ब्रह्मास्त्र —
स्वशाखा के वेद का ही पाठ करना चाहिए । स्वशाखा अर्थात् स्व−अध्याय का दैनिक अध्ययन ही स्वाध्याय है ।
जबतक स्वशाखा पूरा न सीख लें तबतक वेद की अन्य किसी शाखा का अध्ययन परम्परा नहीं है । पाणिनीय व्याकरण की वैदिकी प्रक्रिया में वेद के सामान्य नियम हैं । शाखाविशेष के विशिष्ट नियम उस शाखा के प्रातिशाख्य में मिलेंगे । सामवेद और यजुर्वेद की किसी शाखा का कोई प्रातिशाख्य मुझे आजतक नहीं मिला (कौथुमी प्रातिशाख्य दो खण्डों में नयी दिल्ली इन्दिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केन्द्र में है),मैंने शाकल ऋग्वेद और माध्यन्दिन वाजसनेयी शुक्ल यजुर्वेद के प्रातिशाख्यों का अध्ययन किया है,ये दोनों प्रकाशित और सुलभ हैं ।
मेरी शाखा है माध्यन्दिन वाजसनेयी शुक्ल यजुर्वेद,किन्तु सभी वैदिकों को शाकल ऋग्वेदीय प्रातिशाख्य का अध्ययन करना ही चाहिए क्योंकि उसमें उच्चारण के उन सामान्य नियमों का विस्तार से वर्णन है जो प्राचीन से लेकर आधुनिक काल तक के संसार के किसी ग्रन्थ में उल्लेख नहीं है ।
जैसे कि “ऋ” का सही उच्चारण । आजकल दक्षिण भारत में “ऋ” को रु उच्चारित करते हैं और उत्तर भारत में रि — दोनों गलत हैं । “ऋ” का सही उच्चारण ऋग्वेदीय प्रातिशाख्य में वर्णित है —- सम्पूर्ण “ऋ” के कुल उच्चारण−काल का चौथाई हिस्सा आरम्भ में संक्षिप्त “अ” है,ऐसा ही “अ” अन्तिम चौथाई काल में है,और बीच में आधा समय “र” है । वेदपाठ में उच्चारण अशुद्ध होने से फल नष्ट होता है ।
किन्तु पूरे भारत में मुझे एक भी वैदिक नहीं मिला जिसने कभी किसी प्रातिशाख्य का अध्ययन किया हो । वे लोग बाल्यावस्था में याज्ञवल्क्य−शिक्षा पढ़ते हैं जिसके पश्चात कोई प्रातिशाख्य कभी नहीं छूते । याज्ञवल्क्य−शिक्षा गुरुकुल के ब्रह्मचारी बटुकों के लिये है किन्तु उसमें भी किसी कमीने ने अश्लील बाते जोड़ दी हैं जो ब्रह्मचारी को पढ़ाना पाप है । ऐसे प्रक्षिप्त अंशों को छोड़ दें तो याज्ञवल्क्य−शिक्षा वेदपाठ सीखने के लिये उत्कृष्ट ग्रन्थ है और वेदाङ्ग में सम्मिलित “शिक्षा” है ।
किसी भी वैदिक शिक्षा−ग्रन्थ अथवा प्रातिशाख्य अथवा व्याकरण में गायत्री के “वरेण्यम्” को “वरेणियम्” पढ़ने का आदेश नहीं है । गायत्री के सहस्रों भेद हैं,उनमें से किसी किसी पाठ में गुरु−परम्परा द्वारा “वरेणियम्” पढ़ने का आदेश है जो उस परम्परा के शिष्यों को मानना चाहिए किन्तु उसे सबके लिए सामान्य नियम नहीं बनाना चाहिए । सन्ध्यावन्दन का आवश्यक अङ्ग गायत्री−जप को माना जाता है क्योंकि गायत्री तीनों वेदों में है जिस कारण गायत्री का दैनिक जप करने से स्वाध्याय का पालन हो जाता है । माध्यन्दिन वाजसनेयी शुक्ल यजुर्वेद के ब्राह्मण−ग्रन्थ “शतपथ ब्राह्मण” का आदेश है कि नियमित स्वाध्याय कर्तव्य है जिसका त्याग केवल अनाध्याय के दिन ही किया जाना चाहिए । अनाध्याय−काल में वेदपाठ वर्जित है,उसका नियम मुहूर्त−चिन्तामणि में मिलेगा ।
