Saturday, April 27, 2013

दान

प्रश्न‒दान देनेमें, सेवा करनेमें पात्र-अपात्रका विचार करना चाहिये कि नहीं ?

उत्तर‒अन्न, जल, वस्त्र और औषध‒इनको देनेमें पात्र-अपात्र आदिका विचार नहीं करना चाहिये । जिसको अन्न, जल आदिकी आवश्यकता है, वही पात्र है । परन्तु कन्यादान, भूमिदान, गोदान आदि विशेष दान करना हो तो उसमें देश, काल, पात्र आदिका विशेष विचार करना चाहिये ।

अन्न, जल, वस्त्र और औषध‒इनको देनेमें यदि हम पात्र-कुपात्रका अधिक विचार करेंगे तो खुद कुपात्र बन जायँगे और दान करना कठिन हो जायगा ! अतः हमारी दृष्टिमें अगर कोई भूखा, प्यासा आदि दीखता हो तो उसको अन्न, जल आदि दे देना चाहिये । यदि वह अपात्र भी हुआ तो हमें पाप नहीं लगेगा ।

प्रश्न‒दूसरोंको देनेसे लेनेवालेकी आदत बिगड़ जायगी, लेनेका लोभ पैदा हो जायगा; अतः देनेसे क्या लाभ ?

उत्तर‒दूसरेको निर्वाहके लिये दें, संचयके लिये नहीं अर्थात्‌ उतना ही दें, जिससे उसका निर्वाह हो जाय । यदि लेनेवालेकी आदत बिगड़ती है तो यह दोष वास्तवमें देनेवालेका है अर्थात्‌ देनेवाला कामना, ममता, स्वार्थ आदिको लेकर देता है । यदि देनेवाला निःस्वार्थ-भावसे, बदलेकी आशा न रखकर दे तो जिसको देगा, उसका स्वभाव भी देनेका बन जायगा, वह भी सेवक बन जायगा ! 

रामायणमें आया है‒
सर्बस दान दीन्ह सब काहू ।
जेहिं पावा राखा नहिं ताहू ॥
(मानस, बाल॰ १९४/४)

शीघ्र कल्याण चाहने वाले मनुष्य को


शीघ्र कल्याण चाहने वाले मनुष्य को परमात्माकी प्राप्ति के सिवा और किसी भी बात की इच्छा नहीं रखनी चाहिये; क्योंकि इसके सिवा सब इच्छाएँ जन्म-मृत्यु रूप संसार-सागर में भरमाने वाली हैं ।

परमात्मा की प्राप्ति के लिये मनुष्य को अर्थ और भाव के सहित शास्त्रों का अनुशीलन और एकान्त में बैठकर जप-ध्यान तथा आध्यात्मिकविषय का विचार नियमपूर्वक  नित्य करना चाहिये ।

अनिच्छा या परेच्छा से होने वाली घटना को भगवान् का भेजा हुआ पुरस्कार मान लेने पर काम- क्रोध आदि शत्रु पास नहीं आ सकते, जैसे सूर्य के सम्मुख अन्धकार नहीं आ सकता ।

जीव, ब्रह्म और माया के तत्त्व को समझनेके लिये एकान्त में बैठकर विवेक और वैराग्ययुक्त चित्तसे नित्यप्रति परमात्मा का चिंतन करते हुए अध्यात्म-विषय का विचार करना चाहिये ।

जिसने ईश्वर की दया और प्रेम के तत्त्व-रहस्य को जान लिया है, उसके शान्ति और आनन्द की सीमा नहीं रहती ।

जो अपने-आप को ईश्वरके अर्पण कर चुका है और ईश्वरपर ही निर्भर है, उसकी सदा-सर्वदा सब प्रकार से ईश्वर रक्षा करता है, इससे वह सदा के लिये निर्भय-पदको प्राप्त हो जाता है ।

प्रेमपूर्वक जप सहित भगवान् के ध्यान का अभ्यास, श्रद्धापूर्वक सत्पुरुषोंका संग, विवेकपूर्वक भावसहित सत- शास्त्रों का स्वाध्याय, दु:खी, अनाथ, पूज्यजन तथा वृद्धों की नि:स्वार्थभावसे सेवा — इनको यदि कर्तव्यबुद्धिसे किया जाय तो ये एक-एक साधन शीघ्र कल्याण करने वाले हैं ।

भगवान् बहुत बड़े दयालु और प्रेमी हैं । जो साधक उनका तत्त्व समझ जायगा, वह भगवान् की शरण होकर शीघ्र ही परम शान्ति को प्राप्त हो जायगा ।

सर्वत्र भगवद्भावके सामान कोई भाव नहीं है और सर्वत्र भगवद्भाव होने से दुर्गुण और दुरुचारों का अत्यंत अभाव होकर सद्गुण और सदाचार अपने –आप ही आ जाते हैं ।

वस्तुमात्र को भगवान् का स्वरुप और चेष्टामात्र को भगवान् की लीला समझने समझने से भगवान् का तत्त्व समझ में आ जाता है ।

Monday, April 15, 2013

हनुमान जी की उपासना


हनुमान जी की उपासना केवल भारत भूमि में ही नहीं अपितु विश्व के अन्य भाग जैसे जावा-सुमित्रा’ लंका, थाई, मारीशस, बर्मा अफगानिस्तान, जापान आदि से लेकर यूरोप व समस्त विश्व में होती है। श्री हनुमान उन सप्तऋषि में से एक है जिन्हें वरदान प्राप्त है कि चिरंजीवी रहेंगे- (अश्ववत्थामा, बलि, व्यास, हनुमान, विभीषण, शक, कृपाचार्य परशुराम)

हनुमान वेग में वायु देवता तथा गति में गरुड़ देवता के सक्षम हैं। भगवान के उत्तर दिशा के पार्षद कुबेर की गदा इन पर रहती है जिसमें अधर्म करने को दण्ड देने के अधिकारी हैं। इनकी गदा संग्राम में विजय दिलाने वाली हैं अतः साधकों को धर्मच्युत व्यवहार के लिए मारुति की गदा का भी ध्यान व पूजन अभीष्ट है।

यदि साधक मृत्युतुल्य कष्ट से ग्रस्त हो, तो मंगलमूर्ति का ध्यान हाथ में संजीवनी का पहाड़ लिये, साथ में सुषेण वैद्य का भी ध्यान करना चाहिये।

दुर्गम काज जगत के जेते।
सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते।

