Tuesday, May 28, 2013

भक्ति का तत्त्व

भक्ति का तत्त्व

[ १ ] भगवान शरणागत भक्त से कभी अलग नहीं हो सकते | भगवान का सर्वस्व उसका हो जाता है | वह परम पवित्र हो जाता है , उसके दर्शन , भाषण और चिंतन से भी लोग पवित्र हो जाते हैं | वह तीर्थों के लिए तीर्थरूप बन जाता है | उसके संम्पूर्ण अवगुण , पाप , और दुखों का अत्यंत नाश हो जाता है और उसके आनंद और शान्ति का पार नहीं रहता |

[ २ ] नवधा - भक्ति का तत्त्व रहस्य महापुरुषों से समझकर श्रद्धा और प्रेमपूर्वक तत्परता के साथ भक्ति का साधन करना चाहिए | बिना अभ्यास किये साधक प्रेमलक्षणा भक्ति का सच्चा पात्र नहीं बन सकता | ईश्वर की स्मृति निरंतर रहनी चाहिए | भगवान के स्मरण के अभ्यास से पापी का भी एक क्षण में उद्धार हो सकता है | 


[ ३ ] भगवान में चित्त लगाकर भगवान के लिए ही कर्म करनेवाले को भगवान की कृपा से भगवान शीघ्र मिल जाते हैं , यह बात जगह - जगह गीता में भगवान ने कही है [ ८ / ७ ; ११ / ५५ ; १२ / ६ , ७ , ८ ; १८ / ५६ , ५७ ,५८; १८ / ६२ ] | सब काम करते हुए निरंतर भगवतस्मरण करने की चेष्टा करनी चाहिए | स्मरण तेलधारावत लगातार होना चाहिए |


[ ४ ] भगवान के किये हुए प्रत्येक विधान में निरंतर उनका स्मरण करता हुआ परम संतोष मानकर हर समय प्रसन्न रहे | अपने मस्तक पर प्रभु का हाथ समझकर आनन्दित होता रहे | सबसे मुख्य बात है अनन्य मनसे युक्त होकर भगवान को निरंतर भजना | अनन्य भजन का स्वरूप भगवान ने गीता [ ९ / १४ ] में बतलाया है | नित्य - निरंतर चिंतन ही मुख्य है |


[ ५ ] भगवान का साक्षात दर्शन तो अनन्य भक्ति के अतिरिक्त अन्य किसी उपाय से नहीं हो सकता [ गीता ११ / ५४ ] | अनन्य भक्त को भक्ति का तत्त्व परमेश्वर स्वयं समझा देते हैं | 

[ ६ ] यदि घर में एक भी पुरुष को अनन्य भक्ति से परमात्मा का साक्षात्कार हो जाय तो उसका समस्त कुल पवित्र समझा जाता है | भक्ति के द्वारा सब कुछ हो सकता है | साकार भगवान नेत्रों से देखे जाते हैं , सगुण - निराकार बुद्धि द्वारा समझे जाते हैं और निर्गुण - निराकार अनुभव से प्राप्त किये जाते हैं | ज्ञानरूप नेत्रोंवाले ज्ञानीजन ही भगवान को तत्त्व से जान सकते हैं | 

[ ७ ] केवल भगवान के नाम का जप , उनके स्वरूप का पूजन और ध्यान करने से भी अति उत्तम गति की प्राप्ति हो सकती है | 

[ ८ ] अनन्य - भक्त को भगवान स्वयं ज्ञान प्रदान कर उसके अज्ञानरुपी अंधकार का नाश कर देते हैं | भक्त जिस रूप में उन्हें देखना चाहता है , वे उसी रूप में प्रत्यक्ष प्रकट होकर दर्शन देते हैं | 

[ ९ ] श्री नरसी मेहता की तरह लज्जा , मान , बडाई और भय को छोड़कर भगवान के गुण - गान में मग्न होकर विचरने से भगवान प्रत्यक्ष मिल सकते हैं | कहते हैं कि मेहताजी के जीवन में कुल ५४ बार भगवान सशरीर प्रकट हुए और उनका कार्य सिद्ध किया | 

[ १० ] दयामय भगवान केवल भाव के भूखे हैं | भावरहित के लिए उनका द्वार सदा बंद है | 

[ ११ ] उपासना या भक्तिमार्ग बड़ा ही सुगम और महत्त्वपूर्ण है | इसमें ईश्वर का सहारा रहता है और उनका बल प्राप्त होता रहता है | 

