आक्षेप - सभी देवी देवताओ ने भारत मे हि जन्म क्यो लिया?
क्यो किसी भी देवी -देवता को भारत के बाहर कोइ नही जानता ?
धज्जियां - वर्तमान् लोक में ही देखा जाता है , यदि कोई सरकारी उच्चाधिकारी (मन्त्री आदि ) किसी नगर में पर्यवीक्षण आदि के लिए आता है तो वहां स्थित अथवा उसके समीपस्थ निर्मित सीधे प्रामाणिक सरकारी आवास पर ठहरता है , वहां से श्रेष्ठ वाहन में बैठकर तब दौरा या अन्य कार्य करता । होता तो पूरे राष्ट्र का मन्त्री है फिर भी पूर्वनियत व्यवस्था का ही अनुपालन करता है । राजा पूरे राज्य का राजा होता है पर मिलने के लिये कोई कामना करे तो , उसे मिलता राजधानी में ही है । यद्यपि बाध्यता नहीं कोई तथापि एकलप्रकार की प्रायिकता है । इसी प्रकार , ईश्वरीय अथवा दैवीय शक्तियां होतीं हैं , वे जब इस वैश्विक धरातल पर अवतरित होती हैं तो सीधे इस विश्व पटल की प्रामाणिक आध्यात्मिक पृष्ठभूमि (भारत ) में आविर्भूत होती हैं तथा यहाँ पदार्पण करने के उपरान्त अपने आध्यात्मिक वर्चस्व से समस्त विश्व को प्रभावित करती हैं | समस्त विश्व में भारत अध्यात्म का सबसे आदर्श धरा भाग है | अफसरीपना पाकर बड़े - बड़े अफसरी भवनों में कौन नहीं आयेगा ? सांसद बनकर भी संसद में कौन नहीं बैठना चाहेगा ? और नहीं बैठेगा संसद में तो फिर कैसा सांसद ? अध्यापक होकर अपनी कक्षा में उपस्थिति न करे तो कैसा अध्यापक ? नरेन्द्र मोदी जब संसद में अपना पहला कदम रखते हैं तो इसकी धूल अपने माथे से लगाकर इसे चूमते हैं , क्योंकि उनको ज्ञात है उसका क्या महत्त्व है ; ऐसे ही भारत भूमि है, ये समस्त विश्व की धर्मसंसद है , देवता इसका महत्त्व जानते हैं , इसके प्रति तो प्रत्येक देवता यही गीत गाता है -
हम देवताओं में भी वे लोग धन्य हैं जो स्वर्ग और मोक्ष के लिए साधनभूत भारतभूमि में उत्पन्न हुए हैं-
'#गायन्ति_देवाः_किल_गीतकानि_धन्यास्तु_ये_भारतभूमिभागे | #स्वर्गापवर्गास्पदहेतुभूते_भवन्ति_भूयः_पुरुषाः_सुरत्वात् ||
देव होकर ही देवताओं की संगति की जाती है #देवो_भूत्वा_यजेत्_देवान् , (यज् देवपूजा-दान-संगतिकरणे ) भारत से बाहर कितने देवत्व धारण करने वाले मनुष्य हैं , ये सुस्पष्ट ही है | संगति का लाभ देवत्व से प्राप्त होता है , जब संगति का ही सम्यक् लाभ नहीं मिला तो उनका विवेक कहाँ से मिलेगा ? ये सब बिना परमात्मा की कृपा कर भला कहाँ सुलभ हो पाता है -
#बिनु_सतसंग_बिबेक_न_होई | #रामकृपा_बिनु_सुलभ_न_सोई
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आक्षेप - जितने भी देवी देवता देवताओ की सवारीयॉ है उनमे सिर्फ वही जानवर क्यो है जो कि भारत मे ही पाये जाते है?
एसे जानवर क्यो नही जो कि सिर्फ कुछ हि देशो मे पाये जाते है, जैसे कि कंगारु, जिराफ आदी !!