यह हमेशा याद रखें कि हनुमत सिद्ध के लिये राम उपासना की बहुत आवश्यकता है। क्योंकि भगवान राम के अयोध्या से साकेत को प्रस्थान करते समय हनुमान को आदेश दिया था कि तुम मेरी कथा का प्रचार-प्रसार करते हुये मेरे भक्तों के समीप रहो, कल्पपर्यन्त पृथ्वी पर निवास करते रहो। अतः जहाँ भी रामकथा होती है हनुमान अपने लूक्ष्म शरीर से उपस्थित रहते हैं। तुलसी बाबा ने इनके सान्निध्य से ही रामकथा मानस पूरी की।

==== जय श्री राम ====
हनुमान जी की उपासना केवल भारत भूमि में ही नहीं अपितु विश्व के अन्य भाग जैसे जावा-सुमित्रा’ लंका, थाई, मारीशस, बर्मा अफगानिस्तान, जापान आदि से लेकर यूरोप व समस्त विश्व में होती है। श्री हनुमान उन सप्तऋषि में से एक है जिन्हें वरदान प्राप्त है कि चिरंजीवी रहेंगे- (अश्ववत्थामा, बलि, व्यास, हनुमान, विभीषण, शक, कृपाचार्य परशुराम)

हनुमान वेग में वायु देवता तथा गति में गरुड़ देवता के सक्षम हैं। भगवान के उत्तर दिशा के पार्षद कुबेर की गदा इन पर रहती है जिसमें अधर्म करने को दण्ड देने के अधिकारी हैं। इनकी गदा संग्राम में विजय दिलाने वाली हैं अतः साधकों को धर्मच्युत व्यवहार के लिए मारुति की गदा का भी ध्यान व पूजन अभीष्ट है।

यदि साधक मृत्युतुल्य कष्ट से ग्रस्त हो, तो मंगलमूर्ति का ध्यान हाथ में संजीवनी का पहाड़ लिये, साथ में सुषेण वैद्य का भी ध्यान करना चाहिये।

दुर्गम काज जगत के जेते। 
सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते।

यह हमेशा याद रखें कि हनुमत सिद्ध के लिये राम उपासना की बहुत आवश्यकता है। क्योंकि भगवान राम के अयोध्या से साकेत को प्रस्थान करते समय हनुमान को आदेश दिया था कि तुम मेरी कथा का प्रचार-प्रसार करते हुये मेरे भक्तों के समीप रहो, कल्पपर्यन्त पृथ्वी पर निवास करते रहो। अतः जहाँ भी रामकथा होती है हनुमान अपने लूक्ष्म शरीर से उपस्थित रहते हैं। तुलसी बाबा ने इनके सान्निध्य से ही रामकथा मानस पूरी की। 

==== जय श्री राम ====

Thursday, April 11, 2013

राम राज्याभिषेक.

नव संवत्सर के दिन भगवान श्री राम ने सिंहासनारूढ़ होकर राम-राज्य की स्थापना की थी। 

....राम राज्याभिषेक....



अवधपुरी बहुत ही सुंदर सजाई गई।
देवताओं ने पुष्पों की वर्षा की झड़ी लगा दी।
श्री रामचंद्रजी ने सेवकों को बुलाकर कहा कि तुम लोग जाकर पहले मेरे सखाओं को स्नान कराओ ॥

भगवान् के वचनसुनते ही सेवक जहाँ -तहाँ दौड़े और तुरंत ही उन्होंने सुग्रीवादि को स्नान कराया।
फिर करुणानिधान श्री रामजी ने भरतजी को बुलाया और उनकी जटाओं को अपने हाथों से सुलझाया ॥

तदनन्तर भक्त वत्सल कृपालु प्रभु श्री रघुनाथजी ने तीनों भाइयों को स्नान कराया।
भरतजी का भाग्य और प्रभु की कोमलता का वर्णन अरबों शेषजी भी नहीं कर सकते ॥

फिर श्री रामजी ने अपनी जटाएँ खोलीं और गुरुजी की आज्ञा माँगकर स्नान किया।
स्नान करके प्रभु ने आभूषण धारण किए।
उनके (सुशोभित) अंगों को देखकर सैकड़ों (असंख्य) कामदेव लजा गए ॥

(इधर) सासुओं ने जानकीजी को आदर के साथ तुरंत ही स्नान कराके उनके अंग-अंग में दिव्य वस्त्र और श्रेष्ठ आभूषण भली- भाँतिसजा दिए (पहना दिए) ॥

श्री राम के बायीं ओर रूप और गुणों की खान रमा (श्री जानकीजी) शोभित हो रही हैं।
उन्हें देखकर सब माताएँ अपना जन्म (जीवन) सफल समझकर हर्षित हुईं ॥

(काकभुशुण्डिजी कहते हैं-) हे पक्षीराज गरुड़जी! सुनिए, उस समय ब्रह्माजी, शिवजी और मुनियों के समूह तथा विमानों पर चढ़कर सब देवता आनंदकंद भगवान् के दर्शन करने के लिए आए ॥

प्रभु को देखकर मुनि वशिष्ठजी के मन में प्रेम भर आया।
उन्होंने तुरंत ही दिव्य सिंहासन मँगवाया, जिसका तेज सूर्य के समान था।
उसका सौंदर्य वर्णन नहीं किया जा सकता।
ब्राह्मणों को सिर नवाकर श्री रामचंद्रजी उस पर विराज गए ॥

श्री जानकीजी के सहित रघुनाथजी को देखकर मुनियों का समुदाय अत्यंत ही हर्षित हुआ।
तब ब्राह्मणों ने वेदमंत्रों का उच्चारण किया।
आकाश में देवता और मुनि'जय, हो , जय हो' ऐसी पुकार करने लगे ॥

(सबसे) पहले मुनि वशिष्ठजी ने तिलक किया।
फिर उन्होंने सब ब्राह्मणों को (तिलक करने की ) आज्ञा दी।
पुत्र को राजसिंहासन पर देखकर माताएँ हर्षित हुईं और उन्होंने बार-बार आरती उतारी ॥

उन्होंने ब्राह्मणों को अनेकों प्रकार के दान दिए और संपूर्ण याचकों को अयाचक बना दिया (मालामाल कर दिया)।
त्रिभुवन के स्वामी श्री रामचंद्रजी को (अयोध्या के) सिंहासन पर (विराजित) देखकर देवताओं ने नगाड़े बजाए ॥

