गीता की साँख्यिकी - a statistics - 700 श्लोकों की गीता में धृतराष्ट्र ने केवल 1 श्लोक बोला, सँजय ने 41 बार बोला, अर्जुन 84 बार बोलता है, पूछता है, जो शायद 84 लाख योनियों को सँतुष्ट करने के लिये काफी है, अर्जुन की शब्दावली ही केवल अलग है, उसको कृष्ण से कहलवाना तो एक ही बात है कि "युद्ध न करना ही अच्छा है", तथा कृष्ण 574 बार बोलते हैं जवाब देते हैं जो उनकी धैर्यता की पराकाष्ठा का प्रतीक है, इस तरह से यह 700 श्लोकों की गीता समाप्त हो जाती है केवल पुस्तक में।
हम सभी के वास्तविक जीवन में और जन्म-जन्मान्तर यह गीता सँदेश गूँजता ही रहता है, क्यों कि इसका सँबंध कर्मों और कर्म फल के ग्यान से है जो कभी समाप्त नहीं हो सकता। आप पायेंगे कि धीरे धीरे अर्जुन प्रश्न पूछने के मामले में शिथिल होता जाता है अँत में पूर्ण रूपेण सँतुष्ट दिखाई देता है; जैसे पहले अध्याय में उसके 21 प्रश्न थे जो अंतिम अध्याय में प्रश्न ना होकर उत्तर हो जाते हैं - कि "मुझे स्मृति आ गयी है, मेरा "मोह" नष्ट हो गया है (18-73) अब मैं वही करुंगा जो तुम मुझे आदेश दोगे"।
यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि गीता में "क्षत्रीय" शब्द किसी शरीर आधारित धर्म या जाति के लिये प्रयोग नहीं हुआ है बल्कि देश की रक्षा करने वाले वीर के लिये ही प्रयोग हुआ है, जैसे ब्राम्हण् का कार्य है ग्यान देन, उसी तरह से क्षत्रीय का कार्य है अँतरिक एवम बाहरी शत्रुओं से देश की रक्षा करना। सारे वर्ण इसी आधार पर बने हुए हैं। जो ग्यान दे वह ब्राम्हण, जो रक्षा कर सके वह क्षत्रीय, जो व्यापार करे वह वैश्य और जो सेवा करे वह शूद्र, तो इस अर्थ में तो एक क्षत्रीय भी शूद्र ही होता है क्यों कि वह देश की सेवा करता है, और इस अर्थ में तो गीता के अनुसार सभी शूद्र हो जाते हैं क्यों कि सभी किसी ना किसी सेवा कार्य में व्यस्त रहते हैं।
जीवन भी एक यात्रा ही है, कई मुसाफिर मिलते हैं और बिछड जाते हैं, कई स्टेशन आते हैं और पीछे छूट जाते हैं, सभी अपने अपने गन्तव्य की ओर प्रस्थान कर रहे होते हैं, मुख्य मुद्दा है आत्मारूपी ड्राइवर का सदैव प्रसन्नचित्त रहना फिर यात्रा कितनी ही लंबी क्यों ना हो अखरती नहीं, खास करके यदि कोई अच्छा साथी भी मिल जाये इस यात्रा में तो सोने पे सुहागा।
गीता के सभी उपदेश इसी जीवन रूपी यात्रा को सुखद, और मंगलमय बनाने के लिये ही हैं, दुखों से छुडाने के लिये ही हैं।
अध्याय 1 से 5 तक जीवन की योजना क्या हो कैसी हो इस बारे में सुंदर मार्ग दर्शन मिलता है जीवन के महासिद्धांत और उनका पालन कैसे करें इसकी रूप रेखा की सुंदर चर्चा ग्यान योग, कर्म योग के द्वारा।
अध्याय 6 से 11 तक भक्ति की चर्चा है अलग अलग ढंग से और "गीता" के अनुसार भक्ति अर्थात "प्रेम" या कहें हम जो भी कार्य करते हैं उसे यदि पूरी तरह से इन्वौल्व होकर के करें उसमें पूरी आत्मा उंडेलें अपनी, तो उसे ही भक्ति योग कहा है,
तथा अध्याय् 11 में साक्षात भक्ति के दर्शन विश्वरूप दर्शन योग के माध्यम से हो जाते हैं।
