Tuesday, May 28, 2013

भक्ति का तत्त्व

भक्ति का तत्त्व

[ १ ] भगवान शरणागत भक्त से कभी अलग नहीं हो सकते | भगवान का सर्वस्व उसका हो जाता है | वह परम पवित्र हो जाता है , उसके दर्शन , भाषण और चिंतन से भी लोग पवित्र हो जाते हैं | वह तीर्थों के लिए तीर्थरूप बन जाता है | उसके संम्पूर्ण अवगुण , पाप , और दुखों का अत्यंत नाश हो जाता है और उसके आनंद और शान्ति का पार नहीं रहता |

[ २ ] नवधा - भक्ति का तत्त्व रहस्य महापुरुषों से समझकर श्रद्धा और प्रेमपूर्वक तत्परता के साथ भक्ति का साधन करना चाहिए | बिना अभ्यास किये साधक प्रेमलक्षणा भक्ति का सच्चा पात्र नहीं बन सकता | ईश्वर की स्मृति निरंतर रहनी चाहिए | भगवान के स्मरण के अभ्यास से पापी का भी एक क्षण में उद्धार हो सकता है | 


[ ३ ] भगवान में चित्त लगाकर भगवान के लिए ही कर्म करनेवाले को भगवान की कृपा से भगवान शीघ्र मिल जाते हैं , यह बात जगह - जगह गीता में भगवान ने कही है [ ८ / ७ ; ११ / ५५ ; १२ / ६ , ७ , ८ ; १८ / ५६ , ५७ ,५८; १८ / ६२ ] | सब काम करते हुए निरंतर भगवतस्मरण करने की चेष्टा करनी चाहिए | स्मरण तेलधारावत लगातार होना चाहिए |


[ ४ ] भगवान के किये हुए प्रत्येक विधान में निरंतर उनका स्मरण करता हुआ परम संतोष मानकर हर समय प्रसन्न रहे | अपने मस्तक पर प्रभु का हाथ समझकर आनन्दित होता रहे | सबसे मुख्य बात है अनन्य मनसे युक्त होकर भगवान को निरंतर भजना | अनन्य भजन का स्वरूप भगवान ने गीता [ ९ / १४ ] में बतलाया है | नित्य - निरंतर चिंतन ही मुख्य है |


[ ५ ] भगवान का साक्षात दर्शन तो अनन्य भक्ति के अतिरिक्त अन्य किसी उपाय से नहीं हो सकता [ गीता ११ / ५४ ] | अनन्य भक्त को भक्ति का तत्त्व परमेश्वर स्वयं समझा देते हैं | 

[ ६ ] यदि घर में एक भी पुरुष को अनन्य भक्ति से परमात्मा का साक्षात्कार हो जाय तो उसका समस्त कुल पवित्र समझा जाता है | भक्ति के द्वारा सब कुछ हो सकता है | साकार भगवान नेत्रों से देखे जाते हैं , सगुण - निराकार बुद्धि द्वारा समझे जाते हैं और निर्गुण - निराकार अनुभव से प्राप्त किये जाते हैं | ज्ञानरूप नेत्रोंवाले ज्ञानीजन ही भगवान को तत्त्व से जान सकते हैं | 

[ ७ ] केवल भगवान के नाम का जप , उनके स्वरूप का पूजन और ध्यान करने से भी अति उत्तम गति की प्राप्ति हो सकती है | 

[ ८ ] अनन्य - भक्त को भगवान स्वयं ज्ञान प्रदान कर उसके अज्ञानरुपी अंधकार का नाश कर देते हैं | भक्त जिस रूप में उन्हें देखना चाहता है , वे उसी रूप में प्रत्यक्ष प्रकट होकर दर्शन देते हैं | 

[ ९ ] श्री नरसी मेहता की तरह लज्जा , मान , बडाई और भय को छोड़कर भगवान के गुण - गान में मग्न होकर विचरने से भगवान प्रत्यक्ष मिल सकते हैं | कहते हैं कि मेहताजी के जीवन में कुल ५४ बार भगवान सशरीर प्रकट हुए और उनका कार्य सिद्ध किया | 

[ १० ] दयामय भगवान केवल भाव के भूखे हैं | भावरहित के लिए उनका द्वार सदा बंद है | 

[ ११ ] उपासना या भक्तिमार्ग बड़ा ही सुगम और महत्त्वपूर्ण है | इसमें ईश्वर का सहारा रहता है और उनका बल प्राप्त होता रहता है | 

[ १२ ] सात्विक आचरण और भगवान की विशुद्ध भक्ति से अंत:करण की शुद्धि होने पर , जिस समय भ्रम मिट जाता है उस समय साधक कृत - कृत्य हो जाता है , यही परमात्मा की प्राप्ति है | 

[ १३ ] भक्ति के लिए भगवान ने पहली शर्त यह बतलाई है की भक्ति के साधन करनेवालों को दैवी - संपत्ति का आश्रय लेना चाहिए | 

[ १४ ] भक्ति दिखाने की चीज नहीं है , वह तो हृदय का परम गुप्त धन है | भक्ति का स्वरूप जितना गुप्त रहता है , उतना ही वह अधिक मूल्यवान समझा जाता है | 

[ १५ ] गीता का प्रारंभ [ २/ ७ ] और पर्यावसान [ १८ / ६६ ] भक्ति में ही है | इसलिए वास्तव में भगवान में अनन्य प्रेम का होना ही भक्ति है | 

[ १६ ] अतिशय समता , शान्ति , दया , प्रेम , क्षमा , माधुर्य , वात्सल्य , गम्भीरता , उदारता , सुहृदता आदि भगवान के गुण हैं | 

[ १७ ] सम्पूर्ण विभूति , बल , ऐश्वर्य , तेज , शक्ति , सामर्थ्य और असम्भव को भी सम्भव कर देना आदि भगवान का प्रभाव है | 

[ १८ ] जैसे परमाणु , भाप , बादल , बूँदें , और बर्फ आदि सब जल ही हैं , वैसे ही सगुण , निर्गुण , साकार , निराकार , व्यक्त , अव्यक्त , जड , चेतन , स्थावर , जंगम , सत , असत , आदि जो कुछ भी है तथा जो इससे भी परे है , वह सब भगवान ही है | यह भगवान का तत्त्व है |

[ १९ ] भगवान के दर्शन , भाषण , स्पर्श , चिंतन , कीर्तन , अर्चन , वन्दन , स्तवन आदि से पापी भी परम पवित्र हो जाता है , यह विश्वास करना तथा सर्वज्ञ , सर्वशक्तिमान , सर्वत्र समभाव से स्थित मनुष्य आदि शरीरों में प्रकट होनेवाले और अवतार लेनेवाले परमात्मा को पहचानना , यह रहस्य है | 

[ २० ] भक्ति से ज्ञान - वैराग्य आप ही हो सकते हैं क्योंकि भक्ति माता है और ज्ञान - वैराग्य दोनों उसके पुत्र हैं | अत: भक्ति में ही सुख है | 

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