आकाश में बहुत से नगाड़े बज रहे हैं।
गन्धर्व और किन्नर गा रहे हैं।
अप्सराओं के झुंड के झुंड नाच रहे हैं।
देवता और मुनि परमानंद प्राप्त कर रहे हैं।
भरत,लक्ष्मण और शत्रुघ्नजी , विभीषण, अंगद, हनुमान् और सुग्रीव आदि सहित क्रमशः छत्र, चँवर, पंखा , धनुष, तलवार, ढाल और शक्ति लिए हुए सुशोभित हैं ॥

श्री सीताजी सहित सूर्यवंश के विभूषण श्री रामजी के शरीर में अनेकों कामदेवों की छबि शोभा दे रही है।
नवीन जलयुक्त मेघों के समान सुंदर श्याम शरीर पर पीताम्बर देवताओं के मन को भी मोहित कर रहा है।
मुकुट, बाजूबंद आदि विचित्र आभूषण अंग-अंग में सजे हुए हैं।
कमल के समान नेत्र हैं, चौड़ी छाती है और लंबी भुजाएँ हैं जो उनके दर्शन करते हैं, वे मनुष्य धन्य हैं ॥

हे पक्षीराज गरुड़जी ! वह शोभा , वह समाज और वह सुख मुझसे कहते नहीं बनता।
सरस्वतीजी , शेषजी और वेद निरंतर उसका वर्णन करते हैं, और उसका रस (आनंद) महादेवजी ही जानते हैं॥

सब देवताअलग-अलग स्तुति करके अपने-अपने लोक को चले गए।
तब भाटों का रूप धारण करके चारों वेद वहाँ आए जहाँ श्री रामजी थे॥

कृपानिधानसर्वज्ञ प्रभु ने (उन्हें पहचानकर) उनका बहुत ही आदर किया।
इसका भेद किसी ने कुछ भी नहीं जाना।
वेद गुणगान करने लगे ॥

सगुण और निर्गुण रूप!
हे अनुपम रूप- लावण्ययुक्त!
हे राजाओं के शिरोमणि! आपकी जय हो।
आपने रावण आदि प्रचण्ड, प्रबल और दुष्ट निशाचरों को अपनी भुजाओं के बल से मार डाला।
आपने मनुष्य अवतार लेकर संसार के भार को नष्ट करके अत्यंत कठोर दुःखों को भस्म कर दिया।
हे दयालु! हे शरणागत की रक्षा करने वाले प्रभो! आपकी जय हो।
मैं शक्ति (सीताजी) सहित शक्तिमान् आपको नमस्कार करता हूँ ॥

हे हरे! आपकी दुस्तर माया के वशीभूत होने के कारण देवता , राक्षस, नाग, मनुष्य और चर, अचर सभी काल कर्म और गुणों से भरे हुए (उनके वशीभूत हुए)दिन-रात अनन्त भव (आवागमन) के मार्ग में भटक रहे हैं।
हे नाथ! इनमें से जिनको आपने कृपा करके (कृपादृष्टि) से देख लिया , वे (माया जनित) तीनों प्रकार के दुःखों से छूट गए।
हे जन्म-मरण के श्रम को काटने में कुशल श्री रामजी ! हमारी रक्षा कीजिए।
हम आपको नमस्कार करते हैं॥

जिन्होंने मिथ्या ज्ञान के अभिमान में विशेष रूप से मतवाले होकर जन्म-मृत्यु (के भय) को हरने वाली आपकी भक्ति का आदर नहीं किया, हे हरि! उन्हें देव- दुर्लभ(देवताओं को भी बड़ी कठिनता से प्राप्त होने वाले, ब्रह्मा आदि के ) पद को पाकर भी हम उस पद से नीचे गिरते देखते हैं (परंतु), जो सब आशाओं को छोड़कर आप पर विश्वास करके आपके दास हो रहते हैं, वे केवल आपका नाम ही जपकर बिना ही परिश्रम भवसागर से तर जाते हैं।
हे नाथ! ऐसे आपका हम स्मरण करते हैं॥

जो चरण शिवजी और ब्रह्माजी के द्वारा पूज्य हैं, तथा जिन चरणों की कल्याणमयी रज का स्पर्श पाकर (शिला बनी हुई) गौतम ऋषि की पत्नी अहल्या तर गई, जिन चरणों के नख से मुनियों द्वारा वन्दित, त्रैलोक्य को पवित्र करने वाली देवनदी गंगाजी निकलीं और ध्वजा, वज्र अंकुश और कमल, इन चिह्नों से युक्त जिन चरणों में वन में फिरते समय काँटे चुभ जाने से घट्ठे पड़ गए हैं, हे मुकुन्द!
हे राम! हे रमापति! हम आपके उन्हीं दोनों चरणकमलों को नित्य भजते रहते हैं ॥

वेदशास्त्रों ने कहा है कि जिसका मूल अव्यक्त (प्रकृति) है,
जो (प्रवाह रूप से) अनादि है, जिसके चार त्वचाएँ, छह तने, पच्चीस शाखाएँ और अनेकों पत्ते और बहुत से फूल हैं, जिसमें कड़वे और मीठे दो प्रकार के फल लगे हैं, जिस पर एक ही बेल है, जो उसी के आश्रित रहती है, जिसमें नित्य नए पत्ते और फूल निकलते रहते हैं, ऐसे संसार वृक्ष स्वरूप (विश्व रूप में प्रकट) आपको हम नमस्कार करते हैं॥॥

ब्रह्म अजन्मा है, अद्वैत है, केवल अनुभव से ही जाना जाता है और मन से परे है-(जो इस प्रकार कहकर उस) ब्रह्म का ध्यान करते हैं, वे ऐसा कहा करें और जाना करें, किंतु हे नाथ! हम तो नित्य आपका सगुण यश ही गाते हैं।
हे करुणा के धाम प्रभो ! हे सद्गुणों की खान!
हे देव! हम यह वर माँगते हैं कि मन, वचन और कर्म से विकारों को त्यागकर आपके चरणों में ही प्रेम करें॥॥

वेदों ने सबके देखते यह श्रेष्ठ विनती की।
फिर वे अंतर्धान हो गए और ब्रह्मलोक को चले गए ॥

काकभुशुण्डिजी कहते हैं- हे गरुड़जी ! सुनिए, तब शिवजी वहाँ आए जहाँ श्री रघुवीर थे और गद्गद् वाणी से स्तुति करने लगे। उनका शरीर पुलकावली से पूर्ण हो गया-॥॥

