Wednesday, January 30, 2013

पीपल के कण कण में है औषधियो का निवास


पीपल के कण कण में है औषधियो का निवास

पीपल को संस्कृत भाषा में पिप्पल:, अश्वत्थ:, हिन्दी में पीपली, गुजराती में पीप्पलो और पीपुलजरी व बंगाली में अश्वत्थ,असुद और असवट, पंजाबी में भोर और पीपल जैसे कई नामो से जाना जाता है।

परिचय — पीपल का पेड किसी परिचय का मोहताज नहीं है। इस वृक्ष का विस्तार, फैलाव तथा ऊंचाई व्यापक और विशाल होती है। यह सौ फुट से भी ऊंचा पाया जाता है। हजारों पशु और मनुष्य इसकी छाया के नीचे विश्राम कर सकते हैं। पौराणिक काल से ही पीपल को पवित्र और पूज्य मानने की आस्था रही है। इसे देववृक्ष यानी देवताओं का वृक्ष माना गया है। यह किसी अंधविश्वास या आडंबर के चलते नहीं है बल्कि इसके अनेक दिव्य गुणों के चलते ही है।

पीपल को प्राणवायु यानी ऑक्सीजन को शुद्ध करने वाले वृक्षों में सर्वोत्तम माना जा सकता है। पीपल फेफडों के रोग जैसे तपेदिक, अस्थमा, खांसी तथा कुष्ठ, प्लेग, भगन्दर आदि रोगों पर बहुत लाभदायक सिद्ध हुआ है। संपूर्ण भारतवर्ष में पीपल से लोगों की आस्था जुडी है। श्रद्धा, आस्था, विश्वास और भक्ति का यह पेड वास्तव में बहुत शक्ति रखता है। पवित्र और पूज्य पीपल का पेड बहुत परोपकारी गुणों से भरा होता है।

पीपल का वृक्ष रक्तपित्त और कफ के रोगों को दूर करने वाला होता है। पीपल की छाया बहुत शीतल और सुखद होती है। इसके पत्ते कोमल, चिकने और हरे रंग के होते हैं जो आंखों को बहुत सुहावने लगते हैं। औषधि के रूप में इसके पत्र, त्वक्, फल , बीज और दुग्ध व लकडी आदि इसका प्रत्येक अंग और अंश हितकारी लाभकारी और गुणकारी होता है। पीपल को सर्वजन हिताय और सर्वजन सुखाय माना जा सकता है।

फलों का गुण — पीपल वृक्ष के पके हुए फल ह्वदय रोगों को शीतलता और शांति देने वाले होते हैं। इसके साथ ही पित्त, रक्त और कफ के दोष को दूर करने वाले गुण भी इनमें निहित हैं। दाह, वमन, शोथ, अरूचि आदि रोगों में यह रामबाण है। पीपल का फल पाचक, आनुलोमिक, संकोच, विकास -प्रतिबंधक और रक्त शोषक है। पीपल के सूखे फल दमे के रोग को दूर करने में काफी लाभकारी साबित हुआ है। महिलाओं में बांझपन को दूर करने और सन्तानोत्पत्ति में इसके फलों का सफल प्रयोग किया गया है।

पीपल का दूध — पीपल का दूध अति शीघ्र रक्तशोधक , वेदनानाशक, शोषहर होता है। दूध का रंग सफेद होता है। पीपल का दूध आंखों के अनेक रोगों को दूर करता है। पीपल के पत्ते या टहनी तोडने से जो दूध निकलता है उसे थोडी मात्रा में प्रतिदिन सलाई से लगाने पर आँखों के रोग जैसे पानी आना, मल बहना, फोला, आंखों में दर्द और आंखों की लाली आदि रोगों में आराम मिलता है।

पीपल की छाल — पीपल की छाल स्तम्भक, रक्त संग्राहक और पौष्टिक होती है। सुजाक में पीपल की छाल का उपयोग किया जाता है। इसके छाल के अंदर फोडों को पकाने के तत्व भी होते हैं। इसकी छाल के शीत निर्यास का इस्तेमाल गीली खुजली को दूर करने में भी किया जाता है। पीपल की छाल के चूर्ण का मरहम एक शोषक वस्तु के समान सूजन पर लगाया जाता है। इसकी ताजा जलाई हुई छाल की राख को पानी में घोलकर और उसके निथरे हुए जल को पिलाने से भयंकर हिचकी भी रूक जाती है। इसके छाल का चूर्ण भगन्दर रोग को भगाने में किया जाता है। श्रीलंका में तो इसके छाल का रस दांत मसूडों की दर्द को दूर करने में कुल्ले के रूप में किया जाता है। यूनानी मत में पीपल की छाल को कब्ज करने वाली माना गया है। इसकी ताजा छाल को जल में भिगोकर कमर में बांघने से ताकत आती है। यूनानी चिकित्सा में इसके छाल को वीर्य वर्धक माना गया है। इसका अर्क खून को साफ करता है। इसकी छाल पीने से पेशाब की जलन,पुराना सुजाक और हडडी की जलन मिटने की बात कही गयी है।

पीपल के पत्ते — पीपल के पत्ते आनुलोमिक होते हैं।पीपल के पत्तों को गर्म करके सूजन पर बाधने से कुछ ही दिनों में सूजन उतर आता है। खांसी के रोग में पीपल के पत्तों को छाया में सुखाकर कूट-छानकर समान भागकर मिसरी मिला लें तथा कीकर का गोंद मिलाकर चने के आकार समान गोली बना ले। दिनभर में दो से तीन गोलियां कुछ दिनों तक चूसें , खांसी में आराम मिलेगा।

पीपल की टहनियां — पीपल की टहनियों में से दातुन बना लें। प्रतिदिन पीपल का दातुन करने से लाभ होता है। यदि आप पित्त प्रकृति के हैं तो यह दातुन आपको विशेषकर लाभकारी होगा। पीपल के दातुन से दांतों के रोगों जैसे दांतों में कीडा लगना, मसूडों में सूजन, पीप या खून निकलना,दांतों के पीलापन,दांत हिलना आदि में लाभ देता है। पीपल का दातुन मुंह की दुर्गध को दूर करता है और साथ ही साथ आंखों की रोशनी भी बढती है। 

Monday, January 28, 2013

प्रेममय सेवा-भक्ति नष्ट हो जाती है ......


सनातन धर्म एक ही धर्म

जब कोई भक्त निम्नांकित छः क्रियायों में अतिशय लिप्त हो जाता है तो प्रभु में उसकी प्रेममय सेवा-भक्ति नष्ट हो जाती है |

(1) आवश्यकता से अधिक खाना या आवश्यकता से अधिक धन संग्रह करना ;

(2) कठिनता से प्राप्त होने वाले सांसारिक पदार्थों के लिए अत्यधिक श्रम करना

(3) सांसारिक विषयों के बारे में व्यर्थ बातें करना ;

(4) आध्यात्मिक प्रगति के लक्ष्य से न करके केवल पालन करने लिए शास्त्र विधियों का पालन करना अथवा शास्त्रविधियों का उल्लंघन करके प्रमाद पूर्वक उच्छृङखल आचरण करना

(5) परमात्मा की भावना से विमुख सांसारिक लोगों की संगति करना और
(6) सांसारिक उपलब्धियों के लिए लालच करना

Saturday, January 19, 2013

संस्कृत के बारे में आश्चर्यजनक तथ्य -----


संस्कृत के बारे में आश्चर्यजनक तथ्य -----

1. कंप्यूटर में इस्तेमाल के लिए सबसे अच्छी भाषा। संदर्भ: - फोर्ब्स पत्रिका 1987.

2. सबसे अच्छे प्रकार का कैलेंडर जो इस्तेमाल किया जा रहा है, हिंदू कैलेंडर है (जिसमें नया साल सौर प्रणाली के भूवैज्ञानिक परिवर्तन के साथ शुरू होता है) संदर्भ: जर्मन स्टेट यूनिवर्सिटी.

3. दवा के लिए सबसे उपयोगी भाषा अर्थात संस्कृत में बात करने से व्यक्ति... स्वस्थ और बीपी, मधुमैह , कोलेस्ट्रॉल आदि जैसे रोग से मुक्त हो जाएगा। संस्कृत में बात करने से मानव शरीर का तंत्रिका तंत्र सक्रिय रहता है जिससे कि व्यक्ति का शरीर सकारात्मक आवेश(Positive Charges) के साथ सक्रिय हो जाता है।संदर्भ: अमेरीकन हिन्दू यूनिवर्सिटी (शोध के बाद).

4. संस्कृत वह भाषा है जो अपनी पुस्तकों वेद, उपनिषदों, श्रुति, स्मृति, पुराणों, महाभारत, रामायण आदि में सबसे उन्नत प्रौद्योगिकी (Technology) रखती है।संदर्भ: रशियन स्टेट यूनिवर्सिटी.

नासा के पास 60,000 ताड़ के पत्ते की पांडुलिपियों है जो वे अध्ययन का उपयोग कर रहे हैं. असत्यापित रिपोर्ट का कहना है कि रूसी, जर्मन, जापानी, अमेरिकी सक्रिय रूप से हमारी पवित्र पुस्तकों से नई चीजों पर शोध कर रहे हैं और उन्हें वापस दुनिया के सामने अपने नाम से रख रहे हैं.

दुनिया के 17 देशों में एक या अधिक संस्कृत विश्वविद्यालय संस्कृत के बारे में अध्ययन और नई प्रौद्योगिकी प्राप्त करने के लिए है, लेकिन संस्कृत को समर्पित उसके वास्तविक अध्ययन के लिए एक भी संस्कृत विश्वविद्यालय इंडिया (भारत) में नहीं है।

5. दुनिया की सभी भाषाओं की माँ संस्कृत है। सभी भाषाएँ (97%) प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से इस भाषा से प्रभावित है। संदर्भ: - यूएनओ

6. नासा वैज्ञानिक द्वारा एक रिपोर्ट है कि अमेरिका 6 और 7 वीं पीढ़ी के सुपर कंप्यूटर संस्कृत भाषा पर आधारित बना रहा है जिससे सुपर कंप्यूटर अपनी अधिकतम सीमा तक उपयोग किया जा सके। परियोजना की समय सीमा 2025 (6 पीढ़ी के लिए) और 2034 (7 वीं पीढ़ी के लिए) है, इसके बाद दुनिया भर में संस्कृत सीखने के लिए एक भाषा क्रांति होगी।

7. दुनिया में अनुवाद के उद्देश्य के लिए उपलब्ध सबसे अच्छी भाषा संस्कृत है। संदर्भ: फोर्ब्स पत्रिका 1985.

8. संस्कृत भाषा वर्तमान में "उन्नत किर्लियन फोटोग्राफी" तकनीक में इस्तेमाल की जा रही है। (वर्तमान में, उन्नत किर्लियन फोटोग्राफी तकनीक सिर्फ रूस और संयुक्त राज्य अमेरिका में ही मौजूद हैं। भारत के पास आज "सरल किर्लियन फोटोग्राफी" भी नहीं है )

9. अमेरिका, रूस, स्वीडन, जर्मनी, ब्रिटेन, फ्रांस, जापान और ऑस्ट्रिया वर्तमान में भरत नाट्यम और नटराज के महत्व के बारे में शोध कर रहे हैं। (नटराज शिव जी का कॉस्मिक नृत्य है। जिनेवा में संयुक्त राष्ट्र कार्यालय के सामने शिव या नटराज की एक मूर्ति है ).

10. ब्रिटेन वर्तमान में हमारे श्री चक्र पर आधारित एक रक्षा प्रणाली पर शोध कर रहा है......

Friday, January 18, 2013

गौ सेवा से होने वाले लाभ..



क्या आप जानते हैं ...???