वेद के दो भाग हैं — संहिता और ब्राह्मण । आजकल जिन ग्रन्थों को ऋग्वेद,यजुर्वेद,आदि कहा जाता है वे वस्तुतः वेद न होकर संहिता हैं,जैसे कि ऋक्−संहिता । ऋक्−संहिता में ऋचायें हैं,यजुर्वेद नाम से प्रसिद्ध संहिता में यजुः होते हैं,सामवेद नाम की संहिता में साम हैं । गायत्री इन तीनों में हैं किन्तु वर्तनी (स्पेल्लिंग) समान होने पर भी पाठ के नियमों में अन्तर है । अतः गायत्री−ऋचा,गायत्री−यजुः और गायत्री−साम में परस्पर अन्तर है और इनमें भी सहस्रों प्रकार के शाखाभेद हैं । वेद लिखा नहीं जा सकता,वेद श्रुति है जिसे केवल गुरुमुख द्वारा ही सीखा जा सकता है । वेद नाम के प्रकाशित पुस्तकों में वेद का प्राणहीन अस्थिपञ्जर मिलेगा ।
संहिता और उसके ब्राह्मणग्रन्थ को मिलाकर “वेद” कहते हैं । अंग्रेजों ने केवल संहिता को ही वेद कहा और उसमें भी केवल ऋग्वेद को मान्यता दी,जबकि सारी संहितायें एकसाथ यज्ञों में प्रयुक्त होती हैं और यज्ञ का मुख्य वेद ऋग्वेद नहीं वरन् यजुर्वेद है जो आज भी आर्यावर्त के ९५% आर्यों का वेद है । गैर−ब्राह्मण आर्यों का वेद उनके कुलब्राह्मणों का वेद होता है ।
उपरोक्त संहिता ग्रन्थ में वर्णित ऋचा वा यजुस् वा साम को उसी वेद की उसी शाखा के ब्राह्मण−ग्रन्थ में वर्णित विधि द्वारा जब व्यावहारिक प्रयोग हेतु उपयुक्त बनाया जाय तब उसे “मन्त्र” कहते हैं,क्योंकि तब उस मन्त्र में मन के संकल्प को कल्प द्वारा पूर्व में अनुपस्थित अपूर्व फल का उत्पादन करने की शक्ति आ जाती है ।
वैदिक यज्ञ को कल्प कहते हैं । समस्त वैदिक यज्ञों के विस्तृत वर्णन वाले साहित्य को भी कल्प कहते हैं जो वेदाङ्ग में सम्मिलित है । यज्ञ द्वारा जो नवीन फल उत्पन्न होता है उसे मीमांसा की शब्दावली में “अपूर्व” कहते हैं । मन का प्रमुख लक्षण है संकल्प करने की क्षमता । यह क्षमता चौरासी लाख योनियों में से केवल एक ही योनि में होती है,अतः जिस योनि का मन संकल्प करने में समर्थ हो उसे मनुष्य वा मानव कहते हैं । संकल्प सहित कार्य को ही “कर्म” कहा जाता है क्योंकि केवल ऐसा कार्य ही कर्मफल का उत्पादक है । पशु कर्म नहीं करता क्योंकि वह पूर्णतया प्रकृति के अधीन है,स्वेच्छा से संकल्प नहीं कर सकता । उदाहरणार्थ व्याघ्र घास नहीं खा सकता,अतः उसे हिंसा का दोष नहीं लगता । किन्तु मनुष्य को छूट है कि वह शाकाहार करे वा मांसाहार । अतः मनुष्य जैसा कर्म करने का संकल्प लेता है वैसे फल भी उसे भोगने पड़ते हैं । मनुष्ययोनि कर्मयोनि भी है और भोगयोनि भी,अन्य सारे जीव केवल भोगयोनि हैं,पाश में बद्ध होने के कारण पशु हैं ।
मनुष्य एकमात्र योनि है जिसमें शक् द्वारा कश् की लब्धि सम्भव है । शक् का अर्थ है शक्ति प्राप्त करना । कश् का अर्थ है किनारे लगना ।