हे राम! हे रमारमण (लक्ष्मीकांत)! हे जन्म- मरण के संताप का नाश करने वाले! आपकी जय हो, आवागमन के भय से व्याकुल इस सेवक की रक्षा कीजिए।
हे अवधपति ! हे देवताओं के स्वामी! हे रमापति! हे विभो! मैं शरणागत आपसे यही माँगता हूँ कि हे प्रभो ! मेरी रक्षा कीजिए॥॥

हे दस सिर और बीस भुजाओं वाले रावण का विनाश करके पृथ्वी के सब महान् रोगों (कष्टों) को दूर करने वाले श्री रामजी! राक्षस समूह रूपी जो पतंगे थे, वे सब आपके बाण रूपी अग्नि के प्रचण्ड तेज से भस्म हो गए॥॥

आप पृथ्वी मंडल के अत्यंत सुंदर आभूषण हैं,
आप श्रेष्ठ बाण, धनुष और तरकस धारण किए हुए हैं।
महान् मद, मोह और ममता रूपी रात्रि के अंधकार समूह के नाश करने के लिए आप सूर्य के तेजोमय किरण समूह हैं ॥॥

कामदेव रूपी भील ने मनुष्य रूपी हिरनों के हृदय में कुभोग रूपी बाण मारकर उन्हें गिरा दिया है।
हे नाथ! हे (पाप- ताप का हरण करने वाले) हरे !
उसे मारकर विषय रूपी वन में भूल पड़े हुए इन पामर अनाथ जीवों की रक्षा कीजिए ॥॥

लोग बहुत से रोगों और वियोगों (दुःखों) से मारे हुए हैं।
ये सब आपके चरणों के निरादर के फल हैं।
जो मनुष्य आपके चरणकमलों में प्रेम नहीं करते, वे अथाह भवसागर में पड़े हैं ॥

जिन्हें आपके चरणकमलों में प्रीति नहीं है वे नित्य ही अत्यंत दीन, मलिन (उदास) और दुःखी रहते हैं और जिन्हें आपकी लीला कथा का आधार है, उनको संत और भगवान् सदा प्रिय लगने लगते हैं॥॥

उनमें न राग (आसक्ति) है, न लोभ, न मान है, न मद।
उनको संपत्ति सुख और विपत्ति (दुःख) समान है।
इसी से मुनि लोग योग (साधन) का भरोसा सदा के लिए त्याग देते हैं और प्रसन्नता के साथ आपके सेवक बन जाते हैं॥॥

वे प्रेमपूर्वक नियम लेकर निरंतर शुद्ध हृदय सेआपके चरणकमलों की सेवा करते रहते हैं और निरादर और आदर को समान मानकर वे सब संत सुखी होकर पृथ्वी पर विचरते हैं ॥॥

हे मुनियों के मन रूपी कमल के भ्रमर! हे महान् रणधीर एवं अजेय श्री रघुवीर! मैं आपको भजता हूँ (आपकी शरण ग्रहण करता हूँ)
हे हरि ! आपका नाम जपता हूँ और आपको नमस्कार करता हूँ।
आप जन्म-मरण रूपी रोग की महान् औषध और अभिमान के शत्रु हैं॥॥

आप गुण, शील और कृपा के परम स्थान हैं।
आप लक्ष्मीपति हैं, मैं आपको निरंतर प्रणाम करता हूँ।
हे रघुनन्दन! (आप जन्म-मरण, सुख- दुःख, राग-द्वेषादि) द्वंद्व समूहों का नाश कीजिए।
हे पृथ्वी का पालन करने वाले राजन्।
इस दीन जन की ओर भी दृष्टि डालिए॥॥

मैं आपसे बार-बार यही वरदान माँगता हूँ कि मुझे आपके चरण कमलों की अचल भक्ति और आपके भक्तों का सत्संग सदा प्राप्त हो।
हे लक्ष्मीपते! हर्षित होकर मुझे यही दीजिए॥

श्री रामचंद्रजी के गुणों का वर्णन करके उमापति महादेवजी हर्षित होकर कैलास को चले गए।
तब प्रभु ने वानरों को सब प्रकार से सुख देने वाले डेरे दिलवाए ॥॥

हे गरुड़जी ! सुनिए यह कथा (सबको) पवित्र करने वाली है, (दैहिक, दैविक, भौतिक) तीनों प्रकार के तापों का और जन्म-मृत्यु के भयका नाश करने वाली है।

महाराज श्री रामचंद्रजी के कल्याणमय राज्याभिषेक का चरित्र (निष्कामभाव से) सुनकर मनुष्य वैराग्य और ज्ञान प्राप्त करते हैं ॥॥

और जो मनुष्य सकामभाव से सुनते और जो गाते हैं, वे अनेकों प्रकार के सुख और संपत्ति पाते हैं।
वे जगत् में देवदुर्लभ सुखों को भोगकर अंतकाल में श्री रघुनाथजी के परमधाम को जाते हैं ॥॥

इसे जो जीवन्मुक्त, विरक्त और विषयी सुनते हैं, वे (क्रमशः ) भक्ति, मुक्ति और नवीन संपत्ति (नित्य नए भोग) पाते हैं।
हे पक्षीराज गरुड़जी! मैंने अपनी बुद्धि की पहुँच के अनुसार रामकथा वर्णन की है, जो (जन्म- मरण) भय और दुःख हरने वाली है ॥॥

यह वैराग्य, विवेक और भक्ति को दृढ़ करने वाली है तथा मोह रूपी नदी के (पार करने) के लिए सुंदर नाव है।
अवधपुरी में नित नए मंगलोत्सव होते हैं।
सभी वर्गों के लोग हर्षित रहते हैं॥॥

श्री रामजी के चरणकमलों में- जिन्हें श्री शिवजी, मुनिगण और ब्रह्माजी भी नमस्कार करते हैं, सबकी नित्य नवीन प्रीति है।
भिक्षुकों को बहुत प्रकार के वस्त्राभूषण पहनाए गए और ब्राह्मणों ने नाना प्रकार के दान पाए ॥