दिन १९८४ में भोपाल में गैस लीक से २०,००० से अधिक लोग मरे । गोबर पुती दीवारों वाले घरों में रहने वालों पर असर नहीं हुआ । रूस और भारत के आणविक शक्ति केंद्रों में विकीरण के बचाव हेतु आज भी गोबर प्रयुक्त होता है ।गोबर से अफ्रीकी मरूभूमि को उपजाऊ बनाया गया । गाय गोबर के प्रयोग द्वारा हम पानी में तेजाब की मात्रा घटा सकते हैं । तो फिर ये गाय हत्या क्यों?? विचार करियेगा।
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वेदों में काल(समय) की गणना

ग्रेगेरियन कलेण्डर की काल गणना मात्र दो हजार वर्षों के अति अल्प समय को दर्शाती है। जबकि यूनान की काल गणना 3580 वर्ष, रोम की 2757 वर्ष यहूदी 5768 वर्ष, मिस्त्र की 28671 वर्ष, पारसी 198875 वर्ष तथा चीन की 96002305 वर्ष पुरानी है। इन सबसे अलग यदि भारतीय काल गणना की बात करें तो हमारे ज्योतिष के अनुसार पृथ्वी की आयु 1 अरब 97 करोड़ 39 लाख 49 हजार 112 वर्ष है। जिसके व्यापक प्रमाण हमारे पास उपलब्ध हैं। हमारे प्राचीन ग्रंथों में एक-एक पल की गणना की गयी है।
जिस प्रकार ईस्वी सम्वत् का सम्बन्ध ईसा जगत से है उसी प्रकार हिजरी सम्वत् का सम्बन्ध मुस्लिम जगत और हजरत मुहम्मद साहब से है।

किन्तु विक्रमी सम्वत् का सम्बन्ध किसी भी धर्म से न हो कर सारे विश्व की प्रकृति, खगोल सिद्धांत व ब्रह्माण्ड के ग्रहों व नक्षत्रों से है। इसलिए भारतीय काल गणना पंथ निरपेक्ष होने के साथ सृष्टि की रचना व राष्ट्र की गौरवशाली परम्पराओं को दर्शाती है। इतना ही नहीं, ब्रह्माण्ड के सबसे पुरातन ग्रंथ वेदों में भी इसका वर्णन है। नव संवत् यानि संवत्सरों का वर्णन यजुर्वेद के 27वें व 30वें अध्याय में है.

Thursday, January 17, 2013

भगवान क्या चाहता है


समझिए, भगवान क्या चाहता है

हम भगवान से हमेशा वो मांगते हैं जो हम चाहते हैं। कभी ये भी सोचिए कि भगवान क्या चाहता है। जब भी कोई घटना आपके खिलाफ घट जाए तो धर्य मत खोइए, उसमें अपने लिए सकारात्मक ढूंढ़िए, संभव है जिसे आप अब तक अनदेखा कर रहे थे, वो ही आपके लिए श्रेष्ठ हो। कभी परमात्मा के किए का विरोध न करें। 

कई बार जीवन में जो हम चाहते हैं वह नहीं होता और ईश्वर क्या चाहते हैं यह हम समझ नहीं पाते हैं। जो लोग धार्मिक होते हैं वे 
ऐसी स्थिति में और परेशान हो जाते हैं। अधार्मिक लोग तो ऐसी स्थितियों में अपने तरीके से उत्तर ढूंढ लेते हैं। परंतु धार्मिक लोग मनचाहा हो इसे अपना हक मानते हैं। कई लोग तो शब्दों की इस गरिमा को भी लांघ जाते हैं कि जब इतना सब भगवान, ईश्वर, परमात्मा को मानते-पूजते हैं तो फिर भी चाहा काम न हो तो क्या मतलब? पूजापाठ, धर्मकर्म का? इसे समझना होगा। जिसने चाह बदल ली वह धार्मिक नहीं होता, धार्मिक वह होता है जिसने चाह समझ ली।

आइए राजा दशरथ के जीवन के एक प्रसंग से समझें। उनकी इच्छा थी राम अवध की राजगादी पर बैठें, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। जिन्हें राम जैसी मूल्यवान संतान प्राप्त हो गई हो, उनके मन की मुराद भी पूरी नहीं हुई। बहुत बारीकी से देखें तो हम कहीं दशरथ में नजर आ जाएंगे। दशरथ की चाह थी राम राजा बनें पर चाहत में कैकयी थीं। दशरथ के धार्मिक होने में कोई संदेह नहीं है लेकिन उनका कैकयी से आचरण विलासी हो गया था। भक्ति और वासना एकसाथ कैसे हो सकते हैं। राम और काम साथ-साथ रखने का परिणाम राम राज्य चौदह वर्ष के लिए दूर हो जाना।

इसलिए धार्मिक लोग अपनी चाह को ईश्वर से जोड़ें और सावधानी, शुद्धता से जोड़ें। होने दें जो हो रहा है। आपकी इच्छा का हो जाना बढ़िया है पर यदि न हो तो वह परमात्मा की मर्जी का हो जाना मानें वह उससे श्रेष्ठ हुआ मानें।
समझिए, भगवान क्या चाहता है

हम भगवान से हमेशा वो मांगते हैं जो हम चाहते हैं। कभी ये भी सोचिए कि भगवान क्या चाहता है। जब भी कोई घटना आपके खिलाफ घट जाए तो धर्य मत खोइए, उसमें अपने लिए सकारात्मक ढूंढ़िए, संभव है जिसे आप अब तक अनदेखा कर रहे थे, वो ही आपके लिए श्रेष्ठ हो। कभी परमात्मा के किए का विरोध न करें। 

कई बार जीवन में जो हम चाहते हैं वह नहीं होता और ईश्वर क्या चाहते हैं यह हम समझ नहीं पाते हैं। जो लोग धार्मिक होते हैं वे 
ऐसी स्थिति में और परेशान हो जाते हैं। अधार्मिक लोग तो ऐसी स्थितियों में अपने तरीके से उत्तर ढूंढ लेते हैं। परंतु धार्मिक लोग मनचाहा हो इसे अपना हक मानते हैं। कई लोग तो शब्दों की इस गरिमा को भी लांघ जाते हैं कि जब इतना सब भगवान, ईश्वर, परमात्मा को मानते-पूजते हैं तो फिर भी चाहा काम न हो तो क्या मतलब? पूजापाठ, धर्मकर्म का? इसे समझना होगा। जिसने चाह बदल ली वह धार्मिक नहीं होता, धार्मिक वह होता है जिसने चाह समझ ली।

आइए राजा दशरथ के जीवन के एक प्रसंग से समझें। उनकी इच्छा थी राम अवध की राजगादी पर बैठें, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। जिन्हें राम जैसी मूल्यवान संतान प्राप्त हो गई हो, उनके मन की मुराद भी पूरी नहीं हुई। बहुत बारीकी से देखें तो हम कहीं दशरथ में नजर आ जाएंगे। दशरथ की चाह थी राम राजा बनें पर चाहत में कैकयी थीं। दशरथ के धार्मिक होने में कोई संदेह नहीं है लेकिन उनका कैकयी से आचरण विलासी हो गया था। भक्ति और वासना एकसाथ कैसे हो सकते हैं। राम और काम साथ-साथ रखने का परिणाम राम राज्य चौदह वर्ष के लिए दूर हो जाना।

इसलिए धार्मिक लोग अपनी चाह को ईश्वर से जोड़ें और सावधानी, शुद्धता से जोड़ें। होने दें जो हो रहा है। आपकी इच्छा का हो जाना बढ़िया है पर यदि न हो तो वह परमात्मा की मर्जी का हो जाना मानें वह उससे श्रेष्ठ हुआ मानें।

Sunday, January 13, 2013

जो महाभारत को काल्पनिक बताते हैं, उनके मुंह पर पर एक जोरदार तमाचा

जितने भी लोग महाभारत को काल्पनिक बताते हैं.... उनके मुंह पर पर एक जोरदार तमाचा है आज का यह पोस्ट...!

महाभारत के बाद से आधुनिक काल तक के सभी राजाओं का विवरण क्रमवार तरीके से नीचे प्रस्तुत किया जा रहा है...!

आपको यह जानकर एक बहुत ही आश्चर्य मिश्रित ख़ुशी होगी कि महाभारत युद्ध के पश्चात् राजा युधिष्ठिर की 30 पीढ़ियों ने 1770 वर्ष 11 माह 10 दिन तक राज्य किया था..... जिसका पूरा विवरण इस प्रकार है :

क्र................... शासक का नाम.......... वर्ष....माह.. दिन

1. राजा युधिष्ठिर (Raja Yudhisthir)..... 36.... 08.... 25
2 राजा परीक्षित (Raja Parikshit)........ 60.... 00..... 00
3 राजा जनमेजय (Raja Janmejay).... 84.... 07...... 23
4 अश्वमेध (Ashwamedh )................. 82.....08..... 22
5 द्वैतीयरम (Dwateeyram )............... 88.... 02......08
6 क्षत्रमाल (Kshatramal)................... 81.... 11..... 27
7 चित्ररथ (Chitrarath)...................... 75......03.....18
8 दुष्टशैल्य (Dushtashailya)............... 75.....10.......24
9 राजा उग्रसेन (Raja Ugrasain)......... 78.....07.......21
10 राजा शूरसेन (Raja Shoorsain).......78....07........21
11 भुवनपति (Bhuwanpati)................69....05.......05
12 रणजीत (Ranjeet).........................65....10......04
13 श्रक्षक (Shrakshak).......................64.....07......04
14 सुखदेव (Sukhdev)........................62....00.......24
15 नरहरिदेव (Narharidev).................51.....10.......02
16 शुचिरथ (Suchirath).....................42......11.......02
17 शूरसेन द्वितीय (Shoorsain II)........58.....10.......08
18 पर्वतसेन (Parvatsain )..................55.....08.......10
19 मेधावी (Medhawi)........................52.....10......10
20 सोनचीर (Soncheer).....................50.....08.......21
21 भीमदेव (Bheemdev)....................47......09.......20
22 नरहिरदेव द्वितीय (Nraharidev II)...45.....11.......23
23 पूरनमाल (Pooranmal)..................44.....08.......07
24 कर्दवी (Kardavi)...........................44.....10........08
25 अलामामिक (Alamamik)...............50....11........08
26 उदयपाल (Udaipal).......................38....09........00
27 दुवानमल (Duwanmal)..................40....10.......26
28 दामात (Damaat)..........................32....00.......00
29 भीमपाल (Bheempal)...................58....05........08
30 क्षेमक (Kshemak)........................48....11........21

इसके बाद ....क्षेमक के प्रधानमन्त्री विश्व ने क्षेमक का वध करके राज्य को अपने अधिकार में कर लिया और उसकी 14 पीढ़ियों ने 500 वर्ष 3 माह 17 दिन तक राज्य किया जिसका विरवरण नीचे दिया जा रहा है।

क्र. शासक का नाम वर्ष माह दिन

1 विश्व (Vishwa)......................... 17 3 29
2 पुरसेनी (Purseni)..................... 42 8 21
3 वीरसेनी (Veerseni).................. 52 10 07
4 अंगशायी (Anangshayi)........... 47 08 23
5 हरिजित (Harijit).................... 35 09 17
6 परमसेनी (Paramseni)............. 44 02 23
7 सुखपाताल (Sukhpatal)......... 30 02 21
8 काद्रुत (Kadrut)................... 42 09 24
9 सज्ज (Sajj)........................ 32 02 14
10 आम्रचूड़ (Amarchud)......... 27 03 16
11 अमिपाल (Amipal) .............22 11 25
12 दशरथ (Dashrath)............... 25 04 12
13 वीरसाल (Veersaal)...............31 08 11
14 वीरसालसेन (Veersaalsen).......47 0 14

इसके उपरांत...राजा वीरसालसेन के प्रधानमन्त्री वीरमाह ने वीरसालसेन का वध करके राज्य को अपने अधिकार में कर लिया और उसकी 16 पीढ़ियों ने 445 वर्ष 5 माह 3 दिन तक राज्य किया जिसका विरवरण नीचे दिया जा रहा है।

क्र. शासक का नाम वर्ष माह दिन

1 राजा वीरमाह (Raja Veermaha)......... 35 10 8
2 अजितसिंह (Ajitsingh)...................... 27 7 19
3 सर्वदत्त (Sarvadatta)..........................28 3 10
4 भुवनपति (Bhuwanpati)...................15 4 10
5 वीरसेन (Veersen)............................21 2 13
6 महिपाल (Mahipal)............................40 8 7
7 शत्रुशाल (Shatrushaal).....................26 4 3
8 संघराज (Sanghraj)........................17 2 10
9 तेजपाल (Tejpal).........................28 11 10
10 मानिकचंद (Manikchand)............37 7 21
11 कामसेनी (Kamseni)..................42 5 10
12 शत्रुमर्दन (Shatrumardan)..........8 11 13
13 जीवनलोक (Jeevanlok).............28 9 17
14 हरिराव (Harirao)......................26 10 29
15 वीरसेन द्वितीय (Veersen II)........35 2 20
16 आदित्यकेतु (Adityaketu)..........23 11 13

ततपश्चात् प्रयाग के राजा धनधर ने आदित्यकेतु का वध करके उसके राज्य को अपने अधिकार में कर लिया और उसकी 9 पीढ़ी ने 374 वर्ष 11 माह 26 दिन तक राज्य किया जिसका विवरण इस प्रकार है ..