[ १२ ] सात्विक आचरण और भगवान की विशुद्ध भक्ति से अंत:करण की शुद्धि होने पर , जिस समय भ्रम मिट जाता है उस समय साधक कृत - कृत्य हो जाता है , यही परमात्मा की प्राप्ति है | 

[ १३ ] भक्ति के लिए भगवान ने पहली शर्त यह बतलाई है की भक्ति के साधन करनेवालों को दैवी - संपत्ति का आश्रय लेना चाहिए | 

[ १४ ] भक्ति दिखाने की चीज नहीं है , वह तो हृदय का परम गुप्त धन है | भक्ति का स्वरूप जितना गुप्त रहता है , उतना ही वह अधिक मूल्यवान समझा जाता है | 

[ १५ ] गीता का प्रारंभ [ २/ ७ ] और पर्यावसान [ १८ / ६६ ] भक्ति में ही है | इसलिए वास्तव में भगवान में अनन्य प्रेम का होना ही भक्ति है | 

[ १६ ] अतिशय समता , शान्ति , दया , प्रेम , क्षमा , माधुर्य , वात्सल्य , गम्भीरता , उदारता , सुहृदता आदि भगवान के गुण हैं | 

[ १७ ] सम्पूर्ण विभूति , बल , ऐश्वर्य , तेज , शक्ति , सामर्थ्य और असम्भव को भी सम्भव कर देना आदि भगवान का प्रभाव है | 

[ १८ ] जैसे परमाणु , भाप , बादल , बूँदें , और बर्फ आदि सब जल ही हैं , वैसे ही सगुण , निर्गुण , साकार , निराकार , व्यक्त , अव्यक्त , जड , चेतन , स्थावर , जंगम , सत , असत , आदि जो कुछ भी है तथा जो इससे भी परे है , वह सब भगवान ही है | यह भगवान का तत्त्व है |

[ १९ ] भगवान के दर्शन , भाषण , स्पर्श , चिंतन , कीर्तन , अर्चन , वन्दन , स्तवन आदि से पापी भी परम पवित्र हो जाता है , यह विश्वास करना तथा सर्वज्ञ , सर्वशक्तिमान , सर्वत्र समभाव से स्थित मनुष्य आदि शरीरों में प्रकट होनेवाले और अवतार लेनेवाले परमात्मा को पहचानना , यह रहस्य है | 

[ २० ] भक्ति से ज्ञान - वैराग्य आप ही हो सकते हैं क्योंकि भक्ति माता है और ज्ञान - वैराग्य दोनों उसके पुत्र हैं | अत: भक्ति में ही सुख है | 

Saturday, May 18, 2013

भगवान पर विश्वास रखे

भगवद्भक्ति के पथपर चलने वाले पुरुषों को अपने मन में खूब उत्साह रखना चाहिये | इस बात का सदा स्मरण रखना चाहिये की समस्त विघ्नों के नाश करने वाले और साधन में सतत सहायता पहुँचानेवाले भगवान हमारे पीछे स्तिथ रहकर सदा हमारी रक्षा करते है | रणांगनमें रण-प्रवृत योद्धाके मन में इस स्मृति से महान उत्साह बना रहता है की मेरे पीछे विशाल सैन्यको साथ लिये सेनापति स्थित है | भक्तों को तो इससे भी अनन्तगुण अधिक उत्साह होना चाहिये | क्योंकि उसके पीछे अनन्त शक्ति-संपन्न भगवान का बल है | शक्तिशाली सैन्य का सहारा पाकर जब निर्बल भी बलवान बन जाता है, जब कायर भी शूरवीर-सा काम कर दिखाता है | निर्बल, निरुत्साही मनुष्य इस बात को भली-भाँती समझता हुआ ही मुझमे बड़ीभारी शत्रु-सेना का सामना करने की शक्ति नहीं है, किन्तु शत्रु-सेना की अपेक्षा अपनी सेना को अधिक बलवती देखकर उसके भरोसे लड़ने को तैयार हो जाता है | फिर, जिसके भगवान सहायक हो उसको तो भीषण विषय-सैन्य को तुच्छ समझकर उसके नाश के लिए बद्ध-परिकर ही हो जाना चाहिये | परमात्मा श्रीकृष्ण अपने प्रेमी भक्तों को आश्वासन देते हुए घोषणा करते है ‘जो अनन्यभाव से मुझमे स्थित हुए भक्तजन मुझ परमेश्वर को निरन्तर चिन्तन करते हुए निष्काम भाव से भजते है, उन नित्य एकीभाव में मुझमे स्थिति वाले पुरुषों को योगक्षेम मैं स्वयं प्राप्त करा देता हूँ | 