Saturday, April 6, 2013

हनुमान् जी के स्वरूप का परिचय

हनुमान् जी के स्वरूप का परिचय
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आजकल बुद्धिजीवी कहलाने वाले लोग शंका करते हैं कि क्या हनुमान् जी वानर थे ?इस विषय पर कुछ निर्णय देने के पूर्व हम यह बतलाना चाहेंगे कि किसी वस्तु केविषय में हम उसका स्वरूप या गुण आदि किसी न किसी प्रमाण के आधार परनिश्चित करते हैं ।जैसे किसी व्यक्ति के रूप का परिचय पाने के लिए हमें नेत्ररूपी प्रमाणकीआवश्यकता होती है ।अब उसका रूप काला है या गोरा ? इसका निश्चय कान, घ्राण,श्रोत्र आदि इन्द्रियरूपी प्रमाण नही करा सकते । यह तो नेत्र से ही ज्ञात होगा कि रूप काला हैया गोरा ।ठीक इसी प्रकार हमें हनुमान् जी के विषय में समझना होगा । कि उनका ज्ञान हमेंकिस प्रमाण से हुआ ?प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द -- प्रसिद्ध इन चारों प्रमाणों में शब्द प्रमाणको छोड़कर कोई दूसरा प्रमाण ऐसा नही है जो उनका ज्ञान हमें करा सके ।उस शब्दप्रमाण में वेदावतार वाल्मीकि रामायण जो परम आप्त महर्षि वाल्मीकिप्रणीत है । उस शब्दप्रमाणीभूत रामायण से हमें सर्वप्रथम हनुमान् जी का ज्ञानहोता है ।वाल्मीकि रामायण के प्रथम सर्ग में हनुमान् जी का प्रथम परिचय हमें उस समय मिलता है जब श्रीराम उनसे पम्पा सरोवर के समीप मिलते हैं ।उस समय उनका स्वरूप निरूपित करते हुए महर्षि कहते हैं कि श्रीराम हनुमान् नामक वानर से मिले --

पम्पातीरे हनुमता संगतो वानरेण ह।। -1/58,
जिस प्रमाण से हमें हनुमान् जी का ज्ञान हो रहा है ,उसी से वे वानर भी सिद्ध हो रहे हैं ,जैसे रूप के काले या गोरे होने की सिद्धि चक्षुरूपी प्रमाण से ।जब मारुति लंका में जानकी जी का अन्वेषण करते हुए मन्दोदरी को देखते है तब वे उसे सीता समझकर प्रसन्नता के कारण अपनी पूछ चूमते है और खम्भे पर चढकर नीचे कूदते है तथा अपने वानरोचित स्वभाव को दिखलाते हैं --

आस्फोटयामास चुचुम्ब पुच्छं ननन्द चिक्रीड जगौ जगाम ।

स्तम्भानरोहन्निपपात भूमौ निदर्शयन्स्वां प्रकृतिं कपीनाम् ।।

[वा0रा0सुन्दरकाण्ड--10/54,]
इससे ये वानर सिद्ध होते हैं ।किन्तु आजकल के वानरों की भांति लड्डू चुराने वाले प्रवृत्ति वाला वानर समझने की भूल मत कर बैठना ।ये समस्त सिद्धियों से सम्पन्न महातेजस्वी, बालि सुग्रीव की अपेक्षया अप्रमेय बलशाली हैं ।

अशोकवाटिका में इनके अद्भुत कार्यों की बात सुनकर लंकापति रावण व्यथित
होकर कहता है कि मैं उसके कार्यों पर विचारकर यही मानता हूं कि वह वानर नही है ----
नह्यहं तं कपिं मन्ये कर्मणा प्रतितर्कयन् ।

सर्वथा तन्महद्भूतं महाबल परिग्रहम् । ।

[सुन्दरकाण्ड-46/6.]

रावण कहता है कि मैने बालि सुग्रीव जाम्बवान् सेनिपति नील जैसे विपुल बलशाली वानरों को देखा है --

दृष्टा हि हरयः पूर्वं मया विपुलविक्रमाः ।

बाली च सह सुग्रीवो जाम्बवाश्च महाबलाः ।। 46/12,

किन्तु उन सबकी गति इतनी भयंकर नही थी ,न ऐसा तेज और पराक्रम ही था।उनमें इसके जैसा बल उत्साह बुद्धि और रूप बदलने की ऐसी शक्ति भी नही थी--

नैव तेषां गतिर्भीमा न तेजो न पराक्रमः ।।
न मतिर्न बलोत्साहो न रूप परिकल्पनम् ।
महत्सत्वमिदं ज्ञेयं कपिरूपं व्यवस्थितम् । ।
--[ सु0का046/13-14,]

जब रावण जैसा विद्वान् हनुमान् जी की अद्भुत कार्यक्षमता परम पराक्रम आदि
को देखकर वानर मानने को तैयार नही है ।तो आजकल के बुद्धिजीवी उन्हे वानर मानने में सन्देह करें तो क्या आश्चर्य!
रावण का मन्त्री भी सभा में मारुति से कहता है कि तुम्हारा तेज वानरों जैसा नहीहै केवल रूप ही वानर का है --

नहि ते वानरं तेजो रूपमात्रं हि वानरम् । --50/10/

पर हनुमान् जी का जब रावण आदि को दर्शन होता है तब वे सब उन्हें वानर
मानने को विवश हो जाते हैं ।अत एव रावण उनके लिए आगे वानर शब्द का ही प्रयोग करता है--
तस्मादिमं वधिष्यामि वानरं पापकारिणम् । --52/11,

हनुमान् जी माँ जानकी को अपना परिचय रामदूत के रूप में अपने को वानर कहत हुए ही देते हैं ---

वानरोऽहं महाभागे दूतो रामस्य धीमतः ।

[सुन्दरकाण्ड--36/2,]
अतः हनुमान् जी वानर ही थे ।उन्हे मानव या अन्य जातीय माना शास्त्रप्रमाण विरुद्ध है ।किन्तु ये साधारण वानर नही अपितु उपदेव हैं ।जिनके कुल में शिक्षा आदि का प्रचुर प्रचलन था । अत एव ये " गायत्रीजापक "नाम से अभिहित किये गये हैं ।ये साक्षात् भगवान् शंकर तथा कालके भी काल हैं --
नूमांस्तु महादेवः कालकालः सदाशिवः।

------रुद्रयामल, हनुमत्सहस्रनाम,8,

विनयपत्रिका में इन्हे " वानराकार विग्रह पुरारी" कहा गया है ।ये वानर रूप में साक्षात्महाकाल भगवान् शंकर हैं ।किन्तु ये देवेन्द्रवन्दित होने के साथ ही गायत्रीजापक रामनाममय तथा 7 करोड़महामन्त्र से युक्त विग्रह वाले हैं ।-----