धज्जियां - देखो ! इसे ऐसे समझो - जैसे वाहन तो बहुत प्रकार के हैं , जैसे बस, ट्रेन, ट्रैक्टर , साइकिल, बाइक, ऑटो आदि आदि दुनिया भर के ! पर प्रधानमंत्री यदि किसी शहर में आयेगा तो किसी विशेष प्रयोजन मे ऑटो या रेल या फिर ट्रैक्टर में थोड़े न आयेगा ? वो आयेगा तो विशेष योग्यता वाली सरकारी गाड़ी में आयेगा, अर्थात् ऐसे स्मज्हिये कि अमेरिका का राष्ट्रपति जिस कार या वायुयान ( हैलीकॉप्टर आदि) में आ रहा है, उसका धातुज शरीर ( मैटल बॉडी ) आदि अन्य सामान्य कारों की भॉति भले ही दिखे पर वो विशेष है ।
ऐसे ही देवी - देवता हैं, तो -
वे जब आते हैं तो इसीलिये प्रधान देवता भारतीय वाहन में होते हैं , क्योंकि भारत अध्यात्म की सर्वश्रेष्ठ प्रामाणिक धरा है , ये सभी देवी-देवताओं के लिए अध्यात्म का सर्वोत्तम आदर्श है | और दूसरी बात ये है कि देवताओं की संख्या अनगिनत है , यदि कोई देवता कंगारू, जिराफ आदि आकृत्यात्मक वाहनों में हमें न ज्ञात हों तो इसका ये अर्थ नहीं कि वे हैं ही नहीं क्योंकि देवता की इच्छा पर ये निर्भर करता है कि वह किस वाहन स्वरूप (मॉडल ) को चाहता है !
शास्त्र के अनुसार देवताओं के वाहन लौकिक तिर्यक् पशु नहीं होते, वे सब द्युलोकादि के अमर्त्य देवता ही हैं , दिव्य शक्ति का वाहन भी देवता ( दिव्य शक्ति ) है, यही कारण है कि कोई अज वाहन प्रज्ज्वलित अग्नि देवता को धारण किये है , तो कोई मृग वाहन वायु देवता को , लौकिक तिर्यक् पशु में ये सामर्थ्य ही नहीं कि उन अग्नि वायु आदि को धारण कर सके , ये सभी वाहन उस -उस देवता के ही अनुरूप विशेष -विशेष दिव्य शक्तियों से युक्त होते हैं | इसी कारण, शास्त्र का तो यह सिद्धान्त है कि यह देवता ही देव वाहन रूप से समभिव्यक्त है |
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आक्षेप - सभी देवी देवता हमेशा राज घरानो मे हि जन्म क्यो लेते थे ?
क्यो किसी भी देवी देवता ने किसी गरीब या शुद्र के यहा जन्म नही लिया?
धज्जियां - देखो ! लोक में गाँव के विकास का काम करने के लिए ग्राम प्रधान का पद , जिले के लिए डी एम या विधायक का , प्रदेश के लिए मुख्यमंत्री का तथा देश का काम करने के लिए प्रधानमंत्री का पद सबसे प्रामाणिक व्यवस्था है, ऐसे ही यदि विश्व में अध्यात्म का कोई बड़ा काम करना है तो अध्यात्म की सर्वश्रेष्ठ उपाधि (ब्राह्मण ) चाहिए , प्रशासन को लेकर आपको बड़ी भूमिका निभानी है तो राजघराने से सम्बद्ध होना सबसे प्रामाणिक तरीका है | ब्राह्मण और क्षत्रिय ये दोनों शास्त्र और शस्त्र दोनों से लोक में सुव्यवस्था बनाए रखने के सर्वोत्तम साधन हैं , इसीलिये इनका प्रयोग देवी –देवताओं द्वारा होता है |
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आक्षेप - पौराणीक कथाओ मे सभी देवी देवताओ की दिनचर्या का वर्णन है जैसे कि कब पार्वती ने चंदन से स्नान किया, कब गणेश के लिये लड्डु बनाये, गणेश ने कैसे लड्डु खाये.. आदी लेकीन जैसे हि ग्रंथो कि स्क्रीप्ट खत्म हो गयी भगवानो कि दिनचर्या भी खत्म.. तो क्या बाद में सभी देवीदेवताऔ का देहांत हो गया ?? अब वो कहाँ है? उनकी औलादे कहाँ है?
