Tuesday, December 24, 2013

हनुमान जी ने धरा पंचमुखी रूप

जब हनुमान जी ने धरा पंचमुखी रूप और बचाया श्रीराम-लक्ष्मण को.....

श्रीराम-रावण युद्ध के मध्य एक समय ऐसा आया जब रावण को अपनी सहायता के लिए अपने भाई अहिरावण का स्मरण करना पड़ा। वह तंत्र-मंत्र का प्रकांड पंडित एवं मां भवानी का अनन्य भक्त था। अपने भाई रावण के संकट को दूर करने का उसने एक सहज उपाय निकाल लिया। यदि श्रीराम एवं लक्ष्मण का ही अपहरण कर लिया जाए तो युद्ध तो स्वत: ही समाप्त हो जाएगा। उसने ऐसी माया रची कि सारी सेना प्रगाढ़ निद्रा में निमग्न हो गयी और वह श्री राम और लक्ष्मण का अपहरण करके उन्हें निद्रावस्था में ही पाताल-लोक ले गया।

जागने पर जब इस संकट का भान हुआ और विभीषण ने यह रहस्य खोला कि ऐसा दु:साहस केवल अहिरावण ही कर सकता है तो सदा की भांति सबकी आंखें संकट मोचन हनुमानजी पर ही जा टिकीं। हनुमान जी तत्काल पाताल लोक पहुंचे। द्वार पर रक्षक के रूप में मकरध्वज से युद्ध कर और उसे हराकर जब वह पातालपुरी के महल में पहुंचे तो श्रीराम एवं लक्ष्मण जी को बंधक-अवस्था में पाया।

वहां भिन्न-भिन्न दिशाओं में पांच दीपक जल रहे थे और मां भवानी के सम्मुख श्रीराम एवं लक्ष्मण की बलि देने की पूरी तैयारी थी। अहिरावण का अंत करना है तो इन पांच दीपकों को एक साथ एक ही समय में बुझाना होगा। यह रहस्य ज्ञात होते ही हनुमान जी ने पंचमुखी हनुमान का रूप धारण किया। उत्तर दिशा में वराह मुख, दक्षिण दिशा में नरसिम्ह मुख, पश्चिम में गरुड़ मुख, आकाश की ओर हयग्रीव मुख एवं पूर्व दिशा में हनुमान मुख। इन पांच मुखों को धारण कर उन्होंने एक साथ सारे दीपकों को बुझाकर अहिरावण का अंत किया और श्रीराम-लक्ष्मण को मुक्त किया।

सागर पार करते समय एक मछली ने उनके स्वेद की एक बूंद ग्रहण कर लेने से गर्भ धारण कर मकरध्वज को जन्म दिया था अत: मकरध्वज हनुमान जी का पुत्र है, ऐसा जानकर श्रीराम ने मकरध्वज को पातालपुरी का राज्य सौंपने का हनुमान जी को आदेश दिया। हनुमान जी ने उनकी आज्ञा का पालन किया और वापस उन दोनों को लेकर सागर तट पर युद्धस्थल पर लौट आये

श्रीमद भागवत पुराण में सापेक्षता का सिद्धांत (Theory of Relativity)

श्रीमद भागवत पुराण में सापेक्षता का सिद्धांत (Theory of Relativity) आइंस्टीन से हजारों वर्ष पूर्व ही लिख दिया गया था

आइंस्टीन के सापेक्षता के सिद्धांत को तो हम सभी जानते है । आइंस्टीन ने अपने सिद्धांत में दिक् व काल की सापेक्षता प्रतिपादित की। उसने कहा, विभिन्न ग्रहों पर समय की अवधारणा भिन्न-भिन्न होती है। काल का सम्बन्ध ग्रहों की गति से रहता है। इस प्रकार अलग-अलग ग्रहों पर समय का माप भिन्न रहता है। समय छोटा-बड़ा रहता है।

उदाहरण के लिए यदि दो जुडुवां भाइयों मे से एक को पृथ्वी पर ही रखा जाये तथा दुसरे को किसी अन्य गृह पर भेज दिया जाये और कुछ वर्षों पश्चात लाया जाये तो दोनों भाइयों की आयु में अंतर होगा।

आयु का अंतर इस बात पर निर्भर करेगा कि बालक को जिस गृह पर भेजा गया उस गृह की सूर्य से दुरी तथा गति , पृथ्वी की सूर्य से दुरी तथा गति से कितनी अधिक अथवा कम है ।

एक और उदाहरण के अनुसार चलती रेलगाड़ी में रखी घडी उसी रेल में बैठे व्यक्ति के लिए सामान रूप से चलती है क्योकि दोनों रेल के साथ एक ही गति से गतिमान है परन्तु वही घडी रेल से बाहर खड़े व्यक्ति के लिए धीमे चल रही होगी । कुछ सेकंडों को अंतर होगा । यदि रेल की गति और बढाई जाये तो समय का अंतर बढेगा और यदि रेल को प्रकाश की गति (299792.458 किमी प्रति सेकंड) से दोड़ाया जाये (जोकि संभव नही) तो रेल से बाहर खड़े व्यक्ति के लिए घडी पूर्णतया रुक जाएगी ।