सप्तकोटिमहामन्त्रमन्त्रितावयवः प्रभुः |
-[-ह्० स०नाम् --७]
इनके सहस्रनाम में इनका एक नाम "भक्तांहःसहनो" आया है । जिसका अर्थ है---"भक्तों का अपराध सहन करने वाले" ।नारियां भी इनकी उपासना मन्त्र आदि का जप कर सकती हैं ---"नागकन्याभयध्वंसी" "सप्तमातृनिषेवितः" ये दोनों नाम तथा लोपामुद्रा को अगस्त्य जी द्वारा प्रदत्त कवच, पार्वती जी को भगवान् शिव से प्राप्त कवच इस कथन में प्रमाण है ।

»»»»जय श्रीराम««««

इस तरह रामचरित मानस बना धर्म शास्त्र

ramayan करीब पांच सौ साल पहले तक कोई धर्म ग्रंथ हिंदी में नहीं था। सभी धर्म ग्रंथ संस्कृत में थे और चूंकि मध्य काल में शिक्षा दीक्षा का चलन काफी कम हो गया था, भक्ति भावना या धर्म श्रद्धा के लिए लोग संस्कृत विद्वानों की ओर ही ताकते थे।

ऐसा कोई शास्त्र नहीं था, जो लोगों की अपनी भाषा में हो। गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस लिख कर एक समाधान दिया था, लोकिन कठिनाई यह थी कि विद्वानों और धर्माचार्यों ने इसे मान्यता नहीं दी।

इसलिए धर्म भावना से भरे लोगों के मन में यह फांस अटकी रहती थी कि वे राम कथा से तो प्रेरणा ले रहे हैं लेकिन उनकी जानकारी का जो स्त्रोत है, वह धर्म शास्त्र नहीं है। क्योंकि धर्मशास्त्र तो संस्कृत में ही हो सकता है। पुरानी मान्यता है कि कोई शास्त्र अथवा ग्रंथ लोकप्रिय होने से स्वीकार्य नहीं हो जाता। 

स्वीकार्य वह रचना होती है जिसे विद्वतजनों ने मान्यता दी हो। तुलसीदास के मन में मानस की शुरुआत करते ही यह बात आई थी। उन्होंने हिंदी में ही रामकथा की रचना शुरू की। दो वर्ष सात महीने और छब्बीस दिन में सन् 1576 में यह रचना पूरी हुई।

कहते हैं कि रचना लेकर गोस्वामी जी काशी चले गए। वहां विश्वनाथ मंदिर में पहली बार इसका पाठ किया। वहां पंडितों ने रचना को सराहा तो सही लेकिन संस्कृत में नहीं होने की वजह से इसे काव्य की मान्यता नहीं दी। 

गोस्वामीजी इससे क्षुब्ध हो गए। मानस के संबंध में प्रचलित किवदंतियों के अनुसार काशी विश्वनाथ मंदिर में रखे जाने के बाद ग्रंथ पर सत्यम, शिवम सुंदरम के साथ भगवान शिव का नाम लिखा मिला। अनुश्रुति के अनुसार यह काशी विश्वनाथ की स्वीकृति थी।

लेकिन इस कहानी को मनगढंत माना गया है। रामचरितमानस के संबंध में इस तरह की कितनी ही कहानियां प्रचलित है जो उसकी महिमा को व्यक्त करती है। जैसे एक तो यही कि रामचरित मानस को चुराने के लिए चोर गए, वहां तुलसी की कुटिया में राम और लक्ष्मण पहरा देते हुए दिखाई दिए।

इस तरह की तमाम किवदंतियों के बावजूद मानस को शास्त्र की मान्यता नहीं मिली थी। उस समय के प्रसिद्ध रामभक्त संत नाभादास ने मानस के महत्व को समझा और इस ग्रंथ को लेकर विद्वानों के पास गए।

स्वामी ज्ञानानंद, हरीराम तर्कवागीश, गदाधर भट्टाचार्य, विश्वेश्वर सरस्वती, माधव सरस्वती, नारायण तीर्थ आदि विद्वानों ने रामचरित मानस को देखा पढ़ा और सराहा, किंतु उसे शास्त्र की मान्यता देने में असमर्थता जताई।

असमर्थता इसलिए कि इनमें से कोई भी विद्वान रामचरितमानस पर टिप्पणी करता तो यह उसकी अपनी राय होती। हरीराम तर्कवागीश ने राय दी कि प्रयाग कुंभ के समय सभी संतजन और विद्वान एकत्रित होंगे। ग्रंथ को उनके सामने रखा जाए, सभी संत और धर्माचार्य विचार करें फिर इस संबंध में सर्वसम्मति से इस विषय में कोई निर्णय लिया जाए।

कुंभ पर्व में अभी सात वर्ष की देर थी। इसलिए साल भर बाद 1577 में होने वाले समष्टि समारोह (संत समागम) पर अर्धकुंभ पर उस बारे में विचार की बात सोची गई। यह अर्धकुंभ का अवसर भी था।

संगीति की अध्यक्षता अद्वैत वेदांत के प्रमुख विद्वान मधुसूदन सरस्वती कर रहे थे। उन्होंने संगीति में उपस्थित सभी विद्वानों से ग्रंथ की परीक्षा के लिए कहा। इस काम में लगभग एक माह लगा।

परीक्षा में ग्रंथ के चरितनायक, सर्ग अर्थात सृष्टि का वर्णन, धर्म मर्यादा, अर्थ, काम और मोक्ष तथा लोकरीतियों के संपूर्ण मार्गदर्शन की संभावना को परखना था। एक माह बाद सभी विद्वानों ने अपने अपने निष्क र्ष आचार्य मधुसूदन सरस्वती को सौंपे।

माघ मेला समाप्त होने को था और उस वर्ष प्रयाग के तट पर कुंभ का आयोजन चल रहा था। आचार्य ने घोषणा की कि सभी विद्वानों ने रामचरितमानस में शास्त्र में निर्धारित विशेषताएं देखी और प्रमाणित की हैं।

इसलिए मानस को धर्म शास्त्र माना जा सकता है। उल्लेखनीय है कि रामचरितमानस के बाद से अब तक किसी और ग्रंथ को धर्मशास्त्र की मान्यता नहीं मिली है।