भगवान की इस घोषणा पर विश्वासकर कठिन-से-कठिन मार्गपर अग्रसर होने में संकोच नहीं करना चाहिये | शंख, चक्र, गदा आदि धारण करनेवाले भगवान जब हमारे प्राप्त साधन की रक्षा और अप्राप्त की प्राप्ति करने का स्वयं जिम्मा ले रहे हैं, जब पद-पद पर हमे बचाने के लिए तैयार है, तब इस घोर अंधकारमय संसार-अरण्य से भर निकलने के लिए हमने जिस साधनमय पथ का अवलंबन किया है, उसमे विघ्न करने वाले काम-क्रोध-रूप सिंह-व्याघ्रादी से भय करने की क्या आवश्यकता है ? जब भगवान सदा-सर्वदा हमारे है तब भय किस बात का ? जैसे छोटा बालक माता की गोद में आते ही अपने को निर्भय और निश्चिन्त मानता है, इसी प्रकार हमे भी अपने को परमपिता परमात्मा की गोद में स्थित समझकर निर्भय और निश्चिन्त रहना चाहिये | भगवान तो बल, प्रेम, सुहृदयता आदि में सभी प्रकार सबसे अधिक है | कारण, ये सारे सद्गुण उन्हीं गुणसागरके तो गुण-कण है अतएव सब तरह से शोक, भय आदि को त्याग कर, बड़े उत्साह और उमंग के साथ एक वीर की भाँती अपने अभीष्ट मार्ग पर द्रुतगति से अग्रसर होना चाहिये |

यह सदा स्मरण रखना चाहिये की जिस प्रकार भक्तप्रवर अर्जुन ने भगवान को सहायता से भीष्म, द्रोण, कर्ण आदि द्वारा सुरक्षित ग्यारह अक्षोहिणी कौरव-सेना को विध्वंशकर विजय प्राप्त की थी, उसी प्रकार उनकी सहायता से हम भी काम-क्रोधादिरूप कौरव-सेना का सहज ही में विनाशकर परमात्मा की प्राप्तिरूप सच्चे स्वराज्य को प्राप्त कर सकते है | बस, भगवान को अपना सच्चा अवलम्बन बनाकर भीमार्जुन की भाँती प्राणविसर्जन तक का प्रणकर भगवदाज्ञानुसार कार्यक्षेत्र में अवतीर्ण होने भर की देर है | 

Wednesday, May 15, 2013

गौएँ प्राणियों का आधार तथा कल्याण की निधि है

गौएँ प्राणियों का आधार तथा कल्याण की निधि है | भूत और भविष्य गौओं के ही हाथ में है | वे ही सदा रहने वाली पुष्टिका कारण तथा लक्ष्मी की जड हैं | गौओं की सेवा में जो कुछ दिया जाता है, उसका फल अक्षय होता है | अन्न गौओं से उत्पन्न होता है, देवताओं को उत्तम हविष्य (घृत) गौएँ देती है तथा स्वाहाकार (देवयज्ञ) और वषटकार (इन्द्रयाग) भी सदा गौओं पर ही अवलंबित है | गौएँ ही यज्ञ का फल देने वाली है | उन्हीं में यज्ञौ की प्रतिष्ठा है | ऋषियों को प्रात:काल और सांयकाल में होम के समय गौएँ ही हवंन के योग्य घृत आदि पदार्थ देती है | जो लोग दूध देने वाली गौ का दान करते है, वे अपने समस्त संकटों और पाप से पार हो जाते है | जिनके पास दस गायें हो वह एक गौ का दान करे,जो सौ गाये रखता हो, वह दस गौ का दान करे और जिसके पास हज़ार गौएँ मौजूद हो, वह सौ गाये दान करे तो इन सबको बराबर ही फल मिलता है |

जो सौ गौओं का स्वामी होकर भी अग्निहोत्र नहीं करता, जो हज़ार गौएँ रखकर भी यज्ञ नहीं करता तथा जो धनी होकर भी कंजूसी नहीं छोड़ता-ये तीनो मनुष्य अर्घ्य (सम्मान) पाने के अधिकारी नही है |
प्रात:काल और सांयकाल में प्रतिदिन गौओं को प्रणाम करना चाहिये | इससे मनुष्य के शरीर और बल की पुष्टि होती है | गोमूत्र और गोबर देखर कभी घ्रणा न करे | गौओं के गुणों का कीर्तन करे | कभी उसका अपमान न करे | यदि बुरे स्वप्न दीखायी दे तो गोमाता का नाम ले | प्रतिदिन शरीर में गोबर लगा के स्नान करे | सूखे हुए गोबर पर बैठे | उस पर थूक न फेकें | मल-मूत्र न त्यागे | गौओं के तिरस्कार से बचता रहे | अग्नि में गाय के घृत का हवन करे, उसीसे स्वस्तिवाचन करावे | गो-घृत का दान और स्वयं भी उसका भक्षण करे तो गौओं की वृद्धि होती हैं | (महा० अनु० ७८ |५-२१)