इसकी जानकारी के संकेत हमारे ग्रंथों में मिलते हैं।

श्रीमद भागवत पुराण में कथा आती है कि रैवतक राजा की पुत्री रेवती बहुत लम्बी थी, अत: उसके अनुकूल वर नहीं मिलता था। इसके समाधान हेतु राजा योग बल से अपनी पुत्री को लेकर ब्राहृलोक गये। वे जब वहां पहुंचे तब वहां गंधर्वगान चल रहा था। अत: वे कुछ क्षण रुके।

जब गान पूरा हुआ तो ब्रह्मा ने राजा को देखा और पूछा कैसे आना हुआ? राजा ने कहा मेरी पुत्री के लिए किसी वर को आपने पैदा किया है या नहीं?

ब्रह्मा जोर से हंसे और कहा,- जितनी देर तुमने यहां गान सुना, उतने समय में पृथ्वी पर 27 चर्तुयुगी {1 चर्तुयुगी = 4 युग (सत्य,द्वापर,त्रेता,कलि ) = 1 महायुग } बीत चुकी हैं और 28 वां द्वापर समाप्त होने वाला है। तुम वहां जाओ और कृष्ण के भाई बलराम से इसका विवाह कर देना।
अब पृथ्वी लोक पर तुम्हे तुम्हारे सगे सम्बन्धी, तुम्हारा राजपाट तथा वैसी भोगोलिक स्थतियां भी नही मिलेंगी जो तुम छोड़ कर आये हो |

साथ ही उन्होंने कहा कि यह अच्छा हुआ कि रेवती को तुम अपने साथ लेकर आये। इस कारण इसकी आयु नहीं बढ़ी। अन्यथा लौटने के पश्चात तुम इसे भी जीवित नही पाते |

अब यदि एक घड़ी भी देर कि तो सीधे कलयुग (द्वापर के पश्चात कलयुग ) में जा गिरोगे |

इससे यह भी स्पष्ट है की निश्चय ही ब्रह्मलोक कदाचित हमारी आकाशगंगा से भी कहीं अधिक दूर है

यह कथा पृथ्वी से ब्राहृलोक तक विशिष्ट गति से जाने पर समय के अंतर को बताती है। आधुनिक वैज्ञानिकों ने भी कहा कि यदि एक व्यक्ति प्रकाश की गति से कुछ कम गति से चलने वाले यान में बैठकर जाए तो उसके शरीर के अंदर परिवर्तन की प्रक्रिया प्राय: स्तब्ध हो जायेगी।

यदि एक दस वर्ष का व्यक्ति ऐसे यान में बैठकर देवयानी आकाशगंगा (Andromeida Galaz) की ओर जाकर वापस आये तो उसकी उमर में केवल 56 वर्ष बढ़ेंगे किन्तु उस अवधि में पृथ्वी पर 40 लाख वर्ष बीत गये होंगे।

काल के मापन की सूक्ष्मतम और महत्तम इकाई के वर्णन को पढ़कर दुनिया का प्रसिद्ध ब्राह्माण्ड विज्ञानी Carl Sagan अपनी पुस्तक Cosmos में लिखता है, -

"विश्व में एक मात्र हिन्दू धर्म ही ऐसा धर्म है, जो इस विश्वास को समर्पित है कि ब्राह्माण्ड सृजन और विनाश का चक्र सतत चल रहा है। तथा यही एक धर्म है जिसमें काल के सूक्ष्मतम नाप परमाणु से लेकर दीर्घतम माप ब्राह्म दिन और रात की गणना की गई, जो 8 अरब 64 करोड़ वर्ष तक बैठती है तथा जो आश्चर्यजनक रूप से हमारी आधुनिक गणनाओं से मेल खाती है।"


सांप-सीढ़ी का खेल भरत में 'मोक्ष पातं'




सांप-सीढ़ी का खेल भरत में 'मोक्ष पातं' के नाम से बच्चों को धर्म सिखाने के लिए खेलाया जाता था।
जहां सीढ़ी मोक्ष का रास्ता है और सांप पाप का रास्ता है।

इस खेल की अवधारणा 13वीं सदी में कवि संत 'ज्ञानदेव' ने दी थी।

मौलिक खेल में जिन खानों में सीढ़ी मिलती थी वो थे- 12वां खाना आस्था का था, 51वां खाना विश्वास का, 57वां खाना उदारता का, 76वां ज्ञान का और 78वां खाना वैराग्य का था। और जीन खानों में सांप मिलते थे वो इस प्रकार थे- 41 वां खाना अवमानना का, 44 वां खाना अहंकार का, 49 वां खाना अश्लीलता का, 52 वां खाना चोरी का, 58 वां खाना झूठ का, 62 वां खाना शराब पीने का, 69 वां खाना उधर लेने का, 73 वां खाना हत्या का , 84 वां खाना क्रोध का, 92 वां खाना लालच का, 95 वां खाना घमंड का ,99 वां खाना वासना का हुआ करता था। 100वें खाने में पहुचने पे मोक्ष मिल जाता था।