क्र. शासक का नाम वर्ष माह दिन

1 राजा धनधर (Raja Dhandhar)...........23 11 13
2 महर्षि (Maharshi)...............................41 2 29
3 संरछि (Sanrachhi)............................50 10 19
4 महायुध (Mahayudha).........................30 3 8
5 दुर्नाथ (Durnath)...............................28 5 25
6 जीवनराज (Jeevanraj).......................45 2 5
7 रुद्रसेन (Rudrasen)..........................47 4 28
8 आरिलक (Aarilak)..........................52 10 8
9 राजपाल (Rajpal)..............................36 0 0

उसके बाद ...सामन्त महानपाल ने राजपाल का वध करके 14 वर्ष तक राज्य किया। अवन्तिका (वर्तमान उज्जैन) के विक्रमादित्य ने महानपाल का वध करके 93 वर्ष तक राज्य किया। विक्रमादित्य का वध समुद्रपाल ने किया और उसकी 16 पीढ़ियों ने 372 वर्ष 4 माह 27 दिन तक राज्य किया !
जिसका विवरण नीचे दिया जा रहा है।

क्र. शासक का नाम वर्ष माह दिन

1 समुद्रपाल (Samudrapal).............54 2 20
2 चन्द्रपाल (Chandrapal)................36 5 4
3 सहपाल (Sahaypal)...................11 4 11
4 देवपाल (Devpal).....................27 1 28
5 नरसिंहपाल (Narsighpal).........18 0 20
6 सामपाल (Sampal)...............27 1 17
7 रघुपाल (Raghupal)...........22 3 25
8 गोविन्दपाल (Govindpal)........27 1 17
9 अमृतपाल (Amratpal).........36 10 13
10 बालिपाल (Balipal).........12 5 27
11 महिपाल (Mahipal)...........13 8 4
12 हरिपाल (Haripal)..........14 8 4
13 सीसपाल (Seespal).......11 10 13
14 मदनपाल (Madanpal)......17 10 19
15 कर्मपाल (Karmpal)........16 2 2
16 विक्रमपाल (Vikrampal).....24 11 13

टिप : कुछ ग्रंथों में सीसपाल के स्थान पर भीमपाल का उल्लेख मिलता है, सम्भव है कि उसके दो नाम रहे हों।

इसके उपरांत .....विक्रमपाल ने पश्चिम में स्थित राजा मालकचन्द बोहरा के राज्य पर आक्रमण कर दिया जिसमे मालकचन्द बोहरा की विजय हुई और विक्रमपाल मारा गया। मालकचन्द बोहरा की 10 पीढ़ियों ने 191 वर्ष 1 माह 16 दिन तक राज्य किया जिसका विवरण नीचे दिया जा रहा है।

क्र. शासक का नाम वर्ष माह दिन

1 मालकचन्द (Malukhchand) 54 2 10
2 विक्रमचन्द (Vikramchand) 12 7 12
3 मानकचन्द (Manakchand) 10 0 5
4 रामचन्द (Ramchand) 13 11 8
5 हरिचंद (Harichand) 14 9 24
6 कल्याणचन्द (Kalyanchand) 10 5 4
7 भीमचन्द (Bhimchand) 16 2 9
8 लोवचन्द (Lovchand) 26 3 22
9 गोविन्दचन्द (Govindchand) 31 7 12
10 रानी पद्मावती (Rani Padmavati) 1 0 0

रानी पद्मावती गोविन्दचन्द की पत्नी थीं। कोई सन्तान न होने के कारण पद्मावती ने हरिप्रेम वैरागी को सिंहासनारूढ़ किया जिसकी पीढ़ियों ने 50 वर्ष 0 माह 12 दिन तक राज्य किया !
जिसका विवरण नीचे दिया जा रहा है।

क्र. शासक का नाम वर्ष माह दिन

1 हरिप्रेम (Hariprem) 7 5 16
2 गोविन्दप्रेम (Govindprem) 20 2 8
3 गोपालप्रेम (Gopalprem) 15 7 28
4 महाबाहु (Mahabahu) 6 8 29

इसके बाद.......राजा महाबाहु ने सन्यास ले लिया । इस पर बंगाल के अधिसेन ने उसके राज्य पर आक्रमण कर अधिकार जमा लिया। अधिसेन की 12 पीढ़ियों ने 152 वर्ष 11 माह 2 दिन तक राज्य किया जिसका विवरण नीचे दिया जा रहा है।

क्र. शासक का नाम वर्ष माह दिन

1 अधिसेन (Adhisen) 18 5 21
2 विल्वसेन (Vilavalsen) 12 4 2
3 केशवसेन (Keshavsen) 15 7 12
4 माधवसेन (Madhavsen) 12 4 2
5 मयूरसेन (Mayursen) 20 11 27
6 भीमसेन (Bhimsen) 5 10 9
7 कल्याणसेन (Kalyansen) 4 8 21
8 हरिसेन (Harisen) 12 0 25
9 क्षेमसेन (Kshemsen) 8 11 15
10 नारायणसेन (Narayansen) 2 2 29
11 लक्ष्मीसेन (Lakshmisen) 26 10 0
12 दामोदरसेन (Damodarsen) 11 5 19

लेकिन जब ....दामोदरसेन ने उमराव दीपसिंह को प्रताड़ित किया तो दीपसिंह ने सेना की सहायता से दामोदरसेन का वध करके राज्य पर अधिकार कर लिया तथा उसकी 6 पीढ़ियों ने 107 वर्ष 6 माह 22 दिन तक राज्य किया जिसका विवरण नीचे दिया जा रहा है।

क्र. शासक का नाम वर्ष माह दिन

1 दीपसिंह (Deepsingh) 17 1 26
2 राजसिंह (Rajsingh) 14 5 0
3 रणसिंह (Ransingh) 9 8 11
4 नरसिंह (Narsingh) 45 0 15
5 हरिसिंह (Harisingh) 13 2 29
6 जीवनसिंह (Jeevansingh) 8 0 1

पृथ्वीराज चौहान ने जीवनसिंह पर आक्रमण करके तथा उसका वध करके राज्य पर अधिकार प्राप्त कर लिया। पृथ्वीराज चौहान की 5 पीढ़ियों ने 86 वर्ष 0 माह 20 दिन तक राज्य किया जिसका विवरण नीचे दिया जा रहा है।
क्र. शासक का नाम वर्ष माह दिन

1 पृथ्वीराज (Prathviraj) 12 2 19
2 अभयपाल (Abhayapal) 14 5 17
3 दुर्जनपाल (Durjanpal) 11 4 14
4 उदयपाल (Udayapal) 11 7 3
5 यशपाल (Yashpal) 36 4 27

विक्रम संवत 1249 (1193 AD) में मोहम्मद गोरी ने यशपाल पर आक्रमण कर उसे प्रयाग के कारागार में डाल दिया और उसके राज्य को अधिकार में ले लिया।

उपरोक्त जानकारी http://www.hindunet.org/ से साभार ली गई है जहाँ पर इस जानकारी का स्रोत स्वामी दयानन्द सरस्वती के सत्यार्थ प्रकाश ग्रंथ, चित्तौड़गढ़ राजस्थान से प्रकाशित पत्रिका हरिशचन्द्रिका और मोहनचन्द्रिका के विक्रम संवत1939 के अंक और कुछ अन्य संस्कृत ग्रंथों को बताया गया है।
साभार ....जी.के. अवधिया |

जय महाकाल....!!!

महाभारत काल मे हुआ था परमाणु बम मिसाइल का प्रयोग


महाभारत काल मे हुआ था परमाणु बम,
मिसाइल का प्रयोग !!
काश हिन्दू विरोधी और तथाकथित धर्म
निरपेक्षता के घिनोने विकार से ग्रस्त
हमारे इतिहासकर शिक्षा मे यह ध्यान देते
कि विज्ञान मे हुए सर्व ‘मूल
आविष्कारों का जनक’ भारत देश है।
पिछले दिनों इस बात का खुलासा हुआ
कि मोहन जोदड़ों में कुछ ऐसे कंकाल मिले थे,
जिसमें रेडिएशन का असर था । महाभारत में
सौप्टिकपर्व अध्याय १३ से १५ तक
ब्रह्मास्त्र के परिणाम दिये गएहै । Great
Event of the 20th Century. How
they changed our lives ? इस
विश्वासाई पुस्तक में हिरोशिमा नामक
जापान के नगर पर एटम बम फेंकने के बाद
जो परिणाम हुए उसका वर्णन हैं
दोनों वर्णन मिलते झूलते हैं । यह देख हमें
विश्वास होता हैं कि 3 नवंबर ५५६१
ईसापूर्व छोड़ा हुआ ब्रह्मास्त्र atomic
weapon अर्थात परमाणु बम ही था ।
महाभारत युद्ध का आरंभ १६ नवंबर
५५६१ ईसा पूर्व हुआ और १८ दिन चलाने
के बाद २ नवंबर ५५६१ ईसा पूर्व
को समाप्त हुआ उसी रात दुर्योधन ने
अश्वथामा को सेनापति नियुक्त किया । ३
नवंबर ५५६१ ईसा पूर्व के दिन भीम ने
अश्वथामा को पकड़ने का प्रयत्न किया ।
तब अश्वथामा ने जो ब्रह्मास्त्र छोड़ा उस
अस्त्र के कारण जो अग्नि उत्पन्न हुई वह
प्रलंकारी था । वह अस्त्र प्रज्वलित हुआ
तब एक भयानक ज्वाला उत्पन्न हुई
जो तेजोमंडल को घिर जाने समर्थ थी ।
अंग्रेज़ भी मानने लगे है की वास्तव मे
महाभारत मे परमाणु बम का प्रयोग हुआ
था, जिस पर शोध कार्य चल रहे है । पुणे के
डॉक्टर व लेखक पद्माकर विष्णु वर्तक ने
तो 40 वर्ष पहले ही सिद्ध
किया था कि वह महाभारत के समय
जो ब्रह्मास्त्र इस्तेमाल
किया गया था वह परमाणु बम के समान
ही था।
परमाणु बम के जनक J. Robert
Oppenheimer ने परमाणु बम के पहले
परीक्षण के बाद एक साक्षात्कार में
कहा की परमाणु बम बनाने
की प्रेरणा उन्हें श्री मद्भागवत गीता से
मिली है।
यहाँ व्यास लिखते हैं कि “जहां ब्रहास्त्र
छोड़ा जाता है वहीं १२ व्रषों तक
पर्जन्यवृष्ठी नहीं हो पाती “।
३ नवंबर ५५६१ ईसा पूर्व के दिन
छोड़ा हुआ ब्रह्मास्त्र और ६ अगस्त १९४५
को फेंका गया एटम बम इन दोनों के
परिणामों के साम्य अब देखें । दो घटनाओ के
बीच ७५०६ वर्ष व्यतीत हो गए है
तो भी दोनों मे पूर्ण साम्य दिखता है ।
महाभारत में बताया है की अश्वत्थामा ने
ऐषिका के साथ ब्रह्माश्त्र छोड़ा था इस
‘ऐषिका’ शब्द में ‘इष’ अर्थात ज़ोर से
फेंकना यह धातु हैं । इससे अर्थ हो जाता है
कि ऐषिका एक साधन था जिससे अस्त्र
फेंका जाता था । जैसे आज मिसाइल होते हैं
जो परमाणु बम को ढ़ोने मे कारगर होते है ।
रॉकेट को भी ऐषिका कहा जा सकता है ।
।। जयतु संस्कृतम् । जयतु भारतम् ।।
 