धज्जियां - न जाने कहान से आप दिनचर्या पढे हो , तथापि दुर्जन तोष न्याय से समाधान करते हैं ! स्क्रिप्ट ख़त्म तो दिनचर्या ख़त्म - ये तो कोई पागल ही बोल सकता है |यदि मैं किसी को तुम्हारे बारे में बताऊँ कि ///कल तुमने मुझसे एक अमुक प्रश्न पूछा था उसका मैंने ये उत्तर दिया /// तो तुम्हारी ये जानकारी किसी को बताने से तुम मर जाओगे क्या ? चलचित्र (फिल्म) के अंत में हीरो और हीरोइन का मिलन हो जाता है और तीन घंटे की फिल्म समाप्त हो जाती है तो क्या हीरो हीरोइन मर जाते हैं ? वे तो यथास्थान ही होते हैं | कितनी घोर मूर्खता है ! चलचित्र ( फिल्म ) के उस द इंड से तो स्क्रिप्टराइटर की ये शिक्षा होती है कि इस प्रकार उक्त नायक -नायिका के सुखमय जीवन की शुरुआत हुई | एक बच्चा भी आसानी से इतनी सी सामान्य बात समझता है |
................देखो ! लोक में विद्वान क्या करता है , विद्वान जब किसी को बताता है तो सारभूत बोलता है , सटीक बोलता है , और उतना ही बोलता है जितना अगले व्यक्ति को समझाने के लिए यथायोग्य एवं पर्याप्त हो ! इसे सारं सुष्ठु मितं भाष्यम् (वाग्व्यवहार ) कहते हैं | सार का अभिप्राय है सारभूत , सुष्ठु का अभिप्राय है सर्वथोचित सुन्दर, मितम् का अभिप्राय है यथावश्यक |
....................पौराणिक कथाएँ आपको ईश्वर के चरित्र अथवा लीलाओं की सूचना इसी सारं सुष्ठु मितं से प्रदान करती है , ताकि आप उसे ग्रहण कर उसका बांकी तात्पर्य स्वतः समझ सकें | आपको उतना ही बताते हैं जितने से आपकी प्रज्ञा को समुचित मार्गदर्शन हो जाए , आप स्थालीपुलाकन्याय से उस सम्बन्ध में अन्य गुण –कर्म - स्वभाव भी समझ जाएँ कि इनका गुण कर्म स्वभाव लीला विनोद इस तरह से अभिहित है | आपकी अभिधारणा को ईश्वरीय चेतना के आलोक में सुनियोजित कर उसका उत्तम निर्माण करना मात्र पौराणिक कथाओं का प्रयोजन है | गणेश जी ने लड्डू खाया या कुंकुम-चंदनादि किसी ईश्वरीय शक्ति द्वारा स्वीकृत होने आदि की बातें अगर पुराण कहता है तो इसका अभिप्राय है कि ईश्वर का गणेश रूप अपने प्रेमी भक्तों के द्वारा भाव से प्रदत्त मोदक को ही भक्षण कर रहे हैं , जब आप उपासना करें तो उसमें उनकी प्रसन्नता की कामना लेते हुए मोदक (लड्डू ) के भोग की प्रधानता रखें |
.......................मोदक प्रतीक है मुदिता , प्रसन्नता का अथवा आनन्द का | श्री गणेश जी को मोदक देने का अर्थ है इस प्रतीक के रूप में ईश्वर के प्रति अपने अध्यात्मिक प्रेमानंद की अभिव्यक्ति करना | जब भक्त मुदित होता है तो उसका उपास्य ईश्वर भी मुदित होता है , ये उपास्य -उपासक का परस्पर आतंरिक प्रेम है | जब आप एक मोदक बनाकर ईश्वर के गणेश रूप को श्रद्धा और प्रेम से अर्पित करते हैं तो ईश्वर के प्रति इस प्रेमपूर्ण आध्यात्मिक व्यवहार से आपकी चेतना में क्रमशः सात्त्विकता आती है और आपका आध्यात्मिक विकास होता है | आपको साधना के उद्देश्य से ये श्री गणेश जी के मोदक आदि भक्षण की चर्चा पुराणादि का उद्देश्य है |
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आक्षेप - ग्रंथो के अनुसार पुराने समय मे सभी देवी देवताओ का पृथ्वी पर आना-जाना लगा रहता था। जैसे कि किसी को वरदान देने या किसी पापी का सर्वनाश करने.. लेकीन अब एसा क्या हुआ जो देवी देवताओ ने पृथ्वी पर आना बंद हि कर दिया??