1892 में ये खेल अंग्रेज इंग्लैंड ले गए और सांप-सीढ़ी नाम से प्रचलित किया।

वैदिक वाङ्मय

तस्माद्यज्ञात् सर्वहुत ऋचः सामानि जज्ञिरे।
छन्दांसि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत।।
यजुर्वेद 31.7

परमात्मा ने सृष्टि की रचना की। उसके संविधान के लिए चार वेदों का प्रकाश किया। अग्नि ऋषि के हृदय में ऋग्वेद, वायु ऋषि के हृदय में यजुर्वेद, आदित्य ऋषि के हृदय में सामवेद और अङि्गरा ऋषि के हृदय में अथर्ववेद ज्ञान दिया। इन चारों ऋषियों से ब्रह्मा ने वेदों का ज्ञान प्राप्त किया। ब्रह्मा से इन्द्र ने और इन्द्र से भरद्वाज ने वेद विद्या ग्रहण की। भरद्वाज से वेद विद्या तपोमूर्ति ब्राह्मणों को मिली। ब्राह्मणों ने जग के कल्याण के लिए सामान्य लोगों में वेद विद्या का प्रचार किया।

वैदिक वाङ्मय को चार भागों में वर्गीकृत किया जाता है- संहिता, ब्राहमण, आरण्यक और उपनिषद्। तद्यथा- मन्त्रब्राह्मणयोर्वेदनामधेयम्। यहाँ पर ब्राह्मण से ब्राहमण सहित आरण्यक और उपनिषद् भी गृहित है।

आचार्य सायण ने वेद से अभिप्राय निकाला है-इष्टप्राप्त्यनिष्टपरिहारयोरलौकिकमुपायं यो ग्रन्थो वेदयति स वेदः।
अर्थात् इष्ट की प्राप्ति और अनिष्ट के परिहार का अलौकिक उपाय बताने वाला ग्रन्थ वेद है।

ऋषि दयानन्द के अनुसार-विदन्ति जानन्ति,विद्यन्ते भवन्ति, विन्दन्ति विन्दन्ते लभन्ते, विन्दते विचारयन्ति सर्वे मनुष्याः सर्वाः सत्यविद्या यैर्येषु वा तथा विद्वांसश्च भवन्ति ते वेदाः। तथ आदिसृष्टिमारभ्याद्यापर्यन्तं ब्रह्मादिभिः सर्वाः सत्यविद्याः श्रूयन्ते अनया सा श्रुतिः।
अर्थात् जिनके पढने से यथार्थ विद्या का विज्ञान होता है, जिनको पढ के विद्वान् होते है, जिनसे सब सुखों का लाभ होता है और जिनसे ठीक-2 सत्य-असत्य का विचार मनुष्यों को होता है, इससे ऋक् संहितादि का नाम वेद है।
वैसे ही सृष्टि के आरम्भ से आज पर्यन्त और ब्रह्मादि से लेकर हम लोग पर्यन्त जिससे सब सत्यविद्याओं को सुनते आते हैं इससे वेदों का श्रुति नाम पडा है।

ऐसा माना जाता है कि वेदों में सभी प्रकार का ज्ञान-विज्ञान है-सर्वज्ञानमयो हि सः- मनु।

जो वेद की निन्दा करता है उसे नास्तिक कहा जाता है- नास्तिको वेदनिन्दकः- मनुः।

वेदों का रचनाकालः--
मैक्समूलर ने ईसा से 800-600 वर्ष पूर्व माना है।
ऋषि दयानन्द ने वेदों की उत्पत्ति सृष्टि के आदि में माना है। तदनुसार 1,97,29,49,113 वर्ष हुए हैं।

ह्विटनी और केगी के अनुसार वेदों का समय 2000-1500 ई.पू. है।

लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के अनुसार 4000-2500 ई.पू. है।

प्रो. जैकोबी के अनुसार 4500-2500 ई.पू. है।

दीनानाथ शास्त्री के अनुसार आज से लगभग तीन लाख वर्ष पूर्व है।


<<<<<<<<<<<<<<<<<वैदिक-वाङ्मय>>>>>>>>>>>>>>>>>>


*******वेद******
ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद।

*****उपवेद******
आयुर्वेद, धनुर्वेद, गन्धर्ववेद और अर्थवेद।

******शाखाः*****

1. ऋग्वेदः---
ऋग्वेद की इक्कीस शाखाएँ हैं- एकविंशतिधा बाह्वृच्यम्। इनमें से उपलब्ध पाँच शाखाएँ---शाकल, बाष्कल, आश्वलायन, शांखायन और माण्डूकायन।

2. यजुर्वेदः---
यजुर्वेद की एक सौ एक शाखाएँ हैं-एकशतमध्वर्युशाखाः। इनमें छः शाखाएँ उपलब्ध हैं।
शुक्ल-.यजुर्वेदः---वाजसनेयी या माध्यन्दिनि और काण्व।
कृष्ण-यजुर्वेदः----तैत्तिरीय,मैत्रायणी, कठ और कपिष्ठल।