महाभारत काल मे हुआ था परमाणु बम,
मिसाइल का प्रयोग !!
काश हिन्दू विरोधी और तथाकथित धर्म
निरपेक्षता के घिनोने विकार से ग्रस्त
हमारे इतिहासकर शिक्षा मे यह ध्यान देते
कि विज्ञान मे हुए सर्व ‘मूल
आविष्कारों का जनक’ भारत देश है।
पिछले दिनों इस बात का खुलासा हुआ
कि मोहन जोदड़ों में कुछ ऐसे कंकाल मिले थे,
जिसमें रेडिएशन का असर था । महाभारत में
सौप्टिकपर्व अध्याय १३ से १५ तक
ब्रह्मास्त्र के परिणाम दिये गएहै । Great
Event of the 20th Century. How
they changed our lives ? इस
विश्वासाई पुस्तक में हिरोशिमा नामक
जापान के नगर पर एटम बम फेंकने के बाद
जो परिणाम हुए उसका वर्णन हैं
दोनों वर्णन मिलते झूलते हैं । यह देख हमें
विश्वास होता हैं कि 3 नवंबर ५५६१
ईसापूर्व छोड़ा हुआ ब्रह्मास्त्र atomic
weapon अर्थात परमाणु बम ही था ।
महाभारत युद्ध का आरंभ १६ नवंबर
५५६१ ईसा पूर्व हुआ और १८ दिन चलाने
के बाद २ नवंबर ५५६१ ईसा पूर्व
को समाप्त हुआ उसी रात दुर्योधन ने
अश्वथामा को सेनापति नियुक्त किया । ३
नवंबर ५५६१ ईसा पूर्व के दिन भीम ने
अश्वथामा को पकड़ने का प्रयत्न किया ।
तब अश्वथामा ने जो ब्रह्मास्त्र छोड़ा उस
अस्त्र के कारण जो अग्नि उत्पन्न हुई वह
प्रलंकारी था । वह अस्त्र प्रज्वलित हुआ
तब एक भयानक ज्वाला उत्पन्न हुई
जो तेजोमंडल को घिर जाने समर्थ थी ।
अंग्रेज़ भी मानने लगे है की वास्तव मे
महाभारत मे परमाणु बम का प्रयोग हुआ
था, जिस पर शोध कार्य चल रहे है । पुणे के
डॉक्टर व लेखक पद्माकर विष्णु वर्तक ने
तो 40 वर्ष पहले ही सिद्ध
किया था कि वह महाभारत के समय
जो ब्रह्मास्त्र इस्तेमाल
किया गया था वह परमाणु बम के समान
ही था।
परमाणु बम के जनक J. Robert
Oppenheimer ने परमाणु बम के पहले
परीक्षण के बाद एक साक्षात्कार में
कहा की परमाणु बम बनाने
की प्रेरणा उन्हें श्री मद्भागवत गीता से
मिली है।
यहाँ व्यास लिखते हैं कि “जहां ब्रहास्त्र
छोड़ा जाता है वहीं १२ व्रषों तक
पर्जन्यवृष्ठी नहीं हो पाती “।
३ नवंबर ५५६१ ईसा पूर्व के दिन
छोड़ा हुआ ब्रह्मास्त्र और ६ अगस्त १९४५
को फेंका गया एटम बम इन दोनों के
परिणामों के साम्य अब देखें । दो घटनाओ के
बीच ७५०६ वर्ष व्यतीत हो गए है
तो भी दोनों मे पूर्ण साम्य दिखता है ।
महाभारत में बताया है की अश्वत्थामा ने
ऐषिका के साथ ब्रह्माश्त्र छोड़ा था इस
‘ऐषिका’ शब्द में ‘इष’ अर्थात ज़ोर से
फेंकना यह धातु हैं । इससे अर्थ हो जाता है
कि ऐषिका एक साधन था जिससे अस्त्र
फेंका जाता था । जैसे आज मिसाइल होते हैं
जो परमाणु बम को ढ़ोने मे कारगर होते है ।
रॉकेट को भी ऐषिका कहा जा सकता है ।
।। जयतु संस्कृतम् । जयतु भारतम् ।।

रामायण की विश्व यात्रा



रामायण की विश्व यात्रा अवश्य पढे और शेयर करे और जाने रामायण की विश्व यात्रा की कहानी

भारत के इतिहास में राम जैसा विजेता कोई नहीं हुआ। उन्होंने रावण और उसके सहयोगी अनेक राक्षसों का वध कर के न केवल भारत में शांति की स्थापना की बल्कि सुदूर पूर्व और आस्ट्रेलिया तक में सुख और आनंद की एक लहर व्याप्त कर दी। श्री राम अदभुत सामरिक पराक्रम व्यवहार कुशलता और विदेश नीति के स्वामी थे। उन्होंने किसी देश पर अधिकार नहीं किया लेकिन विश्व के अनेकों देशों में उनकी प्रशंसा के विवरण मिलते हैं जिससे पता चलता है कि उनकी लोकप्रियता दूर दूर तक फैली हुई थी।

आजकल मेडागास्कर कहे जाने वाले द्वीप से लेकर आस्ट्रेलिया तक के द्वीप समूह पर रावण का राज्य था। राम विजय के बाद इस सारे भू भाग पर राम की कीर्ति फैल गयी। राम के नाम के साथ रामकथा भी इस भाग में फैली और बरसों तक यहां के निवासियों के जीवन का प्रेरक अंग बनी रही।

श्री लंका और बर्मा में रामायण कई रूपों में प्रचलित है। लोक गीतों के अतिरिक्त रामलीला की तरह के नाटक भी खेले जाते हैं। बर्मा में बहुत से नाम राम के नाम पर हैं। रामावती नगर तो राम नाम के ऊपर ही स्थापित हुआ था।अमरपुर के एक विहार में राम लक्ष्मण सीता और हनुमान के चित्र आज तक अंकित हैं।

मलयेशिया में रामकथा का प्रचार अभी तक है। वहां मुस्लिम भी अपने नाम के साथ अक्सर राम लक्ष्मण और सीता नाम जोडते हैं।यहां रामायण को ''हिकायत सेरीराम'' कहते हैं।

थाईलैंड के पुराने रजवाडों में भरत की भांति राम की पादुकाएं लेकर राज्य करने की परंपरा पाई जाती है। वे सभी अपने को रामवंशी मनते थे।यहां ''अजुधिया'' ''लवपुरी'' और ''जनकपुर'' जैसे नाम वाले शहर हैं । यहां पर राम कथा को ''रामकीर्ति'' कहते हैं और मंदिरों में जगह जगह रामकथा के प्रसंग अंकित हैं।

हिन्द चीन के अनाम में कई शिलालेख मिले हैं जिनमें राम का यशोगान है। यहां के निवासियों में ऐसा विश्वास प्रचलित है कि वे वानर कुल से उत्पन्न हैं और श्रीराम नाम के राजा यहां के सर्वप्रथम शासक थे। रामायण पर आधारित कई नाटक यहां के साहित्य में भी मिलते है।

कम्बोडिया में भी हिन्दू सभ्यता के अन्य अंगों के साथ साथ रामायण का प्रचलन आज तक पाया जाता है। छढी शताब्दी के एक शिलालेख के अनुसार वहां कई स्थानों पर रामायण और महाभारत का पाठ होता था।

जावा में रामचंद्र राष्ट्रीय पुरूषोत्तम के रूप में सम्मानित हैं। वहां की सबसे बडी नदी का नाम सरयू है। ''रामायण'' के कई प्रसंगों के आधार पर वहां आज भी रात रात भर कठपुतलियों का नाच होता है। जावा के मंदिरों में वाल्मीकि रामायण के श्लोक जगह जगह अंकित मिलते हैं।

सुमात्रा द्वीप का वाल्मीकि रामायण में ''स्वर्णभूमि'' नाम दिया गया है। रामायण यहां के जनजीवन में वैसे ही अनुप्राणित है जैसे भारतवासियों के। बाली द्वीप भी थाईलैंड जावा और सुमात्रा की तरह आर्य संस्कृति का एक दूरस्थ सीमा स्तम्भ है। ''रामायण'' का प्रचार यहां भी घर घर में है।

इन देशों के अतिरिक्त फिलीपाइन चीन जापान और प्राचीन अमरीका तक राम कथा का प्रभाव मिलता है।

मैक्सिको और मध्य अमरीका की मय सभ्यता और इन्का सभ्यता पर प्राचीन भारतीय संस्कृति की जो छाप मिलती है उसमें रामायण कालीन संस्कारों का प्राचुर्य है। पेरू में राजा अपने को सूर्यवंशी ही नहीं ''कौशल्यासुत राम'' वंशज भी मानते हैं।''रामसीतव'' नाम से आज भी यहां ''राम सीता उत्सव'' मनाया जाता है।
रामायण की विश्व यात्रा अवश्य पढे और शेयर करे और जाने रामायण की विश्व यात्रा की कहानी

भारत के इतिहास में राम जैसा विजेता कोई नहीं हुआ। उन्होंने रावण और उसके सहयोगी अनेक राक्षसों का वध कर के न केवल भारत में शांति की स्थापना की बल्कि सुदूर पूर्व और आस्ट्रेलिया तक में सुख और आनंद की एक लहर व्याप्त कर दी। श्री राम अदभुत सामरिक पराक्रम व्यवहार कुशलता और विदेश नीति के स्वामी थे। उन्होंने किसी देश पर अधिकार नहीं किया लेकिन विश्व के अनेकों देशों में उनकी प्रशंसा के विवरण मिलते हैं जिससे पता चलता है कि उनकी लोकप्रियता दूर दूर तक फैली हुई थी।

आजकल मेडागास्कर कहे जाने वाले द्वीप से लेकर आस्ट्रेलिया तक के द्वीप समूह पर रावण का राज्य था। राम विजय के बाद इस सारे भू भाग पर राम की कीर्ति फैल गयी। राम के नाम के साथ रामकथा भी इस भाग में फैली और बरसों तक यहां के निवासियों के जीवन का प्रेरक अंग बनी रही।

श्री लंका और बर्मा में रामायण कई रूपों में प्रचलित है। लोक गीतों के अतिरिक्त रामलीला की तरह के नाटक भी खेले जाते हैं। बर्मा में बहुत से नाम राम के नाम पर हैं। रामावती नगर तो राम नाम के ऊपर ही स्थापित हुआ था।अमरपुर के एक विहार में राम लक्ष्मण सीता और हनुमान के चित्र आज तक अंकित हैं।

मलयेशिया में रामकथा का प्रचार अभी तक है। वहां मुस्लिम भी अपने नाम के साथ अक्सर राम लक्ष्मण और सीता नाम जोडते हैं।यहां रामायण को ''हिकायत सेरीराम'' कहते हैं।

थाईलैंड के पुराने रजवाडों में भरत की भांति राम की पादुकाएं लेकर राज्य करने की परंपरा पाई जाती है। वे सभी अपने को रामवंशी मनते थे।यहां ''अजुधिया'' ''लवपुरी'' और ''जनकपुर'' जैसे नाम वाले शहर हैं । यहां पर राम कथा को ''रामकीर्ति'' कहते हैं और मंदिरों में जगह जगह रामकथा के प्रसंग अंकित हैं।

हिन्द चीन के अनाम में कई शिलालेख मिले हैं जिनमें राम का यशोगान है। यहां के निवासियों में ऐसा विश्वास प्रचलित है कि वे वानर कुल से उत्पन्न हैं और श्रीराम नाम के राजा यहां के सर्वप्रथम शासक थे। रामायण पर आधारित कई नाटक यहां के साहित्य में भी मिलते है।

कम्बोडिया में भी हिन्दू सभ्यता के अन्य अंगों के साथ साथ रामायण का प्रचलन आज तक पाया जाता है। छढी शताब्दी के एक शिलालेख के अनुसार वहां कई स्थानों पर रामायण और महाभारत का पाठ होता था।

जावा में रामचंद्र राष्ट्रीय पुरूषोत्तम के रूप में सम्मानित हैं। वहां की सबसे बडी नदी का नाम सरयू है। ''रामायण'' के कई प्रसंगों के आधार पर वहां आज भी रात रात भर कठपुतलियों का नाच होता है। जावा के मंदिरों में वाल्मीकि रामायण के श्लोक जगह जगह अंकित मिलते हैं।

सुमात्रा द्वीप का वाल्मीकि रामायण में ''स्वर्णभूमि'' नाम दिया गया है। रामायण यहां के जनजीवन में वैसे ही अनुप्राणित है जैसे भारतवासियों के। बाली द्वीप भी थाईलैंड जावा और सुमात्रा की तरह आर्य संस्कृति का एक दूरस्थ सीमा स्तम्भ है। ''रामायण'' का प्रचार यहां भी घर घर में है।

इन देशों के अतिरिक्त फिलीपाइन चीन जापान और प्राचीन अमरीका तक राम कथा का प्रभाव मिलता है।

मैक्सिको और मध्य अमरीका की मय सभ्यता और इन्का सभ्यता पर प्राचीन भारतीय संस्कृति की जो छाप मिलती है उसमें रामायण कालीन संस्कारों का प्राचुर्य है। पेरू में राजा अपने को सूर्यवंशी ही नहीं ''कौशल्यासुत राम'' वंशज भी मानते हैं।''रामसीतव'' नाम से आज भी यहां ''राम सीता उत्सव'' मनाया जाता है।

वैदिक रिचाओं की रचना व ऋषि


ऋषि कौन हैं

ऋषि पुरातन समय के वे संत हैं जिन्होंने वैदिक रिचाओं की रचना की परन्तु वेद तो अपौरुषेय हैं ,अर्थात मनुष्य द्वारा निर्मित नहीं हैं , तो ऋषि का अर्थ हुआ वे संत जिन्होनें समाधी में वेद मन्त्रों को सुना हैं , इस प्रकार ऋषि वेदों के दृष्टा हुए ,रचनाकार नहीं