गौओं को यज्ञ का अंग और साक्षात् यज्ञस्वरूप बतलाया गया है | इनके बिना यज्ञ किसी तरह नहीं हो सकता | ये अपने दूध और घी से प्रजा का पालन-पोषण करती है तथा इनके पुत्र (बैल) खेती के काम आते है और तरह तरह के अन्न एवं बीज पैदा करते है, जिनसे यज्ञ संपन्न होते है और हव्य-कव्य का भी काम चलता है | इन्हीं से दूध, दही और घी प्राप्त होते है | ये गौए बड़ी पवित्र होती है और बैल भूक प्यास कष्ट सह कर अनेको प्रकार के बोझ ढोते रहते है | इस प्रकार गौ-जाति अपने काम से ऋषियों तथा प्रजाओं का पालन करती रहती है | उसके व्यवहार में शठता या माया नहीं होती | वह सदा पवित्र कर्म में लगी रहती है | इसी से ये गौएँ हम सब लोगों के उपर स्थान में निवास करती है | इसके सिवा गौएँ वरदान भी प्राप्त कर चुकी है तथा प्रसन्न होने पर वे दूसरों को वरदान भी देती है | (महा० अनु० ८३ |१७-२१)

गौएँ सम्पूर्ण तपस्विओं से भी बढकर है | इसलिए भगवान शंकर ने गौओं के साथ रहकर तप किया था | जिस ब्रह्मलोक में सिद्ध ब्रह्मर्षि भी जाने की इच्छा करते हैं, वहीँ ये गौएँ चन्द्रमा के साथ निवास करती है | ये अपने दूध, दही, घी, गोबर, चमड़ा, हड्डी, सींग और बालों से भी जगत का उपकार करती है | इन्हें सर्दी, गर्मी और वर्षा का कष्ट विचलित नहीं करता | ये गौएँ सदा ही अपना काम किया करती है | इसलिए ये ब्राह्मणों के साथ ब्रह्मलोक में जाकर निवास करती है | इसे से गौ और ब्राह्मण को विद्वान पुरुष एक बताते है | (महा० अनु० ६६ |३७-४२)

Tuesday, May 14, 2013

प्रभु पर विश्वास कैसे हो ?

