा हो जाये कि मैं आपको नहीं छोडू तो अत्युत्तम होगा। यह होगा भी तभी जब आप करवाओगे। मेरी क्षमता भी नहीं, बुद्धि भी नहीं, अपने कल्याण का मार्ग भी तो नहीं जानता और आप जना भी दो तो भोगों में प्रबल आसक्ति के कारण मैं चलने वाला भी तो नहीं। आज चेतना कुछ जाग्रत सी प्रतीत होती है अत: आपसे आज ही यह प्रार्थना है कि प्रभु ! इतनी दया बनाये रखना कि यह दुष्ट, आपकी चरण-धूलि से पवित्र हो जाये और इसका एकमात्र अवलम्बन आपके चरण-कमल बने रहे, उनसे विलग न होने पावे। सब आप पर ही छोड़ता हूँ, मेरे बस में तो वैसे भी कुछ है ही नहीं। हे पतितपावन ! मुझ पतित को आप निश्चय ही अपने नाम की लाज रखते हुए स्वीकारेंगे क्योंकि राम से बड़ा राम का नाम.......। दीनबंधु ! दीन तुम्हें छोड़कर किसके पास जाये ? हे अशरणशरण ! तुम्हीं शरण न दोगे तो कौन देगा ?
जय जय श्री राधे !
No comments:
Post a Comment