''ऋषिर मंत्र दृष्तार न करतार :''
'' अर्थात ऋषि तो मन्त्रों के दृष्टा हैं ,रचना करने वाले नहीं सनातन धर्म में ऋषियों को सभी संतों ,महात्माओं ,दार्शनिकों में सबसे ऊँचा स्थान प्राप्त है

वेद वास्तव में पुस्तकें नही हैं ,बल्कि यह वो ज्ञान है जो ऋषियों के ह्रदय में प्रकाशित हुआ ईश्वर वेदों के ज्ञान को सृष्टि के प्रारंभ के समय चार ऋषियों को देता है जो जैविक सृष्टि के द्वारा पैदा नही होते हैं इन ऋषियों के नाम हैं ,अग्नि ,वायु ,आदित्य और अंगीरा

1.ऋषि अग्नि ने ऋग्वेद को प्राप्त किया

2.ऋषि वायु ने यजुर्वेद को,

3.ऋषि आदित्य ने सामवेद को और

4.ऋषि अंगीरा ने अथर्ववेद को

इसके बाद इन चार ऋषियों ने दुसरे लोगों को इस दिव्य ज्ञान को प्रदान किया

कुल 1127 ऋषि हैं

ऋषियों की भिन्न भिन्न उपाधियाँ उनके अध्यात्मिक ऊँचाई के अनुसार होती हैं जैसे उदाहरण के लिए ब्रह्मऋषि को ऋषियों में सबसे ऊँचा स्थान प्राप्त है ब्रह्मऋषि वे ऋषि हुआ करते हैं ,जिन्होनें ब्रह्म का अर्थ जान लिया है या ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति कर ली है , फिर महाऋषि होते हैं , महा का अर्थ है महान /बड़ा ,फिर राजऋषि हैं , उदाहरण के लिए रजा जनक राजऋषि थे सप्तिशी भी ब्रह्मऋषि हैं , उनमें से प्रमुख हैं वशिष्ठ ,विश्वामित्र ,अत्री ,अगस्त्य आदि
सप्त ऋषियों के अलग अलग नाम इसलिए हमें मिलते हैं क्यूंकि सात ऋषि ब्रह्माण्ड को बारी बारी से कार्यभार को सँभालते हैं ,और ये सभी सप्त ऋषि के श्रेणी में कभी न कभी आये थे

मकर संक्रांति

मकर संक्रांति

मकर संक्रान्ति भारत के प्रमुख त्यौहारों में से एक है। यह पर्व प्रत्येक वर्ष जनवरी महीने में समस्त भारत में मनाया जाता है। इस दिन से सूर्य उत्तरायण होता है, जब उत्तरी गोलार्ध सूर्य की ओर मुड़ जाता है। परम्परा से यह विश्वास किया जाता है कि इसी दिन सूर्य मकर राशि में प्रवेश करता है। यह वैदिक उत्सव है। इस दिन खिचड़ी का भोग लगाया जाता है। गुड़–तिल, रेवड़ी, गजक का प्रसाद बाँटा जाता है। इस त्यौहार का सम्बन्ध प्रकृति, ऋतु परिवर्तन और कृषि से है। ये तीनों चीजें ही जीवन का आधार हैं। प्रकृति के कारक के तौर पर इस पर्व में सूर्य देव को पूजा जाता है, जिन्हें शास्त्रों में भौतिक एवं अभौतिक तत्वों की आत्मा कहा गया है। इन्हीं की स्थिति के अनुसार ऋतु परिवर्तन होता है और धरती अनाज उत्पन्न करती है, जिससे जीव समुदाय का भरण-पोषण होता है।

सूर्य प्रार्थना

संस्कृत प्रार्थना के अनुसार "हे सूर्य देव, आपका दण्डवत प्रणाम, आप ही इस जगत की आँखें हो। आप सारे संसार के आरम्भ का मूल हो, उसके जीवन व नाश का कारण भी आप ही हो।" सूर्य का प्रकाश जीवन का प्रतीक है। चन्द्रमा भी सूर्य के प्रकाश से आलोकित है। वैदिक युग में सूर्योपासना दिन में तीन बार की जाती थी।पितामह भीष्म ने भी सूर्य के उत्तरायण होने पर ही अपना प्राणत्याग किया था। हमारे मनीषी इस समय को बहुत ही श्रेष्ठ मानते हैं। इस अवसर पर लोग पवित्र नदियों एवं तीर्थ स्थलों पर स्नान कर आदिदेव भगवान सूर्य से जीवन में सुख व समृद्धि हेतु प्रार्थना व याचना करते हैं।
============================
मान्यता

यह विश्वास किया जाता है कि इस अवधि में देहत्याग करने वाले व्यक्ति जन्म-मरण के चक्र से पूर्णत: मुक्त हो जाते हैं। महाभारत महाकाव्य में वयोवृद्ध योद्धा पितामह भीष्म पांडवों और कौरवों के बीच हुए कुरुक्षेत्र युद्ध में सांघातिक रूप से घायल हो गये थे। उन्हें इच्छा-मृत्यु का वरदान प्राप्त था। पांडव वीर अर्जुन द्वारा रचित बाणशैया पर पड़े भीष्म उत्तरायण अवधि की प्रतीक्षा करते रहे। उन्होंने सूर्य के मकर राशि में प्रवेश करने पर ही अंतिम सांस ली, जिससे उनका पुनर्जन्म न हो।

तिल संक्राति

देश भर में लोग मकर संक्रांति के पर्व पर अलग-अलग रूपों में तिल, चावल, उड़द की दाल एवं गुड़ का सेवन करते हैं। इन सभी सामग्रियों में सबसे ज़्यादा महत्व तिल का दिया गया है। इस दिन कुछ अन्य चीज भले ही न खाई जाएँ, किन्तु किसी न किसी रूप में तिल अवश्य खाना चाहिए। इस दिन तिल के महत्व के कारण मकर संक्रांति पर्व को "तिल संक्राति" के नाम से भी पुकारा जाता है। तिल के गोल-गोल लड्डू इस दिन बनाए जाते हैं। ऐसा माना जाता है कि तिल की उत्पत्ति भगवान विष्णुके शरीर से हुई है तथा उपरोक्त उत्पादों का प्रयोग सभी प्रकार के पापों से मुक्त करता है; गर्मी देता है और शरीर को निरोग रखता है। मंकर संक्रांति में जिन चीज़ों को खाने में शामिल किया जाता है, वह पौष्टिक होने के साथ ही साथ शरीर को गर्म रखने वाले पदार्थ भी हैं।
============================
सूर्य के उत्तरायण होने का पर्व

जितने समय में पृथ्वी सूर्य के चारों ओर एक चक्कर लगाती है, उस अवधि को "सौर वर्ष" कहते हैं। पृथ्वी का गोलाई में सूर्य के चारों ओर घूमना "क्रान्तिचक्र" कहलाता है। इस परिधि चक्र को बाँटकर बारह राशियाँ बनी हैं। सूर्य का एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश करना "संक्रान्ति" कहलाता है। इसी प्रकार सूर्य के मकर राशि में प्रवेश करने को "मकर संक्रान्ति" कहते हैं।

सूर्य का मकर रेखा से उत्तरी कर्क रेखा की ओर जाना 'उत्तरायण' तथा कर्क रेखा से दक्षिणी मकर रेखा की ओर जाना 'दक्षिणायन' है। उत्तरायण में दिन बड़े हो जाते हैं तथा रातें छोटी होने लगती हैं। दक्षिणायन में ठीक इसके विपरीत होता है। शास्त्रों के अनुसार उत्तरायण देवताओं का दिन तथा दक्षिणायन देवताओं की रात होती है। वैदिक काल में उत्तरायण को देवयान तथा दक्षिणायन को पितृयान कहा जाता था। मकर संक्रान्ति के दिन यज्ञ में दिये हव्य को ग्रहण करने के लिए देवता धरती पर अवतरित होते हैं। इसी मार्ग से पुण्यात्माएँ शरीर छोड़कर स्वर्ग आदि लोकों में प्रवेश करती हैं। इसलिए यह आलोक का अवसर माना जाता है। इस दिन पुण्य, दान, जप तथा धार्मिक अनुष्ठानों का अनन्य महत्त्व है और सौ गुणा फलदायी होकर प्राप्त होता है। मकर संक्रान्ति प्रत्येक वर्ष प्रायः 14 जनवरी को पड़ती है।
============================
आभार प्रकट करने का दिन

पंजाब, बिहार व तमिलनाडु में यह समय फ़सल काटने का होता है। कृषक मकर संक्रान्ति को 'आभार दिवस' के रूप में मनाते हैं। पके हुए गेहूँ और धान को स्वर्णिम आभा उनके अथक मेहनत और प्रयास का ही फल होती है और यह सम्भव होता है, भगवान व प्रकृति के आशीर्वाद से। विभिन्न परम्पराओं व रीति–रिवाज़ों के अनुरूप पंजाब एवं जम्मू–कश्मीर में "लोहड़ी" नाम से "मकर संक्रान्ति" पर्व मनाया जाता है। सिन्धी समाज एक दिन पूर्व ही मकर संक्रान्ति को "लाल लोही" के रूप में मनाता है। तमिलनाडु में मकर संक्रान्ति 'पोंगल' के नाम से मनाया जाता है, तो उत्तर प्रदेश और बिहार में 'खिचड़ी' के नाम से मकर संक्रान्ति मनाया जाता है। इस दिन कहीं खिचड़ी तो कहीं चूड़ादही का भोजन किया जाता है तथा तिल के लड्डु बनाये जाते हैं। ये लड्डू मित्र व सगे सम्बन्धियों में बाँटें भी जाते हैं।

खिचड़ी संक्रान्ति

चावल व मूंग की दाल को पकाकर खिचड़ी बनाई जाती है। इस दिन खिचड़ी खाने का प्रचलन व विधान है। घी व मसालों में पकी खिचड़ी स्वादिष्ट, पाचक व ऊर्जा से भरपूर होती है। इस दिन से शरद ऋतु क्षीण होनी प्रारम्भ हो जाती है। बसन्त के आगमन से स्वास्थ्य का विकास होना प्रारम्भ होता है। इस दिन गंगा नदी में स्नान व सूर्योपासना के बाद ब्राह्मणों को गुड़, चावल और तिल का दान भी अति श्रेष्ठ माना गया है।महाराष्ट्र में ऐसा माना जाता है कि मकर संक्रान्ति से सूर्य की गति तिल–तिल बढ़ती है, इसीलिए इस दिन तिल के विभिन्न मिष्ठान बनाकर एक–दूसरे का वितरित करते हुए शुभ कामनाएँ देकर यह त्योहार मनाया जाता है।
============================
संक्रान्ति दान और पुण्यकर्म का दिन

संक्रान्ति काल अति पुण्य माना गया है। इस दिन गंगा तट पर स्नान व दान का विशेष महत्त्व है। इस दिन किए गए अच्छे कर्मों का फल अति शुभ होता है। वस्त्रों व कम्बल का दान, इस जन्म में नहीं; अपितु जन्म–जन्मांतर में भी पुण्यफलदायी माना जाता है। इस दिन घृत, तिल व चावल के दान का विशेष महत्त्व है। इसका दान करने वाला सम्पूर्ण भोगों को भोगकर मोक्ष को प्राप्त करता है, ऐसा शास्त्रों में कहा गया है। उत्तर प्रदेश में इस दिन तिल दान का विशेष महत्त्व है। महाराष्ट्र में नवविवाहिता स्त्रियाँ प्रथम संक्रान्ति पर तेल, कपास, नमक आदि वस्तुएँ सौभाग्यवती स्त्रियों को भेंट करती हैं। बंगाल में भी इस दिन तिल दान का महत्त्व है। राजस्थान में सौभाग्यवती स्त्रियाँ इस दिन तिल के लड्डू, घेवर तथा मोतीचूर के लड्डू आदि पर रुपय रखकर, "वायन" के रूप में अपनी सास को प्रणाम करके देती है तथा किसी भी वस्तु का चौदह की संख्या में संकल्प करके चौदह ब्राह्मणों को दान करती है।

पतंग उड़ाने का दिन

यह दिन सुन्दर पतंगों को उड़ाने का दिन भी माना जाता है। लोग बड़े उत्साह से पतंगें उड़ाकर पतंगबाज़ी के दाँव–पेचों का मज़ा लेते हैं। बड़े–बड़े शहरों में ही नहीं, अब गाँवों में भी पतंगबाज़ी की प्रतियोगिताएँ होती हैं।
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गंगास्नान व सूर्य पूजा

पवित्र गंगा में नहाना व सूर्य उपासना संक्रान्ति के दिन अत्यन्त पवित्र कर्म माने गए हैं। संक्रान्ति के पावन अवसर पर हज़ारों लोग इलाहाबाद के त्रिवेणी संगम, वाराणसीमें गंगाघाट, हरियाणा में कुरुक्षेत्र, राजस्थान में पुष्कर, महाराष्ट्र के नासिक में गोदावरी नदी में स्नान करते हैं। गुड़ व श्वेत तिल के पकवान सूर्य को अर्पित कर सभी में बाँटें जाते हैं। गंगासागर में पवित्र स्नान के लिए इन दिनों श्रद्धालुओं की एक बड़ी भीड़ उमड़ पड़ती है।

पुण्यकाल के शुभारम्भ का प्रतीक

मकर संक्रान्ति के आगामी दिन जब सूर्य की गति उत्तर की ओर होती है, तो बहुत से पर्व प्रारम्भ होने लगते हैं। इन्हीं दिनों में ऐसा प्रतीत होता है कि वातावरण व पर्यावरण स्वयं ही अच्छे होने लगे हैं। कहा जाता है कि इस समय जन्मे शिशु प्रगतिशील विचारों के, सुसंस्कृत, विनम्र स्वभाव के तथा अच्छे विचारों से पूर्ण होते हैं। यही विशेष कारण है, जो सूर्य की उत्तरायण गति को पवित्र बनाते हैं और मकर संक्रान्ति का दिन सबसे पवित्र दिन बन जाता है।
============================
खगोलीय तथ्य

सन 2012 में मकर संक्रांति 15 जनवरी यानी रविवार की थी। अगले 68 सालों तक यह पर्व 15 जनवरी को ही पड़ेगा। राजा हर्षवर्द्धन के समय में यह पर्व 24 दिसम्बर को पड़ा था। मुग़ल बादशाह अकबर के शासन काल में 10 जनवरी को मकर संक्रांति थी। शिवाजी के जीवन काल में यह त्योहार 11 जनवरी को पड़ा था।

आखिर ऐसा क्यों?