3. सामवेदः----
सामवेद की एक हजार शाखाएँ हैं-सहस्रवर्त्मा सामवेदः। कुछ प्रमुख शाखाएँ--- असुरायणीय, वासुरायणीय, वार्तान्तरेय, प्राञ्जल, राणायनीय, शाट्यायनीय, सात्यमुद्गल, खल्वल, महाखल्वल, लाङ्गल, कौथुम, गौतम और जैमिनीय। उपलब्ध शाखाएँ-- कौथुमीय, राणायनीय और जैमिनीय।

4. अथर्ववेदः---
अथर्ववेद की नौ शाखाएँ हैं-नवधाथर्वणो वेदः--- पैप्लाद, शौनक, मौद, स्तौद, जाजल, जलद, ब्रह्मवेद, देवदर्श और चारणवैद्य। उपलब्ध शाखाएँ-- पैप्लाद और शौनक।

********ब्राह्मण*********

1.ऋग्वेदः----
ऐतरेय और शाङ्खायन।

2.यजुर्वेदः-----
शुक्ल-यजुर्वेदः--शतपथ।
कृष्ण-यजुर्वेदः--तैत्तिरीय, मैत्रायणी, कठ और कपिष्ठल।

3.सामवेदः---
प्रौढ, षड्विंश, सामविधान, आर्षेय, देवताध्याय, उपनिष्द, संहितोपनिषद्, वंश और जैमिनीय।

4.अथर्ववेदः---
गोपथ।


*********आरण्यक********

1.ऋग्वेदः---
ऐतरेय और शाङ्खायन।

2.यजुर्वेदः----
शुक्ल-यजुर्वेदः--बृहदारण्यक।
कृष्ण-यजुर्वेदः--तैत्तिरीय और मैत्रायणी।

3.सामवेदः---
छान्दोग्य।

***********उपनिषद्**********

प्रमुख उपनिषद् ग्यारह हैं---ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, माण्डूक्य, ऐतरेय, तैत्तिरीय, छान्दोग्य, बृहदारण्यक और श्वेताश्वतर।

1.ऋग्वेदः----
ऐतरेय।

2.यजुर्वेदः----
शुक्ल-यजुर्वेदः--ईश और बृहदारण्यक।
कृष्ण-यजुर्वेदः--कठ, तैत्तिरीय और श्वेताश्वतर।

3.सामवेदः----
केन और छान्दोग्य।

4.अथर्ववेदः-----
प्रश्न, मुण्डक और माण्डूक्य।


**************वेदाङ्ग************

कुल वेदाङ्ग छः हैं--- शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष्।

1.शिक्षा----
पाणिनीया
ऋक्लक्षण
याज्ञवल्क्य
वाशिष्ठी
माण्डव्य
भरद्वाज
अवसान निर्णय
नारदीय
माण्डूकी
शौनकीया प्रातिशाख्या
अथर्ववेद प्रा.
पुष्यसूत्र प्रा.
वाजसनेयी प्रा.
तैत्तिरीय प्रा.
माध्यन्दिनि शिक्षा।


2.कल्पः----

कल्प चार हैं--- श्रौत-सूत्र, गृह्य-सूत्र, धर्म-सूत्र और शुल्ब-सूत्र।

(क)श्रौत-सूत्रः----
आशवलायन
कौषीतकि
कात्यायन
बोधायन
आपस्तम्ब
भारद्वाज
कठ
जैमिनीय
खादिर
द्राह्यायण
लाट्यायन
वाधूल
वैतान।

(ख)गृह्य-सूत्रः---
आश्वलायन
शाङ्खायन
शाम्बव्य
कात्यायन
कठ
आपस्तम्ब
बोधायन
वैखानस
भारद्वाज
वाधूल
जैमिनीय
गोभिल
गौतम
कौशिक।

(ग)धर्म-सूत्रः----
वशिष्ठ
हारीत
शङ्ख
विष्णु
आपस्तम्ब
बोधायन
हिरण्यकेशी
वैखानस
गौतम।

(घ)शुल्ब-सूत्रः-----
कात्यायन
मानव
बोधायन
आपस्तम्ब
मैत्रायणी
वाराह
वाधूल।


3.व्याकरणम्----

इन्द्र
चन्द्र
काशकृत्स्न
आपिशलि
पाणिनि
अमर
जैनेन्द्र।

4.निरुक्तम्----

आचार्य यास्क


5.छन्दः------

छन्दःसूत्रः--आचार्य पिङ्गल


6.ज्योतिष्------

आर्च ज्योतिष्
याजुष् ज्योतिष्।


******************उपाङ्ग********************

इन्हें शास्त्र और दर्शन भी कहा जाता है। ये कुल छः हैं---
1.न्याय--गोतम

2.वैशेषिक--कणाद

3.साङ्ख्य--कपिल

4.योग--पतञ्जलि

5.पूर्व-मीमांसा--जैमिनि

6.उत्तर-मीमांसा(ब्रह्मसूत्र)--व्यास।

Saturday, December 21, 2013

चिकित्सा में पंचगव्य क्यों महत्वपूर्ण है?