12 वें अध्याय में साकार निराकार भक्तों के 39 लक्षण और तुलनात्मक अध्ययन्। भगवान की भक्ति करने वालों के लिये एक दर्पण या आईना है यह अध्याय, जो हमारी आँखें भी खोल सकता है और हम शर्म से पानी पानी भी हो सकते हैं यदि हम देखें कि दिये हुए लक्षणों या गुणों में से हम में अधिकतर गुण नदारद हैं या कहें एकभी लक्षण नहीं है तो।
13वें अध्याय में ग्यान का महत्वपूर्ण विभाग - आत्मा को शरीर से प्रथक करने के बारे में ही है तथा कर्म फल में अनासक्ति का सुंदर वर्णन।
14 वां अध्याय सतो रजो तमो गुणों से अतीत बनने का नुस्खा बताता है।
15वां अध्याय तो भगवान के अनुसार एक शास्त्र ही है जिसमें जीवन की पूर्णता समाई हुई है- देखें अंतिम श्लोक 20वां - इतिगुह्यतमम शास्त्रं...।
16वां अध्याय - भलाई बुराई के बारे में, अर्थात जीवन में क्या छोडना और क्या पकडना चाहिये इसकी सुंदर व्याख्या करता है। 26 दैवी गुण धारण करने के लिये प्रेरणा, और यदि एक भी अच्छे से धारण कर लिया तो भी बेडा पार समझें क्यों कि बाकी उसके पीछे पीछे चले आयेंगे और जीवन सरल हो जायेगा।
17वां अध्याय जीवन का कार्यक्रम सुचारू रूप से चलाने के बारे में है और यह कि हम ऋण मुक्त कैसे हों।
18वां अध्याय पटाक्षेप और सभी पिछले 17 अध्यायों का सार है, और इसी अध्याय में भगवान ने कहा है कि - "मरने के बाद तो सभी मुझे प्यारे हो ही जाते हैं जैसा कि आप लोग भी कहते ही हो ना (मरने के बाद कहते हैं ना कि भगवान को प्यारा हो गया), किंतु मुझे इस पृथ्वी पर उससे अधिक प्यारा और कोई नहीं हो सकता जो "जीते जी" इस गीता ग्यान का प्रचार प्रसार मानव कल्याण के लिये करेगा (न च तस्मान्मनुश्येशू....18/69)।
इसीलिये मैंने जीते जी भगवान का प्यारा होने की ठानी है, मरने के बाद की कौन जाने ? मरने के बाद आजतक कोई भी बताने नहीं आया —
हम सभी के वास्तविक जीवन में और जन्म-जन्मान्तर यह गीता सँदेश गूँजता ही रहता है, क्यों कि इसका सँबंध कर्मों और कर्म फल के ग्यान से है जो कभी समाप्त नहीं हो सकता। आप पायेंगे कि धीरे धीरे अर्जुन प्रश्न पूछने के मामले में शिथिल होता जाता है अँत में पूर्ण रूपेण सँतुष्ट दिखाई देता है; जैसे पहले अध्याय में उसके 21 प्रश्न थे जो अंतिम अध्याय में प्रश्न ना होकर उत्तर हो जाते हैं - कि "मुझे स्मृति आ गयी है, मेरा "मोह" नष्ट हो गया है (18-73) अब मैं वही करुंगा जो तुम मुझे आदेश दोगे"।
यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि गीता में "क्षत्रीय" शब्द किसी शरीर आधारित धर्म या जाति के लिये प्रयोग नहीं हुआ है बल्कि देश की रक्षा करने वाले वीर के लिये ही प्रयोग हुआ है, जैसे ब्राम्हण् का कार्य है ग्यान देन, उसी तरह से क्षत्रीय का कार्य है अँतरिक एवम बाहरी शत्रुओं से देश की रक्षा करना। सारे वर्ण इसी आधार पर बने हुए हैं। जो ग्यान दे वह ब्राम्हण, जो रक्षा कर सके वह क्षत्रीय, जो व्यापार करे वह वैश्य और जो सेवा करे वह शूद्र, तो इस अर्थ में तो एक क्षत्रीय भी शूद्र ही होता है क्यों कि वह देश की सेवा करता है, और इस अर्थ में तो गीता के अनुसार सभी शूद्र हो जाते हैं क्यों कि सभी किसी ना किसी सेवा कार्य में व्यस्त रहते हैं।