सूर्य के धनु राशि से मकर राशि में प्रवेश करने को मकर संक्रांति कहा जाता है। साल 2012 में यह 14 जनवरी की मध्यरात्रि में है। इसलिए उदय तिथि के अनुसार मकर संक्रांति 15 जनवरी को पड़ेगी। दरअसल हर साल सूर्य का धनु राशि से मकर राशि में प्रवेश 20 मिनट की देरी से होता है। इस तरह हर तीन साल के बाद सूर्य एक घंटे बाद और हर 72 साल एक की देरी से मकर राशि में प्रवेश करता है। मतलब 1728 (72 गुणे 24) साल में फिर सूर्य का मकर राशि में प्रवेश एक दिन की देरी से होगा और इस तरह 2080 के बाद मकर संक्रांति 16 जनवरी को पड़ेगी।

ज्योतिषीय आकलन

ज्योतिषीय आकलन के अनुसार सूर्य की गति प्रतिवर्ष 20 सेकेंड बढ़ रही है। माना जाता है कि आज से 1000 साल पहले मकर संक्रांति 31 दिसंबर को मनाई जाती थी। पिछले एक हज़ार साल में इसके दो हफ्ते आगे खिसक जाने की वजह से 14 जनवरी को मनाई जाने लगी। अब सूर्य की चाल के आधार पर यह अनुमान लगाया जा रहा है कि 5000 साल बाद मकर संक्रांति फ़रवरी महीने के अंत में मनाई जाएगी।
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विभिन्न राज्यों में मकर संक्रांति

मकर संक्रान्ति भारत के भिन्न-भिन्न लोगों के लिए भिन्न-भिन्न अर्थ रखती है। किन्तु सदा की भॉंति, नानाविधी उत्सवों को एक साथ पिरोने वाला एक सर्वमान्य सूत्र है, जो इस अवसर को अंकित करता है यदिदीपावली ज्योति का पर्व है तो संक्रान्ति शस्य पर्व है, नई फ़सल का स्वागत करने तथा समृद्धि व सम्पन्नता के लिए प्रार्थना करने का एक अवसर है।

पंजाब में लोहड़ी

मकर संक्रान्ति भारत के अन्य क्षेत्रों में भी धार्मिक उत्साह और उल्लास के साथ मनाया जाता है। पंजाब में इसे लोहड़ी कहते हैं जो ग्रामीण क्षेत्रों में नई फ़सल की कटाई के अवसर पर मनाया जाता है। पुरुष और स्त्रियाँ गाँव के चौक पर उत्सवाग्नि के चारों ओर परम्परागत वेशभूषा में लोकप्रिय नृत्य भांगड़ा का प्रदर्शन करते हैं। स्त्रियाँ इस अवसर पर अपनी हथेलियों और पाँवों पर आकर्षक आकृतियों में मेहन्दी रचती हैं।

बंगाल में मकर-सक्रांति

पश्चिम बंगाल में मकर सक्रांति के दिन देश भर के तीर्थयात्री गंगासागर द्वीप पर एकत्र होते हैं, जहाँ गंगा बंगाल की खाड़ी में मिल जाती है। एक धार्मिक मेला, जिसे गंगासागर मेला कहते हैं, इस समारोह की महत्त्वपूर्ण विशेषता है। ऐसा विश्वास किया जाता है कि इस संगम पर डुबकी लगाने से सारा पाप धुल जाता है।

कर्नाटक में मकर-सक्रांति

कर्नाटक में भी फ़सल का त्योहार शान से मनाया जाता है। बैलों और गायों को सुसज्जित कर उनकी शोभा यात्रा निकाली जाती है। नये परिधान में सजे नर-नारी, ईख, सूखा नारियल और भुने चने के साथ एक दूसरे का अभिवादन करते हैं। पंतगबाज़ी इस अवसर का लोकप्रिय परम्परागत खेल है।

गुजरात में मकर-सक्रांति

गुजरात का क्षितिज भी संक्रान्ति के अवसर पर रंगबिरंगी पंतगों से भर जाता है। गुजराती लोग संक्रान्ति को एक शुभ दिवस मानते हैं और इस अवसर पर छात्रों को छात्रवृतियाँ और पुरस्कार बाँटते हैं।

केरल में मकर-सक्रांति

केरल में भगवान अयप्पा की निवास स्थली सबरीमाला की वार्षिक तीर्थयात्रा की अवधि मकर संक्रान्ति के दिन ही समाप्त होती है, जब सुदूर पर्वतों के क्षितिज पर एक दिव्य आभा ‘मकर ज्योति’ दिखाई पड़ती है।
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मकर संक्रांति पर खान-पान

मकर संक्रांति में सूर्य का दक्षिणायन से उत्तरायण में आने का स्वागत किया जाता है। शिशिर ऋतु की विदाई और बसंत का अभिवादन तथा अगहनी फ़सल के कट कर घर में आने का उत्सव मनाया जाता है। उत्सव का आयोजन होने पर सबसे पहले खान-पान की चर्चा होती है। मकर संक्रांति पर्व जिस प्रकार देश भर में अलग-अलग तरीके और नाम से मनाया जाता है, उसी प्रकार खान-पान में भी विविधता रहती है। किंतु एक विशेष तथ्य यह है कि मकर संक्राति के नाम, तरीके और खान-पान में अंतर के बावजूद सभी में एक समानता है कि इसमें व्यंजन तो अलग-अलग होते हैं, किन्तु उनमें प्रयोग होने वाली सामग्री एक-सी होती है।


यह महत्त्वपूर्ण पर्व माघ मास में मनाया जाता है। भारत में माघ महीने में सबसे अधिक ठंढ़ पड़ती है, अत: शरीर को अंदर से गर्म रखने के लिए तिल, चावल, उड़द की दाल एवं गुड़ का सेवन किया जाता है। मकर संक्रांति में इन खाद्य पदार्थों के सेवन का यह भौतिक आधार है। इन खाद्यों के सेवन का धार्मिक आधार भी है। शास्त्रों में लिखा है कि माघ मास में जो व्यक्ति प्रतिदिन विष्णु भगवान की पूजा तिल से करता है और तिल का सेवन करता है, उसके कई जन्मों के पाप कट जाते हैं। अगर व्यक्ति तिल का सेवन नहीं कर पाता है तो सिर्फ तिल-तिल जप करने से भी पुण्य की प्राप्ति होती है। तिल का महत्व मकर संक्रांति में इस कारण भी है कि सूर्य देवता धनु राशि से निकलकर मकर राशि में प्रवेश करते हैं। मकर राशि के स्वामी शनि देव हैं, जो सूर्य के पुत्र होने के बावजूद सूर्य से शत्रु भाव रखते हैं। अत: शनि देव के घर में सूर्य की उपस्थिति के दौरान शनि उन्हें कष्ट न दें, इसलिए तिल का दान व सेवन मकर संक्राति में किया जाता है। चावल, गुड़ एवं उड़द खाने का धार्मिक आधार यह है कि इस समय ये फ़सलें तैयार होकर घर में आती हैं। इन फ़सलों को सूर्य देवता को अर्पित करके उन्हें धन्यवाद दिया जाता है कि "हे देव! आपकी कृपा से यह फ़सल प्राप्त हुई है। अत: पहले आप इसे ग्रहण करें तत्पश्चात प्रसाद स्वरूप में हमें प्रदान करें, जो हमारे शरीर को उष्मा, बल और पुष्टता प्रदान करे।"
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अन्य राज्यों का खान-पान

मकर संक्रांति पर भारत के विभिन्न राज्यों में अपना-अपना खान-पान है-

बिहार तथा उत्तर प्रदेश

बिहार एवं उत्तर प्रदेश में खान-पान लगभग एक जैसा होता है। दोनों ही प्रांत में इस दिन अगहनी धान से प्राप्त चावल और उड़द की दाल से खिंचड़ी बनाई जाती है। कुल देवता को इसका भोग लगाया जाता है। लोग एक-दूसरे के घर खिंचड़ी के साथ विभिन्न प्रकार के अन्य व्यंजनों का आदान-प्रदान करते हैं। बिहार और उत्तर प्रदेश के लोग मकर संक्राति को "खिचड़ी पर्व" के नाम से भी पुकारते हैं। इस प्रांत में मकर संक्राति के दिन लोग चूड़ा-दही, गुड़ एवं तिल के लड्डू भी खाते हैं। चूड़े एवं मुरमुरे की लाई भी बनाई जाती है।

मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़

मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में मकर संक्रांति के दिन बिहार और उत्तर प्रदेश की ही तरह खिचड़ी और तिल खाने की परम्परा है। यहाँ के लोग इस दिन गुजिया भी बनाते हैं।

दक्षिण भारत

दक्षिण भारतीय प्रांतों में मकर संक्राति के दिन गुड़, चावल एवं दाल से पोंगल बनाया जाता है। विभिन्न प्रकार की कच्ची सब्जियों को लेकर मिश्रित सब्जी बनाई जाती है। इन्हें सूर्य देव को अर्पित करने के पश्चात सभी लोग प्रसाद रूप में इसे ग्रहण करते हैं। इस दिन गन्ना खाने की भी परम्परा है।

पंजाब एवं हरियाणा

पंजाब एवं हरियाणा में इस पर्व में विभिन्न प्रकार के व्यंजनों में मक्के की रोटी एवं सरसों के साग को विशेष तौर पर शामिल किया जाता है। इस दिन पंजाब एवं हरियाणा के लोगों में तिलकूट, रेवड़ी और गजक खाने की भी परम्परा है। मक्के का लावा, मूँगफली एवं मिठाईयाँ भी लोग खाते हैं।

Saturday, January 12, 2013

पुराणों में श्लोकों की संख्या


पुराणों में श्लोकों की संख्या

1. Brahampuran ब्रह्मपुराण: १४००० - (14000)

2. PadamPuran पद्मपुराण: ५५००० - (55000)

3. VishnuPuran विष्णुपुराण: २३००० - (23000
)
4. Shiv Puran शिवपुराण: २४००० - (24000)

5. Shri Mad Bhagwad Puran श्रीमद्भावतपुराण: १८००० - (18,000 )

6. NaradPuran नारदपुराण: २५००० - (25,000)

7. MarkandyaPuran मार्कण्डेयपुराण: ९०००- ( 9,000)

8. Agni Puran अग्निपुराण: १५००० - (15000)

9. Bhavishya Puran भविष्यपुराण: १४५०० - (14500)

10. BrahmVarvatPuran ब्रह्मवैवर्तपुराण: १८००० - (18,000)

11. LingPuran लिंगपुराण: ११००० - (11000)

12. VarahPuranवाराहपुराण: २४००० - (24000)

13. SakandhPuran स्कन्धपुराण: ८११०० - (81100)

14. VamanPuran वामनपुराण: १०००० - (10,000)

15. KaramPuran कूर्मपुराण: १७००० - (17000)

16. MatasyaPuran मत्सयपुराण: १४००० - (14000)

17. GarurPuran गरुड़पुराण: १९००० - (19000)

18. BrahMandPuran ब्रह्माण्डपुराण: १२०००- (12,000)

इस प्रकार सारे पुराणों के श्लोकों की कुल संख्या लगभग ४०३६०० (चार लाख तीन हजार छः सौ) {403600} है.