चिकित्सा में पंचगव्य क्यों महत्वपूर्ण है?
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गाय के दूध, घृत, दधी, गोमूत्र और गोबर के रस को मिलाकर पंचगव्य तैयार होता है। पंचगव्य के प्रत्येक घटक द्रव्य महत्वपूर्ण गुणों से संपन्न हैं। इनमें गाय के दूध के समान पौष्टिक और संतुलित आहार कोई नहीं है। इसे अमृत माना जाता है। यह विपाक में मधुर, शीतल, वातपित्त शामक, रक्तविकार नाशक और सेवन हेतु सर्वथा उपयुक्त है। गाय का दही भी समान रूप से जीवनीय गुणों से भरपूर है। गाय के दही से बना छाछ पचने में आसान और पित्त का नाश करने वाला होता है। गाय का घी विशेष रूप से नेत्रों के लिए उपयोगी और बुद्धि-बल दायक होता है। इसका सेवन कांतिवर्धक माना जाता है। गोमूत्र प्लीहा रोगों के निवारण में परम उपयोगी है। रासायनिक दृष्टि से देखने पर इसमें पोटेशियम, मैग्रेशियम, कैलशियम, यूरिया, अमोनिया, क्लोराइड, क्रियेटिनिन जल एवं फास्फेट आदि द्रव्य पाये जाते हैं। गोमूत्र कफ नाशक, शूल गुला, उदर रोग, नेत्र रोग, मूत्राशय के रोग, कष्ठ, कास, श्वास रोग नाशक, शोथ, यकृत रोगों में राम-बाण का काम करता है। चिकित्सा में इसका अन्त: बाह्य एवं वस्ति प्रयोग के रूप में उपयोग किया जाता है। यह अनेक पुराने एवं असाध्य रोगों में परम उपयोगी है। गोबर का उपयोग वैदिक काल से आज तक पवित्रीकरण हेतु भारतीय संस्कृति में किया जाता रहा है। यह दुर्गंधनाशक, पोषक, शोधक, बल वर्धक गुणों से युक्त है। विभिन्न वनस्पतियां, जो गाय चरती है उनके गुणों के प्रभावित गोमय पवित्र और रोग-शोक नाशक है। अपनी इन्हीं औषधीय गुणों की खान के कारण पंचगव्य चिकित्सा में उपयोगी साबित हो रहा है।

Friday, December 13, 2013

गौ- घृत से अद्भुत लाभ

गौ- घृत से अद्भुत लाभ-

हम अगर गोरस का बखान करते करते मर जाए तो भी कुछ अंग्रेजी सभ्यता वाले हमारी बात नहीं मानेगे क्योकि वे लोग तो हम लोगो को पिछड़ा, साम्प्रदायिक और गँवार जो समझते है|

उनके लिए तो वही सही है जो पश्चिम कहे तो हम उन्ही के वैज्ञानिक शिरोविच की गोरस पर खोज लाये हैं जो रुसी वैज्ञानिक है|

गाय का घी और चावल की आहुती डालने से महत्वपूर्ण गैसे जैसे – एथिलीन ऑक्साइड,प्रोपिलीन ऑक्साइड,फॉर्मल्डीहाइड आदि उत्पन्न होती हैं । इथिलीन ऑक्साइड गैस आजकल सबसे अधिक प्रयुक्त होनेवाली जीवाणुरोधक गैस है,जो शल्य-चिकित्सा (ऑपरेशन थियेटर) से लेकर जीवनरक्षक औषधियाँ बनाने तक में उपयोगी हैं । वैज्ञानिक प्रोपिलीन ऑक्साइड गैस को कृत्रिम वर्षो का आधार मानते है ।

आयुर्वेद विशेषज्ञो के अनुसार अनिद्रा का रोगी शाम को दोनों नथुनो में गाय के घी की दो – दो बूंद डाले और रात को नाभि और पैर के तलुओ में गौघृत लगाकर लेट जाय तो उसे प्रगाढ़ निद्रा आ जायेगी ।

गौघृत में मानव शरीर में पहुंचे रेडियोधर्मी विकिरणों का दुष्प्रभाव नष्ट करने की असीम क्षमता हैं । अग्नि में गाय का घी कि आहुति देने से उसका धुआँ जहाँ तक फैलता है,वहाँ तक का सारा वातावरण प्रदूषण और आण्विक विकरणों से मुक्त हो जाता हैं ।

सबसे आश्चर्यजनक बात तो यह है कि एक चम्मच गौघृत को अग्नि में डालने से एक टन प्राणवायु (ऑक्सीजन) बनती हैं जो अन्य किसी भी उपाय से संभव नहीं हैं |

देसी गाय के घी को रसायन कहा गया है। जो जवानी को कायम रखते हुए, बुढ़ापे को दूर रखता है। काली गाय का घी खाने से बूढ़ा व्यक्ति भी जवान जैसा हो जाता है।गाय के घी में स्वर्ण छार पाए जाते हैं जिसमे अदभुत औषधीय गुण होते है, जो की गाय के घी के इलावा अन्य घी में नहीं मिलते । गाय के घी से बेहतर कोई दूसरी चीज नहीं है।

गाय के घी में वैक्सीन एसिड, ब्यूट्रिक एसिड, बीटा-कैरोटीन जैसे माइक्रोन्यूट्रींस मौजूद होते हैं। जिस के सेवन करने से कैंसर जैसी गंभीर बीमारी से बचा जा सकता है। गाय के घी से उत्पन्न शरीर के माइक्रोन्यूट्रींस में कैंसर युक्त तत्वों से लड़ने की क्षमता होती है।