भवसागर के पार लगकर जो किनारे के जल का पान करे उसे कहते हैं “कश्यप” जो मेरा गोत्र है । यह भौतिक जल नहीं है । इस अप् का फल है पा,अर्थात् पालन के हेतु पदार्थ का पान करना ।
शक्ति प्राप्त करने की विधि है वेद । कोई भी वेदमन्त्र किसी देव वा देवी को समर्पित नहीं हैं,सारे मन्त्र “देवता” को समर्पित हैं जो स्त्रीलिङ्ग है और जिसका अर्थ है दिव्य शक्ति । उदाहरणार्थ किसी सूक्त में इन्द्र नाम के देव की स्तुति है तो उस सूक्त के देवता हैं इन्द्र जिसका अर्थ यह है कि इन्द्र नाम के देव में अन्तर्निहित दिव्य शक्ति को वह सूक्त समर्पित है ।
वेद के दो भाग हैं । पूर्ववेद है कर्मकाण्ड और उत्तरवेद है ज्ञानकाण्ड । पूर्ववेद का वर्णन है पूर्वमीमांसा । उत्तरवेद का वर्णन है उत्तरमीमांसा जिसे वेदान्त वा ब्रह्मसूत्र भी कहते हैं । किन्तु मीमांसा में केवल वर्णन है । वास्तविक वेद की पद्धति है उस शाखा का ब्राह्मण−ग्रन्थ जिसके ज्ञाता व्यक्ति को भी ब्राह्मण कहते हैं । ब्राह्मण को पूर्व और उत्तर दोनों का ज्ञान होना चाहिए । तभी वह यज्ञ में ब्रह्मा बन सकता है । यज्ञ में ब्रह्मा को मौन धारण करके समाधिस्थ रहना पड़ता है क्योंकि अथर्ववेद का पाठ वर्जित है,उसका केवल मानसिक पाठ ही होना चाहिए । अथर्ववेद संकल्पों का संग्रह है । आजकल लोग यज्ञों में मनमाने संकल्प करते हैं और किसी मूर्ख को यज्ञ में ब्रह्मा बना देते हैं,जबकि ब्रह्मा केवल चतुर्वेदी ब्राह्मण ही बन सकता है — जिसने चारों वेदों को विधिपूर्वक सीख और समझ लिया हो ।
इसी कारण शक्ति के दो भेद हैं । द्वितीय भेद है भवसागर के उस पार जाने की शक्ति,जिसके लिये है दक्षिणमार्गी वेदपाठ अर्थात् सामान्य पाठ जिसके द्वारा ज्ञानरूपी मोक्षकारक उत्तरवेद की प्राप्ति हो । प्रथम भेद है वाममार्गी विपरीत पाठ द्वारा संसारिक सिद्धियों की प्राप्ति । जैसे कि ब्रह्मास्त्र ।
कई लोगों ने ब्रह्मास्त्र की जिज्ञासा की है । वसिष्ठ ऋषि द्वारा रचित धनुर्वेद से सातों दिव्यास्त्रों का सम्पूर्ण अस्त्र−अध्याय संलग्न कर रहा हूँ जिसमें मन्त्र का सटीक वर्णन और सिद्धि से लेकर शरसन्धान का वर्णन है । किन्तु सम्पूर्ण सिद्धि की व्यावहारिक पद्धति किसी भी धनुर्वेद में नहीं मिलेगी क्योंकि गायत्री और उससे बनी सावित्री के ऋषि हैं विश्वामित्र । ब्रह्मास्त्र की सिद्धि हेतु एक बैठक में प्राणायामों की संख्या विश्वामित्र−स्मृति में मिलेगी — सोलह प्राणायाम,और हर प्राणायाम में सावित्री मन्त्र कितनी बार और कैसे पढ़ें यह मैंने एक पुराने लेख में लिखा है । सोलह में से आठ वाम नासिका से और आठ दक्षिण । सातों दिव्यास्त्रों में समानता यह है कि केवल सावित्री मन्त्र का ही उपयोग है,और सातों में मन्त्र का विपरीत अर्थात् वाममार्गी पाठ है । सातों दिव्यास्त्रों