धज्जियां - पुराने समय में देवी -देवता पृथ्वी पर आते थे तो तब भी उनके देवी या देवता होने का रहस्य केवल उनके अधिकारी भक्त ही जान पाते थे , सब नहीं , जैसे भगवान् कृष्ण द्वापरयुग में अवतरित हुए तो केवल उनके अधिकारी भक्तों जैसे - असित , देवल , व्यास, कुंती, विदुर आदि गिने -चुने लोग ही उनकी भगवत्ता को पहचान पाते थे अथवा केवल स्वयं श्री कृष्ण ही अपनी भगवत्ता के ज्ञाता थे , सभी नहीं |
#आहुस्त्वामृषयः_सर्वे_देवर्षिर्नारदस्तथा |
#असितो_देवलो_व्यासः_स्वयं_चैव_ब्रवीषि_मे || (-श्रीमद्भगवद्गीता १०/१३)
सौ कौरव, कर्ण , जरासंध , अश्वत्थामा , शिशुपाल आदि सहित सारा संसार उनको एक साधारण ग्वाला ही समझता था | इसीलिये तो दुर्योधन भरी राजसभा में उनको बन्दी बनाने का आदेश देता है , शिशुपाल सौ गालियाँ देता है, अश्वत्थामा उनकी आज्ञा न मानकर पांडवों के सर्वनाश का कुकृत्य करता है , आदि | ऐसे ही राम के विषय में था ऐसे ही अन्य अवतारों के विषय में है | हनुमान जी को उस समय का अज्ञानी समाज एक साधारण बन्दर समझता था, इतने देवी देवता वानर रीछ आदि रूपों में अवतरित हुए किसने पहचाना ? केवल महातपा ऋषि मुनियों आदि ने ही क्योंकि महान् आध्यात्मिक शक्तियों को जानने के लिए ज्ञाता को स्वयं भी अध्यात्म के सर्वोच्च शिखर पर होना आवश्यक है | तपः पूत , क्रान्तदर्शी ऋषिगण समाधि की अवस्था में समस्त अवतारों के मूल स्वरूप का साक्षात्कार कर फिर उनका उपदेश करते हैं | इतनी हजारों गोपियाँ पूर्वजन्म में महान् ऋषि थीं, अनेक तो देवलोक की अप्सराएं थीं , अनेक वेदमंत्रों की ऋचाएं अवतरित हुईं थी , किसने पहचाना ?
.................. यहाँ तक कि श्री भगवान् तो यहाँ तक स्पष्ट करते हैं कि लोक में जो-जो भी विभूति युक्त अर्थात् ऐश्वर्य युक्त, कान्ति युक्त और शक्ति युक्त वस्तु है, उस- उसको तू (हे अर्जुन !) मेरे तेज़ के अंश की ही अभिव्यक्ति जान -
#यद्यद्विभूतिमत्सत्वं_श्रीमदूर्जितमेव_वा ।
#तत्तदेवावगच्छ_त्वं_मम_तेजोंऽशसंभवम् || (- श्रीमद्भगवद्गीता १० /४१)
इसी प्रकार आज भी अनेक देवी -देवताओं की स्वांश आध्यात्मिक विभूतियाँ आदि प्रायः विविध प्रकार से अवतरित होकर सनातन धर्म की रक्षा , लोकालीला का सम्पादन करते हैं , पर केवल अधिकारी भक्त ही उनका गूढ़ रहस्य समझ पाते हैं , उनकी विभूतियों का दर्शन कर पाते हैं , मूढ़ नहीं | या फिर वही व्यक्ति उनका संज्ञान प्राप्त कर सकता है , जो इन ऋषियों , हम जैसे धर्मज्ञ ब्राह्मणों से ज्ञान का श्रवण करे | अज्ञानी मूढों के लिए तो श्री भगवान् स्वयं कहते हैं -
मूर्ख लोग मेरे सम्पूर्ण प्राणियों के महान् ईश्वररूप श्रेष्ठभाव को न जानते हुए मुझे मनुष्य-शरीर के आश्रित मानकर अर्थात् साधारण मनुष्य मानकर मेरी अवज्ञा करते हैं -
#अवजानन्ति_मां_मूढा_मानुषीं_तनुमाश्रितम् |
#परं_भावमजानन्तो_मम_भूतमहेश्वरम् || (-श्रीमद्भगवद्गीता ९/११)
तुम्हारी भाषा में कहा जाए तो - #शौके_दीदार_गर_है_तो_नजर_पैदा_कर !