सिर्फ इसी ग्रंथ के सप्ताह नवाह्न और मास पारायण के विधि विधान निर्धारित हैं। हिंदी या भाषा का पहला धर्मशास्त्र है जिसके छंदों को मंत्रों की मान्यता मिली है। और बहुतों ने उनकी� साधना की है उसके सत्परिणाम देखे हैं। 

Thursday, April 4, 2013

गुरु गोरखनाथ

गुरु गोरखनाथ हठयोग के आचार्य थे। कहा जाता है कि एक बार गोरखनाथ समाधि में लीन थे। इन्हें गहन समाधि में देखकर माँ पार्वती ने भगवान शिव से उनके बारे में पूछा। शिवजी बोले, लोगों को योग शिक्षा देने के लिए ही उन्होंने गोरखनाथ के रूप में अवतार लिया है। इसलिए गोरखनाथ को शिव का अवतार भी माना जाता है। इन्हें चौरासी सिद्धों में प्रमुख माना जाता है। इनके उपदेशों में योग और शैव तंत्रों का सामंजस्य है। ये नाथ साहित्य के आरम्भकर्ता माने जाते हैं। गोरखनाथ की लिखी गद्य-पद्य की चालीस रचनाओं का परिचय प्राप्त है। इनकी रचनाओं तथा साधना में योग के अंग क्रिया-योग अर्थात् तप, स्वाध्याय और ईश्वरप्रणिधान को अधिक महत्व दिया है। गोरखनाथ का मानना था कि सिद्धियों के पार जाकर शून्य समाधि में स्थित होना ही योगी का परम लक्ष्य होना चाहिए। शून्य समाधि अर्थात् समाधि से मुक्त हो जाना और उस परम शिव के समान स्वयं को स्थापित कर ब्रह्मलीन हो जाना, जहाँ पर परम शक्ति का अनुभव होता है। हठयोगी कुदरत को चुनौती देकर कुदरत के सारे नियमों से मुक्त हो जाता है और जो अदृश्य कुदरत है, उसे भी लाँघकर परम शुद्ध प्रकाश हो जाता है।
गोरखनाथ के जीवन से सम्बंधित एक रोचक कथा इस प्रकार है- एक राजा की प्रिय रानी का स्वर्गवास हो गया। शोक के मारे राजा का बुरा हाल था। जीने की उसकी इच्छा ही समाप्त हो गई। वह भी रानी की चिता में जलने की तैयारी करने लगा। लोग समझा-बुझाकर थक गए पर वह किसी की बात सुनने को तैयार नहीं था। इतने में वहां गुरु गोरखनाथ आए। आते ही उन्होंने अपनी हांडी नीचे पटक दी और जोर-जोर से रोने लग गए। राजा को बहुत आश्चर्य हुआ। उसने सोचा कि वह तो अपनी रानी के लिए रो रहा है, पर गोरखनाथ जी क्यों रो रहे हैं। उसने गोरखनाथ के पास आकर पूछा, ‘महाराज, आप क्यों रो रहे हैं?’ गोरखनाथ ने उसी तरह रोते हुए कहा, ‘क्या करूं? मेरा सर्वनाश हो गया। मेरी हांडी टूट गई है। मैं इसी में भिक्षा मांगकर खाता था। हांडी रे हांडी।’ इस पर राजा ने कहा, ‘हांडी टूट गई तो इसमें रोने की क्या बात है? ये तो मिट्टी के बर्तन हैं। साधु होकर आप इसकी इतनी चिंता करते हैं।’ गोरखनाथ बोले, ‘तुम मुझे समझा रहे हो। मैं तो रोकर काम चला रहा हूं तुम तो मरने के लिए तैयार बैठे हो।’ गोरखनाथ की बात का आशय समझकर राजा ने जान देने का विचार त्याग दिया।
कहा जाता है कि राजकुमार बप्पा रावल जब किशोर अवस्था में अपने साथियों के साथ राजस्थान के जंगलों में शिकार करने के लिए गए थे, तब उन्होंने जंगल में संत गुरू गोरखनाथ को ध्यान में बैठे हुए पाया। बप्पा रावल ने संत के नजदीक ही रहना शुरू कर दिया और उनकी सेवा करते रहे। गोरखनाथ जी जब ध्यान से जागे तो बप्पा की सेवा से खुश होकर उन्हें एक तलवार दी जिसके बल पर ही चित्तौड़ राज्य की स्थापना हुई।
गोरखनाथ जी ने नेपाल और पाकिस्तान में भी योग साधना की। पाकिस्तान के सिंध प्रान्त में स्थित गोरख पर्वत का विकास एक पर्यटन स्थल के रूप में किया जा रहा है। इसके निकट ही झेलम नदी के किनारे राँझा ने गोरखनाथ से योग दीक्षा ली थी। नेपाल में भी गोरखनाथ से सम्बंधित कई तीर्थ स्थल हैं। उत्तरप्रदेश के गोरखपुर शहर का नाम गोरखनाथ जी के नाम पर ही पड़ा है। यहाँ पर स्थित गोरखनाथ जी का मंदिर दर्शनीय है।
गोरखनाथ जी से सम्बंधित एक कथा राजस्थान में बहुत प्रचलित है। राजस्थान के महापुरूष गोगाजी का जन्म गुरू गोरखनाथ के वरदान से हुआ था। गोगाजी की माँ बाछल देवी निःसंतान थी। संतान प्राप्ति के सभी यत्न करने के बाद भी संतान सुख नहीं मिला। गुरू गोरखनाथ ‘गोगामेडी’ के टीले पर तपस्या कर रहे थे। बाछल देवी उनकी शरण मे गईं तथा गुरू गोरखनाथ ने उन्हें पुत्र प्राप्ति का वरदान दिया और एक गुगल नामक फल प्रसाद के रूप में दिया। प्रसाद खाकर बाछल देवी गर्भवती हो गई और तदुपरांत गोगाजी का जन्म हुआ। गुगल फल के नाम से इनका नाम गोगाजी पड़ा। गोगाजी वीर और ख्याति प्राप्त राजा बने। गोगामेडी में गोगाजी का मंदिर एक ऊंचे टीले पर मस्जिदनुमा बना हुआ है, इसकी मीनारें मुस्लिम स्थापत्य कला का बोध कराती हैं। कहा जाता है कि फिरोजशाह तुगलक सिंध प्रदेश को विजयी करने जाते समय गोगामेडी में ठहरे थे। रात के समय बादशाह तुगलक व उसकी सेना ने एक चमत्कारी दृश्य देखा कि मशालें लिए घोड़ों पर सेना आ रही है। तुगलक की सेना में हाहाकार मच गया। तुगलक की सेना के साथ आए धार्मिक विद्वानों ने बताया कि यहां कोई महान सिद्ध है जो प्रकट होना चाहता है। फिरोज तुगलक ने लड़ाई के बाद आते समय गोगामेडी में मस्जिदनुमा मंदिर का निर्माण करवाया। यहाँ सभी धर्मो के भक्तगण गोगा मजार के दर्शनों हेतु भादौं (भाद्रपद) मास में उमड़ पडते हैं।