जीवन भी एक यात्रा ही है, कई मुसाफिर मिलते हैं और बिछड जाते हैं, कई स्टेशन आते हैं और पीछे छूट जाते हैं, सभी अपने अपने गन्तव्य की ओर प्रस्थान कर रहे होते हैं, मुख्य मुद्दा है आत्मारूपी ड्राइवर का सदैव प्रसन्नचित्त रहना फिर यात्रा कितनी ही लंबी क्यों ना हो अखरती नहीं, खास करके यदि कोई अच्छा साथी भी मिल जाये इस यात्रा में तो सोने पे सुहागा।
गीता के सभी उपदेश इसी जीवन रूपी यात्रा को सुखद, और मंगलमय बनाने के लिये ही हैं, दुखों से छुडाने के लिये ही हैं।
अध्याय 1 से 5 तक जीवन की योजना क्या हो कैसी हो इस बारे में सुंदर मार्ग दर्शन मिलता है जीवन के महासिद्धांत और उनका पालन कैसे करें इसकी रूप रेखा की सुंदर चर्चा ग्यान योग, कर्म योग के द्वारा।
अध्याय 6 से 11 तक भक्ति की चर्चा है अलग अलग ढंग से और "गीता" के अनुसार भक्ति अर्थात "प्रेम" या कहें हम जो भी कार्य करते हैं उसे यदि पूरी तरह से इन्वौल्व होकर के करें उसमें पूरी आत्मा उंडेलें अपनी, तो उसे ही भक्ति योग कहा है,
तथा अध्याय् 11 में साक्षात भक्ति के दर्शन विश्वरूप दर्शन योग के माध्यम से हो जाते हैं।
12 वें अध्याय में साकार निराकार भक्तों के 39 लक्षण और तुलनात्मक अध्ययन्। भगवान की भक्ति करने वालों के लिये एक दर्पण या आईना है यह अध्याय, जो हमारी आँखें भी खोल सकता है और हम शर्म से पानी पानी भी हो सकते हैं यदि हम देखें कि दिये हुए लक्षणों या गुणों में से हम में अधिकतर गुण नदारद हैं या कहें एकभी लक्षण नहीं है तो।
13वें अध्याय में ग्यान का महत्वपूर्ण विभाग - आत्मा को शरीर से प्रथक करने के बारे में ही है तथा कर्म फल में अनासक्ति का सुंदर वर्णन।
14 वां अध्याय सतो रजो तमो गुणों से अतीत बनने का नुस्खा बताता है।
15वां अध्याय तो भगवान के अनुसार एक शास्त्र ही है जिसमें जीवन की पूर्णता समाई हुई है- देखें अंतिम श्लोक 20वां - इतिगुह्यतमम शास्त्रं...।
16वां अध्याय - भलाई बुराई के बारे में, अर्थात जीवन में क्या छोडना और क्या पकडना चाहिये इसकी सुंदर व्याख्या करता है। 26 दैवी गुण धारण करने के लिये प्रेरणा, और यदि एक भी अच्छे से धारण कर लिया तो भी बेडा पार समझें क्यों कि बाकी उसके पीछे पीछे चले आयेंगे और जीवन सरल हो जायेगा।
17वां अध्याय जीवन का कार्यक्रम सुचारू रूप से चलाने के बारे में है और यह कि हम ऋण मुक्त कैसे हों।
18वां अध्याय पटाक्षेप और सभी पिछले 17 अध्यायों का सार है, और इसी अध्याय में भगवान ने कहा है कि - "मरने के बाद तो सभी मुझे प्यारे हो ही जाते हैं जैसा कि आप लोग भी कहते ही हो ना (मरने के बाद कहते हैं ना कि भगवान को प्यारा हो गया), किंतु मुझे इस पृथ्वी पर उससे अधिक प्यारा और कोई नहीं हो सकता जो "जीते जी" इस गीता ग्यान का प्रचार प्रसार मानव कल्याण के लिये करेगा (न च तस्मान्मनुश्येशू....18/69)।
इसीलिये मैंने जीते जी भगवान का प्यारा होने की ठानी है, मरने के बाद की कौन जाने ? मरने के बाद आजतक कोई भी बताने नहीं आया —