में अन्तर यह है कि विपरीत मन्त्रपाठ में अक्षरों के क्रम में अन्तर है और सिद्धि हेतु कुल मन्त्रों की संख्या में भी अन्तर है । ब्रह्मास्त्र की सिद्धि हेतु वसिष्ठ ऋषि ने कुल एक निखर्व जप की संख्या का आदेश दिया । कलियुगी पण्डितों ने “निखर्व” पर छ अतिरिक्त शून्य बिठा दिये ताकि कोई भी मनुष्य ब्रह्मास्त्र सिद्ध न कर सके और दो−तीन वर्ष की बजाय बीस−तीस लाख वर्ष लग जाय!वसिष्ठ ऋषि ने छ दिव्यास्त्रों के सावित्री मन्त्र के विशिष्ट विपरीत भेदों का स्पष्ट वर्णन किया जो कि संलग्न चित्र में मिलेगा,किन्तु किसी भी ग्रन्थ में ब्रह्मास्त्र के सावित्री मन्त्र का विस्तृत वर्णन नहीं मिलेगा,वसिष्ठ ऋषि ने भी केवल सङ्केत ही दिया जिसका सही अर्थ तभी लगेगा जब वैदिक छन्दशास्त्र का ज्ञान रहेगा ।
एक पुराने लेख में मैंने वर्णन किया था कि छन्द दो प्रकार के होते हैं — जाति और वृत्त । जाति में मात्राओं की गिनती होती है,वृत्त में अक्षरों की । दिव्यास्त्रों के मन्त्रों में वृत्त है क्योंकि गायत्री के समस्त भेदों में केवल वृत्त की ही मान्यता है । गायत्री छन्द में २४ अक्षर होते हैं,एक न्यून होने से निचृद्−गायत्री छन्द बनता है जिसमें ७−८−८ अक्षरों के तीन चरण वाला एक वृत्त होता है । ब्रह्मास्त्र वाले विपरीत पाठ में अन्तिम अक्षर से आरम्भ करते हुए ८−८−७ अक्षरों के तीन चरण होते हैं । दक्षिणमार्गी आक्षरिक गायत्री है —
तत् स वि तुः व रे ण्यम् ॥ भर् गो दे व स्य धी म हि ॥ धि यो यो नः प्र चो द यात् ॥
ब्रह्मास्त्र की गायत्री है —
यात् द चो प्र नः यो यो धि ॥ हि म धी स्य व दे गो भर् ॥ ण्यम् रे व तुः वि स तत् ॥
आजकल गायत्री में “ॐ आपो⋅⋅⋅⋅⋅⋅⋅⋅⋅” जोड़कर सावित्री का जप करने का प्रचलन है । किन्तु दिव्यास्त्रों में गायत्री में केवल आरम्भ में एक बार “ॐ” जोड़कर सावित्री बनती है । प्रयोगकाल में तान्त्रिक प्रक्षेपव्याहृति भी प्रयुक्त होती है जो ब्रह्मास्त्र के मन्त्र में छूट गया है क्योंकि ब्रह्मास्त्र के बारे में वसिष्ठ धनुर्वेद में कथन है कि यह गर्भसहित सबका नाश करता है;अतः शत्रु का नाम लेना आवश्यक नहीं । किन्तु वसिष्ठ धनुर्वेद में यह उल्लेख छूट गया है कि शत्रुविशेष का नाम लेकर केवल उसके विरुद्ध भी ब्रह्मास्त्र का प्रयोग सम्भव है,जैसा कि समुद्र के विरुद्ध श्रीराम करना चाहते थे अथवा महाभारत में अर्जुन और अश्वत्थामा ने किया । वैसी स्थिति में ब्रह्मास्त्र की प्रक्षेपव्याहृति है “अमुकशत्रूम् हन हन हूं फट्” (अमुक के स्थान पर शत्रु का नाम लें,जैसे कि मेरा,किन्तु तब ब्रह्मास्त्र वापस आपपर ही मुड़ जायगा क्योंकि मेरी कुण्डली में शत्रुहन्ता योग है ।)।
इतना बताने पर भी आप किसी भी दिव्यास्त्र की सिद्धि नहीं कर सकते क्योंकि देवगण कोई न कोई विघ्न डाल देंगे । कारण है दिव्यास्त्र हेतु पात्रता ।