Tuesday, April 2, 2013

51 शक्तिपीठों में कामाख्या

हिन्दू धर्म में देवी के 51 शक्तिपीठों में से कामाख्या या कामरूप शक्तिपीठ का विशेष महत्व है। यह भारत की पूर्व-उत्तर दिशा में असम प्रदेश के गुवाहाटी में स्थित होकर कामाख्या देवी मन्दिर के नाम से प्रसिद्ध है। पुराणों के अनुसार यह देवी का महाक्षेत्र है। यह मन्दिर नीलगिरी नामक पहाड़ी पर स्थित है। यह क्षेत्र कामरूप भी कहलाता है। क्योंकि ऐसा माना जाता है कि देवी कृपा से कामदेव को अपना मूल रूप प्राप्त हुआ।

देश में स्थित विभिन्न पीठों में से कामाख्या पीठ को महापीठ माना जाता है। इस मंदिर में 12 स्तम्भों के मध्य देवी की विशाल मूर्ति है। मंदिर एक गुफा में स्थित है। यहां जाने का मार्ग पथरीला है, जिसे नरकासुर पथ भी कहा जाता है।

मंदिर के पास ही एक कुण्ड है, जिसे सौभाग्य कुण्ड कहते हैं। इस स्थान को योनि पीठ के नाम से भी जाना जाता है। क्योंकि यहां देवी की देह का योनि भाग गिरा था। यहां पर देवी का शक्ति स्वरूप कामाख्या है एवं भैरव का रूप उमानाथ या उमानंद है। उमानंद को भक्त माता का रक्षक मानते हैं।

कथा- शिव जब सती के मृत देह लेकर वियोगी भाव से घूम रहे थे, तब भगवान विष्णु ने उनका वियोग दूर करने के लिए अपने सुदर्शन चक्रसे सती के मृत देह के टुकड़े कर दिए। इसके बाद ब्रह्मदेव और भगवान विष्णु ने उन्हें सती के अपार शक्ति के बारे में ज्ञान दिया। तब भगवान शंकर ने कहा मुझे ज्ञान प्राप्त होने पर भी मेरे मन से सती के अलगाव का दु:ख समाप्त नहीं हो रहा। तब ब्रह्मा, विष्णु और भगवान शंकर ने देवी भगवती की प्रसन्नता के लिए इसी कामरूप स्थान पर तपस्या की, जिससे प्रसन्न होकर देवी ने भगवान शंकर को वर दिया कि वे हिमवान के यहां गंगा और पार्वती के रूप में जन्म लेकर उनसे विवाह करेंगी और ऐसा ही हुआ।

महत्व- कामाख्या देवी मंदिर में मान्यता है कि यहां देवी को लाल चुनरी या वस्त्र चढ़ाने से सभी मनोरथ पूर्ण होते हैं । देवी की मात्र पूजा एवं दर्शन से सभी विघ्न, कष्ट दूर हो जाते हैं। यहां कन्या पूजन की भी परंपरा है।
कामाख्या देवी मंदिर आषाढ़ माह में तीन दिवस के लिए बंद रहता है। पौष माह के कृष्ण पक्ष की द्वितीया-तृतीया को हर-गौरी महोत्सव भी मनाया जाता है। जिसमें देवी के अनुष्ठान, पूजा व यज्ञ आदि होते हैं।

रोगों से मुक्ति दिलाती हैं माता शीतला और उनका मंत्र


रोगों से मुक्ति दिलाती हैं माता शीतला और उनका मंत्र

चैत्र कृष्णपक्ष अष्टमी तिथि को महाशक्ति के एक प्रमुख रूप शीतलामाता की पूजा पुराने समय से की जाती रही है।

इस वर्ष यह तिथि तीन अप्रैल को है शीतला की आराधना दैहिक तापों ज्वर, राजयक्ष्मा, संक्रमण तथा अन्य विषाणुओं के दुष्प्रभावों से मुक्ति दिलाती हैं।

मान्यता है कि ज्वर, चेचक, एड्स, कुष्ठरोग, दाहज्वर, पीतज्वर, विस्फोटक, दुर्गन्धयुक्त फोड़े तथा अन्य चर्मरोगों से आहत होने पर मां की आराधना रोगमुक्त कर देती है।

यही नहीं व्रती के कुल में भी यदि कोई इन रोंगों से पीड़ित हो तो ये रोग-दोष दूर हो जाते हैं। इन्हीं की कृपा से मनुष्य अपना धर्माचरण कर पाता है बिना शीतला माता की अनुकम्पा के देहधर्म संभव नहीं है।

मां का पौराणिक मंत्र 'हृं श्रीं शीतलायै नमः' भी प्राणियों को सभी संकटों से मुक्ति दिलाते हुए समाज में मान सम्मान दिलाता है। मां के वंदना मंत्र में भाव व्यक्त किया गया है कि शीतला स्वच्छता की अधिष्ठात्री देवी हैं।

शीलता माता के हाथ में झाड़ू और कलश होता है। हाथ में झाडू होने का अर्थ है कि हम लोगों को भी सफाई के प्रति जागरूक होना चाहिए।

कलश में सभी तैतीस करोड देवी देवताओं का वास रहता है अतः इसके स्थापन-पूजन से घर परिवार में समृद्धि आती है। स्कन्द पुराण में इनकी अर्चना का स्तोत्र शीतलाष्टक के रूप में मिलता है।

इस स्तोत्र की रचना भगवान शंकर ने जनकल्याण के लिए की थी। शीतलाष्टक शीतला देवी की महिमा गान करता है, साथ ही उनकी उपासना के लिए भक्तों को प्रेरित भी करता है।

इनकी आराधना मध्य भारत एवं उत्तरपूर्व के राज्यों में बड़े धूम-धाम से की जाती है!
-पं जय गोविन्द शास्त्री

http://www.amarujala.com/news/spirituality/religion-festivals/get-relief-from-diseases-by-sheetla-mata-mantra-and-pooja/