हमारी भाषा में - यथा दृष्टिः तथा सृष्टिः #दृष्टिसृष्टिवाद
...............श्रीभगवान् स्वयं कहते हैं - (हे अर्जुन !) अपनी योगमायासे छिपा हुआ मैं सबके प्रत्यक्ष नहीं होता, इसलिए यह अज्ञानी जनसमुदाय मुझ जन्मरहित अविनाशी परमेश्वरको नहीं जानता -
#नाहं_प्रकाशः_सर्वस्य_योगमायासमावृतः |
#मूढोऽयं_नाभिजानाति_लोको_मामजमव्ययम् || (-श्रीमद्भगवद्गीता ७/ २५ )
तो कौन जानता है ? तो कहा - जो उनके भक्त हैं, वे अपनी पराभक्ति के द्वारा परमात्मा को वो जो हैं , जैसे हैं ठीक वैसा तत्व से जानते हैं -
#भक्त्या_मामभिजानाति_यावान्यश्चास्मि_तत्त्वतः | (-श्रीमद्भगवद्गीता १८/५५ )
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आक्षेप - अगर हिन्दू धर्म के अनुसार एक जीवित पत्नी के रहते, दूसरा विवाह अनुचित है, तो फिर राम के पिता दशरथ ने चार विवाह किस नीति अनुसार किये थे?
धज्जियां - किसने कहा अनुचित है ? श्री याज्ञवल्क्य जी जैसे विशुद्ध ब्राह्मण की भी दो पत्नियां (मैत्रेयी और कात्यायनी ) थीं, महायोगीश्वर भगवान् श्री कृष्ण तो सोलह हजार एक सौ आठ पत्नियां थीं | एक उत्तम कृषक के पास जितनी भूमि होगी, वह उससे उतनी फसल उगाएगा , ये तो बहुत अच्छी बात है | अधिकाधिक पुत्र-पौत्रों से सुसम्पन्न होना , खूब दीर्घायु होना ये तो हमारी परम्परा में आशीर्वाद का फल है, कृषक और उसकी भूमि का जो पवित्र सम्बन्ध होता है , वही वैदिक धर्म में पति और पत्नी का होता है |
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आक्षेप - अगर शिव के पुत्र गनेश की गर्दन शिव ने काट दी, तो फिर यह कैसा भगवान है?? जो उस कटी गर्दन को उसी जगह पर क्यों नहीं जोड़ सका?? क्यों एक निरपराध जानवर (हाथी) की हत्या करके उसकी गर्दन गणेश की धढ पर लगाई? एक इंसान के बच्चे के धढ़ पर हाथी की गर्दन कैसे फिट आ गयी?