इसके अलावा (RAMAYAN) रामायण में लगभग २४००० (24000) एवं

(MAHABHART) महाभारत में लगभग ११०००० (110000) श्लोक हैं.

क्या ये मानव कृत हो सकते है. नहीं . ये स्वयं नारायण के ज्ञानावतार भगवान वेद व्यास द्वारा रचित है.

जय श्री राम.

Sunday, January 6, 2013

हिन्दू धर्म की पांच प्रमुख सतियां

" हिन्दू धर्म की पांच प्रमुख सतियां"

-इतिहास में अमिट रहेंगी पांच पत्नियां-

स्त्री का पतिव्रता होना आज के युग में दुर्लभ हो चला है। एक ही पति या पत्नी धर्म का पालन करना हिन्दू धर्म के कर्तव्यों में शामिल है। यूं तो भारत में हजारों ऐसी महिलाएं हुई हैं जिनकी पतिव्रता पालन की मिसाल दी जाती है, लेकिन उनमें से भी कुछ ऐसी हैं जो इतिहास का अमिट हिस्सा बन चुकी हैं।

हिंदू इतिहास अनुसार इस संसार में पांच सती हुई है, जो क्रमश: इस प्रकार है....
1. अनुसूया (ऋषि अत्रि की पत्नी), 2. द्रौपदी (पांडवों की पत्नी),
3. सुलक्षणा (रावण पुत्र मेघनाद की पत्नी),
4. सावित्री (जिन्होंने यमराज से अपना पति वापस ले लिया था),
5. मंदोदरी (रावण की पत्नी)।

1. अनुसूया : पतिव्रता देवियों में अनुसूया का स्थान सबसे ऊंचा है। वे अत्रि-ऋषि की पत्‍‌नी थीं। एक बार सरस्वती, लक्ष्मी और दुर्गा में यह विवाद छिड़ा कि सर्वश्रेष्ठ पतिव्रता कौन है ? अंत में तय यही हुआ कि अत्रि पत्‍‌नी अनुसूया ही सर्वश्रेष्ठ पतिव्रता हैं। इस बात की परीक्षा लेने के लिए अत्रि जब बहार गए थे तब त्रिदेव अनुसूया के आश्रम में ब्राह्मण के भेष में भिक्षा मांगने लगे औरअनुसूया से कहा कि जब आप अपने संपूर्ण वस्त्र उतार देंगी तभी हम भिक्षा स्वीकार करेंगे। तब अनुसूया ने अपने सतीत्व के बल पर उक्त तीनों देवों को अबोध बालक बनाकर उन्हें भिक्षा दी। माता अनुसूया ने देवी सीता को पतिव्रत का उपदेश दिया था।

2. द्रौपदी : द्रौपदी को कौन नहीं जानता। पांडवों की पत्नी द्रौपदी को सती के साथ ही पांच कुवांरी कन्याओं में भी शामिल किया जाता है। द्रौपदी के पिता पांचाल नरेश राजा ध्रुपद थे। एक प्रतियोगिता के दौरान अर्जुन ने द्रौपदी को जीत लिया था।
पांडव द्रौपदी को साथ लेकर माता कुंती के पास पहुंचे और द्वार से ही अर्जुन ने पुकार कर अपनी माता से कहा, 'माते! आज हम लोग आपके लिए एक अद्भुत भिक्षा लेकर आए हैं।' इस पर कुंती ने भीतर से ही कहा, 'पुत्रों! तुम लोग आपस में मिल-बांट उसका उपभोग कर लो।' बाद में यह ज्ञात होने पर कि भिक्षा वधू के रूप में हैं, कुंती को अत्यन्त दुख हुआ किन्तु माता के वचनों को सत्य सिद्ध करने के लिए द्रौपदी ने पांचों पांडवों को पति के रूप में स्वीकार कर लिया।

3. सुलक्षणा : रावण के पुत्र मेघनाद (इंद्रजीत) की पत्नी सुलक्षणा को पंच सती में शामिल किया गया है।

4. सावित्री : महाभारत अनुसार सावित्री राजर्षि अश्वपति की पुत्री थी। उनके पति का नाम सत्यवान था जो वनवासी राजा द्युमत्सेन के पुत्र थे। सावित्री के पति सत्यवान की असमय मृत्यु के बाद, सावित्री ने अपनी तपस्या के बल पर सत्यवान को पुनर्जीवित कर लिया था। इनके नाम से वट सावित्री नामक व्रत प्रचलित है जो महिलाएं अपने पति की लंबी उम्र के लिए करती हैं। यह व्रत गृहस्थ जीवन के मुख्य आधार पति-पत्नी को दीर्घायु, पुत्र, सौभाग्य, धन समृद्धि से भरता है।

5. मंदोदरी : मंदोदरी रामायण के पात्र, लंकापति रावण की पत्नी थी। हेमा अप्सरा से उत्पन्न रावण की पटरानी जो मेघनाद की माता तथा मयासुर की कन्या थी। रावण को सदा अच्छी सलाह देती थी और कहा जाता है कि अपने पति के मनोरंजनार्थ इसी ने शतरंज के खेल का प्रारंभ किया था। इसकी गणना भी पंचकन्याओं में है। सिंघलदीप की राजकन्या और एक मातृ का का भी नाम मंदोदरी था।

ये सब को मेरा बार-बार नमन् है और आज कल की युवा मोमबती कल्चर से कहूँगी कम से कम इन शक्तियों से कुछ तो सिख ले लो

Friday, January 4, 2013

भग्वान के अवतार लेने के कारण


हिंदू ध्यान दे
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धर्मं शिक्षा -

श्री भग्वान के अवतार लेने के कारण है- "विप्र धेनु सुर संत हित लीन्ह मनुज अवतार"

अर्थार्थ - ब्राह्मण, गाय, देवता, और साधु-संत के कारण भगवान इस धरती पर अवतार लेते है.

निष्कर्ष - ब्राह्मण का , गाय का , देवता का , और साधु-संत का कभी अभी अपमान मत करना. यदि इनमे श्रधा ना जगे और सन्मान ना करने कि इच्छा ना हो तो कोई बात नहीं परन्तु कभी भी भूल से भी इनका अपमान मत करना क्यूकी श्रीभगवान कभी भी अपने भक्तो का अपमान सहन नहीं करते.

इन चारो में से गौ-माता कि सेवा रोज करने का प्रण निश्चित ही करना चाहिए.

जब तब धरती पर गौ-माता सुखी नहीं होंगी तब तक कोई सुखी नहीं होंगा.

जय श्री राम.

https://www.facebook.com/UnderstandHinduDharma
हिंदू ध्यान दे 
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धर्मं शिक्षा - 

श्री भग्वान के अवतार लेने के कारण है-  "विप्र धेनु सुर संत हित लीन्ह मनुज अवतार"

अर्थार्थ - ब्राह्मण, गाय, देवता, और साधु-संत के कारण भगवान इस धरती पर अवतार लेते है. 

निष्कर्ष  -  ब्राह्मण का , गाय का , देवता का , और साधु-संत का कभी अभी अपमान मत करना. यदि इनमे श्रधा ना जगे और सन्मान ना करने कि इच्छा ना हो  तो कोई बात नहीं परन्तु कभी भी भूल से भी इनका अपमान मत करना क्यूकी श्रीभगवान कभी भी अपने भक्तो का अपमान सहन नहीं करते. 

इन चारो में से गौ-माता कि सेवा रोज करने का प्रण निश्चित ही करना चाहिए.

जब तब धरती पर गौ-माता सुखी नहीं होंगी तब तक कोई सुखी नहीं होंगा.

जय श्री राम.

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हमारे धर्मं कि वैश्विक पहचान


सब लोग अपना काम सिर्फ 10-15 मिनट के लिये छोड़कर ये पढ़ेँ,,

ये पोस्ट लोगोँ को जगाने के लिये की गई है कि कैसे जब तक बाहर के लोग हिन्दू धर्म और सनातन संस्कृति को महान और सर्वोपरि नही बता देते तुम लोग सेकुलरोँ की भाषा बोलने लगते हो सेकुलर सुअरोँ और विधर्मियोँ को मिर्ची लगे तो यहाँ आकर अपना पिछवाड़ा दिखाने की जरूरत नहीँ है वरना उनकी सेहत के लिये ठीक नहीँ होगा...
नीचे दिये गये तथ्य पूर्णत: सत्य एवं तथ्य परक हैँ जिस सेकुलर सुअर को मिर्ची लगे वो इंटरनेट पर सर्च कर सकता है तथ्य थोड़े बिषय से अलग और छोटे-छोटे क्रमवार है पाठक अपने विवेक से उन्हेँ स्वयं व्यव्स्थित करके पढ़ेँ व विचार करेँ...

