Tuesday, May 14, 2013

प्रभु पर विश्वास कैसे हो ?

प्रश्न यह है कि प्रभु पर विश्वास कैसे हो ? बच्चे को कैसे विश्वास हो जाता है कि अमुक मेरी माँ है ! बच्चा जब क्रन्दन करता है तब सभी को उससे सहानूभूति होती है पर जो भागती हुयी आती है, वह ही उसकी माँ है; ठीक इसी प्रकार जब माँ पुकारे तो सैकड़ों बच्चों की भीड़ में से भी जॊ भागकर जाये और माँ के आँचल में छुप जाये, वही उस माँ का बालक है। जब इस नश्वर जगत में हम स्वीकार कर लेते हैं कि अमुक मेरी माँ है और अमुक पिता। हमारा मन उसी समय यह भी बिना किसी के बताये, यह स्वीकार कर लेता है कि वे जो भी सॊचेंगे, हमारे भले की ही सोचेंगे। तब भला, जब सारे संत कह रहे हैं कि प्रभु, हमारे पिता, माता, बंधु, सखा, प्रियतम, लाला इत्यादि हैं तो भी हम विश्वास नहीं कर पा रहे, इसका कारण इस दास की अल्पबुद्धि से परे है क्यॊंकि कभी भी दास के साथ ऐसी स्थिति आयी ही नहीं। अब दुविधा यह है कि जाके पैर न फ़टी बिवाई, सो क्या जाने पीर पराई। दास का मानना है कि यदि तनिक भी संदेह है तो विश्वास है ही नहीं। विश्वास के साथ संदेह का होना ऐसा ही है जिस प्रकार सूर्य और अंधकार का एक साथ होना, जो संभव ही नहीं है। प्रेम और विश्वास जब भी होंगे, १००% ही होंगे, कम हो ही नहीं सकते। यह पूर्ण ब्रह्म का ही एक रूप है, या तो पूर्ण होगा या नहीं। जब तक संदेह है तभी तक की ही देरी है। मैं देह नहीं हूँ, देह से अधिक महत्वपूर्ण उसी चेतन का अंश हूँ। मैं बूँद हूँ, वह सागर है, प्रभु ने कृपा करके हमें अपनी लीला में सम्मिलित किया है; वह निर्देशक हैं, मैं एक पात्र। मेरा प्रयास यही हो कि मैं निर्देशक पर पूर्ण विश्वास रखते हुए अपने पात्र के अनूकूल अभिनय करूँ और उस अभिनय को इतनी सम्पूर्णता, लगन से करूँ कि जब स्टॆज से ग्रीनरूम में जाऊँ तो निर्देशक प्रसन्न होकर मेरी पीठ पर हाथ फ़ेरे और आगे भी अपने साथ ही रखे। यदि मैने निर्देशक पर विश्वास न करते हुए अपने संवाद या वेशभूषा बदल दी जो पात्र के अनूकूल न हो तो क्या हश्र होगा। पात्र की तो सुताई जनता करेगी ही, निर्देशक भी उसके नाम से हाथ जोड़ देगा।
जैसे किसी नाटक में अलग-अलग स्वाँग धरकर लोग आते हैं और अपनी-अपनी भूमिका निभाकर चले जाते हैं, वैसे ही इस संसाररुपी नाटक में हम लोग आते हैं, सम्बन्ध जोड़ते हैं और अपनी भूमिका पूरी होते ही चले जाते हैं। रंगमंच पर पति-पत्नी या प्रेमी-प्रेमिका, भाई-बहन, नौकर-मालिक की भूमिका करने वाले, नाटक समाप्त होने के बाद अपने पूर्व रुप में आ जाते हैं और अपने द्वारा अभिनीत पात्रों के अनुसार ही आपस में आचरण नहीं करते। यहाँ वास्तव में कोई किसी का पिता या पुत्र नहीं है। एकमात्र परमात्मा ही सबके परम पिता हैं। प्रभु के लीलामय रंगमंच के पात्र बने हम कभी कोई चेहरा लगाकर कोई पात्र निभा रहे हैं और कभी कोई। इस आनंदमयी लीला में पात्र भी निर्देशक का सानिध्य पाकर अभिभूत हैं और दर्शक भी। सत्य तो यह है कि प्रभु, विश्वास तो करने से ही होता है।
सड़कों पर मदारी, एक छोटे बच्चे के साथ कुछ विस्मयकारी खेल दिखाते हैं जिसमें मदारी, जमूरा बने लड़के को कपड़े से ढककर काट कर दिखाता है। एक बार भारत सेवाश्रम संघ, हरिद्वार के पूज्यवर श्री सत्यमित्रानंदजी ने रूककर जमूरे को बुलाकर पूछा कि क्या तुम्हें इतने खतरनाक खेल दिखाते हुए डर नहीं लगता तो जमूरे बने लड़के का उत्तर था कि नहीं ! मैं अपने उस्ताद की सारी ट्रिक जानता हूँ। यह ऐसी सारगर्भित बात है जो बताती है कि विश्वास क्या है, कैसा हो।
सतों के लिये यह जगत इतना सहज कैसे हो जाता है वह इसलिये कि वह भी अपने उस्ताद की सारी ट्रिक समझते हुए खुद को खेल में शामिल करते हुए भी, खेल की ही भावना से उस्ताद की बाजीगरी के द्वारा, इस जगत को प्रभु के लीलामय रंगमंच पर आमन्त्रित करते रहते है कि आओ, मेरे उस्ताद पर विश्वास करो और जमूरा बनकर आनंद लो, तुम्हारा बाल भी बांका न होगा।
जय जय श्री राधे !

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