उत्तर :- आपकी यह सारी कल्पना ईश्वर को मनुष्य देह के समान तुलना करने से उपजी है | पहले आप ईश्वरीय देह की दिव्यता समझिये -
श्री ब्रह्मा जी ने ब्रह्म-संहिता में भगवान के स्वरुप की चर्चा करते हुए कहा है कि श्रीभगवान का श्री विग्रह - आनन्दमय, चिन्मय और सत्-मय होने के कारण परम उज्जवल है; जिस श्रीविग्रह के सारे अंग (अर्थात प्रत्येक इन्द्रिय) समस्त इन्द्रियों की सारी वृत्तियों से संपन्न हैं और जो चिद्-अचिद् अनन्त जगत्समूह का नित्य दर्शन, पालन और नियमन करते हैं-
#अङ्गानि_यस्य_सकलेन्द्रियवृत्तिमन्ति_पश्यन्ति_पान्ति_कलयन्ति_चिरं_जगन्ति |
#आनन्दचिन्मयसदुज्ज्वलविग्रहस्य_गोविन्दमादिपुरुषं_तमहं_भजामि ||(- श्री ब्रह्मसंहिता ५/३२)
#सत्त्वादयो_न_सन्तीशे_यत्र_वै_प्राकृता_गुणाः ( श्रीविष्णुपुराणम्१/९/४४ )
अर्थात् स्पष्ट है कि उसकी तुलना मानवीय देह से कदापि नहीं हो सकती |
श्रीरामचरितमानस स्पष्ट कहती है कि ईश्वर की देह चिदानन्दमय है (यह प्रकृतिजन्य पंच महाभूतों की बनी हुई कर्म बंधनयुक्त, त्रिदेह विशिष्ट मायिक नहीं है) और (उत्पत्ति-नाश, वृद्धि-क्षय आदि) सब विकारों से रहित है, इस रहस्य को अधिकारी पुरुष ही जानते हैं।
ईश्वर ने देवता और संतों के कार्य के लिए (दिव्य) नर शरीर धारण किया है और प्राकृत (प्रकृति के तत्वों से निर्मित देह वाले, साधारण) राजाओं की तरह से कहते और करते हैं-
#चिदानन्दमय_देह_तुम्हारी। #बिगत_बिकार_जान_अधिकारी॥
#नर_तनु_धरेहु_संत_सुर_काजा। #कहहु_करहु_जस_प्राकृत_राजा॥ (- श्रीरामच०मा०, अयोध्याकाण्ड १२६/३)
ये तो मूर्खलोग ही होते हैं जो सगुन साकार ईश्वर को सामान्य मनुष्य शरीर की भांति मानकर उनकी अवज्ञा करते हैं (-श्रीमद्भगवद्गीता ९/११)
ब्राह्मण , गौ , देवताओं और सन्तों के हित के लिए मनुज अवतार लेने वाला उनका श्री विग्रह उनकी ही दिव्य इच्छा शक्ति से निर्मित होता है और माया के सत्त्वादि गुणों तथा भौतिक इन्द्रियों से परे होता है -
#बिप्र_धेनु_सुर_संत_हित_लीन्ह_मनुज_अवतार।
#निज_इच्छा_निर्मित_तनु_माया_गुन_गो_पार।। (- श्रीरामच०मा०, बालकाण्ड १९२)
शास्त्रीय दृष्टि से ईश्वरीय देह के एक एक रोम में ब्रह्माण्ड को समाने की क्षमता है , कहाँ तो आप किसी हाथी के सिर की बात कर रहे हैं //#ब्रह्माण्ड_निकाया_निर्मित_माया_रोम_रोम_प्रति_बेद_कहै (- श्रीरामच०मा०, बालकाण्ड १९२ /// #माया_गुन_ग्यानातीत_अमाना_बेद_पुरान_भनंता (-तत्रैव )//// कार्य सदैव अपने कारण में समाहित हो जाता है , ईश्वर की देह मायाशक्ति की महिमा होने से कारण समस्त कार्यात्मक प्राकृतिक तत्त्वों (तदन्तर्गत पञ्च महाभूत एवं उनसे सृष्ट समस्त पदार्थों ) की कारण स्वरूपा है |
...................अतः ईश्वर के देह को मानवीय देह की भांति समझना कूपमंडूकता है | ईश्वर की योग शक्ति से प्रकट उनके दिव्य देह में कटना , जुड़ना आदि सब घटनाएं ईश्वर की ही माया शक्ति के कारण ही परिलक्षित होते हैं | जैसे जादूगर स्वयं के ही शरीर काट कर पुनः जोड़ लेता है , ऐसे ही ईश्वर की लीला है माया उसका जादू है और वह उससे युक्त मायावी , जैसा कि वेद कहता है -