यदि आप गाय के 10 ग्राम घी से हवन अनुष्ठान (यज्ञ,) करते हैं तो इसके परिणाम स्वरूप वातावरण में लगभग 1 टन ताजा ऑक्सीजन का उत्पादन कर सकते हैं। यही कारण है कि मंदिरों में गाय के घी का दीपक जलाने कि तथा , धार्मिक समारोह में यज्ञ करने कि प्रथा प्रचलित है। इससे वातावरण में फैले परमाणु विकिरणों को हटाने की अदभुत क्षमता होती है।

गोघृत के अन्य महत्वपूर्ण उपयोग :–

1.गाय का घी नाक में डालने से पागलपन दूर होता है।
2.गाय का घी नाक में डालने से एलर्जी खत्म हो जाती है।
3.गाय का घी नाक में डालने से लकवा का रोग में भी उपचार होता है।
4--20-25 ग्राम घी व मिश्री खिलाने से शराब, भांग व गांझे का नशा कम हो जाता है।
5.गाय का घी नाक में डालने से कान का पर्दा बिना ओपरेशन के ही ठीक हो जाता है।
6.नाक में घी डालने से नाक की खुश्की दूर होती है और दिमाग तारो ताजा हो जाता है।
7.गाय का घी नाक में डालने से कोमा से बहार निकल कर चेतना वापस लोट आती है।
8.गाय का घी नाक में डालने से बाल झडना समाप्त होकर नए बाल भी आने लगते है।
9.गाय के घी को नाक में डालने से मानसिक शांति मिलती है, याददाश्त तेज होती है।
10.हाथ पाव मे जलन होने पर गाय के घी को तलवो में मालिश करें जलन ढीक होता है।
11.हिचकी के न रुकने पर खाली गाय का आधा चम्मच घी खाए, हिचकी स्वयं रुक जाएगी।
12.गाय के घी का नियमित सेवन करने से एसिडिटी व कब्ज की शिकायत कम हो जाती है।
13.गाय के घी से बल और वीर्य बढ़ता है और शारीरिक व मानसिक ताकत में भी इजाफा होता है
14.गाय के पुराने घी से बच्चों को छाती और पीठ पर मालिश करने से कफ की शिकायत दूर हो जाती है।
15.अगर अधिक कमजोरी लगे, तो एक गिलास दूध में एक चम्मच गाय का घी और मिश्री डालकर पी लें।
16.हथेली और पांव के तलवो में जलन होने पर गाय के घी की मालिश करने से जलन में आराम आयेगा।
17.गाय का घी न सिर्फ कैंसर को पैदा होने से रोकता है और इस बीमारी के फैलने को भी आश्चर्यजनक ढंग से रोकता है।
18.जिस व्यक्ति को हार्ट अटैक की तकलीफ है और चिकनाइ खाने की मनाही है तो गाय का घी खाएं, हर्दय मज़बूत होता है।
19.देसी गाय के घी में कैंसर से लड़ने की अचूक क्षमता होती है। इसके सेवन से स्तन तथा आंत के खतरनाक कैंसर से बचा जा सकता है।
20.संभोग के बाद कमजोरी आने पर एक गिलास गर्म दूध में एक चम्मच देसी गाय का घी मिलाकर पी लें। इससे थकान बिल्कुल कम हो जाएगी।
21.फफोलो पर गाय का देसी घी लगाने से आराम मिलता है।गाय के घी की झाती पर मालिस करने से बच्चो के बलगम को बहार निकालने मे सहायक होता है।
22.सांप के काटने पर 100 -150 ग्राम घी पिलायें उपर से जितना गुनगुना पानी पिला सके पिलायें जिससे उलटी और दस्त तो लगेंगे ही लेकिन सांप का विष कम हो जायेगा।
23.दो बूंद देसी गाय का घी नाक में सुबह शाम डालने से माइग्रेन दर्द ढीक होता है। सिर दर्द होने पर शरीर में गर्मी लगती हो, तो गाय के घी की पैरों के तलवे पर मालिश करे, सर दर्द ठीक हो जायेगा।
24.यह स्मरण रहे कि गाय के घी के सेवन से कॉलेस्ट्रॉल नहीं बढ़ता है। वजन भी नही बढ़ता, बल्कि वजन को संतुलित करता है । यानी के कमजोर व्यक्ति का वजन बढ़ता है, मोटे व्यक्ति का मोटापा (वजन) कम होता है।
25.एक चम्मच गाय का शुद्ध घी में एक चम्मच बूरा और 1/4 चम्मच पिसी काली मिर्च इन तीनों को मिलाकर सुबह खाली पेट और रात को सोते समय चाट कर ऊपर से गर्म मीठा दूध पीने से आँखों की ज्योति बढ़ती है।
26.गाय के घी को ठन्डे जल में फेंट ले और फिर घी को पानी से अलग कर ले यह प्रक्रिया लगभग सौ बार करे और इसमें थोड़ा सा कपूर डालकर मिला दें। इस विधि द्वारा प्राप्त घी एक असर कारक औषधि में परिवर्तित हो जाता है जिसे जिसे त्वचा सम्बन्धी हर चर्म रोगों में चमत्कारिक मलहम कि तरह से इस्तेमाल कर सकते है। यह सौराइशिस के लिए भी कारगर है।