ॐॐॐॐ
प्रख्यात साहित्यकार टी. एस. इलियट को वेस्टलैँड कविता पर नोबल पुरस्कार मिला था जानते हैँ उस कविता कि अंतिम पंक्ति क्या थी? उस कविता की अंतिम लाइन मेँ वृहदकारण्य उपनिषद के दो श्लोक थे और बाद मेँ लिखा था "ॐशांति शांति शांति"
ॐॐॐॐ
अमेरिका के प्रथम परमाणु परीक्षण के जनक, पत्रकारोँ के चर्चा मेँ परीक्षण के उस दृश्य को एक वाक्य मेँ कहकर बताते हैँ-"सूर्य कोटि: समप्रभः" 16 जुलाई,1945 को हुये इसी परीक्षण के बाद डॉ. जूलियस रॉबर्ट ओपेनहीमर यू.एस.ए. के अलमोगार्डो मेँ पत्रकारोँ से यह कहते हैँ कि-"आश्चर्य है भगवद्गीता मेँ उल्लेख है" - दिवि सूर्यसहस्त्रस्य भवेद् युगपदुत्थिता। यदि भाः सादृशी सा स्याभ्दासस्तस्य महात्मनः मतलब "इफ द लाइफ ऑफ अ थाऊसेँड्स समंस वेअर टू ब्लेज फोर्थ ऑल एट वंस इन द स्कॉय देट माइट रिसंबल द स्प्लेँडर ऑफ देट एक्सलटेड बिइंग"(श्रीमद्भगवद्गीता 11-12)
ॐॐॐॐ
अल्बर्ट आइंस्टीन कहते हैँ-"मैँने गीता को अपनी प्रेरणा का मुख्य स्त्रोत बनाया है यही मुझे शोधोँ के लिये मार्गदर्शन देती है। यही मेरी थ्योरियोँ की जनक है।"
ॐॐॐॐ
भौतिकी के नोबेल पुरस्कार विजेता एवं वेव मेकेनिक्स के खोजकर्ता एरविन श्रोये डिंगर अपनी प्रख्यात पुस्तक इन द एन्टायर वर्ल्ड के चौथे चेप्टर मेँ कहते हैँ-"अगर मेरे पास गीता और उपनिषद् नहीँ होते तो मैँ कुछ नहीँ कर पाता"
ॐॐॐॐ
जर्मन भौतिकी नोबेल विजेता डब्ल्यू, हाइजनबर्ग जिन्होँनेँ सब एटॉमिक पार्टिकल्स पर कार्य किया वे कहते थे-"हिन्दू दर्शन मेँ सारी बाँते आश्चर्यजनक रूप से क्वांटम फिजिक्स के सिद्धांतोँ को सिद्ध करती हैँ ये पूर्णतः वैज्ञानिक धर्म है"
ॐॐॐॐ
विश्व प्रसिद्ध उद्योगपति एलेन फोर्ड जिनकी मोटरकार कंपनी फोर्ड है वो काफी पहले हिन्दू धर्म अपना चुके हैँ उन्होँने कहा था-"सुखी और प्रसन्न जीवन जीना है तो वैदिक परम्पराओँ को मानेँ"
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अमेरिका के सभी मैनेजमैँट यूनिवर्सिटीज़ मे गीता अनिवार्य रूप से कोर्स मेँ शामिल है...
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महाभारत का चीनी भाषा अनुवाद चीन मेँ बिक्री का रिकार्ड बना चुका है और उसका दूसरा संस्करण शीघ्र प्रकाशित हो रहा है
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अमेरिकी शिक्षा विभाग ने आयुर्वेद और हिन्दू दर्शन मेँ मास्टर और पी.एच.डी. की व्यवस्था कर रखी है
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ब्रिटेन के हैरो मेँ वहाँ की सरकार ने 100 मिलियन पाउंड से कृष्णा अवंति स्कूल खोला है जिसमेँ भारतीय सोलह संस्कारोँ की शिक्षा दी जाती है
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प्रख्यात विधिवेत्ता सर विलियम जोन्स कहते है-"संस्कृत भाषा सभी भाषाओँ की जननी है यह सभी भाषाओँ की तुलना मेँ अधिक परिपूर्ण, अधिक समृद्ध तथा अधिक परिष्कृत है महान है वह हिन्दू धर्म जिसने इस भाषा को जन्म दिया"
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विक्टर कजिन(1792-1867) जो महान फ्रांसीसी दार्शनिक थे उनका कथन ये है-"हम भारतीय मूल सनातन धर्म के समक्ष नतमस्तक हैँ। मानव जाति का जन्म कोई और माने या ना माने मैँ सनातन संस्कृति से मानता हूँ"
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संयुक्त राष्ट्र संघ ने आधिकारिक रूप से ये घोषणा की है कि विश्व की सबसे पुरानी और पहली पुस्तक,ग्रंथ और महाकाव्य ऋग्वेद है...
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मार्क ट्वेन अमेरिकी लेखक (1835-1910) कहते हैँ विश्व के इतिहास का जनक , परम्पराओँ का स्त्रोत हिन्दू वैदिक धर्म है
ॐॐॐॐ
मैक्स मूलर(जर्मन भारतविद्) कहते थे-"सबसे पुरानी शिक्षा पद्धति संस्कृति व मानव विकास भारतीय सनातन धर्म की देन है"
ॐॐॐॐ
हूशी जो चीन के यू.एस.ए. मे राजदूत थे वो कहते हैँ-"मैँ महाभारत पढ़के सैन्य शक्ति और आत्मबल की शिक्षा लेता हूँ"
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प्रसिद्ध अमेरिकी डॉक्टर,शिक्षक,व इतिहासकार डॉ. डेविड फ्रॉले कहते हैँ कि -"गाँवो के लेकर शहरोँ तक के विकास तथा सभ्यताओँ के विकास की कहानी हिन्दू सनातन धर्म के आसपास घूमती है"
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जॉर्ज बर्नार्ड शॉ जो महान नाटककार, आलोचक, व समाजशास्त्री थे उनका कहना है-"हिन्दू धर्म ने हमेँ प्राकृतिक और परिष्कृत दृष्टि दी है जो समझने वालोँ को नई ऊँचाईयोँ तक ले जा सकती है"
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जे. राबर्ट - ओपेनहीमर न्यूक्लियर विज्ञानी कहते हैँ -"वेदोँ, पुराणोँ और उपनिषदोँ तक पहुँच पाना इस शताब्दी का सबसे महान सौभाग्य है"
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जीन सिल्वेन बेली फ्रांसीसी ज्योतिषविद् का कथन है -"हिन्दू जीवन पद्धति मेँ विज्ञान का ज्ञान प्राचीनतम रहा है कोई भी इस बात को किसी भी रूप मेँ नकार नहीँ सका है"
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प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक, इतिहासकार व लेखक एवं टाइम मशीन के विचार-कर्ता एच. जी. वेल्स कहते हैँ कि-"भारतीय सनातन धर्म के दार्शनिक उच्च कोटि के हैँ इन्होँने हमेँ शांति और एकाग्रता बनाये रखने कि ताकत दी है"
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यूनान के राजा पॉल की पत्नी जो एडवांस्ड भौतिकी की शोधार्थी भी थी महारानी फ्रेडरिका (1931-1981) कांची कामकोटी केन्द्र के केलिफोर्निया के समाचार पत्र - द न्यू फिज़िक्स टू हिन्दुईज़्म मेँ अपने उद्गार बताती हैँ-"ऐसे ज्ञान की धरोहर प्राप्त करने वाले आप वैदिक सनातन भारतीय सौभाग्यशाली हैँ मुझे आपसे ईर्ष्या है, यद्यपि यूनान मेरी जन्मभूमि और मातृभूमि है तथापि भारत मेँ मेरी आत्मा बसती है ,इसकी परिणिति मेरे द्वारा शंकराचार्य के अद्वैतवाद को पूर्णत: स्वीकार करने के रूप मेँ होती है।

Thursday, January 3, 2013

ओंकार-गणित


ओंकार-गणित

भारतीय संस्कृति की यह विशेषता है कि उसमें प्रतीकों , चिह्नों , आकृतियों और अक्षरों के मध्य ब्रह्माण्ड और विश्व के अनेक रहस्यों को संजोया गया है। ओंकार भी इसी रूप में एक प्रतीक है । ओंकार देखने में जितना छोटा और नगण्य प्रतीत होता है, उतना ही बड़ी शक्ति का निरूपक है। ओंकार ईश्वरीय शक्ति का प्रतीक है। परिणामत: सभी मांगलिक कार्यों में इसका प्रयोग होता है। ओंकार की पवित्र मनोदशा में सम्पन्न होने वाले अनुष्ठान और आयोजन के हर रूप में सफल और सिद्ध होने में फिर कोई संदेह नहीं रह जाता । यह ' प्रणव ' से उत्पन्न दैवी अनुदान है। इसका मनोवैज्ञानिक लाभ यह है कि इस सम्पूर्ण काल में मन विकारग्रस्त होने से बचा रहता है। ॐ 'अव' धातु से औणादिक 'मन' प्रत्यय के संयोग से बनता है। इसको व्युत्पन्न कहते हैं। अत: 'अव' धातु के जितने अर्थ हैं , उन सबका यह बोधक है।

इसके प्राय: १९ अर्थ हैं --- कांति , तृप्ति , प्रीति , रक्षण , गति , अवगम , प्रवेश , श्रवण , स्वाम्यर्थ, याचन , क्रिया , इच्छा , दीप्ति , वाप्ति , आलिंगन , हिंसा , दान, भाग , वृद्धि आदि। इन अर्थों को आगे यदि व्याकरण की दृष्टि से विस्तार किया जाये तो ॐ अनंतार्थ का द्योतक हो जायेगा।

इन उन्नीस अर्थों में एक और नौ के अंक उपस्थित हैं। गणितज्ञ इससे पूरी तरह परिचित हैं कि एक का अंक अपने में पूर्ण स्वतंत्र है, अत: इसकी सत्ता का सद्भाव सभी अंकों में विद्यमान है। नौं का अंक स्वतंत्र तो नहीं , किन्तु पूर्ण अवश्य है। पूर्ण वह है , जो अपने में न्यूनता न आने दे। यही कारण है कि संख्या एक से प्रारंभ होकर नौ पर समाप्त हो जाती है। शेष सब इन्हीं अंकों का विस्तार मात्र ही है। एक का अंक सूक्ष्म है , शेष सब स्थूल हैं। सूक्ष्म का समावेश स्थूल में हो सकता है , पर स्थूल का समावेश सूक्ष्म में नहीं हो सकता। नौ की संख्या पूर्ण है ,यही कारण है कि इसके आगे संख्या का विधान नहीं है । नौ अंक की व्यवस्था अन्यों से कुछ भिन्न है। जब एक का अंक इसमें संयुक्त होने के लिए समीप आता है , तो वह वृद्धि को न प्राप्त कर बिंदु के रूप में बदल जाता है, किन्तु अपने गौरव को नहीं घटाता।

यह सदा पूर्णता का पक्षधर है , यही कारण है कि इस बिंदु ने गणित- विद्या को पूर्ण बना दिया। नौ अंक को गुणा करने से प्राप्त अंक का योग नौ ही बना रहता है। यही इसकी पूर्णता को स्पष्ट करता है। १९ अर्थों वाली इस संख्या में एक और नौ के अंक ओंकार के इस पूर्णता- बोधक तत्त्व-दर्शन को ही अभिव्यक्त करते हैं। ईश्वरीय -चेतना अपरिवर्तनशील है। वह वृद्धि और ह्रास से परे एकरस बनी रहती है। अस्तु , उसे अभिव्यक्त करने वाले अक्षर को भी इन गुणों से युक्त होना नितांत आवश्यक है। व्याकरण कि दृष्टि से ' उद्गीथ ' ओंकार पर विचार करने से ज्ञात होता है कि ओंकार हर स्थिति में अपने मूल स्वरूप को बनाये रखता है और किसी भी दशा में परिवर्तित नहीं होता। ओंकार शब्द सर्वदा अपनी महिमा में स्थिर एवं अपरिवर्तनीय है।
ओंकार-गणित

भारतीय संस्कृति की यह विशेषता है कि उसमें प्रतीकों , चिह्नों , आकृतियों और अक्षरों के मध्य ब्रह्माण्ड और विश्व के अनेक रहस्यों को संजोया गया है। ओंकार भी इसी रूप में एक प्रतीक है । ओंकार देखने में जितना छोटा और नगण्य प्रतीत होता है, उतना ही बड़ी शक्ति का निरूपक है। ओंकार ईश्वरीय शक्ति का प्रतीक है। परिणामत: सभी मांगलिक कार्यों में इसका प्रयोग होता है। ओंकार की पवित्र मनोदशा में सम्पन्न होने वाले अनुष्ठान और आयोजन के हर रूप में सफल और सिद्ध होने में फिर कोई संदेह नहीं रह जाता । यह ' प्रणव ' से उत्पन्न दैवी अनुदान है। इसका मनोवैज्ञानिक लाभ यह है कि इस सम्पूर्ण काल में मन विकारग्रस्त होने से बचा रहता है। ॐ 'अव' धातु से औणादिक 'मन' प्रत्यय के संयोग से बनता है। इसको व्युत्पन्न कहते हैं। अत: 'अव' धातु के जितने अर्थ हैं , उन सबका यह बोधक है। 

इसके प्राय: १९ अर्थ हैं --- कांति , तृप्ति , प्रीति , रक्षण , गति , अवगम , प्रवेश , श्रवण , स्वाम्यर्थ, याचन , क्रिया , इच्छा , दीप्ति , वाप्ति , आलिंगन , हिंसा , दान, भाग , वृद्धि आदि। इन अर्थों को आगे यदि व्याकरण की दृष्टि से विस्तार किया जाये तो ॐ अनंतार्थ का द्योतक हो जायेगा।

 इन उन्नीस अर्थों में एक और नौ के अंक उपस्थित हैं। गणितज्ञ इससे पूरी तरह परिचित हैं कि एक का अंक अपने में पूर्ण स्वतंत्र है, अत: इसकी सत्ता का सद्भाव सभी अंकों में विद्यमान है। नौं का अंक स्वतंत्र तो नहीं , किन्तु पूर्ण अवश्य है। पूर्ण वह है , जो अपने में न्यूनता न आने दे। यही कारण है कि संख्या एक से प्रारंभ होकर नौ पर समाप्त हो जाती है। शेष सब इन्हीं अंकों का विस्तार मात्र ही है। एक का अंक सूक्ष्म है , शेष सब स्थूल हैं। सूक्ष्म का समावेश स्थूल में हो सकता है , पर स्थूल का समावेश सूक्ष्म में नहीं हो सकता। नौ की संख्या पूर्ण है ,यही कारण है कि इसके आगे संख्या का विधान नहीं है । नौ अंक की व्यवस्था अन्यों से कुछ भिन्न है। जब एक का अंक इसमें संयुक्त होने के लिए समीप आता है , तो वह वृद्धि को न प्राप्त कर बिंदु के रूप में बदल जाता है, किन्तु अपने गौरव को नहीं घटाता। 

यह सदा पूर्णता का पक्षधर है , यही कारण है कि इस बिंदु ने गणित- विद्या को पूर्ण बना दिया। नौ अंक को गुणा करने से प्राप्त अंक का योग नौ ही बना रहता है। यही इसकी पूर्णता को स्पष्ट करता है। १९ अर्थों वाली इस संख्या में एक और नौ के अंक ओंकार के इस पूर्णता- बोधक तत्त्व-दर्शन को ही अभिव्यक्त करते हैं। ईश्वरीय -चेतना अपरिवर्तनशील है। वह वृद्धि और ह्रास से परे एकरस बनी रहती है। अस्तु , उसे अभिव्यक्त करने वाले अक्षर को भी इन गुणों से युक्त होना नितांत आवश्यक है। व्याकरण कि दृष्टि से ' उद्गीथ ' ओंकार पर विचार करने से ज्ञात होता है कि ओंकार हर स्थिति में अपने मूल स्वरूप को बनाये रखता है और किसी भी दशा में परिवर्तित नहीं होता। ओंकार शब्द सर्वदा अपनी महिमा में स्थिर एवं अपरिवर्तनीय है।