#माया_तु_प्रकृतिं_विद्धि_मायिनं_तु_महेश्वरम् (- श्वेता० उ०४/१०)
परमेश्वर एक होकर भी अपनी अलौकिक मायाशक्ति से अनेकरूपों में परिलक्षित होता है -
#इन्द्रो_मायाभिः_पुरुरूप_ईयते ” ( ऋग्वेद ६ / ४७ /१८ )
ईश्वर की लीला में सहभागी होने वाला कोई भी जीव उसके पूर्व कर्मों , संस्कारों का वैशिष्ट्य लिए होता है , तभी वह उस लीला का अंग बनताहै , कौन निरपराध है , कौन अपराधी , कौन ग्राह्य है कौन अग्राह्य , इन सब का ध्यान ईश्वर स्वयं रखता है , और तदनुसार ही अपनी लीला का सम्पादन करता है | उसकी लीला में सहभागी होने वाले प्राणी के अनन्त कर्मों का ज्ञाता , उसके भूत , भविष्य एवं वर्त्तमान की सब जिम्मेदारी स्वयं ईश्वर के ही हाथ में है | इतने अनन्त ब्रह्माण्डों में अनन्त जड़ चेतन प्राणियों का प्रतिक्षण संहार , पालन और उद्भव करने की अकेले ही जिम्मेदारी निभाने वाले परम महिमामय श्री भगवान् के लिए एक लोक विशेष के एक हाथी की जिम्मेदारी भी स्वयं की ही है, आपको उसकी चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं | (Y
आक्षेप - जब भी कोइ पापी पाप फैलाता था तो उसका नाश करने के लिये खुद भागवान किसी राजा के यहा जन्म लेते थे फिर 30-35 की उम्र तक जवान होने के बाद वो पापी का नाश करते थे, ऐसा क्यों? पापी का नाश जब भगवान खुद हि कर रहे है तो 30-35 साल का इतना ज्यादा वक्त क्यो??? भगवान सिधे कुछ क्यो नही करते?? जीस प्रकार उन्होने अपने खुद के ही भक्तो का उत्तराखण्ड मे नाश किया ?
धज्जियां :- आपने शास्त्रीय अभिधारणा ठीक से प्राप्त नहीं की है , लगता है कभी विशुद्ध ब्राह्मणों के चरण रज को शिरोधार्य नहीं किया , देखिये अब समझिये इसे गहराई से -
अवतारवाद पर श्रीमद्भगवद्गीता ४/७-८ में दो प्रमुख श्लोक हैं , -
हे भारत ! जब-जब धर्मकी हानि और अधर्मकी वृद्धि होती है, तब-तब मैं अपने आत्मा को सृजता हूँ -
#यदा_यदा_हि_धर्मस्य_ग्लानिर्भवति_भारत |
#अभ्युत्थानमधर्मस्य_तदात्मानं_सृजाम्यहम् ||
फिर इसके आगे कहा कि -
साधु पुरुषोंके की सब ओर से रक्षा के लिए , दुष्कृतियों के विनाशार्थ और धर्म की सम्यक् स्थापना करनेके लिए मैं युग-युगमें प्रकट हुआ करता हूँ -
#परित्राणाय_साधूनां_विनाशाय_च_दुष्कृताम् |
#धर्मसंस्थापनार्थाय_सम्भवामि_युगे_युगे ||
अब यहाँ दो बातें श्रीभगवान् ने अपने अवतार पर स्पष्ट की हैं -
१- यदा यदा (जब-जब ) २- युगे युगे (युग-युग में )
प्रथम श्लोक में श्री भगवान ने स्पष्ट किया कि जब भी धर्म की ग्लानि होगी तो मैं अपने आत्मा का सृजन करूंगा , किन्तु हम देखते हैं कि धर्म की हानि तो अभी भी हो रही है , जैसे आप ही कर रहे हैं ये आक्षेप खड़े करके तो भगवानका अवतार कहाँ हुआ?