27.गाय का घी एक अच्छा(LDL)कोलेस्ट्रॉल है। उच्च कोलेस्ट्रॉल के रोगियों को गाय का घी ही खाना चाहिए। यह एक बहुत अच्छा टॉनिक भी है। अगर आप गाय के घी की कुछ बूँदें दिन में तीन बार,नाक में प्रयोग करेंगे तो यह त्रिदोष (वात पित्त और कफ) को संतुलित करता है।

28.घी, छिलका सहित पिसा हुआ काला चना और पिसी शक्कर (बूरा) तीनों को समान मात्रा में मिलाकर लड्डू बाँध लें। प्रातः खाली पेट एक लड्डू खूब चबा-चबाकर खाते हुए एक गिलास मीठा कुनकुना दूध घूँट-घूँट करके पीने से स्त्रियों के प्रदर रोग में आराम होता है, पुरुषों का शरीर मोटा ताजा यानी सुडौल और बलवान बनता है ।

इन्ही विशेषताओं का अनुभव करके हमारे ऋषियों ने समवेत स्वर में उद्घोष किया --" गावो विश्वस्य मातरः "-गायें सबकी मातायें हैं । 

Thursday, December 12, 2013

यज्ञोपवीत कितना वैज्ञानिक

यज्ञोपवीत कितना वैज्ञानिक
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हिंदू धर्म के सोलह संस्कारों में से एक है यज्ञोपवीत। यज्ञ और उपवीत शब्दों से मिलकर बना है-यज्ञोपवीत। यज्धातु से यज्ञ बना है। शास्त्रों में जहां यज्धातु को देवताओं की पूजा, दान आदि से संबंधित बताया गया है, वहीं उपवीत का अर्थ समीप या नजदीक होना होता है। इस प्रकार यज्ञोपवीत का अर्थ हुआ-यज्ञ के समीप यानी ऐसी वस्तु, जिसे धारण करने पर हम देवताओं के समीप हो जाते हैं।कर्तव्य के आधार पर चुनाव :शास्त्रों के अनुसार, छह प्रकार के यज्ञोपवीत ऐसे हैं, जिन्हें धारण किया जा सकता है-कपास से तैयार. रेशम-धागा . सन से बना हुआ . स्वर्ण के धागों से मढा हुआ . चांदी के तार से पिरोया गया . कुश और घास से तैयार यज्ञोपवीत।कर्तव्य के आधार पर माता-पिता इनका चुनाव करते हैं। जो माता-पिता अपनी संतान को पठन-पाठन [ब्राह्मण] से जोडना चाहते हैं, उनके लिए शास्त्रों में सूत और रेशम का यज्ञोपवीत धारण करने का विधान है। यदि व्यक्ति देश-समाज के रक्षा कार्यो [क्षत्रिय] से जुडा हो, तो उसे सोने से तैयार जनेऊ धारण करना चाहिए।व्यापार [वैश्य] करने वालों के लिए चांदी या सूत से तैयार उपनयनका विधान है। रंगों का महत्व :अब प्रश्न उठता है कि हम किस रंग का जनेऊ धारण करें? पढने-पढाने वालों को सफेद रंग का, रक्षा संबंधी कार्यो से जुडे व्यक्ति को लाल रंग का और व्यापार से जुडे लोगों के लिए चांदी की जनेऊ धारण करने का प्रावधान है।वैज्ञानिक आधार :यज्ञोपवीत धारण करने के वैज्ञानिक आधार भी हैं। आयुर्वेद के अनुसार, यज्ञोपवीत धारण करने से इंसान की उम्र लंबी, बुद्धि तेज, और मन स्थिर होता है। जनेऊ धारण करने से व्यक्ति बलवान, यशस्वी, वीर और पराक्रमी होता है। आयुर्वेद में यह भी कहा गया है कि यज्ञोपवीत धारण करने से न तो हृदयरोग होता है और न ही गले और मुख का रोग सताता है। मान्यता है कि सन से तैयार यज्ञोपवीत पित्त रोगों से बचाव करने में सक्षम है। जो व्यक्ति स्वर्ण के तारों से तैयार यज्ञोपवीत धारण करते हैं, उन्हें आंखों की बीमारियों से छुटकारा मिल जाता है। इससे बुद्धि और स्मरण शक्ति बढ जाती है और बुढापा भी देर से आता है। रेशम का जनेऊ पहनने से वाणी पर नियंत्रण रहता है। मान्यता है कि चांदी के तार से तैयार यज्ञोपवीत धारण करने से शरीर पुष्ट होता है। आयु में भी वृद्धि होती है। ध्यान रखें कि जनेऊ शरीर पर बायें कंधे से हृदय को छूता हुआ कमर तक होना चाहिए ।.