प्रश्न यह है कि प्रभु पर विश्वास कैसे हो ? बच्चे को कैसे विश्वास हो जाता है कि अमुक मेरी माँ है ! बच्चा जब क्रन्दन करता है तब सभी को उससे सहानूभूति होती है पर जो भागती हुयी आती है, वह ही उसकी माँ है; ठीक इसी प्रकार जब माँ पुकारे तो सैकड़ों बच्चों की भीड़ में से भी जॊ भागकर जाये और माँ के आँचल में छुप जाये, वही उस माँ का बालक है। जब इस नश्वर जगत में हम स्वीकार कर लेते हैं कि अमुक मेरी माँ है और अमुक पिता। हमारा मन उसी समय यह भी बिना किसी के बताये, यह स्वीकार कर लेता है कि वे जो भी सॊचेंगे, हमारे भले की ही सोचेंगे। तब भला, जब सारे संत कह रहे हैं कि प्रभु, हमारे पिता, माता, बंधु, सखा, प्रियतम, लाला इत्यादि हैं तो भी हम विश्वास नहीं कर पा रहे, इसका कारण इस दास की अल्पबुद्धि से परे है क्यॊंकि कभी भी दास के साथ ऐसी स्थिति आयी ही नहीं। अब दुविधा यह है कि जाके पैर न फ़टी बिवाई, सो क्या जाने पीर पराई। दास का मानना है कि यदि तनिक भी संदेह है तो विश्वास है ही नहीं। विश्वास के साथ संदेह का होना ऐसा ही है जिस प्रकार सूर्य और अंधकार का एक साथ होना, जो संभव ही नहीं है। प्रेम और विश्वास जब भी होंगे, १००% ही होंगे, कम हो ही नहीं सकते। यह पूर्ण ब्रह्म का ही एक रूप है, या तो पूर्ण होगा या नहीं। जब तक संदेह है तभी तक की ही देरी है। मैं देह नहीं हूँ, देह से अधिक महत्वपूर्ण उसी चेतन का अंश हूँ। मैं बूँद हूँ, वह सागर है, प्रभु ने कृपा करके हमें अपनी लीला में सम्मिलित किया है; वह निर्देशक हैं, मैं एक पात्र। मेरा प्रयास यही हो कि मैं निर्देशक पर पूर्ण विश्वास रखते हुए अपने पात्र के अनूकूल अभिनय करूँ और उस अभिनय को इतनी सम्पूर्णता, लगन से करूँ कि जब स्टॆज से ग्रीनरूम में जाऊँ तो निर्देशक प्रसन्न होकर मेरी पीठ पर हाथ फ़ेरे और आगे भी अपने साथ ही रखे। यदि मैने निर्देशक पर विश्वास न करते हुए अपने संवाद या वेशभूषा बदल दी जो पात्र के अनूकूल न हो तो क्या हश्र होगा। पात्र की तो सुताई जनता करेगी ही, निर्देशक भी उसके नाम से हाथ जोड़ देगा।
जैसे किसी नाटक में अलग-अलग स्वाँग धरकर लोग आते हैं और अपनी-अपनी भूमिका निभाकर चले जाते हैं, वैसे ही इस संसाररुपी नाटक में हम लोग आते हैं, सम्बन्ध जोड़ते हैं और अपनी भूमिका पूरी होते ही चले जाते हैं। रंगमंच पर पति-पत्नी या प्रेमी-प्रेमिका, भाई-बहन, नौकर-मालिक की भूमिका करने वाले, नाटक समाप्त होने के बाद अपने पूर्व रुप में आ जाते हैं और अपने द्वारा अभिनीत पात्रों के अनुसार ही आपस में आचरण नहीं करते। यहाँ वास्तव में कोई किसी का पिता या पुत्र नहीं है। एकमात्र परमात्मा ही सबके परम पिता हैं। प्रभु के लीलामय रंगमंच के पात्र बने हम कभी कोई चेहरा लगाकर कोई पात्र निभा रहे हैं और कभी कोई। इस आनंदमयी लीला में पात्र भी निर्देशक का सानिध्य पाकर अभिभूत हैं और दर्शक भी। सत्य तो यह है कि प्रभु, विश्वास तो करने से ही होता है।
सड़कों पर मदारी, एक छोटे बच्चे के साथ कुछ विस्मयकारी खेल दिखाते हैं जिसमें मदारी, जमूरा बने लड़के को कपड़े से ढककर काट कर दिखाता है। एक बार भारत सेवाश्रम संघ, हरिद्वार के पूज्यवर श्री सत्यमित्रानंदजी ने रूककर जमूरे को बुलाकर पूछा कि क्या तुम्हें इतने खतरनाक खेल दिखाते हुए डर नहीं लगता तो जमूरे बने लड़के का उत्तर था कि नहीं ! मैं अपने उस्ताद की सारी ट्रिक जानता हूँ। यह ऐसी सारगर्भित बात है जो बताती है कि विश्वास क्या है, कैसा हो।
सतों के लिये यह जगत इतना सहज कैसे हो जाता है वह इसलिये कि वह भी अपने उस्ताद की सारी ट्रिक समझते हुए खुद को खेल में शामिल करते हुए भी, खेल की ही भावना से उस्ताद की बाजीगरी के द्वारा, इस जगत को प्रभु के लीलामय रंगमंच पर आमन्त्रित करते रहते है कि आओ, मेरे उस्ताद पर विश्वास करो और जमूरा बनकर आनंद लो, तुम्हारा बाल भी बांका न होगा।
जय जय श्री राधे !