तो इसका समाधान स्वयं भगवान दे रहे हैं कि - /// तदात्मानं सृजामि // तब मैं अपनी आत्मा का सृजन करता हूँ ! अब देखो -
भगवान् तो सबके आत्मा हैं , भगवान का आत्मा कौन है भला जिसको सृजित करेंगे ? ...तो इसका उत्तर है कि - #ज्ञानित्वात्मैव_मे_मतम् (श्रीमद्भगवद्गीता ७/१८) अर्थात् ज्ञानी ही श्री भगवान् का आत्मा है , इसी अपने आत्मा को सृष्ट कर देते हैं , जैसे तुम जैसे धर्ममूढों के लिए मैं सृष्ट हूँ | वह ईश्वर का आत्मा स्वयं आकर धर्म का उत्थान कर देगा !
..............आप इतिहास उठाकर देखिये , लोक में जब जब भी धर्म के मूलभूत सिद्धान्तों की हानि हुई और अधर्म वृद्धि को प्राप्त हुआ , तो उस -उस देश , काल या परिस्थिति में तदनुरूप ही कोई न कोई ज्ञानी , कोई न कोई विभूति उन्हीं के मध्य में आयी और उसने उसका शमन कर दिया |
इसीलिए तो श्री भगवान् कहते हैं कि -
भावार्थ : जो-जो भी विभूतियुक्त अर्थात् ऐश्वर्ययुक्त, कान्तियुक्त और शक्तियुक्त वस्तु है, उस-उस को तू मेरे तेज के अंश की ही अभिव्यक्ति जान-
#यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं_श्रीमदूर्जितमेव_वा |
#तत्तदेवावगच्छ_त्वं_मम_तेजोंऽशसम्भवम् || (श्रीमद्भगवद्गीता १०/४१ )
दूसरा युगे युगे है , कि जब अन्धेरा इतना फ़ैल जाएगा कि दीपक से दूर न हो सकेगा तो सूर्य स्वयं प्रकट होगा | इसका स्पष्टीकरण शास्त्रों में प्रसिद्ध ही है कि किस युग में कौन कौन से अवतार होंगे |
................ईश्वर हर पापी को समय देते हैं कि वे सुधारे और अपने पाप का घड़ा भरने से स्वयं को रोके, संभलने का पूर्ण अवसर परमात्मा पापे को पहले ही दे देते हैं , पर पापी जब ईश्वर की प्रेरणा की अवहेलना करता है तो फिर उसका संहार ही आवश्यक होता है | हर असुर का संहार भी स्वयं नहीं करते, जो विशेष (ईश्वर के अनुग्रह के पात्र ) होते हैं वही स्वयं श्री हरि के हाथों द्वारा पराभूत होते हैं |
चींटी को मारने के लिए महाविध्वंसकारी आग्नेयास्त्र का प्रयोग थोड़े न किया जाता है भला ? इसी प्रकार किसी पापी के संहार हेतु ईश्वर का स्वयं का कोई निश्चित आयुकाल नहीं कि इसी में उसका संहार करने में सक्षम हो पायेंगे , वे तो दूधमुंहे बाल्यकाल में भी पूतना , शकटासुर जैसे असुरों को ठिकाने लगाने में परम सिद्धहस्त हैं | ये सब सामने वाले जीव के कर्मों पर निर्भर करता है कि उसका घडा कब भर रहा है |
.............उत्तराखण्ड में जो प्रलय हुआ उसमें भक्तों का नाश नहीं किया , भक्तों को तो बचा लिया उस प्रलय से भगवान ने | शिव भक्त तो उसी उत्तराखण्ड में अब भी सुरक्षित हैं , यदि भक्तों का नाश करना ही प्रलय का उद्देश्य होता तो फिर कोई भक्त कहाँ बचते ? जिनका नाश हुआ , वे सभी ईश्वर की दृष्टि में उस दण्ड के योग्य थे क्योंकि ईश्वर तो अनादिकाल से ही सब प्राणियों के अन्तः करण विराजमान हुआ उनेक जन्म जन्मान्तर के अनन्त कर्मों को जानने वाला साक्षी चैतन्य है |
#कर्माध्यक्षः_सर्वभूताधिवासः_साक्षी_चेता_केवलो_निर्गुणश्च' - (श्वे० उप० ६/११)
(#तान्यहं_वेद_सर्वाणि_न_त्वं_वेत्थ_परन्तप (श्रीमद्भगवद्गीता ४/५ )
।। जयश्री राम ।।