यज्ञोपवीत धारण करने से आयु वृद्धि, उत्तम विचार और धर्म मार्ग पर चलने वाली श्रेष्ठ संतान प्राप्त होती है। यही नहीं यज्ञोपवीत बल और तेज दोनों ही प्रदान करती है।इंसान का जन्म तो अपनी माता की कोख से होता है, लेकिन उसके प्राकृत जीवन को अधिक शुद्ध, संवेदनशील और विश्व कल्याण में लगाने के लिएजिस संस्कार की सबसे ज्यादा जरूरत है, वह है यज्ञोपवीत संस्कार। वेदों में यज्ञोपवीत शब्द "यज्ञ" और "उपवीत" इन दो पदों से मिलकर बना है। इसका अर्थ है "यज्ञ द्वारा पवित्र किया गया सूत्र"। यज्ञोपवीत संस्कार को व्रतबंध, उपनयन और लोकभाषा में "जनेऊ" भी कहा जाता है। शास्त्रों में यज्ञोपवीत संस्कार को द्विज मात्र का पुनर्जन्म ही माना गया है, जिसके कारण वह "द्विज" कहलाता है। इसी कारण ब्रह्मपुराण में कहा गया है कि जन्म से व्यक्ति की ब्राह्मण आदि कई जातियां होती हंै लेकिन यज्ञोपवीत संस्कार के बाद ही वह द्विज कहलाने लगता है।यज्ञोपवीत है जरूरीब्रह्मोपनिषद् में यज्ञोपवीत को श्रेष्ठ औरपरम पवित्र कहा गया है। यह सृष्टि के आरंभ में भगवान प्रजापति के साथ उत्पन्न हुई थी। यज्ञोपवीत धारण करने से आयु वृद्धि, उत्तम विचार और धर्म मार्ग पर चलने वाली श्रेष्ठ संतान प्राप्त होती है। यज्ञोपवीत बल और तेजदोनों ही प्रदान करती है। शंखस्मृति में यज्ञोपवीत पहनने की आयु का निर्घारण भी कियागया है, "गर्भाष्टमेùब्द­े कर्तव्यं ब्राह्मणस्योपना­यपम्" यानी आठवें वर्ष में ब्राह्मण, क्षत्रिय का दसवें और वैश्य का बारहवें वर्ष में उपनयन संस्कार कर ही देना चाहिए। कहीं-कहीं शास्त्रों में ब्राह्मण के लिए सोलह, क्षत्रिय के लिए बीस और वैश्य केलिए चौबीस वर्ष की आयु तक भी यज्ञोपवीत करने का विधान प्राप्त होता है। इस आयु तक यज्ञोपवीत संस्कार न करने पर वह व्यक्ति व्रात्य दोष के कारण सब धर्म-कर्म से रहित औरयहां तक पतित हो जाता है कि उसके द्वारा कियागया धार्मिक कृत्य सफल हो ही नहीं पाता।संपूर्ण फल के लिए यज्ञोपवीतयज्ञोपवीत सारे वैदिक और पौराणिक कृत्यों में अत्यंत आवश्यक है। कई लोग कहते हैं कि उन्हें पूजा-अनुष्ठान का पूरा फल प्राप्त नहीं हो रहा है, इसका प्रमुख कारण यही है कि वे लोग बिना यज्ञोपवीत धारण किए ही सारे जप-अनुष्ठान संपन्न कर लेते हैं। यज्ञोपवीत स्वयं की शोभा के लिए या खंूटी पर टांग देने के लिए नहीं होती, बल्कि यह तो शास्त्रों का परमादेश है। एक बार यज्ञोपवीत संस्कार हो जाने के बाद जो व्यक्ति अज्ञानतावश यज्ञोपवीत नहीं पहनता, वह महापाप का भागी होता है। सूर्योपासना और माता गायत्री की उपासना में तो यज्ञोपवीत जरूरी ही है। पितृ-तर्पण और श्राद्ध, तीर्थ पूजन आदि में यज्ञोपवीत न हो तो सारा कर्म ही निष्फल हो जाता है।धर्म की निशानी है यज्ञोपवीतवाल्मीकि रामायण में स्पष्ट उल्लेख है कि मर्यादा पुरूषोतम भगवान श्रीराम स्वयं धर्मके प्रतीक के रूप में यज्ञोपवीत धारण करते हैं। श्रीराम को माता-पिता और गुरू वशिष्ठ यज्ञोपवीत धारण करवाते हैं। श्रीकृष्ण का यज्ञोपवीत संस्कार महर्षि संदीपनी के आश्रममें संपन्न होता है। इसी कारण हम जब भी किसी शुभ कार्य में देवपूजन करते हैं, तो देवताओं को यज्ञोपवीत अनिवार्य रूप से चढ़ाते ही हैं। अब हम देवताओं को तो जनेऊ चढ़ाएं और स्वयं पहने ही नहीं तो भला कैसे हमें पूजन कासंपूर्ण फल प्राप्त हो सकता है? लिहाजा यह जरूरी है कि जोव्यक्ति किसी भी तरह का धर्म-अनुष्ठान करना चाहता है, उसे सबसे पहले धर्म के क्षेत्र में प्रवेश करने के लिए यज्ञोपवीत जरूर ही धारण करनी चाहिए।