जो उलझा रहा है, वह धर्म नहीं हो सकता

जो उलझा रहा है, वह धर्म नहीं हो सकता या हम धर्म की परिभाषा नहीं जानते । धर्म सुलझाता है, तब, जब हम सुलझना चाहते हैं । यह प्रश्न तो हमारा स्वयं से होना चाहिये कि क्या हम वास्तव में धर्म को जानना चाहते हैं या आत्म-प्रशंसा के लिये धर्म-धर्म का नाटक कर रहे हैं । वस्तुस्थिति तो यह है कि धर्म हमसे दूर नहीं हो रहा, हम धर्म से दूर हो रहे हैं क्योंकि धर्म के साथ चलते हुए हमें अपनी कुत्सित भावनाओं और स्वार्थ की पूर्ति संभव नहीं दिखती अत: "सब यही कर रहे हैं, केवल हमने ही तो धर्म का ठेका नहीं ले रखा है" यह सोचकर हम स्वयं अपने धर्म का परित्याग करते हैं । दास का अनुभव है कि आज जितने सत्संग-कथा-प्रवचन स्थान-स्थान पर हो रहे हैं, उतने कभी भी नहीं हुए। आखिर क्या कारण है कि भगवद-कृपा से इतने कथा-सत्संग-प्रवचनों की उपलब्धता के बाद भी दिन-ब-दिन पाप बढ़ता ही जा रहा है। हर स्थान पर कथा-प्रवचनों में भारी भीड़ के बाद भी मनुष्य-मात्र के आचरण में कोई विशेष बदलाव नहीं दिखायी दे रहा है; बहुत बड़ी संख्या में लोग ठाकुरजी की मंगला आरति के दर्शन करते हैं; बहुत से श्रीहरि के दर्शन के बिना खाते-पीते नहीं। बहुतों ने दर्शन का नियम ले रखा है, बहुतों ने साप्ताहिक दर्शन एवं परिक्रमा का; बहुत से लोग मिलकर कथा का आयोजन करवाते हैं अन्य भंडारों का आयोजन करते हुए स्वयं को गौरवशाली अनुभव करते हैं। श्रीमदभागवत प्रवक्ता बार-बार कहते हैं कि यह कथा मोक्षदायिनी है हमने कथाओं, सत्संग-प्रवचनों में जो भी सुना, उस समय तन्मय होकर सुना, बड़ा आनन्द आया। ह्रदय बार-बार कहता है कि सब सत्य ही तो कहा जा रहा है, प्रभु के प्रति सुप्त प्रेम अनायास छलकने लगता है। मन-मयूर आहलादित होकर नृत्य करने लगता है, अश्रुपात होने लगता है, पाँव स्वयं ही थिरकने लगते हैं परन्तु कथा -प्रवचन से लौटते हुए यह मस्ती शनै: शनै: उतरने लगती है। कुछ देर बाद ही संसार हमारे ऊपर हावी होने लगता है और कुछ ही देर में हमें पूर्णरुप से अपनी गिरफ़्त में ले लेता है। हम मानो एक बड़े ही मीठे स्वपन से मुक्त होकर "जाग्रत अवस्था" में आ जाते हैं। कटु सत्य तो यह है कि हम धार्मिक हैं ही नहीं। कथा-प्रवचनों को हम एक आनन्द के साधन के रुप में ले रहे हैं जिस प्रकार हम सिनेमा देखते है और अच्छे अभिनय, और पटकथा की प्रशंसा करते हैं, फ़िल्म के कई "डायलाँग्स" को हम रट लेते हैं, और अपनी प्रसन्नता के लिये, दूसरों पर शेखी बघारने के लिये, दोहराते हैं; लेकिन उस कथा की किसी भी अच्छी बात या डायलाँग को किसी भी रुप में अपनाते नहीं; ठीक यही हम कर रहे हैं। कथा तारेगी कब ? जब प्रथम तो वह वक्ता के आचरण में उतरेगी। यदि वक्ता पर भगवद-कृपा है और वह प्रभु-कृपा से प्रभु की लीलाओं के मर्म को समझ गया है तो नि:सन्देह ऐसे वक्ता की कथा का प्रभाव जन-मानस पर पड़ेगा ही। खेद की बात है कि कुछ वक्ताओं ने इसे भी एक "ऐन्टरटेन्मेंन्ट पैकेज" बना दिया है जिसमें कथा का सार कम और सभी रसों का थोड़ा-थोड़ा समावेश करके एक "हिट फ़ार्मूला" बना दिया है जिससे किसका "कल्याण" हो रहा है, वह ही जानें। उससे भी अधिक दोषी हम हैं। हम भी तो कहाँ किसी भी अच्छी बात को अपने आचरण में उतार रहे हैं। परिजनों में हम शेखी बघारते हैं कि - " अरे ! तुम कथा में नहीं गये ? बड़ी अच्छी कथा हो रही है, महाराजश्री ऐसा वर्णन करते हैं कि आत्मा प्रसन्न हो जाती है। अरे भाई ! कभी तो मिला करो। नहीं-नहीं, कल नहीं मिल पाऊँगा, उस समय तो मैं कथा सुनने जाता हूँ।" हम उन्हें जताना चाहते हैं कि हममें और तुममें क्या अन्तर है ? हम कहाँ और तुम कहाँ ? अब हम धार्मिक होने के कारण मन्दिर नहीं जाते, दान नहीं करते, सहायता नहीं करते वरन अधिकाशत: हम यह सब "डर" के कारण करते हैं। शहरों में तो अधिकांशत: ऐसे आयोजन वैभव का प्रदर्शन बन गये हैं; लाखों रुपयों का खर्च, "स्टेट्स सिम्बल" बन गया है। पहिले जिस प्रकार विवाह समारोहों में वैभव का प्रदर्शन होता है अब उससे कहीं अधिक ऐसे आयोजनों में दिखायी देता है और धर्म की मूल भावना ही जब गौड़ हो जाये तो हमारा कल्याण कैसे संभव है ? भागते-दौड़ते हम सोमवार को कहीं हाजिरी लगाते हैं, मंगल को कहीं और, बृहस्पतिवार को कहीं, और शनिवार को कहीं। हमें डर है कि हमारे द्वारा जाने या अनजाने में नित्य ही अपराधों की मात्रा बढ़ती जा रही है, यह ऐसा युग है कि दौड़ में यदि आपने किसी को धक्का नहीं दिया तो वह आपको दे देगा, क्या सही, क्या गलत, क्या नैतिक, क्या अनैतिक; बस, किसी प्रकार आगे निकलना है। लक्ष्य पर पहुँचकर सोचेंगे, अभी तो सब जायज है और यह सब करते हुए जब हमारी आत्मा, हमें कचोटती है तो हम स्वयं ही स्वयं को कुतर्कों की "ऐनस्थिसिया" देकर सुला देते हैं। पर आत्मा कुछ समय बाद पुन: जाग्रत होकर प्रश्न करती है और हमारे पास उत्तर नहीं होता। अपने अन्तर में झाँकने से जब हम घबराने लगते है तब हम भागते हैं किसी संत के पास, मन्दिर में दर्शन करने, कुछ दान-पुण्य करने। हमारा अपराध-बोध हमें दौड़ाता है। विडंबना यह भी है कि ऐसा करने के बाद जब हम वापस अपनी दुनिया में आते हैं तब स्वय़ं पर गर्व अनुभव करते हैं कि हम कितने धार्मिक हैं, हमारे विचार कितने पवित्र हैं: हमारे जैसा तो हमारे आस-पास कोई दिखायी भी नहीं देता ? हम अपनी आत्मा से कहते हैं कि लो कर ली तेरे मन की, अब प्रसन्न ! यदि "अनजाने में" हमसे कुछ गलत भी हो गया हो, किसी का ह्रदय दु:खा हो तो अब तो दान-पुण्य के द्वारा हमने अपना "प्रायश्चित" कर लिया। स्वयं ही स्वयं को दिलासा देकर हम पुन: उन्हीं कर्मों में प्रवृत्त हो जाते हैं क्योंकि अब तो हम पवित्र हो ही चुके हैं।
पुनश्च, इसे आत्म-प्रलाप ही समझें। यदि मुझ पतित के इन कठोर शब्दों से किसी भी भक्त ह्रदय को वेदना पहुँचे तो अपना ही नादान, दुष्ट, नालायक बालक समझकर क्षमा करने की कृपा कीजियेगा। जो विक्षिप्त के प्रकार का व्यवहार करता हो और जिसे अपना कल्याण ही समझ न आ रहा हो, उसकी बातों को ह्रदय से मत लगाइयेगा।
हे प्रभु ! हे नाथ ! हे करुणा सागर ! हे जीवनधन ! हे प्रियतम ! हे प्राणनाथ ! मुझ अधम शिरोमणि की एकमात्र आशा ! तुम्हीं अपने कर-कमलों से मुझ पतित को इस पंक से उबारो तो ही उबर सकता हूँ। जिस प्रकार शूकर को पंक में, वैकुण्ठ से भी बढ़कर सुख प्रतीत होता है, हे मोहन ! मुझे भी सांसारिक भोगों ने ऐसे ही मोह लिया है। संतजनों के वचन क्षणिक आनन्द के पश्चात एक कर्ण में प्रवेश कर दूसरे से निकल जाते हैं, भीतर कुछ भी नहीं जा रहा और ढ़ोंग मैं ऐसा करता हूँ मानो कितना विनयी, सरल और पवित्र आचरण वाला तुम्हारा प्रिय भक्त हूँ। हे दीनबंधु ! हे अशरणशरण ! संतों के सम्मुख जब मैं, भक्त होने का नाटक करता हूँ और उस समय जो दो-चार बार तुम्हारा नाम लेता हूँ, चूँकि मुझ पतित से तुम्हें अधिक आशा भी नहीं है अत: तुम इतने से ही मुझ अधम पर प्रसन्न होकर मुसकराते हुए मेरी ओर इंगित कर किसी अपने प्रिय संत को/ भक्त को मेरे कल्याण का भार सौंप देते हो। तुम्हारी कृपा से इतना तो विश्वास हो ही गया है कि तुम मुझे छोड़ोगे नहीं परन्तु नाथ ! यदि ऐसा हो जाये कि मैं आपको नहीं छोडू तो अत्युत्तम होगा। यह होगा भी तभी जब आप करवाओगे। मेरी क्षमता भी नहीं, बुद्धि भी नहीं, अपने कल्याण का मार्ग भी तो नहीं जानता और आप जना भी दो तो भोगों में प्रबल आसक्ति के कारण मैं चलने वाला भी तो नहीं। आज चेतना कुछ जाग्रत सी प्रतीत होती है अत: आपसे आज ही यह प्रार्थना है कि प्रभु ! इतनी दया बनाये रखना कि यह दुष्ट, आपकी चरण-धूलि से पवित्र हो जाये और इसका एकमात्र अवलम्बन आपके चरण-कमल बने रहे, उनसे विलग न होने पावे। सब आप पर ही छोड़ता हूँ, मेरे बस में तो वैसे भी कुछ है ही नहीं। हे पतितपावन ! मुझ पतित को आप निश्चय ही अपने नाम की लाज रखते हुए स्वीकारेंगे क्योंकि राम से बड़ा राम का नाम.......। दीनबंधु ! दीन तुम्हें छोड़कर किसके पास जाये ? हे अशरणशरण ! तुम्हीं शरण न दोगे तो कौन देगा ? 
जय जय श्री राधे !

Thursday, May 9, 2013

भगवान की दया

भगवान की दया

दयामय परमात्मा की सब जीवों पर इतनी दया है की सम्पूर्णरूप से तो उस दयाको मनुष्य समझ ही नहीं सकता | वह अपनी समझके अनुसार अपने ऊपर जितनी अधिक-से-अधिक दया समझता हैं, वह भी नितान्त अल्प ही होती हैं | मनुष्य ईश्वरदया का यथार्थ कल्पना ही नहीं कर सकता | भगवान की वह अनन्त दया सबके ऊपर समभाव से गंगाके प्रवाहकी भाँती नित्य-निरन्तर चारों और से बह रही है | इस दया से जो मनुष्य जितना लाभ उठाना चाहता है, उतना ही उठा सकता है | खेद की बात है की लोग इस रहस्य को न जानने के कारण ही दुखी हो रहे है | यह उनकी मूर्खता है | इन लोगो किन वही दशा समझनी चाहिये, जैसी उस मूर्ख प्यासे मनुष्य की है जो नित्य-निरन्तर शीतल सुमधुर जल को प्रवाहित करने वाली भगवती गंगा के किनारे पड़ा हो, परन्तु ज्ञान न होने के कारण जल न ग्रहण कर प्यास के मारे तड़प रहा हों |

ईश्वर की दया अपार है परन्तु जो जितनी मानता है उतनी ही दया उसको फलती है, इसलिए उस ईश्वर की जितनी अधिक-से-अधिक दया तुम अपने ऊपर समझ सको उन्ती समझनी चाहिये | तुम्हारी कल्पना जितनी अधिक होगी, तुम्हे उतना ही अधिक लाभ होगा | यद्यपि भगवान की दया का थाह उसी प्रकार किसीको नहीं मिलता, जैसे विमान पर बैठ कर आकाशमें उड़ने वाले मनुष्य को आकाश का थाह नहीं मिलता, परन्तु इस दया का थोडा-सा रहस्य जानने पर भी मनुष्य कृतकृत्य हो जाता है | जैसे अथाह गंगा के प्रवाहमें से मनुष्य की प्यास बुझानेके लिए एक लोटा गंगाजल ही पर्याप्त है वैसे ही अपार, अपरिमित दयासागरकी दया के एक कारण से ही मनुष्य की अनन्त-जन्मों की शोकाअग्नि सदा के लिए शान्त हो जाती है | यह तुलना भी पर्याप्त नहीं है, क्योकि साधारण जलबुद्धि से पीये हुए गंगाजल के एक लोटे जल से तो मनुष्य की प्यास थोड़ी देर के लिए शान्त होती है, परन्तु ईश्वर की दया के कण से तो भय, शोक और दुखों की निवृति एवं शान्ति और परमानन्द की प्राप्ति सदा के लिए हो जाती है | अतएव सबको चाहिये की उस परमेश्वर के शरण होकर उसकी दया की खोज करे |